ग्याहरवीं के प्रीबोर्ड की तैयारी कराते वक्त मेरे इतिहास के शिक्षक आर.के. शर्मा बार बार दोहराते तुगलक वंश वाले पाठ में से सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है मुहम्मद बिन तुगलक को बुद्धिमान मूर्ख क्यों कहा जाता है? प्रश्न के जवाब में वे राजधानी परिवर्तन से लेकर चाँदी की जगह ताँबे के सिक्के चलवाने और पुनः राजधानी परिवर्तन आदि पॉइंट्स को सामने रखते। पर तुगलक(निर्देशक भानु भारती) को देखते वक्त इतिहास एक विषय के
रूप में मेरे सामने रहने के बावजूद अपने व्यतिक्रम के रूप में भी मेरे सामने आया। यशपाल शर्मा जब जब तुगलक के भेष में राजनीति खेलते मुझे पिछला इतिहास पलटता दिखाई देता। मैं नहीं समझ पाता कि यह वही तुगलक है जिसका पाठ मेरे इतिहास की किताबों में मौजूद था और जिसका मुसलसल पाठ मैं उस वक्त किया करता था सिर्फ इतिहास अंक बटोरने के मकसद से। फिर खुद ही अपनी बात को काटता और मन में कहता कि यह इतिहास का तुगलक या तुगलक के इतिहास का नाट्य प्रदर्शन नहीं बल्कि तुगलक के समय और सल्तनतकालीन राजनीति का दर्शन है और निश्चित ही जिसमें समकालीनता का बोध है।
यशपाल शर्मा के काम की सबने तारीफ की है मुझे भी लगता है कि उन्होंने अपना रोल बखूबी निभाया है(आवाज़ की मैचिंग फिट न बैठने के बावजूद)। नाटक देखते वक्त मैं मुहम्मद तुगलक के चरित्र को मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझने की कोशिश कर रहा था। साथ ही ये जानने की कोशिश कर रहा था कि उसे बुद्धिमान मूर्ख के विशेषण दिए जाने के पीछ कारण क्या थे हालाँकि सवाल पुराना था पर मेरे लिए इसका जवाब पुराना नहीं था। किस तरह से आपकी आधुनिकता समय की संदर्भवत्ता के बिना पुरानी पड़ जाती है इसकी मिसाल तुगलक का चरित्र और उसकी कारगुजारियाँ हैं।
गौर करें तो उसके फैसलों(राजधानी परिवर्तन और सिक्कों के रूप में बदलाव आदि) के पीछे तुगलक के तर्क सही थे राजधानी राज्य के केंद्र में होनी चाहिए दौलताबाद दिल्ली की अपेक्षा तत्कालीन राज्य के बीचोंबीच मौजूद थी, इसी तरह सिक्के का वजूद और महत्व राज्य की मोहर से जाना जाना चाहिए, जैसाकि आज होता है। इन मायनों में देखें तो तुगलक एक दूरदर्शी और बुद्धिमान शासक था। लेकिन फैसलों को जिस तर्ज़ पर लागू किया गया और बाकि चीज़ों को नज़रंदाज़ कर दिया गया सो उसका नतीजा तुगलक ने भुगता।
खैर नाटक पसंद आया। नाटक के अंदर भानु भारती तुगलक की इस दुविधा को दिखाने में सक्षम रहे हैं, मुझे लगता है कि यशपाल शर्मा को जो तारीफें मिल रहीं हैं उसमे भी उसी दुविधा का अहम रोल है जो शुरु से अंत तक यशपाल तुगलक के भेष में चस्पा किये रहते है और कहीं उसकी बनावट में फेर नहीं आता। तुगलक को जिस खुले मंच पर(फिरोजशाह कोटला के खंडहर, किला तो अब वह रह नहीं गया) खेलने का जोखिम उठाया गया है। वह सफल रहा है। भानु भारती, रमा यादव, मधुलिका नेगी, अम्बा सान्याल, कनु भारती, आर. के. धींगरा तालियों के हकदार हैं।
यशपाल शर्मा के काम की सबने तारीफ की है मुझे भी लगता है कि उन्होंने अपना रोल बखूबी निभाया है(आवाज़ की मैचिंग फिट न बैठने के बावजूद)। नाटक देखते वक्त मैं मुहम्मद तुगलक के चरित्र को मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझने की कोशिश कर रहा था। साथ ही ये जानने की कोशिश कर रहा था कि उसे बुद्धिमान मूर्ख के विशेषण दिए जाने के पीछ कारण क्या थे हालाँकि सवाल पुराना था पर मेरे लिए इसका जवाब पुराना नहीं था। किस तरह से आपकी आधुनिकता समय की संदर्भवत्ता के बिना पुरानी पड़ जाती है इसकी मिसाल तुगलक का चरित्र और उसकी कारगुजारियाँ हैं।
गौर करें तो उसके फैसलों(राजधानी परिवर्तन और सिक्कों के रूप में बदलाव आदि) के पीछे तुगलक के तर्क सही थे राजधानी राज्य के केंद्र में होनी चाहिए दौलताबाद दिल्ली की अपेक्षा तत्कालीन राज्य के बीचोंबीच मौजूद थी, इसी तरह सिक्के का वजूद और महत्व राज्य की मोहर से जाना जाना चाहिए, जैसाकि आज होता है। इन मायनों में देखें तो तुगलक एक दूरदर्शी और बुद्धिमान शासक था। लेकिन फैसलों को जिस तर्ज़ पर लागू किया गया और बाकि चीज़ों को नज़रंदाज़ कर दिया गया सो उसका नतीजा तुगलक ने भुगता।
खैर नाटक पसंद आया। नाटक के अंदर भानु भारती तुगलक की इस दुविधा को दिखाने में सक्षम रहे हैं, मुझे लगता है कि यशपाल शर्मा को जो तारीफें मिल रहीं हैं उसमे भी उसी दुविधा का अहम रोल है जो शुरु से अंत तक यशपाल तुगलक के भेष में चस्पा किये रहते है और कहीं उसकी बनावट में फेर नहीं आता। तुगलक को जिस खुले मंच पर(फिरोजशाह कोटला के खंडहर, किला तो अब वह रह नहीं गया) खेलने का जोखिम उठाया गया है। वह सफल रहा है। भानु भारती, रमा यादव, मधुलिका नेगी, अम्बा सान्याल, कनु भारती, आर. के. धींगरा तालियों के हकदार हैं।