शुक्रवार, 20 जनवरी 2012

मलयज और देवीशंकर अवस्थी : जवाबों की तलाश में कुछ सवाल

मलयज और देवीशंकर अवस्थी की समीक्षा को समझने की कोशिश, उनकी समीक्षा के समीक्षकों की शंकाओ और सवालों का जवाब देते हुए ही सफल हो सकती है , उन्हे सिर्फ उपेक्षित कह देने मात्र से नहीं l इस उपेक्षा की चर्चा उन पर लिखे कई श्रद्धांजलि लेखों मे हमें मिल जाएगी, लेकिन वे उपेक्षित कैसे रह गए? यह सवाल हमें अपने आप से पूछ्ना चाहिए और केवल यही सवाल नही ऐसे कितने ही सवाल आज भी अलोचकों से जवाब की आस लगायें हैं l हमारे भद्र साहित्यिक समाज से ये सवाल पूछे जाने चाहिए--
कि... अब तक उनकी प्रतिभा का सही मूल्यांकन क्यों नहीं हो सका ? क्यों उन पर आज भी वैचारिक लेखों का अभाव है ?
इन आलोचकों पर कोई मुक़म्मल पुस्तक तो दूर अच्छे शोध-पत्रों और वैचारिक लेखों (जिनमे इनकी आलोचना-दृष्टि, सिद्धान्तों एवं मूल्यों का मूल्यांकन किया गया हो) तक का अभाव है, ऐसा क्यों ?
क्यों इन पर लिखे लेख हमें श्रद्धांजलि या संस्मरणमात्र प्रतीत होते है?
दोनों ही आलोचकों की आलोचना समकालीन आलोचकों की गलतबयानी का शिकार हुई, जिसका विरोध साहित्यिक समाज मे कहीं क्यों नहीं दिखाई दिया ?
मलयज और देवीशंकर अवस्थी दोनों ही लेखकों को किसी न किसी आलोचक के बरक्स रखकर ही विचार क्यों किया गया? यदि दोनों का परस्पर तुलनात्मक अध्ययन किया जाता तो भी बात समझ में आती लेकिन मलयज को मुक्तिबोध के और देवीशंकर अवस्थी को नामवर सिंह के बरक्स खडा कर दिया गया l क्या समकालीन आलोचना के लिए किसी भी एंगल से यह शुभ माना जा सकता है?
दोनों ही आलोचकों को एक तरह के सीमित पूर्वग्रह से ग्रस्त होकर देखा गया l क्या साहित्य में सिर्फ दो दृष्टियों से ही मूल्यांकन हो सकता है?
मलयज ओर देवीशंकर अवस्थी के मरणोपरांत जिसका जो मन आया उसने वो ठप्पा इन पर लगा दिया l रमेश उपाध्याय ने देवीशंकर अवस्थी को कलावादी घोषित किया(१) तो अरविन्द त्रिपाठी देवीशंकर अवस्थी पर लिखे अपने मोनोग्राफ में उन्हें वाया प्रगतिशील होते हुए 'देसी आधुनिक' की संज्ञा देते हैं l(२) हद तो तब हो जाती है जब मैनेजर पाण्डेय देवीशंकर अवस्थी के बारे में कहते हैं कि 'परंपरा का अस्वीकार उनके यहाँ मूल्य है l'(३). श्याम कश्यप मलयज पर लिखे अपने लेख 'कलावाद के अधूरे साक्षात्कार' में यह घोषणा करते हैं कि मलयज न केवल कलावादी-रूपवादी हैं बल्कि विचार-विरोधी भी हैं l
क्या मात्र परिमल से जुड़ना कलावादी होना या विचार विरोधी होना है? क्या कला ओर विचार को मिलाकर या उससे अलग कोई नयी एवं निजी दृष्टि नहीं बनायीं जा सकती?
जब आप मलयज व देवीशंकर अवस्थी की रचनाओं-आलोचनाओं को पढ़ते हैं तो देखते हैं कि दोनों ही आलोचक साहित्य में प्रचलित दृष्टियों से अलग अपनी एक निजी दृष्टि बनाने की कोशिश कर रहे थे l यदि नियति उन्हें थोडा और समय देती तो संभवत: वे इस बात को साबित भी कर देते l
ये सब ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब अब तक मिल जाना चाहिए था लेकिन अफ़सोस```यह सवाल जस के तस हमारे सामने है l यह हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि अब तक साहित्य-समाज में इन सवालों के जवाब देने की या खोजने की किसी भी तरह की कोशिश नहीं दिखाई देती l जो छुट-पुट समीक्षाएं मलयज और देवीशंकर अवस्थी पर लिखीं भी गयीं उसमे भी इन सवालों के जवाब खोजने की जद्दोजहद नहीं दिखाई देती बल्कि इन
समीक्षाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि या तो ये बहुत भावुक होकर लिखी गयी हैं या फिर खुन्नस निकालने के लिए l इसलिए इन आलोचकों या इनकी आलोचना पर लिखी कोई भी समीक्षा तब तक अधूरी ही समझी जानी चाहिए जब तक वह इन सब सवालों का जवाब नहीं दे देती l
मलयज पर 'पूर्वग्रह' ने विशेषांक निकाला जिसमे शमशेर बहादुर सिंह , रघुवीर सहाय , कुंवर नारायण , शिवकुटी लाल वर्मा , श्रीराम वर्मा आदि लेखकों ने मलयज पर आलोचनात्मक
संस्मरण लिखे; जिसमे उन्होंने संक्षेप में मलयज की परिस्थितियों, समकालीन आलोचना में उनकी स्थिति और उनकी भाषा पर विचार किया l 'पूर्वग्रह' ने इस अंक के बाद के अंको में भी उनकी पुस्तकों पर लिखी समीक्षाओं का प्रकाशन किया l लेकिन इन पुस्तक समीक्षाओं में कई दिक्कतें थीं l इन पुस्तक समीक्षाओं के लेखक अपनी-अपनी मान्यताओं के आधार पर मलयज की पुस्तकों को देख रहे थे l उन्होंने कहीं भी कृति के आन्तरिक मूल्यों और उन मूल्यों को इंगित करने वाली दिशाओं को तलाशने की कोशिश नहीं की, लेकिन यदि तब भी इन समीक्षाओं से संतोष किया जा सकता है तो केवल इतना ही कि अपनी मान्यताओं को आधार बनाकर ही सही,कम से कम उनकी पुस्तकों का मूल्यांकन करने की पहल तो की गयी l इस सन्दर्भ में मलयज द्वारा बताये गए पुस्तक समीक्षा के मानी महत्वपूर्ण लगते हैं.- "समीक्षा के क्या मानी होते है? क्या तत्कथित पुस्तक समीक्षा करने वाला शुरू से ही यह मानकर चलता है कि वह एक ऊँचे आसन पर विराजमान है और प्रस्तुत पुस्तक पर verdict (निर्णय) देने, भला बुरा कहने या अधिक हुआ तो critical appreciation करने की उसे स्वतंत्रता है? और आजकल पत्र-पत्रिकाओं में यही तो होता है l कितना गलत मतलब है समीक्षा का l
"....मै समीक्षा को बहुत ऊँचे दर्जे की चीज़ समझता हूँ l एक समीक्षक सही मायने में कृतिकार के साथ मिलकर कृति के आंतरिक मूल्य और मूल्यों को इंगित करने वाली दिशा का अध्ययन करता है l इस तरह रचना के विकास की संभावनाओ पर बहुत ही ठोस रूप से विचार किया जा सकता है."(४)
इस उद्धरण से पुस्तक समीक्षा के मानी के साथ-साथ यह भी समझ में आ जाता है कि उस समय की समीक्षाओं की क्या स्थिति थी? मलयज यदि कृति के आंतरिक मूल्यों और उन मूल्यों को इंगित करने वाली दिशा पर जोर देते हैं तो देवीशंकर अवस्थी पुस्तक-समीक्षा के सन्दर्भ में समकालीनता पर l समकालीनता उनके यहाँ किसी पुस्तक को देखने की कसौटी है वे इसी कसौटी पर किसी पुस्तक का आकलन करते हैं l इस सम्बन्ध में 'विवेक के रंग' की भूमिका में उन्होंने विस्तार से विचार किया है l वे तो 'समकालीनता-बोध से रहित आलोचना को आलोचना मानने से ही इंकार करते हैं l'(५)
'विवेक के रंग' जैसा एक महत्वपूर्ण समीक्षा संकलन उनकी सोच और समझ का ही नतीजा है l जिसके संकलन में उन्होंने न केवल रचना की महत्ता का बल्कि महत्वपूर्ण समीक्षा का भी ख्याल रखा l इसके पीछे क्या कसौटी रही इसका जवाब देते हुए वे कहते है- ''सामान्यत: कसौटी यही रही है कि समीक्षा समीक्ष्य कृति की आन्तरिक सत्ता का उदघाटन करती हो, समीक्ष्य सिद्धांत की दृष्टि से कुछ महत्वपूर्ण बात कहती हो, अथवा इसमें पद्धति का नयापन मिलता हो l इस संकलन को जितना तटस्थ होकर मैंने बनाया चाहा है उससे मेरा विश्वास है कि यदि कोई अन्य व्यक्ति भी इस तरह का संकलन सम्पादित करता तो चुनाव में बहुत अंतर न पड़ता- संख्या भले ही घट या बढ़ जाती l''(६)
गौर कीजिये देवीशंकर अवस्थी ने कहा-'समीक्षा समीक्ष्य कृति की आन्तरिक सत्ता का उदघाटन करती हो' और इससे पहले दिया गया मलयज का उद्धरण देखिये -'एक समीक्षक सही मायने में कृति के आंतरिक मूल्य और मूल्यों को इंगित करने वाली दिशा का अध्ययन करता है l'
क्या इन दोनों उद्धरणों में लगभग एक ही बात नहीं कही गयी है? क्या किसी पुस्तक की समीक्षा से पहले हमें अपनी निजी मान्यताओं को गौण रखकर कृति के आन्तरिक मूल्य और उन मूल्यों को इंगित करने वाली दिशाओं के अध्ययन को प्राथमिकता नहीं देनी चाहिए? यदि हम यह मानते हैं(जोकि लगभग सभी पाठक स्वीकारते हैं) कि 'विवेक के रंग' एक महत्वपूर्ण समीक्षा-संकलन है लेकिन देवीशंकर अवस्थी और मलयज ने जो पुस्तक समीक्षा के मानी बताये है उन समीक्षाओं के लिए जो कसौटी निर्धारित की है l उस कसौटी को मानने में संकोच करते हैं, तब हमें अपने निजी अंतर्विरोधों की पुन: जाँच कर लेनी चाहिए l
मलयज और देवीशंकर अवस्थी की मंजिल एक ही थी ये बात और है कि इस मंजिल को तय करने के सफ़र के दौरान उनके रास्ते कभी मिले तो कभी बदल भी गए, किन्तु दोनों का ही उद्देश्य किसी कृति की समीक्षा करते समय अपने मानदंडो के साथ- साथ उस रचना की आन्तरिक सत्ता का निष्पक्ष मूल्यांकन करना था l मलयज जहां समीक्षकों को, अपनी समीक्षा द्वारा भाई-बिरादरी से बचने की सलाह देते हैं वहीं देवीशंकर अवस्थी विश्वविद्यालयी समीक्षा के पांडित्यधर्मी खतरों से पाठकों को आगाह करते हैं l आलोचना की समकालीनता और आलोचना में समकालीनता उनके लिए किसी भी अन्य दृष्टिकोण से ज्यादा ऊँचा दर्जा रखती थी l वे सही को सही और ग़लत को ग़लत कहने वाले लोग थे जिसे मैनेजर पाण्डेय भी 'ईमानदारी का तकाज़ा' मानते हैं और कहते हैं कि "आलोचना में ईमानदारी का तकाज़ा तो यही है कि गलत को गलत और सही को सही साबित किया जाये l आलोचना में मास्टराना अंदाज़ में रचनाओं और रचनाकारों को नंबर देने या पास-फेल करने की आदत को आचार्य शुक्ल ने 'असभ्यता' कहा था." (७) यह असभ्यता शुक्ल जी के समय में ही व्याप्त नहीं थी बल्कि इससे साठ-सत्तर के दशक का और उसके बाद का समय भी त्रस्त था ये असभ्य लोग या तो किसी भी लेखक या उसकी रचना को ख़ारिज कर देते या प्रशंसनीय बना देते थे l हिंदी आलोचना में एक बड़ा प्रतिशत ऐसी समीक्षाओं का है l यह समस्या मलयज के समक्ष भी थी और देवीशंकर अवस्थी के समक्ष भी l खैर, अभी हम इन बातों के विस्तार में न जाते हुए उन सवालों की ओर अपना रुख करते हैं जो हमने इस लेख के शुरू में उठाये थे l
मुक्तिबोध की शोकसभा जो दिल्ली में हुई थी कई मायनो में अब तक होने वाली शोकसभाओं से अलग थी l इस सभा में वक्ता की हैसियत से शामिल हुए थे देवीशंकर अवस्थी और श्रोताओं की भीड़ में शामिल थे मलयज l संभवत: यहीं मलयज और देवीशंकर की पहली मुलाक़ात हुई हो l देवीशंकर पहले ही दिल्ली आ चुके थे जबकि मलयज सन १९६४ में दिल्ली आयेl दोनों एक ही इलाके(उस समय के साहित्यिक गढ़) मॉडल टाउन में रहे l मलयज ने इस शोकसभा के बारे में १३सितम्बर १९६४ की डायरी में लिखा है -"उस दिन जब मुक्तिबोध की शोकसभा में डॉ.देवीशंकर अवस्थी ने मुक्तिबोध के आलोचक रूप की निष्ठा की बानगी प्रस्तुत की तो अधिकांश लोगों ने उसे अनुपयुक्त, समय प्रतिकूल समझा क्योंकि ऐसे अवसरों पर लोग भावुकतामय उदगारों को सुनने की आस लगाये रहते हैं पर मुझे देवीशंकर जी का रवैया बहुत पसंद आया....बिना अपने को भावों की दलदल में फँसाए तटस्थ दृष्टि से देवीशंकर जी ने मुक्तिबोध की प्रतिभा को सबसे बढ़िया श्रद्धांजलि दी l दरअसल ऐसी ही श्रद्धांजलियों की आवश्यकता है l प्रयाग में निराला के मरने पर जो शोकसभा हुई थी उसमे इस बात की कमी से ही तो वितृष्णा का भाव मुझमे जगा था लोग भावों की गिचपिच कर रहे थे, दिल्ली वाली यह शोकसभा अधिक बैलेंस्ड थी l"(८)
संभवत: इस शोकसभा में दिए गए देवीशंकर अवस्थी के भाषण से ही प्रभावित हो, मलयज के मन में मुक्तिबोध की रचनाओ का अध्ययन और मूल्यांकन करने का ख्याल जगा था- "यह भी सही है कि मुझे अभी भी व्यक्ति मुक्तिबोध ही आकृष्ट करते रहे हैं और इतने से ही मै संतुष्ट भी था l कवि मुक्तिबोध को मैं उतनी एहमियत नहीं देता था इसे लिखते हुए अब भी कोई ग्लानि का भाव मन में नहीं है l पर अब उनके काव्य का विधिवत गंभीर अध्ययन करने की इच्छा अवश्य जाग पड़ी है! उनके भीतर पैठने की तीव्र प्रेरणा हो रही है l हो सकता है मेरा श्रम अकारथ न जाये, और मैं उनके सही रूप को आँक सकूँl"(९)
देवीशंकर अवस्थी ने अंग्रेजी में एक लेख 'Muktibodh:Not an outsider' शीर्षक से लिखा था जो एक पत्रिका(लिंक)में अक्टूबर१९६४ में छपा और जिसका हिंदी अनुवाद 'मुक्तिबोध: अजनबी नहीं' शीर्षक से उनकी पुस्तक 'आलोचना का द्वंद्व' में संकलित है l संभवत: यह शोकसभा में दिए गए भाषण का ही रूपांतरण(transcription) हो l इस लेख में देवीशंकर अवस्थी मुक्तिबोध को अंग्रेजी साहित्य के डब्ल्यू.बी.यीट्स(w.b.yets) के सदृश स्थान देते हुए कहते हैं -"एक आत्मनिर्वासन व्यक्तित्व जो चुपचाप समकालीन विचारों को आत्मसात कर रहा था और जिसने एक ऐसी शैली निर्मित की, जो अनूठी और उनकी अपनी थी l इसमें हम सभी श्रेणियों की रंगमयता देखते हैं मानो किसी प्रतिबिम्ब में आधुनिक रंगमयता के चौरस्ते अंकित हो l" (१०)
इसी लेख में वे मुक्तिबोध की फैंटेसी को अपनी रचना-आलोचना में केंद्रीय स्थान देने की चर्चा करते हैं और उनकी कविताओं को 'जटिल कविता' की संज्ञा देते हुए कहते हैं कि- "उनकी कविता सामान्य पाठकों के लिए है ही नहीं l उनकी कविता समझने के लिए ऐसे मस्तिष्क की ज़रुरत है जो विचारों से उलझ सकता हो और जटिल अनुभूति को आत्मसात कर सकता हो l"(११)
देवीशंकर अवस्थी ने मुक्तिबोध की शोकसभा में जो कुछ भी कहा, वह मुक्तिबोध पर इसके बाद लिखी जाने वाली पुस्तकों,लेखों के लिए आधार स्रोत बन गया l मुक्तिबोध को दी गयी उनकी श्रद्धांजली, मुक्तिबोध पर की गयी प्रारंभिक सार्थक समीक्षा साबित हुई l उनकी इस शोकसभा में कहे गए शब्द आज भी मुक्तिबोध पर लिखी गयी(जा रही) समीक्षाओं में देखे जा सकते हैं l मसलन आत्मनिर्वासन को ही लीजिये, मुक्तिबोध की लम्बी कविता(अँधेरे में) को लेकर एक लम्बी बहस इसी एक शब्द को केंद्र में रखकर चली है l मुक्तिबोध पर देवीशंकर अवस्थी के ये उद्धरण, जो अवस्थी जी ने मुक्तिबोध को श्रद्धांजलि देने के लिए कहे थे वास्तव में हमारे शुरू में उठाये गए सवालों से ही ताल्लुक रखते हैं l
एक श्रद्धांजलि मुक्तिबोध को देवीशंकर अवस्थी ने दी थी जिसे मलयज ने मुक्तिबोध की प्रतिभा को दी गयी सबसे बढ़िया श्रद्धांजली कहा था, दूसरी ओर देवीशंकर अवस्थी की स्मृति में कराई गयी साहित्य अकादमी की संगोष्ठी(०७ अप्रैल,१९९०) को याद कीजिये l इसी संगोष्टी में रमेश उपाध्याय ने देवीशंकर अवस्थी को 'कलावादी' घोषित किया था l अगले वक्ता के रूप में अजय तिवारी ने स्थापित किया था कि- 'समाजशास्त्रीय आलोचना का पहला परिचय हमें अवस्थी जी में मिलता है न कि नामवर सिंह जैसे मार्क्सवादी आलोचक मेंl'(१२) इस संगोष्टी में सबसे पहले मैनेजर पाण्डेय ने माना कि- "देवीशंकर अवस्थी दो तरह की दृष्टियों से अपना एक निजी रास्ता बनाने की कोशिश कर रहे थे l परिमलियों से बहस करते हुए वे इस दल के मुखर प्रवक्ता रामस्वरूप चतुर्वेदी के इस आरोप का खंडन करने में लगे थे कि कहानी दूसरे दर्जे की विधा है और दूसरी ओर प्रगतिशीलों से बहस करते हुए उनकी इस प्रवृत्ति का खंडन कर रहे थे की कहानी गंभीर कलात्मक विधा नहीं है."(१३) अपनी बात आगे बढ़ाते हुए पाण्डेय जी कहते हैं-....अवस्थी जी बीच का रास्ता तय नहीं कर पा रहे थे और फिर लगभग आरोप की मुद्रा में स्थापित करते हैं कि ''परंपरा का अस्वीकार उनके यहाँ मूल्य हैl"(१४) संगोष्टी के अंत में अध्यक्ष पद से बोलते हुए नामवर सिंह ने कहा भी कि "पूरी बहस में सेंटिमेंटलिज़्म ज्यादा महत्वपूर्ण साबित हुई है l इस तरह की कोरी भावुकता हमेशा खतरनाक होती है l"(१५) नामवर सिंह के इस वक्तव्य से मलयज की डायरी से पूर्व उद्धृत वह अंश याद हो आता है जहां वे कहते हैं कि 'लोग भावों की गिच-पिच कर रहे थे l'(१६) मलयज की डायरी-२, पृष्ट ३१७
बहरहाल, एक सच्ची श्रद्धांजलि क्या होती है? देवीशंकर अवस्थी हमें सिखा गए थे हम ही उनके सिद्धांतों को आत्मसात न कर सके l मुक्तिबोध का सौभाग्य है कि उन्हें देवीशंकर अवस्थी मिले लेकिन मलयज और देवीशंकर अवस्थी का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि उन्हें कोई देवीशंकर नहीं मिल सका l
हम लोगों ने श्रद्धांजलि को मजाक बना दिया 'बड़ा भला आदमी था' कहकर हमने उसका मजाक ही तो उड़ाया l मरने के बाद तो कुछ भी कहो 'कौन पूछने वाला है'? कलावादी-रूपवादी, जनवादी, समाजवादी, या फिर मार्क्सवादी कुछ भी कहो या फिर उन्हें दो खेमों में से किसी एक खेमे में फिट कर दो l कोई विरोध नहीं करेगा? क्योंकि इस तथाकथित साहित्य-अनुशीलन की दो दृष्टियों(खेमों) से अलग या इनसे मिलकर तो कोई अन्य दृष्टि बन ही नहीं सकती न ? इस तरह की मोनोपोली ने राजनीति से सीधे साहित्य में छलांग लगाईं है पहली परंपरा, दूसरी परंपरा,तीसरी,..........आख़िर साहित्यानुशीलन और कितनी परम्पराओ में बांटा जाएगा?
आज आलोचना के नाम पर परंपरा के भी खेमे बन गए हैं स्त्री,दलित, उपेक्षित इन सभी परम्पराओं की खोज आवश्यक है; पर क्या यह आलोचना और आलोचक की खेमेबंदी के बाद ही संभव है? यह सवाल आज भी हमारे सामने ज्यों का त्यों खड़ा है जवाब की तलाश में......
चलिए आपका जो मन आता है मानिए ; ये आपके निजी पूर्वग्रह हैं लेकिन क्या यह भी हमारा दायित्व नहीं कि इन्हें कट्टरता की हद तक न जाने दें l जब पूर्वग्रह कट्टरता की हद तक पहुँच जातें हैं तो आलोचना की शक्ति(निर्णय देना) फतवे में तब्दील हो जाती है l फ़तवा आलोचना की बीमारी है जो आपको विवादित बना सकता है लेकिन पाठको से संवाद रचना के सम्बन्ध में दिए गए निर्णयों से स्थापित होता है फतवों से नहीं l
जब मैनेजर पाण्डेय कहते है कि उनके(देवीशंकर अवस्थी) यहाँ परंपरा का अस्वीकार मूल्य है तो उपरोक्त बातें विश्वसनीय प्रतीत होतीं हैं कि कुछ भी कहिये कौन कहने-सुनने वाला है l मैनेजर पाण्डेय हिंदी आलोचना का एक स्थापित नाम है इसलिए उनसे ये आशा नहीं की जा सकती कि उन्होंने देवीशंकर अवस्थी को पढ़े बिना ये बात कही होगी लेकिन शक होता है कि यदि पढ़ा है तो ये उल्टी बात क्यों? चूँकि देवीशंकर अवस्थी के अधिकतर लेखों में परम्परान्वेक्षण, अपनी परंपरा का स्वीकार, उसका महत्व एक सामान्य पाठक भी देख सकता है l एक आम पाठक भी बता सकता है कि देवीशंकर अवस्थी के लिए परंपरा और इतिहासबोध लगभग एक ही हैं समकालीनता को वे कोई खंडित कालखंड नहीं मानते बल्कि इसे परंपरा या इतिहासबोध के अंग के रूप में स्वीकारते हैं उनकी पुस्तकें इसका प्रमाण हैं l उनकी पुस्तकों से उद्धृत कुछ अंशों से यह बात अच्छी तरह से स्पष्ट हो जाएगी :-
(क) "बहुधा समसामयिक रचनाकार अतीत में एक प्रकार के परम्पराबोध के लिए जाते हैं l परंपरा का यह रूप पैतृकानुवृत्ति होता है लेकिन यह पलायन नहीं स्थिति की दृढ़ता है और आधुनिक हिंदी साहित्य भारतेंदु के समय से ही परंपरा के इसी रूप को स्वीकारता आया हैl" (१७)
(ख) "समकालीनता एक कटा हुआ टुकड़ा नहीं है वह परंपरा यानी इतिहासबोध का अंग होता है और जब हम अनुभव की प्रामाणिकता की बात उठाते हुए समकालीनता को उसकी कसौटी मानते हैं तब यह निहित होता है कि परंपरा की प्रत्यक्ष या परोक्ष परंपरा को भी कहीं स्वीकार करते हैं l"(१८)
(ग) "नई आलोचना में कही कोई कमी नहीं है याकि उसने अपनी अपेक्षाओ को ठीक तरह से पूरा किया है l वस्तुत: समसामयिक साहित्य के प्रति अपने दायित्व को उसने लगभग पूरा किया है l पर उसका एक दूसरा दायित्व भी था कि तमाम नए साहित्य के अनुकूल पुराने साहित्य को भी व्यवस्था दे, उसका पुनर्मूल्यांकन करे l"(१९)
इसी तरह के कई उद्धरण उनकी पुस्तकों, लेखों में बिखरे आपको मिल जायेंगे, लेकिन यह सवाल अब भी जस का तस है कि पाण्डेय जी यदि परंपरा का अस्वीकार उनके यहाँ मूल्य है तो फिर ये उद्धरण क्या है? जहां देवीशंकर अवस्थी अपनी परंपरा का मूल्यांकन करने की जद्दोजहद करते दिखाई देते हैं और समसामयिक सन्दर्भ सांचे पर उनका मूल्यांकन- पुनर्मूल्यांकन करने पर बल देतें हैं l पाण्डेय जी ने ऐसा कहा अगर इसे भुला भी दिया जाए तो क्या इस बात को आलोचना का वर्तमान विस्मृत कर सकेगा कि उनकी इस बेबुनियादी बात का जवाब पिछले दो दशकों में नहीं दिया गया l आज भी इसकी केवल आस ही साहित्य समाज से की जा सकती है l
क्यों उनकी चुप्पी को सहमति न समझा जाये? जिस संगोष्टी में यह बात कही गयी, उस संगोष्टी में साहित्य आलोचना के जाने माने नामो की पूरी खेप मौजूद थी लेकिन सब चुप...l
अब तक भी पाण्डेय जी का उपरोक्त कथन स्पष्टता की मांग नहीं मात्र आस लगाए है, क्यों?
बहरहाल, यह सवाल हिंदी आलोचना का ज़ख्म है जिसे आप जितना ही कुरेदेंगे टीस उतनी ही अधिक होगी l इस प्रसंग से अलग यदि हम देवीशंकर अवस्थी और मलयज की उन विशेषताओं पर नज़र डालें जो उनके एक ही मंजिल की ओर बढ़ने का संकेत देतीं हैं, तब हम अधिक स्पष्टता से दोनों आलोचकों की आलोचना के मानदंडों का मूल्यांकन कर सकेंगे l
मलयज और देवीशंकर अवस्थी दोनों के लिए ही रचना और आलोचना समानांतर क्रियाएं हैं एक ओर मलयज है जिनके लिए कविता रचने के पश्चात् समाप्त नहीं हों जातीं बल्कि वह आलोचना के लिए प्रेरित भी करती हैं l(२०), तो दूसरी ओर देवीशंकर अवस्थी, जो कहते हैं- 'एक बात बहुधा कह दी जाती है कि ऐतिहासिक विकास क्रम में समीक्षा बाद को आई, समीक्ष्य(कलाकृति) पहले l परन्तु यह समस्या ठीक वैसे ही है जैसे यह पूछा जाये कि मुर्गी पहले आई या अंडा l वास्तव में ये दोनों ही सामानांतर क्रियाएं हैं l'(२१) मलयज भी आलोचना कर्म को कविता का विरोधी या प्रतिद्वंद्वी नहीं मानते बल्कि आलोचना को कविता का सामानांतर संसार मानते हैं उनका कहना हैं कि ''कविता में जिसे टटोलता हूँ आलोचना में उसी को पाता हूँ l''(२२) मलयज के लिए कविता(रचना) भीतरीऔर बाहरी 'तनाव-बिन्दुओं' पर ही संभव होती है l जबकि देवीशंकर अवस्थी मलयज के तनाव-बिन्दुओं की जगह 'प्रभाव-ग्रहण' शब्द का इस्तेमाल करतें हैं , और कहते हैं- "समीक्षक बाहर की ओर से प्रभाव-ग्रहण करता है एवं भीतर की ओर से महत्व का आकलन करता है पर यह होता एक ही समय और साथ-साथ है l"(२३) यहाँ फर्क सिर्फ इतना ही है कि मलयज इसे रचना के स्तर पर संभव मानतें हैं और देवीशंकर अवस्थी आलोचना के स्तर पर l पर चूँकि आलोचना भी रचना है और दोनों ही सामानांतर क्रियाएं हैं तो यह फर्क भी अधिक देर नहीं टिकता l
दरअसल 'भीतर' और 'बाहर' मलयज की आलोचना के केंद्रीय शब्द हैं उनके लिए रचना इन दोनों के तनाव से ही उत्पन्न होती है l उनकी पुस्तक 'कविता से साक्षात्कार' के लगभग सभी लेख इस 'भीतर' और 'बाहर' की शब्द-सत्ता के अर्थों तक पहुँचने की राह हैं जिसका संकेत वे इस पुस्तक की भूमिका में ही दे देतें हैं- "मैंने जितना इस आधुनिक रचना के भीतर देखना चाहा है उतना ही उसके बाहर भी, क्योंकि मैंने देखना चाहा है कि कविता कैसे न सिर्फ अपने भीतर से बल्कि अपने बाहर भी निर्मित होती है कि कैसे भीतर का बहुत कुछ सिर्फ बाहर के आलोक में ही छुआ जा सकता है, कि कैसे बाहर भी बिना भीतर की आग के महज एक संदिग्ध सत्य बनकर रह जाता है? मैंने देखना चाहा है कि कैसे कविता आधुनिक कविता भीतर और बाहर के एक तनाव बिंदु पर संभव होती है?"(२४) 'मलयज की डायरी' से पता चलता है कि मलयज जवाहरलाल नेहरु से बहुत अधिक प्रभावित थे और उनकी तमाम सीमाओं के बावजूद उन्हें एक बौद्धिक नेता के रूप में देखते थे l देवीशंकर अवस्थी भी आधुनिक भारत के निर्माता के रूप में उन्हें देख रहे थे l उस समय विश्व राजनीति और उसकी महत्वाकांशाएं दो गुटों में बँटी हुई थीं l नेहरु ने नासिर,टीटो के साथ मिलकर इन गुटों से निरपेक्ष तीसरी दुनिया के देशों को एक अलग राह दिखाई थी, जो काम नेहरु राजनीति के स्तर पर कर रहे थे वही मलयज और देवीशंकर अवस्थी ने साहित्यिक स्तर पर करने की कोशिश की l वे भीतर(कलावाद) और बाहर(मार्क्सवाद) के तनाव से एक निजी सोच निर्मित करने की कोशिश में लगे थे l वे इस अनुभूति(भीतर) और विचार(बाहर) के द्वंद्व से अपनी रचना और आलोचना का विकास करना चाहते थे l थोड़े बहुत अंतर के बावजूद दोनों के ही दृष्टिकोण में इस बाहर और भीतर का मेल है l मलयज में भीतरी हिस्सा(अनुभूति) अधिक है तो देवीशंकर अवस्थी में बाहरी हिस्सा(विचार) अधिक l संभवत: इसलिए कोई इन्हें कलावादी कहना चाहता है तो कोई प्रगतिशील बनाने की जुगत में लगा रहता है लेकिन उन्हें किसी गुट या खेमे में बाँटना ठीक नहीं है l
जो लोग सिर्फ विचारधारा के बल पर आलोचना को खड़ा करना चाहते हैं या जो सिर्फ कला को कला के लिए ही मानने के पक्षधर हैं उनके लिए दोनों आलोचकों की आलोचना एक नई कलात्मक विचारधारा का, एक नया पक्ष रखती है l इस सन्दर्भ में शिवकुमार मिश्र ने बड़ी मार्के की बात कही है- "विचारधारा ही बड़ी कला को सामने नहीं लाती उसके लिए रचनाकार को रचना की सभी शर्तें पूरी करनी पड़ती हैं कलात्मक महारत के बिना सही से सही विचारधारा भी बेअसर होती है l उसी प्रकार जिस प्रकार सही विचारधारा के अभाव में कलात्मक महारत भी एक सीमा के बाद बेअसर होती है l"(लेख- समकालीन आलोचना की समस्याएं: हिंदी आलोचना के सन्दर्भ में) वे तो मार्क्सवादी आलोचना का बुनियादी सवाल भी यही मानते हैं कि- ''विचारधारा को सही कला का रूप कैसे दिया जाये?'' (२५) लगभग इसी तरह की बात नामवर सिंह ने 'कविता के नए प्रतिमान' की द्वितीय संस्करण की भूमिका में जेरेमी होथोर्न का हवाला देते हुए कही है जहां उन्हें लगता है कि "हिंदी के नए मार्क्सवादी आलोचक अंग्रेजी की 'नयी समीक्षा' के प्रति ज़रूरत से ज्यादा ही शंकालु हैं l"(२६) अंतर सिर्फ इतना है कि यहाँ नामवर जी अपनी इस पुस्तक पर लगाये गए आरोप(रूपवादी झुकाव) पर अपनी सफाई देते हुए यह बात कह रहे हैं l बहरहाल 'कविता से साक्षात्कार' की समीक्षा करने के दौरान श्याम कश्यप ने मलयज को कोरा कलावादी-रूपवादी घोषित कर दिया l अपनी निजी मान्यताओं ओर आग्रहों के कारण उन्होंने कहा कि "मलयज तो न केवल विचार या विचारधारा को ही कविता के क्षेत्र से बाहर मानते हैं बल्कि अनुभव, भाव, अनुभूति की भी वे नितांत आत्मनिष्ठ व्याख्या करते हैं l"(२७) यह बात उन्होंने मलयज को मुक्तिबोध के बरक्स रखकर कही है जबकि ऐसा कोई लेख मेरे देखने में नहीं आया जहां मलयज ने विचार या विचारधारा के बारे में इस तरह की बात कही हो l अपनी निजी मान्यताओं के आधार पर किसी कृति की आतंरिक सत्ता को नजरअंदाज करने से इसी तरह की एकतरफा(एकांगी) समीक्षा देखने को मिल सकती है l वे इस बात से भी खफा हैं कि मलयज ने अज्ञेय को तो तवज्जो दी, पर त्रिलोचन को नहीं l वे मलयज के शमशेर के बारे में कहे गए इस वाक्य को कि 'शमशेर की कविता अपने अपरिभाषित रूप में ही सार्थक है l' एक गुनाह मानते हैं कुल मिलाकर यह पूरी समीक्षा कट्टर मार्क्सवादी नजरिये से, मलयज को कलावादी -रूपवादी मानते हुए अपनी खुन्नस निकालती प्रतीत होती है l वे लेखों के शीर्षकों को पकड़ कर बैठ जाते हैं उन्हें ध्यान से पढ़ने की ज़हमत नहीं उठाते l त्रिलोचन पर लिखे लेख का शीर्षक(औसत भारतीयता का कवि) देखकर वे भभक उठते हैं पर उसी लेख के उस वाक्य को उद्धृत नहीं करते जिसमे मलयज कहते हैं कि 'हिंदी में शायद त्रिलोचन ही एकमात्र कवि हैं जिन्होंने अपने को लोकजीवन से पूरी तरह जोड़ लिया है सौंदर्य की एक अंत:गरिमा के साथ'(२८)
जहाँ तक शमशेर पर कही गयी मलयज की बात को वो गुनाह की श्रेणी में रखते हैं तो इस संबंध में 'मलयज स्मृति अंक'(पूर्वग्रह) में प्रकाशित शमशेर बहादुर सिंह का लेख एक नज़र कर लेना चाहिए जिसमे शमशेर स्वयं मलयज को अपनी कविताओं का मर्मी पाठक ही नहीं बल्कि निर्मम और विश्वसनीय आलोचक भी स्वीकारते हैं और कहते है कि - 'मेरी अनेक सीमाओं और दोषों को उन्होंने सही -सही लक्षित किया है सचमुच मैं आज उनका कृतज्ञ हूँ l'(२९)
मलयज और शमशेर कितने आत्मीय थे ये उनकी डायरियों से पता चल जाता है किन्तु आलोचना में उन्होंने सदैव निष्पक्षता बरती l मलयज का शमशेर से कोई पार्टीबद्ध रिश्ता नहीं था बल्कि यह आत्मीयता, सद्भाव, अनुभूति और भावना का रिश्ता था l
दरअसल श्याम कश्यप की इस पुस्तक समीक्षा को पढ़ने के बाद उनकी निजी समस्याएँ साफ़ तौर पर दिख जाती हैं एक , वह मलयज को कट्टर वादग्रस्त नज़रिए से देख रहे हैं दूसरी, उन्हें कलावादी -रूपवादी मानकर चल रहे हैं साथ ही मुक्तिबोध के बरक्स रखकर उनका मूल्यांकन कर रहे हैं l संभवत: इसी कारण इस समीक्षा की परिणति एक तरह की खुन्नस में होती है l
अब तक मलयज की भीतरी और बाहरी तनाव बिन्दुओं की संभाव्यता भी स्पष्ट हो गयी होगी; यदि अब भी कोई गुंजाइश बाकि हो और बाहर व भीतर के इस फेर को एक बार फिर समझना हो तो मलयज की अंतिम अधूरी, किन्तु सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक ' रामचन्द्र शुक्ल' तथा रामचंद्र शुक्ल पर लिखे लेख 'मिथ में बदलता आदमी' पर नज़र डाल लेनी चाहिए; जहाँ वे शुक्ल जी पर अब तक कही गयी बातों से अलग हटते हुए एक नए अंदाज़ से ,एक नई दृष्टि से शुक्ल जी को देखते हैं l रचना को समझने के लिए रचनाकार के युग को देखना उसकी मन:स्थिति को समझना -आकलन करना ; मलयज की आलोचना का एक जरुरी और बुनियादी पहलू है l हजारीप्रसाद द्विवेदी तो कहते भी हैं कि ' कवि का जीवन उसकी कृतियों को समझने का प्रधान सहायक है l'(३०) [साहित्य सहचर ,पृ. १४]
शुक्ल जी पर बात करते वक़्त मलयज का ध्यान उस समूचे परिवेश (प्रकृति) पर था जहाँ से शुक्ल जी अपनी आलोचना का उपजीव्य ग्रहण कर रहे थे ' मिथ में बदलता आदमी' की आरंभिक पंक्तियाँ देखिये - "धूल में लस्त पस्त उस मैदान में खड़े खड़े - जिसके पीछे थी प्रकृति और आगे था पिछड़ापन मुझे रामचंद्र शुक्ल की याद आई l'' (३१)
वे शुक्ल जी को किसी एक धारा या परम्परा का लेखक मानने की जगह कहते हैं कि शुक्ल जी के कई रूप हैं - "एक वह जिसने हिंदी की विचार शक्ति को देसी साँचे में ढ़ालकर समालोचना के नए औज़ार गढ़े l एक ओर जिसने पूर्व ओर पश्चिम के द्वंद्व में अपनी ज़मीन का विवेक नहीं खोया और उससे बड़ी बात यह है कि अपनी भाव संवेदना के कपाट सदा खुले रखे, पर एक जिसमे शुक्ल जी के सभी रूप समाहित हैं याकि सभी रूप इस रूप से निकले हैं वह है उनका विशिष्ट और विलक्षण के विरुद्ध सामान्य और सर्वानुभूत का पक्षधर रूप l''(३२) शुक्ल जी बार-बार इस सामान्य मनुष्य को गुहारते हैं कि सदा अपने भीतर ही न धँसे रहो, बाहर आओ और देखो; देखो और महसूस करो l(३३)
शुक्ल जी के बारे में कहे गए मलयज के ये शब्द 'कविता से साक्षात्कार' की भूमिका में दिए गए उसी सिद्धांत की व्यावहारिक परिणति है जिसमे वे 'अनुभव को रचने' और 'महसूस करने' की बात कहते हैंl उपरोक्त उद्धरण को हमें भावुकता और कलावादी नजरिये से न देखते हुए उनमे एक गहन विचार छिपा है यह देखना चाहिए l इसी सन्दर्भ में देवीशंकर अवस्थी की पुस्तक 'आलोचना और आलोचना' की याद हो आती है जिसके लेखों के द्वारा वे व्यावहारिक आलोचना की सैद्धांतिकी का निर्माण करने की कोशिश कर रहे थे l मलयज अपनी पुस्तक 'कविता से साक्षात्कार' की भूमिका में बताये गए सिद्धांतों का व्यवहार अपनी पुस्तकों के समीक्षा लेखों में आधारिक स्रोत के रूप में करते दिखते हैं l अपनी एक पुस्तक 'संवाद और एकालाप' में निर्मल वर्मा पर लिखे लेख में वे निर्मल वर्मा के गद्य को 'धुप-छाही गद्य' की संज्ञा देते हैं और उनकी रचना को स्मृति में बंद बताते हुए कहते हैं- ''रचना निर्मल वर्मा के लिए स्मृति में ही है स्मृति में हर बार कुछ न कुछ छूट जाता है - समयबोध के जाल से छूटकर गिरे क्षणों जैसा - और वह कुछ छूटा हुआ ही हर बार उन्हें रचने को प्रेरित करता है l''(३४)
मलयज की समीक्षा का बुनियादी सरोकार इसी तरह की भावनात्मक अभिव्यक्ति में छिपा है पर यह कोरी भावुकता नहीं है और न ही कोरा अभिव्यक्तिवाद l यह भीतरी और बाहरी बिन्दुओं का तनाव है जो उनके लगभग सभी समीक्षा लेखों का आधार है l हम कह सकते हैं कि इन्ही बिन्दुओ से मलयज की आलोचना की शुरुआत होती है और वे कलावाद और जनवाद के विवादित ढाँचे से खुद को बचाते हुए, एक नए तरह के कलात्मक वैचारिक मानदंडों पर शुक्ल जी की आलोचना का मूल्यांकन करते हैं l मलयज शुक्ल जी की पुस्तक 'रस मीमांसा' के अध्ययन के दौरान पाते हैं कि यह पुस्तक शास्त्रीयता की परत को हटाकर उसे सामान्य धरातल पर समझने-समझाने का प्रयास करती है जिसका सरोकार सामान्य मनुष्य से है l यह सामान्य मनुष्य सामान्य के लिए आदर्श है जो सच होते हुए भी मिथ है l सगा होते हुए भी सौतेला है और पास होते हुए भी दूर का है और मलयज निष्कर्ष निकालते हैं कि- "राम में शुक्ल जी ने तुलसीदास के सच को नहीं, सामान्य आदमी के उसी मिथ को स्वीकार किया है l"(३५) यह रामचंद्र शुक्ल पर अब तक कही गयी बातों से हटकर कही गयी बात थी l शुक्ल जी सामान्य आदमी की ओर थे किसी विशिष्ट व्यक्तित्व या रचनाकार की ओर नहीं, जिस किसी ने भी इस सामान्य आदमी को पकड़ा;शुक्ल जी के लिए वह विशिष्ट हो गया l
प्रभात त्रिपाठी ने मलयज की पुस्तक 'रामचंद्र शुक्ल' की समीक्षा करते हुए कहा-''मलयज शुक्ल जी के रस्ते पर चलकर हिंदी समीक्षा का जो परिदृश्य देख रहे थे, वहां एक ऐसी चिंतन भाषा विकसित हो रही थी जिसने सदियों से चले आते काव्य-चिंतन में अपने वक़्त की तरफ से बहुत कुछ नया जोड़ा था l''(३६) इस लघु प्रशंसा के तुरंत बाद उन्हें रामचंद्र शुक्ल में और उन्ही के पदचिन्हों पर चल रही मलयज की आलोचना में अंतर्विरोधों की ग्रस्तता नज़र आती है और वे पूछ्तें हैं कि-'क्या शुक्ल जी की तरह मलयज भी द्वंद्वात्मकता के उसी ज़रूरी अंतर्विरोध से ग्रस्त थे जिसके कारण शुक्ल जी ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम को सामान्य मनुष्य के मिथ में बदला था l''(३७) इस सवाल पर सवाल पूछने की ही तबियत होती है संभवत:वही इसका जवाब भी हो l क्या किसी धार्मिक या पौराणिक चरित्र को सामान्य मनुष्य के मिथ में बदलना अंतर्विरोध का सूचक है? यदि ऐसा है तो क्या निराला से लेकर धर्मवीर भारती तक इसी फेहरिस्त में शामिल नहीं होंगे? क्या मिथकों की प्रासंगिकता ख़त्म हो चुकी है?
प्रभात त्रिपाठी के सवाल के जवाब में इसी तरह के कई सवाल पूछे जा सकते है लेकिन कुल मिलाकर प्रभात त्रिपाठी द्वारा की गयी मलयज की पुस्तक 'रामचंद्र शुक्ल' की समीक्षा, मलयज की अन्य पुस्तकों की समीक्षाओं की तुलना में अधिक विश्वसनीय एवं निष्पक्ष समीक्षा लगती है ;जो मलयज को किसी अन्य रचनाकार के बरक्स न देखते हुए उनकी पुस्तक का ठीक-ठीक मूल्यांकन करती है l
यहाँ मलयज की पुस्तकों की समीक्षा को देखने के सन्दर्भ में एक बात कहनी बड़ी ज़रूरी लगती है l जैसाकि हमने पहले भी कहा कि 'बाहर' और 'भीतर' मलयज की आलोचना के केंद्रीय शब्द हैं जिनका मानी जाने बिना, या जिन्हें परिभाषित किये बिना मलयज की आलोचना को समझना; उन्हें बिना जाने-बूझे कलावादी-रूपवादी घोषित करने जैसा ही है l
यूँ तो आलोचना पूर्वग्रह रहित नहीं होती, हर आलोचक के कुछ अपने आग्रह होतें हैं जिन्हें आप आलोचक के औज़ार(tools) कहते हैं लेकिन कट्टरता तो साहित्य, धर्म, राजनीति सभी के लिए घातक है l जब आप मलयज को कट्टर वादग्रस्त नज़रिए से देखेंगे तो आपको कदम- कदम पर लगेगा कि वे कलावादी हैं,मार्क्सवादी रचनाकारों की बुराई करते हैं, अज्ञेय जैसे आधुनिकतावादियों की जुगाली करतें हैं l जैसाकि श्याम कश्यप ने कहा है लेकिन जब आप किसी भी विचारधारा से सम्बन्ध रखने पर भी एक स्वस्थ मानसिकता से मलयज की समीक्षा को देखेंगे तो मलयज की रस मीमांसा आपको 'मलयज की संघर्ष मीमांसा'(३८) लगेगी l आपको उनकी भाषा में भावी आलोचना-भाषा के लक्षण दिखाई देंगे जिनकी ज़रुरत समकालीन आलोचना में नामवर सिंह महसूस करतें हैं l(३९)
एक स्वस्थ मानसिकता से इन दोनों समीक्षकों की समीक्षा महरूम रही है l अब तक वे उपेक्षित रहे हैं इसमें तो कोई शक नहीं, लेकिन जो थोडा बहुत इन पर लिखा भी गया यदि वो भी स्वस्थ नज़रिए से लिखा गया होता तो संभवत:इस उपेक्षा की इतनी कचोट हममे न होती l दोनों ही लेखकों पर ग़लतबयानी की गयी इसका विस्तृत विवरण हम पहले ही दे चुके हैं अब इस लेख के निष्कर्ष स्वरुप नयी कहानी, जिसे नामवर सिंह ने पहचान दिलाई और जिसकी सबसे बढ़िया समीक्षा हमें देवीशंकर अवस्थी के लेखों में देखने को मिलती है l नयी कहानी की समीक्षा में देवीशंकर अवस्थी के मरणोपरांत अगर वो दम नहीं रहा जो पहले रहा करता था तो इसके कारणों के रूप में वही 'बरक्स' आ खड़ा होता है जिसका उल्लेख हम बार- बार इस लेख में करतें आयें हैं l बरक्स आलोचना के लिए कितना घातक है इस बात से समझ में आ जाता है कि यदि नए कहानीकारों ने देवीशंकर अवस्थी को(अपने पक्ष में करने की चाहत लिए) एंटी-नामवर सिंह होकर न देखा होता तो नयी कहानी समीक्षा की अकाल मृत्यु न हुई होती l
नामवर सिंह के बरक्स जब मोहन राकेश ने देवीशंकर अवस्थी को नयी कहानी का सर्टिफिकेट दे दिया(४०) तब भावुकतावश कहें या किसी और वजह से नामवर सिंह ने नयी कहानी की झंडाबरदारी देवीशंकर अवस्थी को सौंप दी, नयी कहानी समीक्षा के साथ यह किस तरह का मज़ाक हो रहा था, समझ से परे है l
सन १९६६ में अवस्थी जी की अकाल मृत्यु हो गयी उसके बाद भी नामवर सिंह ने नयी कहानी की समीक्षा नहीं की l संभवत: अवस्थी जी को दिया गया(दिल पे लिया गया) वचन उनके लिए नयी कहानी समीक्षा के विकास से ज्यादा अहमियत रखता था l कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि इस 'बरक्स' के कारण नयी कहानी समीक्षा की जिस तरह से शुरुआत हुई थी आगे चलकर वह उसी राह पर विकसित नहीं हो सकी l हमने कहा कि देवीशंकर अवस्थी नयी कहानी समीक्षा के बेहतरीन समीक्षक हैं लेकिन हम भूल गए कि नयी कहानी के विकास में नामवर सिंह का भी कुछ योगदान है जिस तरह से नवलेखन को देवीशंकर अवस्थी ने पहचान दिलाई थी उसी तरह से नयी कहानी को पहचान दिलाने में नामवर सिंह का अहम् योगदान है शायद हमारी स्मृति से यह विस्मृत हो गया l कम से कम राजेंद्र यादव, कमलेश्वर और मोहन राकेश के लेखों से तो यही लगता है l क्या नयी कहानी के इन दोनों ही समीक्षकों को एक दूसरे के बरक्स खड़ा करने से ज्यादा अच्छा यह न होता कि हम नयी कहानी कि 'टोन' को गंभीरता से पकड़ने का प्रयास करते जो इन दोनों के समीक्षा लेखों का मूलाधार थी? हमें तो यह चाहिए था कि हम इन दोनों के द्वारा अपनाई गयी वस्तुनिष्ट और वैज्ञानिक पद्धति (जिसके आधार पर इन्होने नयी कहानी को पहचान दिलाई और इसके विकास की संभावनाएं तलाशीं) को पकड़ने की कोशिश करते ; पर हमने 'बरक्स' को पकड़ा और बाकी सब आधारों, सिद्धांतों और दृष्टियों को बिसरा दिया l आशा यही की जाती है की समकालीन आलोचना इस बरक्स से स्वयं को बचाते हुए रचना और आलोचना का मूल्यांकन-पुनर्मूल्यांकन करने का प्रयास करेगी l
(Published in vaaq -Editor Sudheesh pachouri)








सन्दर्भ ग्रन्थ सूची :-
१. आलोचना का विवेक (सं)राजेंद्र कुमार लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद प्रथम संस्करण २००४ पृ ३७९
२. देवीशंकर अवस्थी-अरविन्द त्रिपाठी साहित्य अकादमी प्र.सं.२००४ पृ ५७
3. आलोचना का विवेक (सं)राजेंद्र कुमार लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद प्रथम संस्करण २००४ पृ. ३७९-३८०
४. मलयज की डायरी-१ (सं)नामवर सिंह वाणी प्रकाशन दिल्ली सं.२००० पृ.३६८
५.विवेक के रंग (सं)देवीशंकर अवस्थी वाणी प्रकाशन दिल्ली सं.१९९५ (भूमिका से)
६. वही पृ.२०
७.शब्द और कर्म -मैनेजर पाण्डेय वाणी प्रकाशन दिल्ली सं.१९९७ पृ.७०-७१
८. मलयज की डायरी-२ (सं)नामवर सिंह वाणी प्रकाशन दिल्ली सं.२००० पृ.३१७
९. वही
१०.आलोचना का द्वंद्व -देवीशंकर अवस्थी वाणी प्रकाशन दिल्ली सं.२००४ पृ. १७
११. वही पृ.१६
१२.आलोचना का विवेक (सं)राजेंद्र कुमार लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद प्र.सं.२००४ पृ,३७९-८०
१३. वही
१४. वही
१५. आलोचना का विवेक (सं)राजेंद्र कुमार लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद प्र.सं.२००४ पृ.३८०
१६. मलयज की डायरी-२ (सं)नामवर सिंह वाणी प्रकाशन दिल्ली सं.२००० पृ.३१७
१७.रचना और आलोचना -देवीशंकर अवस्थी वाणी प्रकाशन दिल्ली सं.१९९५ पृ.१७
१८. वही, पृ.३५
१९. वही, पृ.२४
२०. कविता से साक्षात्कार -मलयज, सम्भावना प्रकाशन हापुड़ संस्करण-१९७९ (भूमिका से)
२१. आलोचना और आलोचना -देवीशंकर अवस्थी वाणी प्रकाशन दिल्ली सं.१९९५ पृ.१०
२२. कविता से साक्षात्कार -मलयज, सम्भावना प्रकाशन हापुड़ संस्करण-१९७९ (भूमिका से)
२३. आलोचना और आलोचना -देवीशंकर अवस्थी वाणी प्रकाशन दिल्ली सं.१९९५ पृ.११
२४. कविता से साक्षात्कार -मलयज, सम्भावना प्रकाशन हापुड़ संस्करण-१९७९ (भूमिका से)
२५. समकालीन आलोचना की भूमिका (सं)मंजुल उपाध्याय, साहित्यागार जयपुर पृ.५४
२६. कविता के नए प्रतिमान -नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन दिल्ली आठवीं आवृत्ति२००९ पृ.१०
२७. आलोचना के सौ बरस-१ (सं)अरविन्द त्रिपाठी, शिल्पायन दिल्ली-३२ सं.२००३ पृ ३०२
२८. कविता से साक्षात्कार -मलयज, सम्भावना प्रकाशन हापुड़ संस्करण-१९७९ पृ.६५
२९. मलयज स्मृति अंक-पूर्वग्रह (सं)अशोक वाजपयी (जुलाई-अक्तूबर १९८२, संयुक्तांक५१-५२) मध्य प्रदेश कला परिषद् का प्रकाशन, भोपाल पृ.१०१
३०.साहित्य-सहचर हजारीप्रसाद द्विवेदी लोकभारती प्रकाशन इलाहबाद सं.२००२ पृ.११
३१. समकालीन हिंदी आलोचना (सं)परमानन्द श्रीवास्तव साहित्य अकादमी सं.१९९८ पृ.२६१
३२. वही,२६३
३३. वही, ३६२
३४. संवाद और एकालाप -मलयज , राजकमल प्रकाशन दिल्ली सं.१९८४ पृ.२६५
३५.समकालीन हिंदी आलोचना (सं)परमानन्द श्रीवास्तव साहित्य अकादमी सं.१९९८ पृ.२६५
३६. पूर्वग्रह (सं)अशोक वाजपयी, अंक ९५-९६ पृ.४३
३७. वही
३८. रामचंद्र शुक्ल-मलयज (सं)नामवर सिंह राजकमल प्रकाशन दिल्ली-पटना प्र.सं.१९८७ (भूमिका का शीर्षक)
३९. वर्तमान साहित्य[शताब्दी आलोचना पर एकाग्र-३] (सं)अरविन्द त्रिपाठी वर्ष १९, अंक-७ जुलाई-२००२ शिल्पायन शाहदरा दिल्ली ३२
४०. बकलम खुद -मोहन राकेश, राजपाल एंड संस , दिल्ली, संस्करण१९७४ पृ.८४-८५
४१. हमकों लिख्यौ है कहा है (सं)कमलेश अवस्थी, भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली,सं२००१ पृ.२९२
४२. वही