'ग़ुलज़ार' की कविता
हमें पेड़ों की पोशाकों से इतनी सी ख़बर तो मिल ही जाती है
बदलने वाला है मौसम ...................
नय आवाज़े कानों में लटकते देखकर कोयल ख़बर देती है
बारी आम की आई......... ।
कि बस अब मौसम-ऐ-गर्मा शुरु होगा
सभी पत्ते गिरा के ग़ुल मोहर जब नंगा हो जाता है गर्मी में
तो ज़र्द-ओ-सुर्ख़, सबज़े पर छपी , पोशाक की तैयारी करता है
पता चलता है कि बादल की आमद है।
पहाड़ों से पिघलती बर्फ बहती है धुलाने पैर 'पाईन' के
हवाएँ छाड़ के पत्ते उन्हें चमकाने लगती है
मगर जब रेंगने लगती है इंसानों की बस्ती
हरी पगडंडियों के पाँव जब बाहर निकलते हैं
समझ जाते हैं सारे पेड़ , अब कटने की बारी आ रही है
यही बस आख़िरी मौसम है जीने का इसे जी लो ।
( वागर्थ , अगस्त०९ , अंक १६९ से उद्धृत )
मुझे ये कविता बहुत अच्छी लगी । (क्यों लगी इसका ज़िक्र आगे की पोस्ट में करुँगा ) आप भी इसे पढ़ें और कैसी लगी अपनी प्रतिक्रिया दें ।
2 टिप्पणियां:
जन्माष्टमी की हार्दिक बधाई.
( Treasurer-S. T. )
सुंदर कविता।
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