सोमवार, 9 अप्रैल 2018

2017 का देवीशंकर अवस्थी सम्मान युवा आलोचक अमिताभ राय को


2017 का देवीशंकर अवस्थी सम्मान युवा आलोचक अमिताभ राय को
2017 का देवीशंकर अवस्थी सम्मान युवा आलोचक श्री अमिताभ राय को उनकी पुस्तक सभ्यता की यात्राः अंधेरे मेंके लिए दिया गया। उन्हें यह सम्मान रवींद्र भवन, नई दिल्ली के साहित्य अकादमी सभागार में आयोजित एक समारोह में वरिष्ठ आलोचक श्री विश्वनाथ त्रिपाठी ने प्रदान किया। इस वर्ष की सम्मान समिति में अशोक वाजपेयी, राजेंद्र कुमार, नंदकिशोर आचार्य और कमलेश अवस्थी शामिल थे।  आलोचना के क्षेत्र में दिया जाने वाला यह प्रतिष्टित पुरस्कार हिंदी के सुप्रसिद्ध आलोचक स्वर्गीय श्री देवीशंकर अवस्थी की स्मृति में उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कमलेश अवस्थी द्वारा वर्ष 1995 में स्थापित किया गया। यह सम्मान अवस्थी जी के जन्मदिवस के अवसर पर प्रतिवर्ष 45 वर्ष तक की आयु के किसी युवा आलोचक को दिया जाता है। सम्मान के तहत साहित्यकार को प्रशस्तिपत्र, स्मृति चिह्न और ग्यारह हजार रुपये की राशि प्रदान की जाती है। अब तक यह सम्मान सर्वश्री मदन सोनी, पुरुषोत्तम अग्रवाल, विजय कुमार, सुरेश शर्मा, शम्भुनाथ, वीरेंद्र यादव, अजय तिवारी, पंकज चतुर्वेदी, अरविंद त्रिपाठी, कृष्ण मोहन, अनिल त्रिपाठी, ज्योतिष जोशी, प्रणय कृष्ण, प्रमीला के. पी. संजीव कुमार, जितेंद्र श्रीवास्तव, प्रियम अंकित, विनोद तिवारी, जीतेंद्र गुप्ता, वैभव सिंह एवं पंकज पराशर को प्रदान किया जा चुका है।
परंपरानुसार देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह में किसी एक प्रासंगिक विषय पर व्याख्यान का आयोजन भी किया जाता है। इस बार का विषय था आलोचना और अंतःकरणइस विषय पर बोलने के लिए आमंत्रित वक्ता थे राजेंद्र कुमार, नंदकिशोर आचार्य और अच्युतानंद मिश्र। समारोह की अध्यक्षता नंदकिशोर आचार्य ने की।
संजीव कुमार ने इस सम्मान समारोह का संचालन करते हुए देवीशंकर अवस्थी की पुस्तक नयी कहानी संदर्भ और प्रकृति  के हवाले से कहा कि अवस्थी जी की आलोचना में चीज़ो को एकांगी तरीके से देखने की दृष्टि नहीं मिलती वहाँ एक समेकित दृष्टि दिखाई देती है। अवस्थी जी इस सम्मान समारोह में इस रूप में हमारे बीच मौजूद हैं। यह 23वाँ देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह है। एस सुखद क्षण यह भी है कि देवीशंकर अवस्थी की रचनावली रेखा अवस्थी और कमलेश अवस्थी के संपादन में वाणी प्रकाशन से  छप कर आ गई है।
अगर नयी कविता की तर्ज पर नयी आलोचना भी होती तो विवेक के रंग पुस्तक उसका मुखपत्र होती - विश्वनाथ त्रिपाठी
इस मौक़े पर विश्वनाथ त्रिपाठी ने देवीशंकर अवस्थी के साथ बिताये संस्मरणों को साझा करते हुए कहा कि यह सम्मान समारोह हिंदी साहित्य के इतिहास में धँस चुका है। हमने पत्नी के लिए जिन विशेषणों को सुना है उसमें एक शब्द अर्धांगिनी भी है भाभी कमलेश अवस्थी ने सत्यनिष्ठा और कर्मठता से इस शब्द को सार्थक किया है। इतनी कम उम्र में बाबू देवीशंकर अवस्थी जितना लिख गए यह किसी आश्चर्य से कम नहीं, और जिस तन्मयता से उनकी रचनाओं को सहेजा गया उन्हें सुरक्षित रखा गया इसके लिए  भाभी साधुवाद की हकदार हैं।
हिंदी साहित्य के सुधी पाठक जानते हैं कि हिंदी साहित्य में भूमिकाओं के रूप में महत्त्वपूर्ण साहित्य का सृजन हुआ है । विवेक के रंग सन् 1964 में प्रकाशित हुआ है इसका नाम ही बताता है कि अवस्थी जी ने कितना परिश्रम किया होगा। इसकी भूमिका को पढ़ने से ही मालूम हो जाता है कि उनकी अपने समकालीन साहित्य पर कितनी जबरदस्त पकड़ थी। अगर नई कहानी और नयी कविता की तर्ज पर नयी आलोचना भी होती तो विवेक के रंग नामक पुस्तक उसका मुखपत्र होती।
एक आलोचक की पहचान यह भी है कि वह अपने समय की अच्छी और खराब रचना को अलग करें। यह रेखांकित किया गया है कि रचना को आलोचना से अनुकूलित होना चाहिये । यह बहुत सुखद है कि पश्चिम की नयी समीक्षा का प्रभाव होने के बावजूद देवीशंकर अवस्थी की आलोचना पश्चिम की नयी समीक्षा के दबाव को अपने ऊपर नहीं चढ़ने देती। इस सब से लगता है कि वो एक बहुत बड़ी तैयारी कर रहे थे। मुझे लगता है कि देवीशंकर अवस्थी एक मैराथॉन रेस के लिए खुद को तैयार कर रहे थे और अगर आज वो जीवित होते तो आलोचना संसार में एक चमकता हुआ नाम होते।
विश्वनाथ त्रिपाठी ने मॉडल टाउन की स्मृतियों को याद करते हुए कहा कि जब वो मॉडल टाउन में रहते थे तब हमारा रोज ही मिलना होता था। मेरे मन में कभी कभी आता है कि मैं मॉडल टाउन की स्मृतियों के बारे में लिखूँ वो अच्छा बुरा हो तो हो, पर रोचक जरूर होगा।
आलोचक साहस और निर्भीकता को किसी भी कारण से कभी  न छोड़े – अशोक वाजपेयी
कवि आलोचक अशोक वाजपेयी ने कहा कि अब कम ही लोग बचे हैं जो देवीशंकर अवस्थी से मिले हैं या जिन्हें उनके साथ का सौभाग्य मिला है। उन्होंने मज़ाकिया लहज़े में कहा कि तब मैं यहाँ नया नया आया था और सैंट स्टीफन कालेज का छात्र था। तो ऐसे समय में अवस्थी जी के इशारे पर या वो इशारा न भी करें तब भी उनके घर चला जाया करता था जहाँ एक निशांत गोष्ठी हुआ करती थी जिसका नियम था कि जो लोग उस गोष्ठी में हैं उसकी कोई प्रशंसा नहीं करेंगे और जैसे ही कोई व्यक्ति उस गोष्ठी से जाएगा उसकी निन्दा शुरु कर देंगे तो लोग वहाँ से जाने में संकोच करते थे।
उन दिनों मैंने एक समीक्षा लिखी थी रघुवीर सहाय पर तब मेरी उम्र उन्नीस बरस थी वह समीक्षा कृति में छपी थी  और तब हिंदी साहित्य में हमारा काहे का स्थान था उसी दौरान अवस्थी जी ने फोन किया और पूछा कि विवेक के रंग में तुम्हारी कौन सी समीक्षा शामिल करें तब मैंने रघुवीर सहाय वाली समीक्षा के लिए कह दिया तब उन्होंने बताया कि रघुवीर सहाय से भी उनकी बात हुई है रघुवीर सहाय ने भी कहा है कि अशोक वाली समीक्षा ले लीजिये। इस तरह विवेक के रंग में मैं उम्र में सबसे छोटे  समीक्षक के रूप में शामिल हुआ। बहरहाल  आलोचक का एक काम यह भी है कि वो साहस और निर्भीकता को किसी भी कारण से कभी  न छोड़े। चारू चंद्रलेख की जैसी समीक्षा उन्होंने की वह निर्भीकता और साहस का काम है क्योंकि यह समीक्षा उनके गुरू हजारीप्रसाद द्विवेदी  की पुस्तक की समीक्षा थी। हर बार की तरह उन्होंने यह बात पुनः दोहराई इतने सालों में भी कमलेश जी ने कभी भी ज्यूरी के निर्णय में हस्तक्षेप नहीं किया ।
देवीशंकर अवस्थी ने अपनी आलोचना के सेतु परंपरा और समकालीनता से बनाए हैं - रेखा अवस्थी
इस मौके पर रेखा अवस्थी ने देवीशंकर अवस्थी रचनावली के संपादन के दौरान मिले अनुभव को साझा करते हुए कहा कि मैंने इस रचनावली की भूमिका की शुरुआत ही निराला की प्रसिद्ध पंक्ति क्या कहूँ आज जो नहीं कही से की है, हर बार यही लगता था कि क्या कहूँ आज जो नहीं कही।  इस रचनावली का प्रकाशन वास्तव में आप सबके सहयोग और भाभी श्रीमती कमलेश अवस्थी की तपस्या का फल है मैं तो केवल साधन मात्र हूँ भाभी ने कैसे एक एक चीज़ संभाल कर रखी, हमारे घर में  आज भी1957-58 के कागज़ और पैम्फ्लैट तक मौजूद हैं, ये सब भाभी(कमलेश अवस्थी) की मेहनत का प्रतिफल है।
हमारे बड़े भाई देवीशंकर अवस्थी ने हमें कैसे उस अभावग्रस्तता में संभाला होगा कबीर ने कहा था कबीर बादल प्रेम का हम पर बरसा आई, अंतर भीगी  आत्मा हरी भरी बनराई।  उनका संरक्षण अगर हमें न मिलता, उनकी मेहनत, उनके सरोकार हमने देखे उनका प्रेम और जीवन उनकी कर्मठता हमारे लिए प्रेरणा और शक्ति है। देवीशंकर अवस्थी रचनावली के प्रकाशन के दौरान मिले अनुभवों का साझा करते हुए रेखा अवस्थी ने बताया कि इस रचनावली में 2232 पृष्ठ हैं समस्या यह थी कि इस रचनावली को कैसे संपादित करें कैसे वर्गीकृत करें। मेरी कोशिश ये रही कि लेखन का ऐतिहासिक क्रम इस रचनावली में जरूर उभरे, इसलिए मैंने उनके द्वारा संपादित सभी किताबें विवेक के रंग आदि देखीं कि वे कैसे पुस्तकों का संपादन करते थे उनकी संपादकीय दृष्टि ने भी मेरी रचनावली के संपादन में मदद की। मैंने आलोचना के लेखों का विधागत और तिथिक्रम का ध्यान रखा मैंने ये भी ध्यान रखा कि उनकी आलोचना और लेखों का जो व्यावहारिक पक्ष है वह भी साथ साथ चलता रहे। इस सबमें मुझे अशोक वाजपेयी से बहुत मदद मिली। वो हमारे सलाहकार रहे।
इस रचनावली के सहयात्री बहुत सारे हैं। मैंने इस रचनावली में उपन्यास, आलोचना, कहानी, कविता, और नाटक नामक विधा के साथ ही उनके समीक्षा लेखों को साथ रखा। इस तरह एक खण्ड में पाँच उपखण्ड रखे हैं। इस अवसर पर श्रीमती रेखा अवस्थी ने सन 1954 में लिखी देवीशंकर अवस्थी की कविता लेना, देना,और जीना भी श्रौताओ के साथ साझा की।
जीवन की अशेष संभावनाएँ चुके नहीं
मन के विकार ये यूहीं मिटे नहीं
निर्धूम अग्नि से निस्पंद वायु से निस्तब्ध ताल से
निस्तब्ध स्थिति प्रज्ञ से हमको होना नहीं।
ये सही है कि पूर्व युगों से लेना है हमें
और आगे आने वाली पीढियों को बहुत कुछ देना है हमें
फिर भी हम भूलें क्यों
लेना है और देना है हमें जीवित वर्तमान से।
इस रचनावली में हमने देवीशंकर अवस्थी की संपादित पुस्तकों की भूमिकाएँ, समय समय पर लिखी टिप्पणियाँ और साथ ही कलयुग के अंकों को स्कैन करके इस रचनावली में प्रकाशित किया गया है। एक लेख जो प्रेमाभक्ति पर है वो अब तक छपा नहीं था। उसे हमने इस रचनावली में स्थान दिया है। अवस्थी जी के शोध प्रबंध की प्रासंगिकता आज के दौर में और अधिक बढ़ गई है जब स्त्री विमर्श और जेंडर की समझ के दायरे सिकुड़ते जा रहे हैं ऐसे समय में अवस्थी जी का शोध प्रबंध खासकर उसमें मधुरा भक्ति वाला लेख जरूर पढ़ा जाना चाहिए। इसलिए मुझे लगता है कि देवीशंकर अवस्थी ने अपनी आलोचना के सेतु परंपरा और समकालीनता से बनाए हैं इनके बीच से उन्होंने अपना रास्ता बनाया है।

पुरस्कृत आलोचना पुस्तक समाजशास्त्रीय और शैलीवैज्ञानिक दोनों प्रकार की आलोचना पद्धतियों के सहारे कविता के पाठ का द्वार खोलती है।- निर्णायक मंडल
हिंदी में किसी एक कविता पर पूरी पुस्तक लिखने का चलन प्रायः नहीं रहा है। इस दृष्टि से मुक्तिबोध की सबसे ज्यादा चर्चित कविता अंधेरे में पर इतने विस्तार और इतनी गंभीरता से पूरी पुस्तक लिखकर श्री अमिताभ राय ने हिंदी आलोचना में जो नई शुरुआत की है, आशा की जा सकती है कि प्रबुद्ध पाठकों का ध्यान वह अवश्य आकृष्ट करेगी। यह बात प्रो. राजेंद्र कुमार ने अमिताभ राय को सम्मान देते हुए उनकी प्रशस्ति में कही।
 23वां देवीशंकर अवस्थी सम्मान अमिताभ राय को प्रदान करते हुए उन्होंने आगे कहा कि यह पाठ-केंद्रित आलोचना का एक महत्त्वाकांक्षी प्रयास है। पाठ की निर्मिति कैसे होती है, पाठ को खोलने की प्रविधियाँ क्या क्या हो सकती हैं, इन प्रश्नों से जूझते हुए इस पुस्तक का लेखक अंधेरे में कविता के पाठ को इस तरह विश्लेषित करता है कि इस विश्लेषण के बहाने मानव सभ्यता की अब तक की यात्रा के विभिन्न पड़ावों को रेखांकित किया जा सके।
यह आलोचना पुस्तक समाजशास्त्रीय और शैलीवैज्ञानिक दोनों प्रकार की आलोचना पद्धतियों के सहारे कविता के पाठ का द्वार खोलती है। यहाँ तक कि लंबी कविता से पूर्ण विराम, अर्द्ध विराम और विस्मयबोधक चिह्न वगैरह भी कविता के पाठ को खुलने देने में  कितनी मदद करते हैं, इस संबंध में भी श्री अमिताभ राय ने अपने विश्लेषण में कई सार्थक संकेत किए हैं।
अस्तु, श्री अमिताभ राय को उनकी पुस्तक सभ्यता की यात्राः अंधेरे में पर वर्ष 2017 का देवीशंकर अवस्थी सम्मान सर्वसम्मति से दिया जा रहा है।
आलोचना का मुख्य कार्य ढ़ाँचे का निर्माण करना है- अमिताभ राय
अमिताभ राय ने अपने वक्तव्य में कहा कि मुझे ये बार बार महसूस होता है कि यह पुरस्कार मुझे इसलिए दिया गया कि मेरी पुस्तक का संबंध मुक्तिबोध से जुड़ा हुआ था मैं स्वयं को बहुत अव्यवस्थित इंसान मानते हूँ जबकि अपने इर्द गिर्द सभी लोगो को बेहद व्यवस्थित पाता हूँ।
इस अवसर पर आलोचना और अंतःकरण विषयक गोष्ठी भी आयोजित की गई इस विषय पर अमिताभ राय ने अपना वक्तव्य देते हुए कहा कि इसे मैं विषय की तरह नहीं प्रश्न की तरह ले रहा हूँ। यह प्रश्न इसलिए उभरता है क्योंकि हम आज भी आलोचना को एकायामी रूप में एक शास्त्रीय विधा के रूप में या अकादमिक प्रणाली के रूप में देखते हैं।
वस्तुतः आलोचना इंसान का बिल्कुल बुनियादी गुण है बच्चे से लेकर वृद्ध तक में आलोचकीय प्रवृत्ति को देखा जा सकता है। जब हम आलोचना की बात कर रहे होते हैं तो अकसर रचना को छोड़ देते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि हर बड़ी और सार्थक कृति अपने युग की सबसे बड़ी आलोचना होती है। तब सवाल उठाना चाहिए कि आलोचना रचना है कि नहीं।  वास्तव में अकादमिक दुनिया  का जो सार्थक हिस्सा है, वह समाज के लघु वृहत वृत्तों से ही अपने लिए पोषक तत्त्व ग्रहण करता है न कि रचना से।
अमिताभ ने आलोचना का मुख्य कार्य ढ़ाँचे का निर्माण करना माना जो बहुत ठोस होता है जिसे अनुपम और विचित्र शब्दावली के माध्यम से नहीं दर्शाया जा सकता। यह ढ़ाँचा स्वायत्त न होकर समाज, और उसकी संस्कृति परंपरा की एक सघन संरचना है। इनमें से प्रत्येक की सिद्धि एक दूसरे के साथ ही है। उनका मानना है कि इस ढ़ाँचे के निर्मित हो जाने पर हम इसके अवयवों पर बात नहीं करते । इसी तरह हम रचना के पूरा हो जाने पर उसके निर्माण में सम्मिलित तत्त्वों की अलग अलग चर्चा नहीं करते।
अपने वक्तव्य के अंत में उन्होंने कहा कि रचनाकार के लिए नैतिकता और मानवीयता आवश्यक है वैसे ही आलोचक के लिए भी नैतिकता आवश्यक है। यह आवश्यक है क्योंकि हम जिस समाज में रहते हैं जिस परिवार में रहते है वह वास्तविक धरातल पर न्यूनाधिक सामन्ती ही है। एक सामाजिक के रूप में मानवीयता के पक्ष में खड़े होने के लिए हमें निरंतर अपने परिवार और समाज की सामंती जकड़नों को धकेलना पड़ता है। यह मानवीय आवश्यकता और नैतिकता हमें सत्य के पक्ष में खड़े होने का साहस देती है। अन्यथा सामंती जकड़नों में पूँजीवादी वीभत्स में और अपने निजी स्वार्थों के वशीभूत हम अक्सर जीबन में समझौते करते चलते हैं। 
एक ऐसी सर्विलांस व्यवस्था है जो हमारे भीतर प्रत्यारोपित हो गई है - अच्युतानंद मिश्र
उन्होंने वर्तमान संदर्भ सापेक्षता में अपना वक्तव्य देते हुए कहा कि आज जब हम आलोचना और अंतःकरण की बात कर रहे हैं तब हमें यह देखना होगा कि आलोचना को साहित्य तक सीमित करके नहीं देखा जा सकता। समय को केवल एक ही धारा में देखते रहने के आदि होने के बजाय हमें यह भी समझना होगा कि इसके बीच में जो ब्रेक पॉइंट्स आते हैं वहाँ से इसे कैसे देखा जाए। आलोचना पर बात करते हुए उन्हें लगता है कि आलोचना की शुरुआत आधुनिकता के उदय के साथ होती है। इस तरह से देखें तो आलोचना का प्रस्थान बिंदु फ्रांसीसी क्रांति यानि 1789 के आस पास से परिलक्षित होता है। आचार्य शुक्ल ने भी कविता पर बात करते हुए काव्यशास्त्रीय चिंतन में काव्यचिंतन को लेकर जो तमाम तरह की बातें कही थीं शुक्ल जी उन सब पर बात करते हैं।
शुक्ल जी की खासियत है कि वे कविता को अंतर्आनुशासनिक तर्ज पर मसलन कविता को मनोविज्ञान आदि अन्य विषयों से संबद्ध करते हुए देखते हैं। यह आधुनिक आलोचना की एक प्रवृत्ति थी। अच्युतानंद ने आगे कहा कि आप देखें एडवर्ड सईद ने संगीत पर किताब लिखी, वाल्टर बैंजामिन का एक लेख है द वर्क ऑफ आर्ट इन द एज ऑफ मैकेनिकल रिप्रोडक्शन(यांत्रिक पुनर्उत्पादन के युग में कला का काम) जिसमें वे इस बात पर बल देते हैं कि कैमरे के आने के बाद रचनात्मकता कैसे प्रभावित हुई। आलोचना के संदर्भ में भी यह बात लागू होती है।
कांट के हवाले से उन्होंने कहा कि सामंतवाद और पूंजीवाद के बीच विभाजक रेखा समय का बोध है। समय का बोध होने से एक नए तरह के समाज का निर्माण होता है मुझे लगता है कि अट्ठारहवी शताब्दी के तमाम बिंदु (स्वतंत्रता, समानता आदि) आलोचना से संबद्ध है। जो कुछ भी तार्किक है वह मानवीय चिंतन के दायरे में आता है। मुझे लगता है कि यहाँ से आलोचना का त्रिकोण बनता है। जिसमें एक तरफ बाहरी दुनिया है, एक तरफ आंतरिक और दूसरी तरफ हमारा व्यक्तित्व है। मुक्तिबोध संभवतः हिंदी के पहले लेखक हैं जो इस त्रिकोण  की बुनियाद को अपने चिंतन में शामिल करते हैं।
 उन्होंने दोस्तोवस्की के उपन्यास के हवाले से कहा कि जैसे उनके एक उपन्यास के पात्र को यह महसूस होता कि कोई आँखें उसे घूर रहीं हैं वह पीछे मुड़कर देखता और किसी को नहीं पाता है। उसे लगता है ये आँखें उसकी पीठ पर चिपकी हुई हैं। अच्युतानंद आधुनिक कैमरे की इजाद को इस दृश्य से जोड़ते हैं और कहते हैं कि यह कैमरे की एक ऐसी सर्विलांस व्यवस्था है जो हमारे भीतर प्रत्यारोपित हो गई है  और यही प्रत्यारोपण हमारे पूरे अंतःकरण को बाँट देता है। जिसकी सबसे खतरनाक बात यह है कि हम खुद पर ही निगरानी रखने लगते हैं। इस सर्विलांस सिस्टम से हमारा अंतकरण समस्याग्रस्त हो गया है। दरअसल कैमरा सिर्फ आभासी है दरअसल हम स्वयं ही खुद को देख रहे हैं। कैमरे की निगाह से कोई नहीं देख रहा। अच्युतानंद इस चुनौती की ओर इशारा करते हैं कि आज हम आलोचना, आलोचनात्मक विवेक, अंतकरण और अंतकरण की आवाज़ को कैसे इन तमाम तरह की दिक्कतों के बावजूद सुरक्षित रख सकते हैं।
उन्होंने मार्क्स के हवाले से कहा कि कार्लमार्क्स ने एक बहुत सुंदर बात कही थी कि मनुष्य के पास जो शक्ति है वह है उसके हाथ और उसकी संवाद करने की ताकत। अगर हम इस संवाद को एक नई तरह से विकसित करें तो हम कुछ सकारात्मक कर सकते हैं।
आलोचना विवेक और संवेदना का योग है - राजेंद्र कुमार
अपने वक्तव्य से पहले प्रो. राजेंद्र कुमार ने बताया कि जब वे डीएवी कॉलेज में बीएस. सी कर रहे थे तब देवीशंकर अवस्थी वहाँ अध्यापक हो चुके थे उन्होंने अवस्थी जी की स्मृति को नमन किया और अमिताभ को बधाई देते हुए अपने वक्तव्य में कहा कि आलोचना और अंतःकरण नामक विषय में अंतःकरण शब्द उन्हें परेशान करता है, उन्होंने सवाल कि आखिर क्या अर्थ लिया जाए इसका। अगर इसका संबंध विवेक से माने जिसका अवस्थी जी कई जगह इस्तेमाल करते हैं। तब सवाल उठता है कि क्या विवेक और अंतःकरण एक ही चीज़ है। अपने वक्तव्य में वे इस बात को इंगित करते हैं कि आज विवेक एक तरह की चालाकी बन गया है अब लोगों द्वारा समय और अवसर को देखकर विवेक का सहारा लिया जाता है। अगर विवेक को चालाकी न माने तो अंतकरण शब्द विवेक का समानार्थी न होने के बावजूद भी इससे संबद्ध है। आलोचक को समझना चाहिए कि उसके विवेक के तकाज़ों की तरह ही उसके अंतःकरण के तकाज़े भी महत्त्वपूर्ण हैं।
आलोचना में आलोचक का विवेक और अंतकरण दोनों ध्वनित होने चाहिए हम सभी के भीतर एक आंतरिक संकाय मौजूद रहता है जो हमें गलत और सही का निर्णय लेने में मदद करता है। मिल्टन की एक बड़ी मशहूर स्पीच है जिसमें उन्होंने जितने भी प्रकार की स्वतंत्रताएँ हो सकती हैं उनमें सबसे बड़ी स्वतंत्रता की परिभाषा देते हुए तीन चीज़ो को प्रमुख माना है। जानना, कहना, और बहस करना। यानि जानने, कहने और बहस करने की स्वतंत्रता को मिल्टन सर्वोपरि मानता है। कविता के संदर्भ में भी यह बात कही जा सकती है और यह आलोचना के लिए भी उतनी ही जरूरी है। इसलिए जब भी हम अंतकरण के हवाले से आलोचना पर बात करें तो यह जरूरी हो जाता है कि अंतकरण की पहचान की जाए। इसके तीन पक्ष हो सकते हैं। पहला रचना के अंतकरण की पहचान, दूसरा उस रचना के रचयिता के अंतकरण की पहचान,  और तीसरा है आलोचना के अंतकरण की पहचान। इन तीन स्तरों पर विचार करना चाहिए  साही जी ने भी कहा है कि रचना के अंतकरण की पहचान के साथ अपनी संवेदनात्मक ग्रहणशीलता का मेल करना होता  है।
आज की आलोचना का यह दुर्भाग्य है कि आलोचना,  रचना हमें क्या सौंपना चाहती है इसका पता नहीं दे पा रही। आलोचक के आग्रह, उसकी प्रतिबद्धता, उसकी विचारधारा का पता देने में ही अधिकांश आलोचना खत्म हो जाती है, यह हमारे समय की विडंबना है। रचनाकार जो रचना में दे रहा है यह आवश्यक नहीं है कि जो रचनाकार की सीमा हो वही रचना की सीमा भी बन जाए। तुलसी के संदर्भ में भी यह देखा जा सकता है। तुलसी ने शंबूक वध का प्रकरण निकाल दिया जबकि वाल्मीकि रामायण मे ये है। संभवतः यह प्रकरण उनके अंतकरण की व्यापकता की वजह से नहीं आ सका हो। ताल्सटाय के हवाले से राजेंद्र कुमार ने कहा कि ये कोई जरूरी नहीं है कि रचनाकार का व्यक्तित्व जैसा है वैसी ही चींज़े उसकी रचना में भी आ जाए, ऐसा नहीं है।
आलोचना और आलोचक के अंतकरण के सवाल को उठाते हुए प्रो. राजेंद्र कुमार ने आगे कहा कि  इसके लिए दो बातें जान लेनी जरूरी हैं। पहला, आलोचना एक बौद्धिक कार्यवाही होने के बावजूद भी संवेदनहीन नहीं होती आलोचक का अपना अंतकरण इस संवेदना को बरकरार रखता है। अगर कोई उन्हें कहे कि आलोचना की परिभाषा कीजिए तो वे कहेंगे कि आलोचना विवेक और संवेदना का योग है और दूसरी बात यह कि आलोचना में बहुमत की अवधारणा जैसी कोई चीज़ नहीं होती। मलयज की डायरी के हवाले से राजेंद्र कुमार ने कहा कि आलोचना के प्रत्येक क्षण में मैं और अकेला होता जाता हूँ इससे मलयज आलोचना में स्वतंत्र विवेक के साथ आलोचनात्मक ईमानदारी को बनाए रख सके चाहे बहुमत कुछ कहता हो मलयज ने अपने अंतःकरण की सुनी। हमें सोचना होगा कि एक सार्थक आलोचना में अंतकरण की आवाज को कैसे बनाए रखा जाए।
साहित्य के अंतकरण से पहले आलोचना स्वयं के अंतकरण की पहचान करे - नंदकिशोर आचार्य
नंदकिशोर आचार्य ने अपना अध्यक्षीय वक्तव्य से पहले अमिताभ राय को बधाई दी और कहा कि देवीशंकर अवस्थी जी की स्मृति के बहाने आलोचना की प्रतिभाओं को खोजने का जो काम कमलेश अवस्थी और उनके परिवार ने किया इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं।
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में उन्होंने कहा कि अंतकरण की पहचान करने के लिए ही साहित्य काम नहीं करता बल्कि साहित्य उसकी निर्मिति भी करता है। सवाल है कि आलोचना का काम क्या है उसका कार्य है साहित्य में रचना का मूल्याँकन और साहित्य के अंतकरण की पहचान करना । इससे पहले की वह साहित्य के अंतकरण की पहचान करे उसे स्वयं के अंतकरण की पहचान करनी चाहिए।
अंतःकरण को नैतिकता से संबद्ध मानते हुए नंदकिशोर आचार्य ने कहा कि हमारी परंपरा में दो तरह की नैतिकता मानी गई है। एक सदाचार और दूसरी लोकाचार से संबंधित है। अहल्या और द्रौपदी का हवाला देते हुए उन्होंने शास्त्रगत नैतिकता और लोकगत नैतिकता की बात की। अन्ना कैरेनीना का उदाहरण देते हुए नंदकिशोऱ आचार्य ने कहा कि इस उपन्यास को पढ़ते हुए हमारी सारी सहानुभूति अन्ना के साथ जाती है कैरेनिन के साथ नहीं। पास्तरनाक भी डॉ. जियागो में इस शास्त्रगत नैतिकता के पक्ष में खड़े नहीं होते। यही नहीं जैनेन्द्र गाँधीवादी होने पर भी अपने अंतकरण से मृणाल के चरित्र का गठन करते हैं। जबकि यह पात्र गाँधीवाद के सिद्धांत के अनुकूल नहीं है। इसी तरह धनिया के चरित्र को देखें इसका गठन भी लेखक अपने अंतकरण से इन चरित्रों का निर्माण करता है।
लेखक किसी रणनीतिकार की तरह से अपनी नैतिकता तय नहीं करता इसलिए रचनाकार को भी इसका खयाल रखना चाहिए। प्रसंगवश नैतिकता कई बार विरुद्ध चली जाती है। मुक्तिबोध जैसा बड़ा लेखक भी रणनीतिगत नैतिकता का शिकार हो जाता है। स्टालिन के नरसंहार के प्रति मुक्तिबोध शांत रह जाते हैं। वहाँ उनका अंतकरण मूलभूत नैतिकता के विरुद्ध दिखाई देता है। महात्मा गांधी ने अपने अंतकरण  से कई बार ऐसे निर्णय लिए जिससे बहुत सारे लोग सहमत नहीं थे उन्होंने बहुत लोगों की आलोचना सही, पर अपने अंतकरण का भी खयाल रखा। आलोचना का मुख्य काम रचना को किसी एक नजरिये से या एकांगी रुप में देखने में नहीं बल्कि रचना को उसकी संश्लिष्टता में देखने का प्रयास करने में निहित है।
इस मौके पर अरुण माहेश्वरी ने रचनावली के प्रकाशन में रेखा अवस्थी, मुरली बाबू, और कमलेश जी को धन्यवाद दिया कि उन्होंने वाणी प्रकाशन में विश्वास जताया और उन्हें इसके प्रकाशन का बृहद काम सौंपा।
कार्यक्रम के आरंभ में इस वर्ष दिवंगत हुए साहित्यकारों को श्रद्धांजलि दी गई ।
                                                                                                                       
प्रस्तुति – तरुण गुप्ता