शनिवार, 9 जुलाई 2011

संस्कारगत विवेक और डैली बैली




अनुवादों की उपयोगिता और महत्व को हम स्वीकारते रहें है पर डैली बैली देखने के बाद यह बात और पुख्ता हो जाती है कि कैसे अंग्रेजी संवाद या शब्द फूहड़ता(अर्थ) को ढ़क लेते हैं और हमारे विवेक को कोई झटका नहीं लगता लेकिन दूसरे ही क्षण उसका हिंदी तर्जुमा हमारे संस्कारों को जबरदस्त धक्का देता है, क्यों? क्यों अंग्रेजी का फ़क़ शब्द हमें उस तरह से नहीं झिंझोड़ता जिस तरह से इसका हिंदी रूपांतर। उर्फ प्रोफेसर में दुल्हन के द्वारा हम इस तरह का एक संवाद सुन चुके हैं बारह इंच का... खैर डैली बैली को लेके चलने वाली बहस इसी समस्या की वजह से ज्यादा उभार पा रही है मेरा मानना है कि इसे असभ्य और फूहड़ मानने वाले लोगों(या जो लोग इस फिल्म के अधिकतर संवादों से अपना तालमेल नहीं बैठा पा रहे) को इसके मूल टैक्स्ट(वॉइस) में इस फिल्म को देखना(सुनना) चाहिए। फिल्म की अपेक्षा इसका हिंदी रूपांतर हमारे विवेक को अधिक संस्कारगत धक्का पहुँचा रहा है।



मैंने अमेरिकन पाई सीरीज़ की अधिकतर फिल्में डाउनलोड करके देखीं हैं और ये मेरी पसंदीदा कॉमेडी(ए़डल्ट) में शामिल हैं मैं जब भी इस सीरीज़ की फिल्मों खासकर बुक ऑफ लव, होल इन वन को देखा करता मेरे जेहन में ये खयाल(सवाल) बार बार कौंधता कि क्या हिंदी सिनेमा में कोई इस तरह की कोशिश करने की हिम्मत दिखाएगा। आप यकीन जानिये मैंने अपनी कई महिला मित्रों के साथ इस सीरीज़ पर चर्चा की हैं कहीं मेरे संस्कारगत विवेक को धक्का नहीं महसूस हुआ और यह भी सच है कि मैं उन फिल्मो को अपने परिवार के साथ देखना पसंद नहीं करुँगा(इस परिबार में गर्लफ्रैंड या पत्नी शामिल नहीं है।)आमिर ने यह हिम्मत दिखाई है। मुझे लगता है कि ये अमेरिकन पाई सीरीज़ का ही भारतीय रूपातंर है, उस दर्जे की न सही। लेकिन अब वही लोग इसका विरोध करने में लगें हैं जो इस सीरिज़ को डाउनलोड करके देखा करते हैं। सिनेमा के शुरु से ही हिंदी फिल्मों में हत्या, लूटपाट जैसे दृश्य दिखाये जाते हैं जो बहुत लोगों को आपत्तिजनक लगते हो, सनद रहे कि इन फिल्मों को कोई (ए) नहीं मिला होता और न ही इनके निर्देशक इस बिहाफ पर कोई रिस्क या हिम्मत दिखाने को तैयार हैं।
मुझे ये बात बिल्कुल भी समझ नहीं आती कि क्या हम लोग इतने मूर्ख हैं कि हम गालिया फिल्मों में देखकर सीखेंगे। हत्या. डकैती, या बलात्कार जैसे दृश्यों को देखने के बाद क्या हम वही करते हैं। मेरा ये विश्वास रहा है कि हिंदी फिल्मों का दर्शक कम से कम इतना तो समझदार है कि उसे पता है कि उसे क्या करना है। गाली कोई इतनी भी बुरी चीज़ नहीं होती। हममे से अधिकतर इनका इस्तेमाल करते है कुछ लोग तो अपने बच्चों के सामने ही खासकर मेरी कॉलोनी में अक्सर झगड़ो के दौरान इस तरह की गालियाँ बिल्कुल खुले में दी जाती हैं। फिर डैली बैली के पीछे क्यों पड़ा जाए जबकि वे अपने प्रोमों में ही बच्चों और फैमिली के साथ इस फिल्म को न देखने की चेतावनी दे चुके हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि आमिर एक टिपीकल प्रोफेशनल पर्सनैलिटी है। डैली बैली विवादित होने के, व अपनी रीलीज़ के एक हफ्ते बाद भी अपने टिकट रेट २५०-२०० से नीचे नहीं लेके जाती। उस पर सिने प्लेक्स खचाखच भरा हुआ है। बाहर निकलकर हम चाहे इस फिल्म को कितनी ही गालियों दें पर यह सच है कि आमिर अपनी कोशिश में कामयाब रहे हैं। इस फिल्म के रिलीज के बाद ये बात ज्यादा पुख्ता हो गयी है कि लोगों को अश्लील दृश्यों से उतनी समस्या नहीं है जितनी असभ्य कही जाने वाली गालियों से। चाहे अंदर से उनका मन कुछ और कहें। हम बार बार बिसरा देते हैं कि गालियों का भी अपना एक समाजशास्त्र होता है। गालियाँ लोक की प्रतिध्वनि हैं। मान लोक की पैदाइश हैं। कोई महाशय तो यहाँ तक कह गये हैं कि जिस भाषा में जितनी अधिक गालियाँ होंगी वह भाषा उतनी लम्बी आयु तक जीवित रहेंगी। इस हिसाब से देखा जाए तो गालियाँ भाषा की प्राणवायु हैं। फिल्म में मुझे बहुत कुछ नया नहीं लगा लेकिन ये बात मैं ईमानदारी से कहना चाहूँगा कि मैं पूरी फिल्म में एक पल के लिए भी बोर नहीं हुआ। मैं तो लोट-पोट था उसे आप फूह़ड़ कहिए या असभ्य पर मुझे फिल्म अच्छी लगी।





मैं अब भी इस फिल्म को एक दो बार और देखना चाहता हूं उपरोक्त बातों को समीक्षा न माना जाए ये मेरी ग़ुजारिश हैं।