शुक्रवार, 17 मई 2013

17वाँ देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह


17वाँ देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह

अभय कुमार दुबे का वक्तव्य :- 
मित्रों मैं आदरणीय स्व. देवीशंकर अवस्थी की स्मृति को नमन करते हुए अपनी बात कहूँगा और इस आस्था के साथ कहूँगा कि एक ऐसे व्यक्ति की बात को आप शायद गंभीरता से लेंगे  और उसकी धृष्टता को क्षमा करेंगे जो साहित्य की दुनिया से नहीं आता है जिसको राजेंद्र यादव ने 'साहित्य में अनामंत्रित' नाम स्थाई रूप से दे रखा है।
मित्रों जब मैं बजरंग बिहारी तिवारी का भाषण सुन रहा था तो लग रहा था कि मैं बड़ा भाग्यशाली हूँ जो बच गया वरना हिंदी की दुनिया में रीतिकाल के महाकवि देव को अगर उद्धृत करके कोई अपनी बात को साबित करना चाहे तो समझ लीजिये उसकी आफत गई
अभी कल डाक से मेरे घर एक पत्रिका आई जो उत्तर प्रदेश के दूर-दराज के राज्य से निकलती है लेकिन बड़ी स्थापित पत्रिका है। मैं उसका नाम नहीं लूँगा जब मैंने उसका पला पन्ना पलटा तो सामने जो लेख था उसका शीर्षक था 'आधुनिक रीतिकाल..' तो रामचंद्र शुक्ल के रीतिकाल की जो आलोचना स्थापित की थी वो आलोचना रामविलास शर्मा के रास्ते से होती हूई हिंदी की दुनिया में इतनी जम चुकी है उसने एक बहुत ही गहरे पूर्वाग्रह का दर्जा प्राप्त कर लिया है और मित्रों, जिस व्यक्ति ने इस पूर्वाग्रह को तोड़ना चाहा - भंग करना चाहा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और जब उन्होंने ये कहा रीतिकाल की कविता एक सक्रिय कविता है तो हमें पता है रामविलास जी उन पर बहुत कुपित हो गये और उन्होंने उनको लगातार इस तरह के कुछ दोषों की बजह से
सारा जीवन वे हजारी प्रसाद द्विवेदी जी को बुलडोज़ करते रहे सब लोग जानते है और संजीव भी बात को अच्छी तरह जानते हैं कि मैं रामविलास शर्मा का बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ और मैं जिस दुनिया में काम करता हूँ वहाँ मेरे लिये वो बहुत बड़े रक्षक हैं मेरे कवच-कुंडल हैं रामविलास शर्मा। मैं उनके जरिये ययूरोप के समाज विज्ञान की पश्चिम केंद्रित दुनिया है उसमे रामविलास शर्मा को प्रतिपक्ष की तरह प्रस्तुत करता रहता हूँ
उन्ही को लिखता रहता हूँ बोलता रहता हूँ लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि रामविलास शर्मा जी के जो पूर्वाग्रह हैं उनकी चर्चा न की जाए। मित्रो रामविलास जी को बात को इस बात को लेकर बहुत दुख था कि रीतिकाल में नायिका-भेद होता है और वो निरंतर नायिका-भेद के खिलाफ वक्तव्य देते रहते थे जिस तरह वे साम्राज्यवाद के खिलाफ वक्तव्य देते थे उसी तरह नायिका-भेद के खिलाफ वक्तव्य देते रहते थे। और रामविलास जी को पढ़ते हुए मैंने पिछला एक साल गुज़ारा। उन्होंने लगभग सौ किताबें लिखीं हैं और भी समय लगेगा मुझे उन्हें पूरी तरह पढ़ने और समझने के लिए। मैंने उन्हें पढ़ते हुए पाया कि उन्हें नायिका-भेद से तो दिक्कत है पर नायक भेद से दिक्कत नहीं है।
आप निराला की साहित्य साधना देखेंगे तो पाएंगे कि वहाँ दो नायक हैं एक है सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और दूसरे हैं सुमित्रानंदन पंत। एक नायक की देह का जब वे वर्णन करते हैं तो उनका भाव दूसरा होता है और दूसरे नायक की देह का  जब वे वर्णन करते हैं तो उनके अंदर उन्हें राधा दिखाई पड़ती है। जबकि एक में उन्हें कृष्ण दिखाई पड़ते हैं।
रामविलास जी का  संस्मरण भी मुझे पढ़ने को मिला जिसमें एक जगह वे खड़े हुए हैं और दूर से देखते हैं कि बहुत ही सुंदर और भव्य पुरुष रहा है और उसके साथ एक सुंदर स्त्री है तब वे अपने मित्र से कहते हैं कितना सुंदर जोड़ा है। तब उनका मित्र उन्हें बताता है कि नहीं ये स्त्री पुरुष का जोड़ा नहीं है बल्कि ये तो निराला और पंत जी हैं। तो आप देखिए इसी तरह जब वे वृंदावनलाल वर्मा का वर्णन करते हैं उनकी सुंदर देह पतली कमर, चौड़े सीने, तनी हुई रज्जु उन सबका वर्णन करते हैं। इससे साबित होता है कि उनके नायकों में भी भेद है।
एक नायक है जो पौरुष का प्रतीक है और एक नायक कविता का जो उतनी ही महान कविता लिखता है पर उसके अंदर उन्हें राधा दिखाई देती है। पर नायिका भेद से उन्हें आपत्ति है नायिका भेद को लेकर वे पूरे जीवन ही कुठाराघात करते रहे। यह एक बहुत गहरा पूर्वाग्रह है। और इस पूर्वाग्रह का असर यह हुआ कि हिंदी की दुनिया में स्त्री-विमर्श के खिलाफ़ लगातार शुरु के दौर में खुला हुआ और बाद के दौर में छिपा हुआ पूर्वाग्रह काम करता रहा।
देह विमर्श नाम का एक डंडा बना लिया गया है जिससे हिंदी के नारीवादियों को पीटा जाता है। 
हम जानते हैं कि पूर्वाग्रह की थियरी हमें बताती है कि पूर्वाग्रह दो तरह के संसार में रहते हैं। एक संसार वो होता है जहाँ उनकी हुकुमत चलती है चारों तरफ उनका डेका पीटा जाता है। और उसमें तुम्हें कोई चुनौती देने वाला नहीं होता और दूसरा संसार वो होता है जहाँ अपनी ही विफलताओं के दबाब में और दूसरे तरह के दबाबों में वो अपने आप को बड़ी कुशलता और होशियारी के साथ अंडरग्राउंड कर लेते हैं उसके बाद में वो पूर्वाग्रह लगातार बिना घोषित किये हुए उन्ही बातों का विरोध करते हैं तरह से अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करते हे जैसा वे अपने पिछले वाले वर्चस्व को जमाने में जिस तरह के प्रभावों का विरोध कर रहे थे और जिस तरह के सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव डालना चाहते थे। मित्रों जब मैं ये कह रहा हूँ इसका मतलब यह नहीं है कि मैं पूर्वाग्रहों को लेकर बहुत अधिक चिंतित हूँ या मुझे लगता है कि पूर्वाग्रहों से दुनिया नष्ट हो जाएगी या मैं प्रलय की भविष्यवाणी करना चाहता हूँ ऐसा नही है मेरा मानना है कि पूर्वाग्रह अतीत और भविष्य के बीच में एक पुल का काम करते हैं उनके जरिये हम लोग अपने वर्तमान को अतीत में प्रोजेक्ट करते हैं जब मुझे मौका मिलता है तो उन्ही पूर्वाग्रहों की सवारी करते हुए अतीत को अपने वर्तमान में प्रोजेक्ट करते हुए यहाँ तक कि पूर्वाग्रहों के जरिये कुछ-कुछ भविष्योद्गार कुछ-कुछ सुराग भी हम लेते हैं। जैसे पिछले दिनो जब रामविलास जी के सवाल पर बहुत सारी चर्चाएँ हुई विवाद हुए, संघर्ष हुए उनकी जन्मशताब्दियों के जमाने में कई बार मुझे लगा कि इन पूर्वाग्रहों के चलते ही हम लोग अपने आज के जमाने को सोलहवीं सदी में प्रोजेक्ट करते हैं हम लोग १६वी-१७वीं शताव्दी को इस तरह देखते हैं जैसे तुलसीदास वहाँ पर हिंदू महासभा के सैक्रेटरी हो और कबीरदास सी.पी.आई.एम के जनरल सैक्रेटरी हों तो तरह का ये प्रक्रिया चलती रहती है लेकिन इससे हमें उन बातों को जानने में मदद मिलती है, जोकि हमारे जमाने में चल रही हो।  मित्रों रामविलास जी हजारी प्रसाद द्विवेदी से इसलिये कुपित थे कि उन्होंने रीतिकाल को सेकुलर काव्य कहा था। उन्होंने कामसूत्र की परंपरा को प्राचीन भारत के कला विनोद के बारे में चर्चा की उन्होंने और जब हजारी प्रसाद जी के विख्यात मार्क्सवादी शिष्यों ने ये देखा कि उनके गुरूजी के ऊपर बहुत जबरदस्त मार पड़ रही है और गुरूजी पर अपनी तरह से कुछ बोलते नहीं। आपको पता ही होगा कि रामविलास जी ने उन पर हमला किया पर हजारी प्रसाद जी ने कभी उनको कोई उत्तर नहीं दिया तो उनके मार्क्सवादी शिष्यों ने सोचा की हिसाब हम करेंगे हमे निपटेंगे इनसे और वो लगातार २५-३०-४० साल तक उन्होंने रामविलास जी से वो हिसाब चुकता किया लेकिन दिलचस्पी की बात इसमें क्या है ये पूरा हिसाब किताब चुकता करने का एक अंतरपाठ भी है तो अंतरपाठ ये है कि मार्क्सवादी शिष्यों ने कभी भी हजारी प्रसाद जी की रीतिकाल संबंधी धारणाओं का जमकर समर्थन नहीं किया उन्होंने कभी भी रीतिकाल को सेकुलर काव्य कहने की। हजारी प्रसाद जी की जो अनोखी थ्योरी थी जो लीक से हटकर थी उस थ्योरी के समर्थन में कभी मुखर रूप से बात नहीं कहीं वो रामविलास जी से बदला तो लेते रहे कि उनके गुरू जी पर हमला तो हुआ है लेकिन कभी भी उन्होंने रीतिकाल की उस तरह की व्याख्याएँ करने की कोशिश नहीं की जिसकी थोड़ी सा बानगी - अभी बजरंग बिहारी ने आपके सामने रखी। उस कविता के अंदर भी कुछ समाज होगा उस कविता के अंदर भी कुछ समाज होगा उस कविता के अंदर भी वो लोक होगा जिस लोक मंगल के ढाँचे में रामचंद्र शुक्ल ने कभी भी रीतिकाल को फिर करके नहीं देखा अब जब लोक हम कहते हैं तो हमें उस लोक का विन्यास बताने की जरूरत नहीं रहती लोक कहते ही हम उस कर्तव्य से मुक्त हो जाते है उस लोक के भीतर का विन्यास क्या है? उस लोक की क्या हायरार्की है? कौन सी जाति ऊपर है? कौन सा वर्ग ऊपर है? उसके अंदर क्या वर्ग-विभेद है? उसके अंदर सब खत्म हो जाता है?
तो मेरा कहना है कि ये जो पूर्वाग्रह है रीतिकाल का उसे एक गैर-मार्क्सवादी विद्वानों ने उसे आगे बढ़ाया  और एक मार्क्सवादी विद्वान ने जब उसको ठीक करने की कोशिश की तो और उसके अन्य मार्क्सवादी शिष्यों ने और मजबूती के साथ स्थापित कर दिया।
मित्रों मैं इस बात को इसलिये कह रहा हूँ ये मौका मुझे बजरंग बिहारी तिवारी ने दिया है हालाँकि मैं इसे अपनी स्लैप बुक में नोट करके नहीं लाया ये इसलिए जरूरी है कि ये हमें सुराग देता है कि आखिरकार हिंदी का जो स्त्री-विमर्श है हिंदी का जो नारीवाद है उस नारीवाद के प्रति इतना रोष क्यों है? इतना द्वेष कहाँ से आया? तो सेक्सुअलिटी का सवाल है जो देह का सवाल है उसको लेकर बेचैनी हिंदी की दुनिया में क्यों है? इन बेचैनियों का स्रोत कहाँ है? मुजे लगता है इन बेचैनियों का स्रोत रीतिकाल के उस दंश में है जोकि रामचंद्र शुक्लसे रामविलास शर्मा तक और जो पत्रिका मैंने पलटी थी उस पत्रिका के पहले लेख में ..
दोस्तों अब मैं एक दूसरे पूर्वाग्रह पर आउँगा जो शायद थोड़ा सा आप कहेंगे अब मैं विषयांतर कर रहा हूँ।  यह आलोचना का पूर्वाग्रह उतना नहीं है जितना रीतिकाल वाल सवाल था अब हिंदी में मार्क्सवाद का बड़ा भारी साम्राज्य है हिंदी क्षेत्र में मार्क्सवादी राजनीति इतनी नाकाम है। मार्क्सवाद का एक सांस्कृतिक रूप हिंदी क्षेत्र में उतना ही कामयाब है। और ये विरोधाभास लगातार हमारी आँखों में झाँक कर पूछता रहता है कि कई इसका कारण बताओ इसका कारण किसी ने आजतक साफ-साफ बताया नहीं। ऊपर इस विरोधाभास को ठीक-ठीक इंगित करते हुए इसको रेखांकित करते हुए कोई शोध कम से कम मैंने आज तक नहीं देखा है ना समाजविज्ञान की दुनिया में और न ही साहित्य की दुनिया में स्थिति ये है कि लोगों को खाना हजम नहीं होता जब तक कि वो मार्क्सवाद की चर्चा न कर ले, विचारधारा की चर्चा न कर लें। प्रतिबद्धता की एक गोली मार्क्सवाद की सुबह एक गोली शाम को नियमित रूप से खाई जाती है। जरूर खाइये लेकिन पहले उस पैकेट को देख लीजिये जिस पैकेट में से गोली निकालकर खा रहे है उस पैकेट में एक्सपायरी डेट क्यों लिखी है। मार्क्सवाद के जिस पैकेट से आप प्रतिबद्धता की गोली निकालकर खा रहे हैं उसकी एक एक्सपायरी डेट भी है यह मार्क्सवाद की एक्सपायरी डेट ही नहीं है। यह मार्क्सवाद के विशेष संस्करण की एक्सपायरी डेट है जिसका हिंदी की दुनिया में आज तक इस्तेमाल होता रहा है। परम श्रद्धा के साथ में मार्क्सवाद की दुनिया में जो विचारों के क्षेत्र में नए काम हुए है उन कामों से हमें कोई लेना-देना नहीं है। हम उन कामों को नहीं पढ़ेंगे। हम अपने आप को बिल्कुल अपडेट नहीं करेंगे। साठ-सत्तर के दशक में जो मार्क्सवाद लोकप्रिय था तो मार्क्सवाद प्रचलित था हिंदी की दुनिया अभई उसी मुकाम पर खड़ी हुई है उससे बिल्कुल हटना नहीं चाहती। मुझे अच्छी तरह याद है मैं सी.पी.आई. एम.एल के एक संगठन में काम किया करता था तो जो मेरा आखिर दौर था पार्टी में हमारे नेता कामरेड विनोद मिश्र उस वक्त तक कहने लगे थे कि अब एक नई दास कैपिटल लिखने की जरूरत है क्योंकि पूँजी का चक्र बदल रहा है।
एक दास कैपिटल एक युक्ति, पूंजी नाम की जो चीज़ है वो पैदा हो चुकी थी वो बिजली और आंधी की  रफ्तार से राष्ट्रों के आर-पार बे रोक-टोक यात्रा करती थी। रात-दिन जागती थी  और आज भी वो क्रम लगातार जारी है उस पूंजी को और उस पूंजी के प्रभाव में तेजी के साथ बदलते हुए समय को हमारे समाज को हमारी अपनी जिंदगियों को हमारे ड्राइंग रूम की जो लाइफ है इस लाइफ को - जो हम लोगों की आँखों के समाने बदल रही है समझने के लेय ये पुरानी किस्म का मार्क्सवाद हमें किसी भी किस्म का औजार मुहैया नही कराता जब हमें वो औजार मुहैया नहीं कराता तो हम क्या करते हैं तो हम साम्राज्यवाद शब्द के आगे नव लगा देते हैं और बीच में हाइफन लगा देते हैं और कहते हैं कि हम नव साम्राज्यवाद का विरोध कर रहे हैं अब क्या कहे नव शब्द का ऐसा दुरुपयोग मैंने नहीं देखा।

मित्रों इस पर भी जरा ध्यान देने की जरूरत है जब हमारे पास विमर्श नहीं है  वो बौद्धिक विमर्श नहीं है जो हम मौजूदा दुनिया को समझ सकें तो हमें कुछ ए बौद्धिक हथियार हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए स्वयं साठ और सत्तर के दशक की उन धाराओं की तरफ निगाह डालनी चाहिए तो धाराएँ  उस समय तत्कालीन लेनिनवाद के प्रभाव में और स्टालिन के प्रभाव में थोड़ी पृष्ठभूमि में चली गई हमें लेनिन के ज़माने की उन धाराओं को जो रोज़ालक्ज़म बर्ग की धाराएँ थी और दूसरी इस तरह की धाराएँ। उन पर निगाह डालनी चाहिए जो सोवियत क्रांति की चमकदार सफलता के कारण इस पर उन्होंने विचार करना बंद कर दिया था। हम लोगों को आस्ट्रो-जर्मन मार्क्सवाद की उन प्रगतियों की तरफ ध्यान देना चाहिए जिन प्रवृत्तियों का सहारा लेकर रामविलास शर्मा ने हिंदी जाति की संकल्पना विकसित थी मित्रों रामविलास शर्मा की मैं रीतिकाल संबंधी आलोचना कर चुका हूँ लेकिन उनका एक दूसरा पक्ष भी है। वे भारत में हिंदी के ऐसे अकेले विद्वान  हैं जिन्होंने सारे जीवन ये मुहीम चलाई कि किस तरह मार्क्सवाद का भारतीय परिस्थितियों में बढ़िया तरीके से अनुवाद किया जाए और उस चक्कर में मार्क्सवाद देखने में मार्क्साद भी लगे तो उसकी भी उन्हें परवाह नहीं उसके पूरे शास्त्र का जो केंद्रीय मर्म था मेरे खयाल से उस वाक्य में निहित था कि भारत को समझने के लिए भारत की भी जरूरत है ये रामविलास जी का वाक्य था मैं अपने आप से भी पूछता हूँ और अपने तमाम मित्रों से भी जो समाजविज्ञान की दुनिया, साहित्य की दुनिया में, आलोचना की दुनिया में है उन सब मित्रों से भी पूछता हूँ कि जब हमारे बीच मे ऐसा शलाका पुरुष है जिसने साठ-सत्तर साल तक लगातार ये मुहीम चलाई उसके बावजूद भी हमारे मार्क्सवाद का नवीनीकरण क्यों न हो सका। 
हमारा हिंदी का जो रेडीकलिज़्म है उस रेडीकलिज़्म का नवीनीकरण क्यों नहीं हो पाया। यह मार्क्सवाद का एक पुराना पुर्वाग्रह है। सीधे-सीधे भले ही हिंदी की आलोचना से ताल्लुक न हो लेकिन ये हमें रोकता है कि हम बाज़ार की निष्पत्तियों को ठीक से समझें भूमण्डलीकरण के कारण जो बारीक खेल समाज में और संस्कृति में स्त्री-पुरुष  संबंधों की दुनिया में, सैक्सुअलिटी की दुनिया शुरु हुआ...उन बारीक खेलो की ओर निगाह डालें उनके मर्म को समझें वो पुराना मार्क्सवाद हमें इन सब बातों को नही समझने देता और चूँकि वो हमें इन सब बातों को नहीं समझने देता इसलिए वो एक तीसरे किस्म का पूर्वाग्रह स्थापित करता है। जो किसी भी पूर्वाग्रह से अधिक भीषण और हाहाकारी है।
मित्रों वह पूर्वाग्रह वह है जिसकी तरफ बजरंग नें अपने वक्त्वय के आखिरी हिस्से में इशारा किया है। मैं उन्ही की बात में अपनी बात को जोड़ते हुए कहूँगा फिर अपनी बात खत्म करुँगा। मित्रों इन्होंने बताया कि ब्रजभाषा के खिलाफ क्या असहिष्णुता थी कि अन्य जनपदीय भाषाओं तरफ असहिष्णुता क्या है हिंदी की दुनिया में वो तो ठीक है वो उस दौर की बात कर रहे थे जब हिंदी और नागरी लिपि अपने आप को जमाने के लिए अपनी दावेदारियाँ कर रही थी दूसरी जनपदीय भाषाओं की तरफ से खासतौर से ब्रजभाषा की तरफ से और भारतेंदु मंडल के साहित्यकारों की तरफ से ये आता था कि हिंदी में वो शख्स नहीं जिसके अंदर कविता लिखी जा सके हिंदी तो है मुख्यतः गद्य की भाष के रूप में विमर्श की भाषा के रूप में विकसित हुई। खड़ीबोली में भी कविता लिखी जा सकती है ये बाद में हुआ इसलिये निराला को भी अपनी कविता लिखते समय बार-बार ये कहना पड़ा कि देखो मैं कैसी सुंदर भाषा में कविता लिख रहा हूँ। ऐसा कहने के पीछे उनका एक इरादा था कि वो बताना चाहते थे  कि खड़ीबोली हिंदी में कितनी सुंदर कविता लिखी जा सकती है
मित्रों चूँकि हम बाजार को नहीं समझ पात और बाजार की जरूरतों को नहीं समझ पाते और उन जरुरतो के प्रभाव में किस तरह हिंदी विविध रूपों में विकसित हो रही है हम इसकों भी साथ में समझने से इंकार करते जाते हैं और इस प्रक्रिया में होता क्या है कि हिंदी की दुनिया में भाषाई लोकतंत्र के खिलाफ हम एक संभावित भाषाई लोकतंत्र के खिलाफ हम एक डाइग्लोसिया का निर्माण करते हैं। और आप जानते हैं कि ये डाइग्लोसिया क्या है?    डाइग्लोसिया उसे कहते हैं जब एक भाषा का किसी एक रूप को श्रेष्ठ माना  जाता है। और उसके दूसरे रूप को निकृष्ठ माना जाता है। हिंदी की दुनिया में ये पूर्वाग्रह इतना व्याप्त है कि हिंदी का जो साहित्यिक रूप है वही श्रेष्ठ है बाकि सभी रुपों को व्यंग्य से, तिरस्कार से और घृणा की निगाह से देखा जाता है। ये वर्ण व्यवस्था जो है हिंदी की केवल एक ब्राह्मण वर्ण है और बाकि सारे दलित। ये विकट वर्ण व्यवस्था जो है हिंदी की दुनिया में मौजूद है  मैं न जाने कब से जब मैं पत्रकार था तब भी मैं ये रुदन सुनता था और अब मैं समाजविज्ञान की दुनिया में काम करता हूँ अब भी मैं ये रुदन सुनता हूँ कि भाषा की बहुत बुरी हालत हो रही है। भाषा गिरती जा रही है। पत्रकारों को भाषा नहीं आती, रेडियो पर कितनी बुरी भाषा बोली जाती है। देखिये टी.वी. चैनलों पर कितनी बुरी भाषा बोली जाती है।

देखिये उसने अंग्रेजी के कितने शब्दों का इस्तेमाल कर दिया। ऐसा लगता है कि ऐसा कहने वाले लोग चाहते कि हर व्यक्ति को निर्मल जी, नामवर जी और अशोक जी जिस भाषा में अपना प्रवचन करते हैं वही भाषा हर व्यक्ति को निरंतर बोलती रहनी चाहिये। उसी भाषा में आपसी बातचीत करनी चाहिए। उसी भाषा में सारे समाज की सारी कार्यवाहियाँ चलनी चाहिए। ये जो लिखित पाठीय संस्कृति का आतंक है जिसके अंदर बोली को नीची निगाह से देखा जाता है। और यही बात है जोकि जनपदीय भाषाओं के संदर्भ में बजरंग बिहारी तिवारी ने रेखांकित की। ये वही कुटेर है मैं इसको कुटेर का नाम देता हूँ। एक तरह की मानसिक बीमारी के तौर पर ये पूरी हिंदी में पूरे तौर से छा गया है। इसलिए साहित्यिक भाषआ का एक आतंक है जिसमें हर भाषआ को ये कहा जाता है कि ये बहुत ही घटिया किस्म की है बिन ये समझे कि हर भाषा के विकास का अपना एक संदर्भ होता है। टी.वी. की भाषा का अपना संदर्भ है उसके अंदर दृश्य बहुत हैं। इतनी तमाम बातें जो हमें लिखने दी जाती हैं बहुत सी बातें दृश्यों में की जाती हैं। लिख के की जाती हैं सारे के सारे ये अनुशासन, सारे के सारे ये दृश्य विधान पश्चिम से आए हैं उनके शास्त्र भी अंग्रेजी में हैं। उनकी बुनियादी धारणाएँ भी अंग्रेजी में हैं मैं हिंदी के पत्रकारों से पूछता हूँ कि जो अब टी.वी की दुनिया में चले गये हैं भई आपकी अपनी दुनिया में जो अंग्रेजी का इस्तेमाल होता है तब आपको बड़ी नाराज़गी होती है। लेकिन आप बताइये आप हमारे साथ दैनिक अखबार में काम करते थे तब तो आपने कभी भी मुख्य समाचार नहीं कहा तब तो आप हमेशा ..लीड ही कहते थे कभी भी आपने नहीं कहा ये आधार समाचार है। हमेशा आपने कहा कि ये बॉटम लीड है। न्यूज़ एनालिसिस कहते थे स्पेशल कॉरेस्पोंडेंट कहते थे तब आपको कभी नही लगता था कि आप अंग्रेजी का इस्तेमाल कर रहे हैं क्योंकि अंग्रेजी के तमाम शब्दों का इस्तेमाल आप ऐसे करते जैसे वो हिंदी के शब्द हैं। तब यह बोलते हुए आपको अहसास नहीं होता कि आप अंग्रेजी बोल रहे हैं। आप टैक्सी में जाते हैं - आप ड्राइवर से बात करते हैं ड्राइवर को आप चालक तो नहीं कहते ड्राइवर से आप बात करत हैं उससे कहते हैं लैफ्ट मुड़ जाओ राइट मुड़ जाओ। क्योंकि आप अंग्रेजी इस्तेमाल करते हुए भी हिंदी बोल रहे होते है और न ही ड्राइवर को लगता है कि उससे अंग्रेजी में बात की जा रही है।

मित्रों भाषा के निर्माण की जो प्रक्रिया है जिसमें बोली जाने वाली भाषा पहले बनती है और बाद में लिखी जाने वाली भाषा सामने आती है। दुर्भाग्य से हम लिखी जाने वाली भाषा को बोली जाने वाली भाषआ के ऊपर ज्यादा श्रेष्ठता दे देते हैं कि पूरा डाइग्लोसिस इनवायरमेंट पूरी भाषा में बन जाता है।
मित्रों यह बहुत ही भीषण किस्म का हिंदी का पूर्वाग्रह है इसका सीधा भले ही आलोचना से ताल्लुक न हो लेकिन हम सब दिन प्रतिदिन हिंदी समाज के बारे में चिंतन करते हुए इस समस्या के शिकार हैं।