मंगलवार, 10 मई 2011

माँ

माँ न बोलती है न सुनती है।
दरवाज़े बंद पर भीतर नसों के जाल मे झनझनाती चुप्पी
बाहर एक चमक में लिख जाती है
सूखी ज़मीन माँ ऐसी नहीं।
व्यवहार के साधारण अर्थ भी भूल चुकीं
बुखार में कलेजे के टुकड़े तक फूँके जाते हैं

माँ पूछती है क्या करने जाएँ वहाँ ?
हर तरफ गुपचुप पगुराते ओंठ है और
चौखट पर दूर से ही पाँवों की घिसटन सुनाई पड़ती है-
कोई शब्द कहीं फिसल पड़ा है
माँ उसे उठाकर शब्द के पास ही रख देती है ज्यों का त्यों
फिर हमारे पास आकर बैठ जाती है माँ खोती भी नहीं।
अपनी याददाश्त हमारे चेहरों की
हाँ आँखें उनकी खो चुकी हैं वह कुछ जो सिर्फ हमारा होकर
रह गया है माँ ने उसे नहीं सृजा
तपिश
और उसमें से फूटती जलती ज़मीन की साँस।
(मलयज)