विश्वनाथ ञिपाठी को सुनना मुझे इसलिए भी अच्छा लगता है क्योंकि वो अभी भी हिन्दी के उन आलोचकों में शामिल हैं जो बात-बात पर फतवा देते नहीं चलते और जो उस गुरु-शिष्य परंपरा का हिस्सा है जो मानती है कि गंगाजल से अधिक पविञ अगर कुछ है तो वो है श्रमजल।
आख़िर मैं ये बातें क्यों कर रहा हूँ दरअसल हिंदी अकादमी (जो पिछले दिनों .........क्यों चर्चा में थी क्या ये बताने की ज़रूरत है) ने कबीर पर विश्वनाथ ञिपाठी का एक व्याख्यान आयोजित किया था जहाँ ञिपाठी जी ने कबीर और उनकी कविता के बारे में बहुत कुछ कहा हालाँकि मुझे बार-बार लगा कि वे उतना कुछ नहीं कह सके जितना हम लोग सुनने और वो बोलने आए थे इसकी क्या वजह रही मुझे नहीं मालूम।
बहरहाल जितना भी कहा वो काफी कुछ हटके था जैसाकि मैंने पहले भी कहा कि मुझे उन्हें सुनना इसलिये पसंद है कि वो बात-बात पर फतवे नहीं दिया करते जो इन दिनों का चलन बन गया है जिस तरह राजनीति ने साहित्य में अपनी पैठ बनायी है(व्यक्तिगत रूप से मैं इसे बुरा नहीं मानता) उसी तरह राजनीति के ही एक बहुत अहम फार्मूले(संभवत फतवों की प्रथा वहीं से चली मालूम होती है) ने साहित्य में अपनी जगह पा ली है। व्याख्याता इससे जल्दी पॉपुलर हो जाता है ना?
खैर मै उनके व्याख्यान पर आता हूँ ञिपाठी जी ने कबीर पर बात करते हुए कहा कि हर बड़े रचनाकार का द्वन्द्व होता है जिस प्रकार तुलसीदास के यहाँ रामराज्य और कलयुग के मध्य द्वन्द्व दिखता है उसी तरह कबीर के यहाँ भी काल और अकाल के बीच यह द्वन्द्व दिखता है। क्या कारण है कि कबीर की अधिकांश कविताएँ मृत्यु याकि काल पर लिखी गई है? उन्होंने तो यहाँ तक कहा कि मुझे जितना कबीर में मृत्युबोध(शायद यही शब्द इस्तेमाल किया था) दिखाई देता है हिन्दी के किसी और कवि में उतना नहीं।
अब तक के अधिकतर विचारक भक्ति-आंदोलन को नवजागरण या लोकजागरण से जोड़ते आए थे लेकिन ञिपाठी जी उसे स्वतंञता आंदोलन से जोड़ते है वे गाँधी-जुलाहा-कबीर का सहसंबंध बनाते है जो काफी हद तक मुझे एक नई बात लगी उनका कहना है याकि मानना है कि गाँधी यूँ तो तुलसी का अनुसरण करते है और उनके रामराज्य को भारत मे स्थापित करना चाहते है लेकिन स्वतंञता की लड़ाई लड़ते है कबीर के चरखे से , जो उस दौरान सम्पूर्ण स्वदेशी और असहयोग का ताक़तवर हथियार था। इसी संदर्भ में वे आगे कहते है कि लोकजागरण निसंतान नहीं होते उनकी संताने होतीं हैं ज़ाहिर है लोकजागरण अपनी मशाल आने वाली पीढ़ी को सौंपते चलते है अब ये काम उस पीढ़ी का है कि वह उसे कहाँ तक ले जाती है।
कबीर में हमें प्रश्नवाचकता ज़्यादा दिखती है उनके यहाँ उत्तर बहुत कम हैं। ज़ाहिर है प्रश्न वहीं होंगे जहाँ कौतूहल होगा, जानने की इच्छा होगी, अपने सवालों के जवाब ना मिलने की बैचेनी होगी । कबीर के यहाँ ये सब है इसलिये वो सवाल अधिक करते है और जवाब जानने के लिए लोक की तरफ देखते हैं। कबीर अपने दोहो, सबद,रमैनी में सत्य पर बल देते है मानवीय संबंधों पर बल देते हैं इसलिये उनका कहना है कि 'जब कुछ नही है तो सत्य केवल मानवीय सम्बन्ध है'
हालाँकि उनकी एक बात से मैं अब तक सहमत नहीं हो पाया हूँ एक जगह उन्होंने कहा कि जहाँ प्रेम होगा वहाँ डर नहीं होगा । जबकि मुझे लगता है कि डर तो वही होता है जहां प्यार होता है लगाव होता है। हमारे घरवालों को हमारी चिंता लगी रहती है। समय से घर ना पहुँचो तो फोन पर फोन मिलाने लग जाते है इसिलिये ना कि वो हमसे प्रेम करते है नहीं तो उन्हें क्या? खैर हो सकता है उनका संदर्भ कुछ और रहा हो पर प्रेम हममे चिंता, शक़-शुबहा, और डर सभी कुछ अपने आप ले आता है ये किसी प्लानिंग के तहत नहीं होता। यह अपने आप होता है जैसे प्रेम अपने आप होता है।