मलयज की साहित्य-यात्रा जिस रास्ते से होकर शुरू हुई वह रास्ता कई ‘राहों’ की ओर निकल रहा था। एक राह से नई कविता के सिद्धांतकार जा रहे थे जो साहित्य की स्वायत्तता पर बल दे रहे थे(1) और जिनका मानना था कि रचनाकार किसी विचारधारा का पिछलग्गू नहीं है। उसी रास्ते से एक और राह निकल रही थी जो मुक्तिबोध सरीखे साहित्यकारों की राह थी जो लगातार कहते आ रहे थे कि रचनाकार की कोई भी सौंदर्य-रूचि अपने वर्ग से निरपेक्ष नहीं होती। मुक्तिबोध साहित्य में रचनाकार के आत्मसंघर्ष के हिमायती थे और अपने लेखों में बार-बार साहित्य की विभिन्न विधाओं मुख्यतः नयी कविता में आत्मसंघर्ष का पक्ष लेते हुए कह रहे थे कि आत्मसंघर्ष के द्वारा ही रचनाकार अपनी वर्गबद्ध सीमा से ऊपर उठकर एक व्यापक जनसमाज के यथार्थ से जुड़ सकता है।(2) वे इस बात को भी उठा रहे थे कि नयी कविता मुख्यतः बौद्धिको द्वारा लिखी जा रही है और यही कारण है कि उसमें अभिव्यक्ति के लिए बहुत विशेष विषय ही चुने जाते हैं, सारा ज़ोर कलात्मक अभिव्यक्ति और शब्द-रूप पर होकर रह गया है। एक ओर वे लोग थे जो कलात्मक अभिव्यक्ति को भी अहम मान रहे थे तो दूसरी ओर वे लोग थे जिनके लिए विचारधारा अहम् थी। रचना व रचनाकार का आधार लेते हुए कहें तो मलयज का मानस ‘अंधेरे में’(मुक्तिबोध) और ‘असाध्य वीणा’(अज्ञेय) के तनाव के द्वंद्व से उत्पन्न मानस था। उनका कृतित्व अज्ञेय और मुक्तिबोध को छोड़ते-अपनाते ही नहीं बना था बल्कि इसमें नेहरू युग का वह मोहभंग भी था जिसने मलयज के मन में तत्कालीन युवा लेखन के संदर्भ में यह गहरे रूप में पैठा दिया था कि वर्तमान युवा लेखन सिर्फ निर्वासित नहीं है (जैसाकि ‘अंधेरे में’ के नायक के संदर्भ में कहा जाता रहा है) बल्कि मलयज के समय का रचना चरित्र निर्वासन की दोहरी मार झेल रहा है। मलयज की आलोचना में प्रभाव कम है, स्वीकार-अस्वीकार अधिक । उनके लिए रचना की महत्ता उसकी विचारधारा नहीं बल्कि वे बेचैनियाँ रही हैं जिनके द्वन्द्व ने रचना की उत्पत्ति में मुख्य भूमिका निभाई। भारत की बागडोर जब नेहरू युग के हाथों में आई उस वक़्त मलयज इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र थे। उस दौरान इलाहाबाद साहित्य का गढ़ हुआ करता था। नयी कविता, ‘परिमल’ का गवाह इलाहाबाद। इलाहाबाद और ‘परिमल’ ने मलयज के साहित्यिक संस्कारों को गढ़ा। ‘परिमल’ ही वह जगह थी जहाँ से मलयज ने नयी कविता की रचना-प्रक्रिया उसकी सृजनशीलता का बौद्धिक विश्लेषण करने का प्रयास किया। ‘‘हिंदुस्तान को बहुत हद तक बीते हुए ज़माने से नाता तोड़ना होगा और वर्तमान पर उसका जो आधिपत्य है, उसे रोकना होगा। इस गुज़रे ज़माने के बेजान बोझ से हमारी जिदगी दबी हुई हैं जो मुर्दा है और जिसने अपना काम पूरा कर लिया है, उसे जाना ही होता है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि गुज़रे जमाने की चीज़ों से हम नाता तोड़ दें या उनको भूल जायें, जो ज़िंदगी देने वाली हैं और जिनकी अपनी अहमियत है हम उन आदर्शों को नहीं भूल सकते, जिन्होंने हमारी जाति को प्रेरित किया है। हिंदुस्तानी जनता के युगों से चले आने वाले सपनों को, पुराने लोगों के ज्ञान को, जिंदगी और प्रकृति में अपने पुरखों के प्रेम और उमंग को, उनकी मानसिक खोज और जिज्ञासा की भावना को उनके विचार की साहसिकता को, साहित्य, कला और संस्कृति में उनकी प्रतिभा को, सच्चाई खूबसूरती और आजादी के लिए उनकी मुहब्बत को, उनके बुनियादी मूल्य निर्धारण को... हम अपनी आँखों से ओझल नहीं कर सकते।’’(3) नेहरू युग का स्वप्न उस तनाव के द्वन्द्व में मौजूद था जो एक ओर तो गुज़रे जमाने से नाता तोड़ना चाहता था पर साथ ही गुजरे जमाने की चीजों के प्रति अपना मोह नहीं छोंड़ पा रहा था। वे किसी भी शर्त पर उन राष्ट्रीय आदर्शों को बिसराने के पक्ष में नहीं थे जिन्होंने उनकी जातीयता को प्रेरित किया था। नेहरू एक तरह की निरपेक्षता में अपनी राजनीतिक व वैश्विक समझ की बुनियाद रख रहे थे। भारत की स्वतंत्रता का उदय विभाजन की त्रासदी के साथ हुआ। यह आज़ादी हमें द्वितीय विश्वयुद्ध, स्वतंत्रता आंदोलन और विभाजन की असह्य पीड़ा में अपने लोगों की जान गँवाने के बाद अर्जित हुई। नेहरू इस अर्जित स्वतंत्रता का मूल्य जानते थे साथ ही भारतीयों की आज़ादी के जज़्बे को भी उनका बौद्धिक मानस समझ रहा था। स्वतंत्र भारत की बुनियाद वे रख चुके थे पर इसके तमाम सीमित साधनो से वाकिफ़ रहते हुए इसे विकसित करना साथ ही भारत के बुद्धिजीवियों और असंख्य आम लोगों को एक साथ लेकर चलना उनके लिए चुनौती था। द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका ही नहीं बल्कि इसके बाद युद्ध की मंडराती संभावना अथवा शीत युद्ध के खतरे को भी वे समझ रहे थे। नेहरू का स्वप्न इन खतरों से नव-स्वतंत्र राष्ट्रों को बचाते हुए भारत को विश्व पटल पर पहचान दिलाना था। विश्वयुद्ध के बाद विश्व दो गुटों में बँट गया था। अमेरिका और सोवियत संघ अपने-अपने विचारों क्रमशः पूँजीवाद और साम्यवाद द्वारा विश्व का नेतृत्व करना चाहते थे और उनके निशाने पर तीसरी दुनिया यानि नवस्वतंत्र देश थे। ऐसे समय में नेहरू न तो विचारधाराओं को पूरी तरह स्वीकार कर पा रहे थे और न ही अपने सीमित साधनों को देखते हुए इनका बहिष्कार कर पा रहे थे। यों नेहरू का मानस सोवियत संघ के साम्यवाद की ओर झुका हुआ था लेकिन तब भी तत्कालीन स्थितियों और घटनाओं को देखते हुए नेहरू इन दोनों गुटों से अलग रहते हुए अपनी पहचान वैश्विक पटल पर बनाने में सफल हुए। उनकी गुट-निरपेक्षता की नीति भारतीय विदेश नीति का जरूरी और अहम् फैसला रहा। जिससे न केवल भारत उन दो महाशक्तियों के पिछलग्गू बनने से बचा बल्कि उसने नवस्वतंत्र राष्ट्रों के सामने भी एक नयी राह खोली, साथ ही तीसरी दुनिया के देशों का नेतृत्व भी हासिल किया।
यह नेहरू युग का स्वप्न भर नहीं था बल्कि उनकी ज़रूरत भी
थी। नेहरू युग का स्वप्न (शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, निरस्त्रीकरण व शहरीकरण) एक तरह के राजनीतिक व वैश्विक आशावाद से
ग्रस्त था। चीन के आक्रमण से नेहरू का यह आशावादी स्वप्न भंग हो गया और साथ ही
भारतीय राजनीति से उस आदमी का मोहभंग भी स्वाभाविक रूप से हुआ जिसके लिए नेहरू
काम कर रहे थे। तत्कालीन युवा लेखन नेहरू के स्वप्न के समानांतर चल रहा था।
नेहरू के स्वप्नभंग के साथ ही उस युवा लेखन को भी गहरा धक्का लगा। जो देश की
राजनीति की ओर निश्चिंत सा हो गया था। दरअसल इसी मोहभंग ने आम आदमी को राजनीति
में सक्रीय भागीदारी निभाने के लिए प्रेरित किया। नेहरू युग का स्वप्न उन
सर्जनात्मक अपेक्षाओं को भारतीय मानस में जगाने के बाद उन्हें पूरा न कर पाने की
नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए एक अवसान, एक मोहभंग, एक निर्वासन के
रूप में परिणत हुआ। इस स्वप्न भंग ने उन दोनों ध्रुवों को मिला दिया था जो अब तक एक ही
राष्ट्र का हिस्सा रहते हुए अलग-अलग स्तर पर काम कर रहे थे। यह स्वप्न भंग उन
युवा बौद्धिकों में निर्वासन की त्रासदी के रूप में ही नहीं उभरा था जो नेहरू के
बौद्धिक मानस और वैश्विक राजनीतिक दर्शन को समझ रहे थे बल्कि इससे उन मजदूरों और
किसानों के विश्वास को भी धक्का लगा था जो अब तक नेहरू के स्वप्न के साये में
स्वयं को महफ़ूज़ मान रहे थे। इस स्थिति पर मलयज का कथन है- ‘‘नेहरू युग की
राजनीति ‘भारत की खोज’ के आधर पर आशावाद से ग्रस्त एक ऐसी राजनीति थी
जिसके पैर यथार्थ पर कम स्वर्णिम मानव भविष्य के स्वप्न पर अधिक टिके थे। ऐसी
आदर्शवादी राजनीति का अंत यदि मोहभंग में हो तो कोई आश्चर्य नहीं।’’(4) स्वतंत्रता के
समय पैदा हुई पीढ़ी 60-70 में जवान हुई एक तरह से नेहरू युग का अवसान और उस पीढ़ी का
युवा काल साथ-साथ आया। इस पीढ़ी के बचपन को नेहरू युग ने वैज्ञानिक भविष्यवाद का स्वप्न
दिया था लेकिन युवा मन में यह स्वप्न बिखर गया। नेहरू के अवसान के बाद जो युवा
लेखन(साठ-सत्तर के दशक का लेखन) आया जिसमें मलयज का लेखन भी शामिल है वह किसी
प्रकार के भविष्यवाद की उम्मीद लेकर आगे नहीं बढ़ा बल्कि उसने इस मोहभंग(स्वप्नभंग)
से सीख लेते हुए अपने वर्तमान से संबद्ध लेखन पर बल दिया। इस युवा लेखन के कई
स्वर हैं एक ओर विद्रोह और अराजकता का स्वर है तो दूसरी ओर कविता से अकविता की
उड़ान। एक ओर नक्सलबाड़ी है तो दूसरी ओर वर्तमान स्थिति को अस्वीकार करते हुए
आंदोलनधर्मी जनक्रांति का आह्वान। ये सभी स्वर नेहरू युग के स्वप्न भंग के बाद
उठे स्वर हैं। मलयज ने नेहरू युग के इस लेखन को समझने-समझाने के लिए एक लेख (पिछले दशक के युवा लेखन के बारे में कुछ मूलभूत
बातें) लिखा है। संभवत् यही कारण है कि साठ के दशक की पीढ़ी आदर्शवाद को
अस्वीकार कर, अधिक यथार्थोन्मुख होती है। आदर्शों की मृगमरीचिका की
अपेक्षा वह अपने यथार्थ का सामना कर रही थी निसंदेह इस यथार्थ ने उनके लेखन में
आक्रोश, विद्रोह और कुण्ठा का स्वर भरा था लेकिन यह अपने भविष्य
के किसी भी आदर्श में जीना नहीं चाहती थी। यह उस पीढ़ी का अपने यथार्थ और
तात्कालिकता में जीवंत लेखन था। मलयज अपने समय की पीढ़ी के मन में उठे इस उद्वेलन
को महसूस कर रहे थे। कहीं न कहीं वह स्वयं भी इसी तनाव से पीड़ित थे। विजय कुमार ‘मलयज’ पर लिखे
मोनोग्राफ में लिखते भी हैं- ‘‘ साठ के दशक में जिस प्रकार का विद्रोह और आक्रोश से भरा हुआ
युवा लेखन आया, उसे मलयज विभिन्न स्तरों पर समझने विश्लेषित करने का प्रयास करते हैं’ वे कहते हैं कि
मोहभंग के बाद जो युवा लेखन उभरा है, वह भविष्यवाद से विरत लेखन है। यह सीधे-सीधे अपने
वर्तमान से मुखातिब लेखन है और इसमें अपने अस्तित्व-बोध
की एक तीक्ष्ण तात्कालिकता है।’’(5) यह सही है कि नेहरू युग के अवसान के साथ ही तात्कालिकता
पर रचनाकार का बल अधिक हो गया और मोहभंग व निर्वासन की स्थिति ने उसे अपने
अस्तित्वबोध के प्रति अधिक सावधान रहने के लिये बाध्य किया था लेकिन तब भी नेहरू
युग की इन तमाम शंकाओं के बावजूद भी मलयज नेहरू के व्यक्तित्व, उनकी दृष्टि से
प्रभावित थे। राजनीतिक और वैश्विक स्तर पर जो नीति नेहरू ने अपनाई थी। साहित्य
स्तर पर वही नीति मलयज ने भी अपनाई। ‘तय करो किस ओर हो तुम’ के नारों के
बीच मलयज साहित्य में प्रचलित दो दृष्टियों, दो विचारधराओं, दो ध्रुवों से
न केवल स्वयं को बचा रहे थे बल्कि इन दोनों से तटस्थ रहते हुए अपनी एक अलग और
स्वतंत्र दृष्टि भी बना रहे थे। अगर अतिशयोक्ति न समझा जाए तो हम कहना चाहेंगे
कि इसी दृष्टि के बल पर मलयज सत्तर के दशक के सर्वाधिक ईमानदार और तटस्थ आलोचक
के रूप में आज तक स्मरणीय है। नेहरू की वैश्विक गुटनिरपेक्षता को साहित्य के स्तर पर
मलयज ने अपनी युवा पीढ़ी को साहित्यालोचन की दो दृष्टियों से अलग (मार्क्सवादी और कलावादी) अपनी दृष्टि, भाषा-संस्कार, अपनी सोच को
बनाया। नेहरू युग का युवालेखन जिसे मलयज दोहरे स्तर पर निर्वासित मानते हैं
दरअसल अपने ‘भीतर’ के रचनाकार को बचाये रखने में संघर्षरत लेखन था। ‘‘इस दशक की ट्रेजेडी यह रही है कि इसमें व्यक्ति न तो
लौटकर पूरी तरह ‘भीतर’ की ओर जा सकता है न अपने को पूरी तरह बाहर को ही संमर्पित
कर सकता था। यह एक ऐसी सांसत थी जो नेहरू युग में नहीं थी।’’(6) मलयज नेहरू के बौद्धिक मानस से प्रेरित जरूर थे लेकिन
उनके राजनैतिक दर्शन और राष्ट्र नेतृत्व की सीमाओं को भी समझ रहे थे। किसी भी राष्ट्र का साहित्य उस देश की राजनीति में परिवर्तन
से जरूर प्रभावित होता है और ऐसा होना स्वाभाविक भी है क्योंकि साहित्य, साहित्यकार
की दृष्टि और उसकी सोच का प्रतिफल है। एक देश की राजनीतिक उथल-पुथल का अक़्स
उसमें आना स्वाभाविक भी है। स्वतंत्रता के बाद भारतीय राजनीति और भारतीय साहित्य
की धाराएँ समानांतरता की हदों से आगे बढ़ गयी थीं। नेहरू युग जिन दबाबों में घिरा
हुआ था वहाँ आजादख़याली एक कूटनीतिक भूल भी हो सकती थी, सो नेहरू युग
के अवसान के साथ ही युवा लेखन का स्वर भी कुछ अवरूद्ध हुआ, आक्रोश का
जागना भी स्वाभाविक ही था। मलयज युवा लेखन की इस आक्रोशित मानसिकता से सहानुभूति
रखते थे। उनके युग का लेखन अपने वर्तमान की वास्तविकता अधिक साफ तरह से देख पा
रहा था। नेहरू युग के अवसान ने ही नयी कविता के बाद की कविता से वे प्रतीक और
बिंब छीन लिए थे जिनके बिना ‘नयी कविता’ ‘नयी’ न रह गयी । नेहरू युग के अवसान के साथ एक अनास्था,
एक विक्षोभ न केवल राजनीति बल्कि साहित्य में शिथिलता ला रहा था जिसकी झलक सत्तर
के दशक की कविताओं (अकविता) में भी
देखी जा सकती है। मलयज का कवित्व
उन बिंबो और प्रतीकों की दुनिया से दूर हटता हुआ सपाटबयानी की दुनिया की ओर बढ़ता
हुआ कवित्व है। शायद इसी कारण से मलयज मुक्तिबोध और अज्ञेय के बिंब और प्रतीकों
को पसंद करने के बावजूद अपनी युग-संबद्धता का मूल्य रघुवीर सहाय की सपाटबयानी को
देना ज्यादा पसंद करते हैं। निश्चित रूप से मलयज नेहरू से प्रभावित थे नेहरू की
दृष्टि और उनके युग ने उन्हें सिखाया था कि जिस प्रकार से वैश्विक राजनीति की दो
दुनियाओं (पूंजीवाद और साम्यवाद) से अलग
भी तीसरी दुनिया (गुटनिरपेक्षता)
की दुनिया हो सकती है उसी प्रकार साहित्यानुशीलन की दो दृष्टियों (प्रगतिवादी और
कलावादी) से अलग भी एक तटस्थ दृष्टि हो सकती है। मलयज ने साहित्यालोचन के स्तर पर इस प्रभाव को ग्रहण भी
किया था। वह ‘पूर्वग्रह’ से जुड़े रहने के बावजूद कलावादी नहीं बने(जैसाकि माना जाता रहा है) बिल्कुल इसी
तरह मुक्तिबोध के प्रशंसक होने के बावजूद मार्क्सवाद का मुलम्मा उन पर नहीं चढ़
सका। इसके बावजूद भी रोमारोलां की ‘ज्याँ क्रिस्तोफ
और ‘इवान’(वी. बोगोमोलोव) जैसी रचनाएँ उनकी पसंदीदा रचनाएँ रहीं। एक अर्थ में वे
कला के प्रशंसक होने के साथ-साथ स्वयं एक कलाकार थे दूसरे अर्थ में जनपक्षधरता
के प्रबल समर्थक। रचना को उसकी आंतरिक सत्ता के उद्घाटन में समझने वाले पाठक और
उसकी तर्कसंगतता और वैज्ञानिक दृष्टि में मूल्याँकन करने वाले निर्मम और निडर
आलोचक। यह गुण उन्हें जवाहरलाल नेहरू के राजनीतिक दर्शन से मिला था जिनकी दृष्टि
के आलोक में वे अपना और अपने समय के लेखन का मूल्याँकन करते हैं। अपनी तमाम
सीमाओं के बावजूद नेहरू उनके लिए सिर्फ एक राष्ट्रनेता नहीं थे बल्कि एक नज़रिया, एक दृष्टि भी
थे जिस पर वे स्वयं को और अपने युग को आँक
रहे थे। उनकी आलोचना इतनी निर्मम और तटस्थ थी कि जिसने अपने अग्रज साथियों (शमशेर
बहादुर सिंह , श्रीराम वर्मा, श्रीकांत वर्मा, साही, निर्मल वर्मा, नामवर सिंह) की सीमाओं का भी ईमानदारी से न केवल उल्लेख
किया बल्कि समकालीन परिस्थितियों में उनका मूल्यांकन भी किया।
संदर्भ-ग्रंथ सूचीः-
1. नयी
कविताःस्वरूप और समस्याएँ –गुप्त, जगदीश भारतीय
ज्ञानपीठ प्रकाशन द्वितीय संस्करण1971
2. मुक्तिबोध
रचनावली-5 (सं.) जैन, नेमिचंद्र राजकमल प्रकाशन नयी दिल्ली,पटना,इलाहाबाद
प्रथम संस्करण 1986 द्वितीय
आवृत्ति 2007
3. हिंदुस्तान की कहानी - नेहरू; जवाहर लाल (संपादक)रामचंद्र टंडन, सस्ता साहित्य मण्डल, दिल्ली, संस्करण 2009, पृष्ठ 591-592 4. कविता से साक्षात्कार-मलयज, संभावना प्रकाशन, हापुड़ 1979 पृष्ठ 165 5. मलयज – कुमार, विजय साहित्य अकादमी संस्करण 2006 पृष्ठ 24 6. कविता से साक्षात्कार - मलयज, संभावना प्रकाशन हापुड़ 1979, पृष्ठ 168 |
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Dr. Tarun
(Delhi University)
Mob:- 9013458181
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