बुधवार, 13 अप्रैल 2016

पुरस्कृत लोगों से पुरस्कार का मूल्य बढ़ता है – नामवर सिंह

2015 का  देवीशंकर अवस्थी सम्मान युवा आलोचक वैभव सिंह को
इक्कीसवाँ देवीशंकर अवस्थी सम्मान युवा आलोचक वैभव सिंह को उनकी पुस्तक भारतीय उपन्यास और आधुनिकता के लिये प्रदान किया गया। यह समारोह प्रत्येक वर्ष की तरह इस वर्ष भी आलोचक देवीशंकर अवस्थी के जन्मदिवस 5 अप्रैल को साहित्य अकादमी के रवीन्द्र भवन में संपन्न हुआ। इस अवसर पर वैभव सिंह ने देवीशंकर अवस्थी की पुण्य स्मृति को नमन किया और उन्हें एक निष्पक्ष आलोचक बताते हुए अपने वक्तव्य में कहा कि आलोचना यदि निष्पक्ष नहीं है तो बहुत दूर तक नहीं जा सकती, अवस्थी जी ने इसी आलोचना का विकास किया। जैसाकि देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह की परंपरा रही है इस वर्ष भी देवीशंकर अवस्थी के प्रतिनिधि आलोचना लेखों में से चुनकर एक लेख नई पीढ़ी और उपन्या का वाचन युवा आलोचक संजीव कुमार द्वारा किया गया।
हिंदी के पाठक समुदाय को उदार और न्यायप्रिय बनाना भी आलोचना की ज़िम्मेदारी है।
देवीशंकर अवस्थी सम्मान समिति ने वर्ष 2015 का सम्मान उत्कृष्टता, प्रासंगिकता और विश्लेषण क्षमता के लिये श्री वैभव सिंह को उनकी पुस्तक भारतीय उपन्यास और आधुनिकता पर सर्वसम्मति से देने का निर्णय लिया है। ध्यातव्य है कि अशोक वाजपेयी, मैनेजर पांडेय, नंदकिशोर आचार्य, विजय कुमार, और कमलेश अवस्थी देवीशंकर सम्मान समिति के सदस्य हैं।
अशोक वाजपेयी ने देवीशंकर अवस्थी पुरस्कार मंडल की ओर से वैभव सिंह की प्रशस्ति पढ़ते हुए कहा कि वैभव सिंह उन लोगों में से हैं जिन्होंने उपन्यास की आलोचना सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों रूपों में बहुत गंभीरता से की है। अपने करियर की शुरुआत उन्होंने वायु सेना में थल अधिकारी के रूप में की लेकिन उपन्यास पर लिखने वाला मन सेना की नौकरी में कहाँ रमता। आलोचना के क्षेत्र में इतिहास और राष्ट्रवाद, भारतीय उपन्यास और आधुनिकता तथा शताब्दी का प्रतिपक्ष उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं। इसके अलावा उन्होंने मार्क्सवाद और साहित्यालोचन तथा भारतीयता की ओर के नाम से टैरी ईगल्टन और पवन कुमार वर्मा की पुस्तकों का अनुवाद भी किया है। वैभव सिंह का आलोचना कर्म कविता, कहानी, उपन्यास इतिहास, राष्ट्रवाद और आधुनिकता संबंधी वाद विवाद तथा बहसों तक फैला हुआ है। अपनी आलोचनादृष्टि को परिपक्व और धारदार बनाने में उन्होंने समाजविज्ञान का भरपूर सहारा लिया है। वे मानते हैं कि हिंदी के पाठक समुदाय को उदार और न्यायप्रिय बनाना भी आलोचना की ज़िम्मेदारी है। उनकी आलोचनापद्धति में जातीय स्मृतियों के साथ साथ तर्कसंगत और जनपक्षीय एवं आधुनिकता संबंधी आकांक्षाओं की भी अनुगूँजें सुनायी पड़ती हैं। उनकी पुस्तक भारतीय उपन्यास और आधुनिकता 19वीं सदी में उपन्यास के उद्भव और विकास से लेकर औपनिवेशिक आधुनिकता से भारतीय समाज के द्वंद्वात्मक संबंधों की खोजबीन, विश्लेषण और पड़ताल करती हैं। वे मानते हैं कि राष्ट्रवाद की अवधारणा के विकास की प्रक्रिया बहुआयामी रही है इसके अंतर्गत परंपरागत संस्कारों और औपनिवेशिक प्रभावों से टकराहट को भारतीय उपन्यासों में दर्ज किया गया है। वैभव सिंह अत्यंत साफगोई के साथ अपने तर्कों एवं तथ्यों के माध्यम से भारतीय उपन्यास के इतिहास को खंगालते हुए बताते हैं कि आधुनिकता का विकास एक लंबी परियोजना की तरह हमारे सामने उपस्थित है। आज टैगोर के गोरा की संवादधर्मी आधुनिकता हमारी पथप्रदर्शक हो सकती है। कवि अरुण कमल पर केंद्रित एक किताब के साथ साथ इन्होंने यशपाल के उपन्यास दिव्या की आलोचनाओं का एक संस्करण भी संपादित किया है। इसके अतिरिक्त अभय कुमार दुबे द्वारा संपादित ज्ञानकोष में इन्होंने विविध विषयों पर अपनी टिप्पणियाँ लिखी हैं। 
इस अवसर पर उपन्यास और समकाल विषय पर गोष्ठी भी आयोजित की गई। जिसमें पुरुषोत्तम अग्रवाल और मृदुला गर्ग ने भाग लिया जिसकी अध्यक्षता नामवर सिंह ने की और मंच संचालन रवींद्र त्रिपाठी ने किया।
दरअसल उपन्यास समाज की नहीं बल्कि सैल्फ या आत्म की चीज़ है। - वैभव सिंह
इस गोष्ठी के मूल विषय को विस्तार देते हुए आलोचना और उपन्यास का समकाल शीर्षक अपने वक्तव्य में वैभव सिंह ने कहा कि पूँजी और बाज़ार की लगातार बढ़ती पैठ ने आलोचना के लिये संकट खड़ा कर दिया है और इस संकट से लड़ने के लिये हम दिखावे के लोकतंत्र के भरोसे नहीं बैठ सकते। जिस साहित्य की आलोचना की हम बात कर रहे हैं वह सभ्यता और समाज की आलोचना के बिना संभव नहीं है बल्कि साहित्य की आलोचना तो दरअसल सभ्यता और समाज की आलोचना का ही विकास है।
आलोचना साहित्य की सबसे अनूठी विधा है और यह दावा कर सकती है कि वह सृजनात्मक होने के साथ साथ विचार, ज्ञान और प्रश्नाकुल बौद्धिकता की वाहक ही नहीं है बल्कि उनके विकास के लिये उत्तरदायी भी है। आलोचना समाज की उस इच्छा को व्यक्त करती है जिसमें समाज व सभ्यताएँ अपना सर्वश्रेष्ठ वैचारिक स्वरूप कल्पित करते हैं पर उस स्वरूप को हासिल करने की विधि को नहीं जानते अथवा उस को प्राप्त करने का साहस नहीं करते है। वैभव सिंह ने आलोचना के लिये समकाल की महत्ता निर्दिष्ट करते हुए कहने हुए टैगोर के हवाले से कहा कि आलोचना हमारी आँखों पर चढ़े बहुत सारे बासी, पुराने और जर्जर हो चुके नज़रियों से ही नहीं बल्कि नए परोसे गए छद्म पर चमकदार नज़रियों से हमें मुक्त करती है। और रोज़ ही नई आँखों से दुनिया को देखना सिखाती है।वर्तमान समकाल के सबसे क्रूर संकट को इंगित करते हुए वैभव सिंह ने कहा कि पूंजी और बाजार की लगातार निरंकुश होती कैद में आलोचना के लिये जगह घट रही है फिर आलोचना पर प्रायोजित चीज़ों का दबाव बढ़ रहा है और यह प्रायोजित और छद्म आलोचना को जन्म दे रहा है। सत्ता, पूंजी और धर्म का वर्चस्व किसी किस्म की असहमति या आलोचना को हतोत्साहित ही नहीं बल्कि दंडित करने के लिये पूरी चेष्टा कर रहा है। एक विराट निगरानी तंत्र पैदा किया जा रहा है जो हर तरह के लोकतंत्र पर भारी पड़ रहा है और नागरिक के जीवन पर राज्य की जासूसी लगातार तेज़ होती जा रही है।
उपन्यास के संदर्भ में उन्होंने सैल्फ की महत्ता प्रतिपादित करते हुए कहा कि सैल्फ खोजने और समझने की चीज़ है, उपन्यास पढ़कर ही हम आत्म या सैल्फ को खोज और विकसित कर पाते हैं। दरअसल उपन्यास समाज की नहीं बल्कि सैल्फ या आत्म की चीज़ है। आज के उपन्यास अन्य कलाओं से अपने को काट रहे हैं, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। जब उपन्यास का आगमन होता है तभी आधुनिकता आगमन भी होता है।
वैभव ने समकाल की मुश्किलों को तफ्सील से बताया और कहा कि मुश्किल यह है कि जब आप दुनिया को बदलने का स्वप्न देखते हैं तो कहा जाने लगता है कि अब ऐसे सपनों के लिये कोई जगह नहीं रह गई है और दुनिया को बदलने का कोई भी विचार वस्तुगत मानदंडों पर प्रासंगिक नहीं रह गया है। पिछली सदी के आखिरी दशक में फ्रांसिस फूकोयामा ने एंड ऑफ हिस्ट्री की सैद्धांतिकी प्रस्तुत कर दुनिया के बौद्धिकों में हलचल मचा दी थी पश्चित में यह हो सकता है लेकिन भारत जैसे महादेश में इतिहास का अंत स्वाभाविक रूप में नहीं हो रहा हो तो हिंसा कर, सत्ता के संसाधनों का उपयोग कर या फिर पोपगेंडा करके इतिहास का अंत करने की चेष्टाएँ की जा रही हैं। अपने विस्तृत और प्रभावशाली आलेख के अंत में उन्होंने कहा कि उपन्यास के समकाल पर बात करते हुए हम यह कह सकते हैं कि 21वीं सदी के उपन्यासों ने विषय शिल्प के स्तर पर नये प्रयोग तो किए हैं पर बीसवीं सदी के औपन्यासिक चेतना को त्यागा नहीं है और न ही कोई नाटकीय अलगाव पैदा करने का प्रयास किया है उसका कारण यह है कि भारतीय समाज में बहुत सारी समस्याएँ जस की तस बरकरार हैं जिनसे पिछली सदी के लेखक जूझते रहे हैं। यह अवश्य कहा जा सकता है कि बीसवीं सदी की कला चेतना से आज के उपन्यास दूर जा रहे हैं।




उपन्यास आधुनिकता का लक्षण है, उसका नियामक तत्त्व नहीं है। - पुरुषोत्तम अग्रवाल
पुरुषोत्तम अग्रवाल ने उपन्यास के संदर्भ में कहा कि ग्रांड नैरेटिव का रिपलेसमेंट एक बेहतर ग्रांड नैरेटिव ही हो सकता है। उपन्यास आधुनिकता का लक्षण है, उसका नियामक तत्त्व नहीं है। हम जब समकाल की बात करते हैं तो मुझे बारंबार एरिक ह़ॉब्सबॉम की किताब का शीर्षक याद आता है ऐज ऑफ एक्सट्रीम। उनके लिये 19वीं सदी पहले महायुद्ध से 1992 में खत्म हो जाती हैं। इतिहास का अंत मानने वाले फूकोयामा अमेरिकन डेमोक्रेसी को वीटोक्रेसी कहते हैं। जो किसी के प्रति एकाउंटेबल नहीं है बस फंडिग एजेंसी के प्रति एकाउंटेबल हैं। जिस लिबरल डेमोक्रेसी के अंत को उसने इतिहास का अंत मान लिया था आज उसकी खुद की सोच भी बदल गयी। पुरुषोत्तम अग्रवाल ने वर्तमान संदर्भसापेक्षता में टेलीविजन को आज के समकाल का सबसे बड़ा संकट ठहराते हुए कहा कि आज अगर समकाल का सबसे बड़ा संकट यदि कोई है तो सोशल मीडिया, टेलीविज़न आदि का विकास है आज हम अपने देश में देख रहे कि आप झूठे सच्चे वीडियों के जरिये किसी संस्थान किसी व्यक्ति को टारगेट कर सकते हैं। क्या इसमें टेलीविजन का पूरा स्वरूप ही जिम्मेदार नहीं है। उपन्यास में हिंसा की उपस्थिति और व्यक्तिकरण को दरशाते हुए उन्होंने कहा कि वर्तमान में हिंसा की स्वाभाविकता उसका नॉर्मालाइजेशन आप देख सकते हैं। उपन्यास के जिस समकाल की हम बात कर रहे हैं यह हिंसा जितनी अधिक उपन्यास के जरिये व्यक्त होती है उतनी जल्दी कविता या कहानी में नहीं होती। हमारी पीढ़ी को यह ईमानदारी से पूछना चाहिये कि हममे से कितनों को नेल्ली याद है। इसलिये कि आपकी सामाजिक अंतरात्मा को नेल्ली याद नहीं है हमें सबको दिल्ली का 1984 याद है लेकिन 1983 में घटित नेल्ली हममें से किसी को याद नहीं है। उन्होंने भारत के इतिहास में सन 1983 और 1984 को राजसत्ता और उसकी निरंकुशता के महत्वपूर्ण वर्ष बताते हुए कहा कि सन 83-84 भारत के इतिहास का वो समय है जब राजसत्ता की एक निर्बाध निरंकुशता आपके सामने स्पष्ट होने लगती है। हम आज उस स्थिति में पहुँच गये हैं जहाँ हिंसा या क्रोध का सिनिकल इस्तेमाल करके राजनीति आगे बढ़ती है यह है समकाल। और इन सब स्थितियों से जो विधा टकराती है वह है उपन्यास। मृदुला गर्ग का उपन्यास वसु का कुटुम्ब, अखिलेश का निर्वासन, हृदेश जोशी का उपन्यास है लाल लकीर इन तीन उपन्यास को वर्तमान समकाल के महत्त्वपूर्ण उपन्यास बताते हुए लाल लकीर के हवाले से उन्होंने कहा कि अगर आप राजसत्ता की हिंसा का जवाब राजनीतिक हिंसा से देते है तो उससे लाभ राजसत्ता को ही होता है।
मैं नेम ऑफ द रोज़ मेँ एक चरित्र पुस्तकों और पुस्तकालयों की सुरक्षा के लिये लड़ रहा है। यह सालों पहले लिखा उपन्यास आज मझे बहुत ज्यादा प्रासंगिक मालूम होता है। हमारे समकाल की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि यहाँ कल्पना करने की छूट आपको नहीं दी जाती। टेलीविजन आपके 24 घंटे पीछे पड़ा है। अब टेलीविज़न आपको बंद करता है आप टेलीविज़न बंद नहीं करते दरअसल रिमोट किसी और के हाथ में है। ऐसे समय में आपके पास कल्पना करने का समय नहीं है और यदि समय है तो उसकी अनुमति नहीं है। मेरी समझ से आज के समकाल की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि क्या हम ऐसी कल्पना करने का भी समय और अवकाश बचा पाएंगे जिसमें स्वयं को सत्य का एकमात्र अधिकृत व्याख्याकार समझने वाला सदियों पहले रटे गए शब्दों को दोहराने वाले कुरूप कौए जैसा नज़र आए।
आज का समकाल विश्वविद्यालयों में है जहाँ सवाल पूछने की मनाही है - मृदुला गर्ग
मृदुला गर्ग ने कहा कि यह कैसा समकाल है जहाँ आप मान्यताओं पर प्रश्न नहीं कर सकते, रुढ़ियों पर प्रश्न नहीं कर सकते, राष्ट्र पर प्रश्न नहीं कर सकते, यह कैसी औपनिवेशिक मानसिकता है जहाँ प्रश्न पूछने पर पाबंदी है।
देवीशंकर अवस्थी को नमन करते हुए मृदुला जी ने डेराजिवो के कॉलेज के निष्कासन की वर्तमान प्रासंगिकता पर ध्यान दिलाया और कहा कि आज का समकाल विश्वविद्यालयों में है जहाँ सवाल पूछने की मनाही है। एक तरफ तो वंचित, प्रताड़ित लोग इस समाज में अपने कटुअनुभव उपन्यासों के माध्यम से बयां कर रहे हैं और जितना वो मुखर हो रहे है उतना ही उन लोगों को बरदाश्त नहीं हो रहा जो अब तक अपने को उच्च कोटि पर मानते आए हैं। आज हमारा जो समकाल है उसमें असहिष्णुता के समावेश से हम इंकार नहीं कर सकते। क्या हम अभी अचानक असहिष्णु हो गये या हमेशा से हममें और हमारी संस्कृति में असहिष्णुता रही है। हमारी सभ्यता और संस्कृति में सहिष्णुता और असहिष्णुता का बड़ा अजीब घालमेल रहा है एक तरफ तो हम उन लोगों के साथ बहुत सहिष्णु रहे जो हमारे देश में पनाह मांगने या आक्रमण करने के मकसद से आए और यहीं रच बस गए। वहीं हमारी ही संस्कृति के भीतर जो असहिष्णुता का मूल था जिसका एक अंग जातिवाद या जाति व्यवस्था था और आप जानते है कि जाति व्यवस्था नस्लवाद के सबसे घिनौने स्वरूपों में से एक है। यह योजनाबद्ध तरीके से सदियों से चला आ रहा है। एक दूसरे प्रकार की असहिष्णुता हमारे यहाँ तीसरे जेंडर को लेकर है। जिस समाज में ऐसी असहिष्णुता हो वह कैसे अपने असहिष्णु कह सकता है।
मृदुला जी ने भारतीय समकाल की दो महत्त्वपूर्ण घटनाओँ भारत पर चीन का आक्रमण और आपातकाल का संदर्भ देते हुए कहा कि 1962 तक हम सपने ही देखते रहे  लेकिन चीन के आक्रमण ने हमारे विश्व गुरू होने के भ्रम को तोड़ दिया लेकिन उसके बाद हमें यह भ्रम रहा कि हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं। लेकिन आपातकाल के दौर ने हमारा वह भ्रम भी तोड़ दिया। और बाद में सत्ता के मुँह जो निरंकुशता का खून लग गया था वह कैसे छूटता। आज हमारी माँगे भी प्रायोजित हो चुकी हैं। हमने आरक्षण दिया पर शिक्षा नीति नहीं बनाई शिक्षा नहीं दी। अगर 90 प्रतिशत अंक लाकर भी आपको कॉलेज में दाखिला नहीं मिल पाता तो हम कैसी शिक्षा पद्धति का निर्माण कर रहे हैं। सरकारी कॉलेजों होंगे तो वहाँ प्रश्न पूछने पर मनाही होगी. ऐसे विश्वविद्यालयों का क्या खाक फायदा होगा। हम अभी औपनिवेशिक मानसिकता में जीते हैं  हम अब ब्रिटेन के उपनिवेश न होकर अंतर्राष्ट्रीय पूँजी के उपनिवेश हैं। 1984 में जब भोपाल गैस कांड हुआ तब आँकड़ों को तोड़ा मरोड़ा गया। जो यूनिअन कार्बाइड ने किया। आज तक उस पैस्टिसाइड का हमारी सरकार पता नहीं लगा पाई और पता था तो बता नहीं पाई इसलिये उस पैस्टिसाइड का इलाज नहीं हो सका। यह दरअसल हमारे समकाल का सबसे बड़ा संकट है।
पुरस्कृत लोगों से पुरस्कार का मूल्य बढ़ता है – नामवर सिंह
अपना अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए नामवर सिंह ने कहा कि वैभव के वक्तव्य ने बता दिया कि जिसे यह पुरस्कार दिया गया है वह इसके योग्य है, यह पुरस्कार की विश्वसनीयता को बढ़ाता है। दरअसल पुरस्कृत लोगों से पुरस्कार का मूल्य बढ़ता है, उसकी विश्वसनीयता बढ़ती है।
इस अवसर पर सांसद डी.पी. त्रिपाठी और साहित्य समाज की जानी मानी हस्तियाँ के साथ साथ अवस्थी जी का पूरा परिवार मौजूद रहा। समारोह में आए सभी गणमान्य अतिथियों का धन्यवाद ज्ञापन अवस्थी जी के ज्येष्ठ सुपुत्र श्री अनुराग अवस्थी ने किया।   
प्रस्तुति
तरुण
(तदर्थ प्रवक्ता)
शिवाजी कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय

मोबाइल - 9013458181