शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

एक डायरी जो सही मायनो में आलोचना या समीक्षा है ।

मलयज को शायद उन गिने-चुने लोगों में शुमार होने का गौरव प्राप्त होना चाहिए , जिन्होंने अपनी डायरी को अपनी निजी समस्याएँ ना बताकर उसे सामाजिक और सांस्कृतिक सरोकारो से जोड़ा ।
जिसे आज एक उपलब्धि माना जाना चाहिए । मलयज ने अपने डायरी लेखन की शुरुआत सोलह वर्ष(१९५७ ई.) की उम्र में की और इस सिलसिले को सन् १९८२ की अप्रैल तक(जब तक उनकी साँस चलती रही) जारी रखा। यह डायरी भी अधिकतर डायरियों की तरह नियमित नहीं है क्योंकि हम पहले ही कह चुके हैं कि यह निजी ना होकर सामाजिक और सांस्कृतिक अधिक है । जो काम मुक्तिबोध की , 'एक साहित्यिक की डायरी करती है'( यानि अपना पक्ष और विपक्ष रखने का और अपने समय के लेखकों से ये कहने का कि 'तय करो किस ओर हो तुम') बिलकुल वही काम तो मलयज की डायरी नहीं करती लेकिन हाँ कुछ-कुछ वैसा ही काम यह करती दिखती है यदि हम १९५७-१९८२ तक की डायरी को पढ़ जाए तो हम देखेंगे कि जिस आवाज़ को मुक्तिबोध एक छोटी किन्तु महत्वपूर्ण पुस्तक में बुलंद करते हैं लगभग उसी के समानांतर मलयज उसी आवाज़ को अपने समय की गोष्टियों( खासकर परिमल की) मे ज़ाहिर करते, उन पर अपना पक्ष-विपक्ष और अपने समकालीन अग्रजों से सहमति-असहमति को व्यक्त करतें दिखते हैं । मुक्तिबोध को अपने काम का पूरा हक़ मिला है(मरणोपरांत ही सही) , मिलना भी चाहिये । किन्तु क्या मलयज को ...............।खैर ,
साठ-सत्तर का दौर, ऐसा दौर था जब अधिकतर लेखक डायरियाँ लिखा करते थे। आज कितने लेखक लिखते है नही पता संभवत् उनके सामने ऑनलाइन मैगज़ीन और ब्ल़ॉग जैसे विकल्प है शायद इसलिये । खैर हमारा मक़सद किसी लेखक की उपेक्षितता पर स्यापा करना नहीं । हमारा सिर्फ ये कहना है कि कम से कम एक बार, सरसरी नजर से ही सही इस डायरी को पढ़ा जाए । आपको इसमें परिमल के ज़माने की बहस के मूल बिन्दुओं जैसे लघुमानव , लेखक और राज्य आदि पर एक अलग सोच मिलेगी जो हमारे समकालीनों में हमें कम दिखाई देती है । प्रस्तुत हैं मलयज की डायरी, भाग-१ से कुछ उद्धरण----- (१६ दिसंबर,१९५७) 'रचना की प्रक्रिया में यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि हम उस अनुभूति को उसकी तीख़ी सच्चाई के साथ उसे जीते हुए , उससे जूझते हुए , उससे आँखें मिलाते हुए उसे अभिव्यक्ति देते हैं या नहीं या उसकी स्वीकृति देते है या नहीं क्योंकि तब इसमे मन के और जीवन के तथा प्रकारांतर से समाज में अनेक गुह्य अग्यात स्तरों का उद्घाटन होता चलता है और निश्चय ही उसमें हमारा भी एक अंश होता है । उस अंश की श्रेष्टता और व्यापकता रचनाकार की भी श्रेष्टता और व्यापकता है ।'
(धर्मवीर) भारती ने कहा- 'कविता करते समय टी .एस.इलियट ,भामह ,आई.ए.रिचर्ड आदि हमारे काम नहीं आते -हम जो उन्हें पढ़ें , उनसे प्रभावित भी हों किन्तु कविता मुझे करनी है और इसमे यानि काव्य सृजन के स्तर पर-ये सब हमारे काम नही आते ।' मैं इससे सहमत नहीं हूँ - 'भारती का आशय मोटे तौर पर यह था कि काव्य सृजन के क्षण में बाह्य प्रभावों का कोई उपयोग नहीं ।' लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता । बाह्य या इलियट, भामह ,आई.ए.रिचर्डस आदि काव्य सृजन के क्षण में न सिर्फ सहायक होते है वरन् काव्यसृजन की धारा को मो़ड़ते भी हैं । (मलयज की डायरी भाग-१ पृष्ठ-३४८, संपा.नामवर सिंह )
(जारी)

भ्रूण की आवाज़

मैंने कब कहा
मुझे तुम प्यार करो ।

मैंने कब कहा
मेरा ध्यान रखो ।

बस

मुझे पेट में न मारा करो ।
(पुन:प्रकाशित )

बहुत देर कर दी सनम कहते-कहते

जब मैंने कहा
मुझे तुमसे प्यार है
तुमने कुछ नही कहा
बस
तुम हँस दीं ।

जब मैंने कहा
मैं तुम्हें चाहता हूँ बेपनाह
तुमने कुछ नही कहा
बस,अपनी उँगलियाँ मेरे होंठो पे रख दीं ।

जब मैंने कहा
चलो आज फिल्म देखने चलते हैं
तुमने कुछ नही कहा
तुम मुस्कुराईं और क्लास लेने चलीं गईं ।

जब मैंने कहा
शाम मस्तानी है पार्क में चलें क्या ?
तुमने तब भी कुछ नही कहा
मेरा हाथ थामा और चल दीं ।

जब मैंने कहा
शादी करोगी मुझसे
तुमने कहा- पागल हो गए हो क्या ?
आज के बाद हम कभी नही मिलेंगे ।
(पुन:प्रकाशित )

बुधवार, 26 अगस्त 2009

बरसात की एक शाम

इस मौसम की सबसे जोरदार बरसात
अबके नहीं आई मुझे तुम्हारी याद ......क्यों?
क्या इसलिए
कि मै
अब तक
अपने घर के निचले तल से
पानी निकालने में व्यस्त था
या फिर अब तक
घर न लौटे भाई की
चिंता सता रही थी मुझे
या फिर इन सबसे अलग
मैंने पहली बार सोचा
कि मै तुम्हे क्यों याद करता हूँ
जबकि
प्यार की ग़लतफहमी भर है मुझे

गुरुवार, 20 अगस्त 2009

उसके मरते ही,,,,,

उसके मरते ही
अचानक ही
सब कुछ पीला हो गया
चेहरे का रंग.......
फैक्ट्री में रखा माल
घर में बनी दाल
घरवालों का हाल
और जो कुछ पीला ना हो सका
वह था
उसकी आँखों का रंग
जिनमें अब तक भी
इस दकियानूसी समाज के लिए क्रोध था
जिसका विरोध करने के कारण ही उसकी जान ली गई ।

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

हमें पेड़ों की पोशाकों से इतनी सी ख़बर तो मिल ही जाती है

'ग़ुलज़ार' की कविता
हमें पेड़ों की पोशाकों से इतनी सी ख़बर तो मिल ही जाती है
बदलने वाला है मौसम ...................
नय आवाज़े कानों में लटकते देखकर कोयल ख़बर देती है
बारी आम की आई......... ।
कि बस अब मौसम-ऐ-गर्मा शुरु होगा
सभी पत्ते गिरा के ग़ुल मोहर जब नंगा हो जाता है गर्मी में
तो ज़र्द-ओ-सुर्ख़, सबज़े पर छपी , पोशाक की तैयारी करता है
पता चलता है कि बादल की आमद है।
पहाड़ों से पिघलती बर्फ बहती है धुलाने पैर 'पाईन' के
हवाएँ छाड़ के पत्ते उन्हें चमकाने लगती है
मगर जब रेंगने लगती है इंसानों की बस्ती
हरी पगडंडियों के पाँव जब बाहर निकलते हैं
समझ जाते हैं सारे पेड़ , अब कटने की बारी आ रही है
यही बस आख़िरी मौसम है जीने का इसे जी लो ।
( वागर्थ , अगस्त०९ , अंक १६९ से उद्धृत )

मुझे ये कविता बहुत अच्छी लगी । (क्यों लगी इसका ज़िक्र आगे की पोस्ट में करुँगा ) आप भी इसे पढ़ें और कैसी लगी अपनी प्रतिक्रिया दें ।

बुधवार, 12 अगस्त 2009

'प्यार' का मतलब

'प्यार' जैसे शब्द
'प्यार' जैसा शब्द
'प्यार' याकि शब्द
क्या प्यार सिर्फ़ शब्द भर है ?
शायद
आप कहें
नही
यकीनन____आप कहेंगे नही ।
लेकिन
प्यार एक शब्द ही तो है
क्योंकि शब्द ब्रह्म है ।
शब्द 'नाद' है
'नाद' बिन्दु वाला नहीं
आवाज़ वाला

हाँ !
प्यार शब्द है ---आवाज़ है ।

अब्राहम लिंकन की टोन में कहूं तो ---
दिल की , दिल द्वारा , दिल के लिए
विश्वास की ,विश्वास के लिए ,विश्वास के साथ

पुकार है ये

इसलिए ---
'प्यार' शब्द है मेरे लिए ।
(पुन: प्रकाशित )

शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

कुछ छूट गया ..........

आज फिर तुम कैंटीन में दिखीं
मगर आज तुम्हारे चेहरे पर
वो लब्बोलुबाब न था
जो कभी रहा करता था
मैं भी वहीं था
उस वक़्त
किसी कोने से तुम्हें तक़ता
मेरी आँखें
तुम्हारी हथेली पर रखे
तुम्हारे चेहरे को देख रही थी
और तुम
अपने सामने की खाली कुर्सी को
मानो
तुम्हें किसी का इंतज़ार हो ..........
कोई आने वाला हो
तुम्हारा बेहद क़रीबी
पर
तुम इतनी ख़ामोश क्यों हो ?
तुम तो ऐसी ना थी
मैं तुम्हारे साथ बैठना चाहता हूँ
मुझसे कुछ बात करो ना .........प्लीज़
ना जाने कितने प्रश्न
कितनी इच्छाएँ
यक-ब-यक
कर डाली मैंने
मगर तुम
चुप बिल्कुल चुप
ख़ामोश
सामने की खाली कुर्सी को देखती
मन में ख़याल आया
याकि इच्छा हुई
या इस एक पल के लिए
मेरे जीवन का लक्ष्य
काश मैं वो कुर्सी होता ........................
.......................
.......................अरे
क्या हुआ
तुम जाने क्यों लगीं
और तुम्हारी आँखों में ये गीलापन
मैं खिड़की के काँच से
तुम्हारे बालों और दुपट्टे को लहरते देखता रहा देर तक
मानो वो भी
.........अनमने से
लहरने को मजबूर हों
मैं अभी भी वहीं बैठा हूँ
अकेला
तुम बिन
उस खाली कुर्सी को निहारता
जहाँ अभी भी तुम्हारी खामोशी
तुम्हारा इंतज़ार
ऊँघ रहा है
टेबल पर
अपनी कोहनी टिकाए
हथेली को ठोड़ी से लगाए ।