रविवार, 31 अक्तूबर 2010

वाकई वो बहुत दुखद समय था..

मेरे घर के बराबर में एक छोटी सी पार्कनुमा जगह है जहाँ अक्सर अंकल जी टाइप कुछ लोग बैठे मिलते है वो अक्सर समसामयिक मुद्दों पर बात करने के लिए लालायित रहते हैं और अगर उन्हें कोई ऐसा बन्दा मिल जाए जो थोड़ा बहुत पढ़-लिख रहा हो और उनके पास कम बैठता हो तो वो ऐसे मौके को गँवाये बिना उसे अपने पास बुला लेते है और सुबह पढ़े गए अखबारो की भड़ास उस पर निकालते हैं मैं ये बात जानता था लेकिन तब भी उनके पास बैठना मुझे अच्छा लगता था क्योंकि वो बहुत भावुक थे और उनकी भावुकता में एक ईमानदारी थी जिसका मैं हमेशा से क़ायल रहा हूँ (आप- कुछ घायल भी कह सकते हैं) खैर तो कल भी यही हुआ मैं किसी काम से निकल रहा था और उन्होंने आवाज़ दी मैंने अनसुना किया उन्होंने फिर दोहराया और फिर वही........ मैं अपने आप को नहीं रोक सका। बाते चलीं-- डी.टी.सी. की किराया वृद्धि, जयपुर में लगी आग, खजूरी वाला केस......................, और क्या चल रहा है जैसे बातों से होकर।
यक-ब-यक मुद्दा पच्चीस साल पहले चला गया। तुम्हें पता है पच्चीस साल पहले क्या हुआ था? मुझे वल्ड कप का ख्याल आया और मेरी आँखों में कपिल देव की वल्ड कप उठाए तस्वीर घूम गयी लेकिन मैं चुप रहा क्योंकि उनके इस प्रश्न में खुशी नहीं एक दुख-सा कुछ दिख रहा था। कुछ सैकेंड एक अजब सी खामोशी पसर गयी थी जैसे वो मेरे जवाब का इंतज़ार कर रहे हों और मैं उनके। आज ही के दिन इंदिरा की हत्या हुई थी उन्होंने इंदिरा ऐसे कहा जैसे वो उनके घर की कोई सदस्या हो जिससे उन्हें गहरा लगाव[Image] रहा हो। कोई माननीय जैसा संबोधन नहीं।------ क्यों? मेरे मन में ये सवाल उठ रहा था। मैं चुप रहा आज में उनसे बहस नहीं करना चाहता था। फिर एकाएक एक दूसरे अंकल जी ने कहा बेटा हमारे लिये तो भगवान थी वो। अब में चुप नहीं रह पाया मैंने कहा अंकल जी उन्होंने इमरजेंसी लगवाई, अपने बेटे को नसबंदी का निरंकुश अधिकार दे दिया ......वो सब ठीक है पर तुझे पता है जहाँ आज तू बैठा है जहाँ तू रहता हैं वो सब उसी की बदौलत हैं। मैंने ऐसा कुछ अपने पापा से पहले भी सुन रखा था। पता है हम लोग पदम नगर, जहां तेरी वो हिंदी वाली...क्या कहते हैं उसे, वो जो अंधा मुगल के पास है(हिंदी अकादमी-मैंने कहा) हां वही, तुझे पता है अशोक(मेरे पापा) अंधा मुगल में ही पढ़ता था वहीं हम सबकी झुग्गियाँ थीं सब गरीबी हटाओ के नाम पर गरीबों को हटा रहे थे लेकिन उसने हमें पच्चीस-पच्चीस ग़ज़ के मकान दिये जहाँ आज हम रहते हैं और ये जो मंगोल पुरी. जहाँगीर पुरी, सुल्तान पुरी नंद नगरी जैसी कॉलोनियाँ आज हैं ये सब उसी की देन हैं तभी तो यहाँ से कॉग्रेस ही ज्यादातर जीतती [Image]हैं। मैंने कहा- हत्या के बाद इतने लोगों को मार देना और दंगे की आड़ में अपनी हवस पूरी करना। क्या ये बहुत शाबाशी का काम था? क्या आप जैसे कई लोग उनमें शरीक़ नहीं थे .... ? नहीं नहीं, इसका मतलब तुम हक़ीक़त से वाकिफ नहीं हो तुम्हें पता है हम लोगों ने कई सिक्खों को अपने घरों में जगह दी थी उनसे हमारी आज भी मुलाक़ात होती है उन लोगों ने अपने बाल तक कटवा लिये थे उस दौरान.। बड़ा खतरनाक संमय था वो।

दरअसल यहाँ से सटे बोर्डर के इलाकों में ये कांड ज़्यादा हुआ था और ये जो बोर्डर के लोग रईस बने बैठें हैं ना आज इनमें बहुत से ऐसे हैं जिन्होंने सिक्खों को मारकर उनकी ज़मीनें हथिया ली थीं। जिनके वे आज मालिक हैं। वाकई बहुत डरावना समय था वो। तेरे पापा तो मरते-मरते बचे थे उस दिन। हुआ यो कि अशोक सुबह छ बजे घर से निकलता और देर रात घर लौटता था उस वक्त। जिस दिन इंदिरा मरी उस दिन इस खबर को राजीव गाँधी के बंगाल से दिल्ली लौटने तक दबाये रखा गया। देर शाम इंदिरा के मरने की खबर रेडिया पर आई तब अशोक पैरिस ब्यूटी(करोल बाग़) में था उसे ये खबर नही मिली थी उन दिनो वजीराबाद का इलाका ऐसा नहीं था जैसा आज हैं वहाँ सुनसान रहता था आबादी के नाम पर परिंदा भी नहीं। खजूरी, भजनपुरा, यमुना विहार सिंगल रोड़। रोड़ के दोनो ओर बड़े-बड़े खाईनुमा गड्ढे़। रात ग्यारह-बारह का समय। वो लौट रहा था शोर्ट कट के लिये उसने खेतों का रास्ता चुना तभी एक आदमी से खबर लगी इंदिरा को मार दिया और साथ ही दंगो की भी खबर लगी वो किस तरह से घर लौटा ये तुम उससे ही पूछना........बड़ा दुखद समय था वो।ये सब उसी ने हमें बताया था। सबके चेहरे पर वही खामोशी फिर से....।

मुझे समझ नहीं आ रहा था कि ये लोग समसामयिक मुद्दों पर सरकार की बखिया उधेड़ने वाले, अभी कल ही तो डी.टी.सी के रेट बढ़ने पर कॉग्रेस को गालियाँ दे रहे थे। ये पच्चीस साल पहले कहाँ चले गए। लेकिन सच उनकी भावुकता में एक ईमानदारी थी जिसमें ये सवाल भी था कि आज कॉग्रेस के चुनावी पोस्टरों में सोनिया,राजीव तो दिख जाएंगे इंदिरा गाँधी कहाँ ग़ुम हो जाती है। चलो बेटा तुम काम करो हमने खा[Image]मखाँ तुम्हारा टाइम ले लिया जाओ पढ़ाई करो ..............बड़ा ही लायक बच्चा है.............मेरे चल देने पर किसी ने धीरे से कहा। खैर उनकी बातों ने मुझमें भी उस दौर को समझने के लिये इच्छा जगा दी थी। सो, नेट पर बी. बी.सी खोला और वहाँ सतीश जैकब और आनंद सहाय का ऑडियो सुना(सतीश जैकब वही रिपोर्टर है जिन्होंने बी.बी.सी को सबसे पहले ये खबर दी थी) , मार्क टली, शेषाद्री चारी, सुमित चक्रवर्ती के बीबीसी में और रामचन्द्र गुहा का दैनिक भास्कर में छपा लेख पढा; लगा उस दौर की सच्ची रिपोर्टिंग तो यही लोग कर रहें है जो गली-मोहल्लों में उस अनुभव की बदहवासी को अपने सीने में अब तक दफन किये हुए हैं वो बताना चाहते हैं लेकिन हमारे पास सुनने का समय ही नही हैं। सच.............
लेबल: गाँधी परिवार
1 टिप्पणी १-११-०९ तरुण गुप्ता के द्वारा
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शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

वो बचपन बहुत बहादुर था

अभी मैं अपनी ज़िन्दगी के सत्ताईसवें वर्ष में हूँ पर जीवन में बचपन रह रहके लौटता है हमारी जवानी हमारा बुढ़ापा बार बार बचपन की तरफ लौटता है।

मैं तुम्हें अपने बचपन का एक संस्मरण सुनाता हूँ। मेरे घर के पास ही एक पीपल का पेड़ है उसी के बराबर में एक और पेड़ हुआ करता था जो हमारे बचपन ने लटक लटक कर तोड़ दिया, जिससे बाला की अम्मा ने हमारे बचपन को बाँधने की कोशिश की थी। पर बचपन कहाँ बँधने वाला है वो तो जेठ की दोपहरियों में जब सभी बच्चों की माएँ अपने अपने घरों में सो रहीं होती थीं तब हम नहर पर जाने या इस पीपल पर चढ़ने को तिलमिला रहे होते थे।
ऐसे ना जाने कितने किस्से मुझे याद हैं। एक किस्सा वो जब मेरा भाई भैंस की पीठ पर बैठा था और एक दम से भैंस खड़ी हो गयी थी गूमड़ा निकल आया था सिर में। इस डर से कि माँ मारेगी ‘गुल्ली लग गयी है’ कह दिया था उसने।

मेरा भाई मुझसे ज़्यादा शरारती था। मेरे घर के छज्जे के बिल्कुल नीचे एक टांड हुआ करती थी जिस पर हम अपने कंचे, लट्टू और गुल्ली-डंडा जैसे साज़ो सामान रखा करते थे। हम सभी भाई-बहन पापा से बहुत डरते थे। पार्क में जाने के लिए पापा के काम पर जाने का इंतज़ार करने में ही हमारा वक़्त बीतता था। पापा के जाते ही हमारा सारा साज़ो-सामान निकल आता।

हुआ यों कि एक बार भाई नक्के-दुए(खड़क्कास) में कुछ ज़्यादा ही कंचे हार गया था कंचे लेने बो टांड पर चढ़ना चाहता था। शाम का वक्त था पापा के आने का वक़्त हो रहा था। उसने खाट लगाई और उसके सहारे टांड पर चढ़ गया। मैं उससे चिढ़ता था इसलिए मैंने खाट बिछा दी ताकि वो उतर ना सके। इतने में ही पापा आते दिखे। मैं खुश था कि भैया की पिटाई होगी उसका सारा ख़ज़ाना नीलाम हो जाएगा। पर हर बार की तरह भाई ने मुझे इस जुगत मे भी मात दे दी। जब उसने देखा कि उतरने का कोई और जुगाड़ नहीं है तो उसने ‘जय हनुमान जी की’ कहके छलाँग लगा दी। खाट चारो खाने चित्त हो गयी उसके चारों पाए टूट गये और उसकी बान(रस्सी) ज़मीन से आ लगी। भाई को चोटें भी आई। कोहनी और घुटनों से खून भी निकला, पर वो बचपन कुछ ऐसा था कि जैसे बहादुरी और जुनून कूट कूट कर भरा गया हो हममे। पर असल बात ये है कि घर में चोट दिखाने या उससे डॉक्टर से ठीक कराने का रिवाज़ ही नहीं था। छोटी मोटी चोटों का इलाज तो हम मिट्टी, थूक या बीड़ी के बंडल के क़ाग़ज़ को लगाकर कर लिया करते थे। वो बचपन बहुत बहादुर था ।

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

"वो मेरी जवानी की पैदाइश के दिन .."

वो मेरी जवानी की पैदाइश के दिन थे जब मैंने पहली बार पीछे से उसे देखा था और मैं उसके प्यार में गिर गया था। लोग प्यार में आँखों से दिल में उतरते हैं मैं पीठ से आँखों की तरफ जा रहा था। दिल के बारे में मैंने सोचा ही नहीं।
बस सब दोस्तों की तरह अपनी भी एक बंदी हो, यही था ‘जीवन का एक माञ लक्ष्य।‘ रात में जवानी हिचकौले मारती थी सुबह प्रमाण मिलते थे। वो वाकई मेरी जवानी की पैदाइश के दिन थे जिस दिन हमारे प्री-बोर्ड थे उस दिन पूनम की आँख मुझसे मिल गयी थी और मेरी जबानी पैदा हुई थी उस वक़्त मैं इतना ईमानदार था कि पेपर में आया निबंध ‘मेरे जीवन का लक्ष्य’ मैंने पूरे तीन घंटों तक लिखा था ऐसा पहली बार हुआ था जब मैं पूरे तीन घंटे तक पेपर करता रहा था। दोस्त परेशान थे साला कहता था ‘कुछ नहीं पढ़ा अब कैसा लिखे जा रहा है’ – बाहर मिल बच्चू।


पर मुझे क्या. ‘मेरे जीवन का लक्ष्य’ उन आँखों में था जो आज मिल गयी थी मुझे। मेरी इस नयी नवेली जवानी ने अपनी आँखें अभी मूँद रखी थीं। सपनो में भी पूनम- यह क्या था. ओह पूनम , कम एंड हग मी, आई वान्ना किस यू- आई लब यू। प्यार के नाम पर यही शब्द आते थे मुझे। जो मैंने रात रात भर स्टार मूवीज़ और एच.बी.ओ को देख देखकर सीखे थे। उस दौरान मैं हिंदी फिल्मों को पसंद नहीं करता था और न ही दूरदर्शन को, ये मुझे प्यार के नाम पर दो फूलों को हिलते-मिलते दिखाते थे जबकि मैं कुछ और ज़्यादा की आस(प्यास) लगाये था जो कुछ हद तक अंग्रेज़ी चैनल पूरी करते थे। यह सब क्या था आज बड़ा अजीब सा लगता है। उन रातों में एक अजीब सी बदहवासी थी लेकिन जाने क्यों वो बहुत ईमानदार रातें थीं।


रात की सारी कामुक थकान हम दोस्त लोग बेतकल्लुफी से एक दूसरे से बयाँ करते थे। ‘मेरे सपने में कल पूनम आई थी’ मैंने बंटी को बता दिया था और बंटी ने खुश्क़ी ली थी वाह बेटा तेरी तो निकल पड़ी...। सब हँस पड़े थे और मैं ग्लानिबोध से पीड़ित था। मन ही मन ठान लिया था कि इन सालों को अब कुछ नहीं बताना। ये मेरी नवजात जवानी की किशोरावस्था के दिन थे और साथ ही मेरी ईमानदारी के बेईमान बनने के भी। उस दिन के बाद से मैंने दोस्तों से सपने(पूनम) की बातें शेयर करना बंद कर दिया था। शायद अब मैं जवान बन रहा था। हमारे मोहल्ले में चर्चा था कि सुशील राय का बेटा अब समझदार हो गया है। समझदार क्या, कुछ ज़्यादा ही अंतर्मुखी हो गया था सारा सारा दिन कमरे में लेटा रहता, अंधेरे बंद कमरे में अपने को मज़ा आने लगा। दोस्तों की रंगीनीयत से घिन सी हो गयी थी। रात रात भर नींद नहीं आती थी।
एक रात हमारी सामने वाली पड़ोसन रात तीन बजे पानी भरने उठी तो उसने मुझे जगा पाया। उसे लगा मैं तीन बजे तक पढ़ रहा हूँ। दरअसल वह पहली रात थी जब मैं तीन बजे तक जगा था क्योंकि सुबह बंटी को लोलिता वापिस करनी थी। खैर मेरे रात में पढ़ने की खबर पूरी गली में आग की तरह फैल चुकी थी। घरवाले खुश थे पर मैं दिन ब दिन अपने आप में सिमटता जा रहा था।


मुझे सब याद है उस दौरान हमारी कॉलोनी में लाइट चली जाया करती थी और मैं अंधेरे कमरों में बैठा पूनम को खोजा करता था। मेरा बचपन चार्ली चैप्लिन को देखते बीता था और मेरी जवानी ने डिस्कवरी पर हिटलर को देखा था दोनों प्रेमी थे दीवानगी की हद तक। मैं भी प्रेमी था दीवानगी की हद तक। पर ना तो चैप्लिन बन सकता था और ना ही हिटलर। दोनों की मूँछे(छोटी) थीं और मुझे मूँछें बिल्कुल पसंद ना थीं मैं बिना मूँछों का रहना चाहता था जबकि मूँछें हमारे खानदान की शान हुआ करतीं थीं। दरअसल पूनम को भी मूँछों वाले लड़कों से सख्त नफरत थी। उसका बाप उसे बहुत मारता था। उसका भाई उस पर बंदिशें लगाता था। दोनों की ही मूँछें थीं। उसे मूँछों से सख्त नफरत थी। मैं उसे अपने दिल की रानी मान बैठा था, सो उसकी नफरत से मुझे प्यार कैसे हो सकता था। खैर मैंने प्रतिज्ञा ली कि अब चाहे घर छूटे या माँ रूठे पर मैं ताउम्र मूँछें नहीं रखूँगा।


वो चौदह फरवरी का दिन था जब मैंने पूनम के गालों का स्वाद चखने के लिए उसे पार्क के पीछे मेदिर के पास बुलाया था। मुझे आज भी याद है वो लाल सूट पहनकर, दो चोटी करके और बालो में खूब सारा तेल डाल कर आई थी लेकिन तब भी वो मेरे सपनों की रानी थी मेरे लिए दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की। उसके गाल ऐसे चिकने थे कि हवा उसे छूने से पहले ही रपट जाती थी। आँखें ऐसी कोहिनूरी थीं कि जी करता काश ये दो कंचे मेरे पास होते और फिर मैं अपनी जान लड़ा देता लेकिन इन्हें किसी महारानी के ताज में नहीं सजने देता।


खैर मंदिर के पीछे जहाँ का माहौल बिल्कुल भी रोमेंटिक ना था। मैंने उसे बुलाया। अपने गमले से तोड़ा एक फूल भी मेरे हाथ में था जिसे मैंने छिपाने के लिए अपनी जेब में डाल लिया था। दस मिनट बाद वो आई। वो दस मिनट मुझे आर. के. शर्मा के एक घंटे के पीरियड के समान लगे थे। वो आई और ‘भाई पीछे है हम कल मिलेंगे’ कहकर चली गयी। ना जाने उस दिन मुझे क्या हो गया था मैंने उसका पीछा किया और ये देखकर के पीछे कोई नहीं है उसका हाथ पकड़ लिया। ऐसा लगा जैसे कोई रूई का बंडल हो, वह काँप रही थी। डर से उसके गाल लाल हो गये थे। तब जबरन मैंने उसके गालो को चूमा(चाटा) था और वह भाग गयी थी तब उसी तरह का था मैं। जेब में रखा फूल चपटा होकर बिखर गया था। आज तक वो स्वाद मेरी ज़बान पर रखा है। उस दिन मेरी जवानी वयस्क हो गयी थी और मैंने पहली बार ‘स्मूच कैसे करते है?’ ये सवाल बंटी से पूछा था। बंटी ने मुझे ‘मोरनिंग शो’ दिखाया था। फिल्म का नाम ‘भरी जवानी’ जैसा कुछ था इस ‘मोरनिंग शो’ की बदौलत रात की बदहवासी बेचैनी में बदल गयी थी उन बेचैन रातों में भावी संतानो की हत्या हुई इस ग्लानिबोध को लेकर मेरी सुबह हुई थी।

‘मेरे जीवन लक्ष्य’ की बदौलत मैं फेल हो गया था और दोस्त मेरी खिल्ली उड़ा रहे थे ‘देख लिया गद्दारी का नतीजा।‘ उस दिन मुझे पहली बार लगा था कि दुनिया में दोस्त जैसी कोई चीज़ नहीं होती।