मंगलवार, 15 सितंबर 2009

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

यह उसकी आवाज़ थी

घर में घुसते ही
मैंने अपने कपड़े उतारे
जिसे वह बुद्धिजीवी का
चोगा कहती है।

खाने की मेज़ पर
केवल कुछ किताबें खुली हुई पड़ी थीं
जिन्हें मै पढ़ने से डरता था।

वह चारो तरफ
कहीं नहीं थी
उसके कमरे का दरवाज़ा
भीतर से बंद था।

रसोईघर में जाने की
मेरी हिम्मत नहीं हुई।

मै सोफे पर
टांगें फैला पसर गया
और छत पर
रुका हुआ पंखा देखने लगा।

अचानक मेरी दृष्टि
सोफे के पास मेज़ पर रखे
केसैट टेप रेकार्डर पर पड़ी
जिस पर एक चिट लगी थी
'इसे सुनो।'

मैंने 'की' दबा दी
तरह-तरह की चीखें आने लगीं।
कुछ देर उन्हें सुनते-सुनते
जब मै घबरा गया
तब एक साफ आवाज़
सुनाई दी--
यह उसकी आवाज़ थी :

'यदि तुम कायरो की
ज़िन्दगी जियोगे
तो मै यह घर छोड़कर
चली जाऊँगी।

2 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

सर्वेश्वर दयाल जी इस उम्दा रचना को पढ़वाने का आभार.

Sanjay Grover ने कहा…

achchhi kavita hai. pahle nahiN padhi thi.