यह उसकी आवाज़ थी
घर में घुसते ही
मैंने अपने कपड़े उतारे
जिसे वह बुद्धिजीवी का
चोगा कहती है।
खाने की मेज़ पर
केवल कुछ किताबें खुली हुई पड़ी थीं
जिन्हें मै पढ़ने से डरता था।
वह चारो तरफ
कहीं नहीं थी
उसके कमरे का दरवाज़ा
भीतर से बंद था।
रसोईघर में जाने की
मेरी हिम्मत नहीं हुई।
मै सोफे पर
टांगें फैला पसर गया
और छत पर
रुका हुआ पंखा देखने लगा।
अचानक मेरी दृष्टि
सोफे के पास मेज़ पर रखे
केसैट टेप रेकार्डर पर पड़ी
जिस पर एक चिट लगी थी
'इसे सुनो।'
मैंने 'की' दबा दी
तरह-तरह की चीखें आने लगीं।
कुछ देर उन्हें सुनते-सुनते
जब मै घबरा गया
तब एक साफ आवाज़
सुनाई दी--
यह उसकी आवाज़ थी :
'यदि तुम कायरो की
ज़िन्दगी जियोगे
तो मै यह घर छोड़कर
चली जाऊँगी।
2 टिप्पणियां:
सर्वेश्वर दयाल जी इस उम्दा रचना को पढ़वाने का आभार.
achchhi kavita hai. pahle nahiN padhi thi.
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