शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

कुछ छूट गया ..........

आज फिर तुम कैंटीन में दिखीं
मगर आज तुम्हारे चेहरे पर
वो लब्बोलुबाब न था
जो कभी रहा करता था
मैं भी वहीं था
उस वक़्त
किसी कोने से तुम्हें तक़ता
मेरी आँखें
तुम्हारी हथेली पर रखे
तुम्हारे चेहरे को देख रही थी
और तुम
अपने सामने की खाली कुर्सी को
मानो
तुम्हें किसी का इंतज़ार हो ..........
कोई आने वाला हो
तुम्हारा बेहद क़रीबी
पर
तुम इतनी ख़ामोश क्यों हो ?
तुम तो ऐसी ना थी
मैं तुम्हारे साथ बैठना चाहता हूँ
मुझसे कुछ बात करो ना .........प्लीज़
ना जाने कितने प्रश्न
कितनी इच्छाएँ
यक-ब-यक
कर डाली मैंने
मगर तुम
चुप बिल्कुल चुप
ख़ामोश
सामने की खाली कुर्सी को देखती
मन में ख़याल आया
याकि इच्छा हुई
या इस एक पल के लिए
मेरे जीवन का लक्ष्य
काश मैं वो कुर्सी होता ........................
.......................
.......................अरे
क्या हुआ
तुम जाने क्यों लगीं
और तुम्हारी आँखों में ये गीलापन
मैं खिड़की के काँच से
तुम्हारे बालों और दुपट्टे को लहरते देखता रहा देर तक
मानो वो भी
.........अनमने से
लहरने को मजबूर हों
मैं अभी भी वहीं बैठा हूँ
अकेला
तुम बिन
उस खाली कुर्सी को निहारता
जहाँ अभी भी तुम्हारी खामोशी
तुम्हारा इंतज़ार
ऊँघ रहा है
टेबल पर
अपनी कोहनी टिकाए
हथेली को ठोड़ी से लगाए ।

1 टिप्पणी:

ओम आर्य ने कहा…

aisa hee hai jindagi ka har lamha kuchh na kuchh sarakata huaa lagata hai ......bahut hi sundar