27वाँ देवीशंकर अवस्थी सम्मान युवा आलोचक अच्युतानंद मिश्र को उनकी पुस्तक ‘कोलाहल में कविता की आवाज़’ के लिए प्रदान किया गया। उन्हें यह सम्मान रवींद्र भवन, नई दिल्ली के साहित्य अकादमी सभागार में आयोजित एक समारोह में वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने प्रदान किया। इस वर्ष की सम्मान समिति में अशोक वाजपेयी, राजेंद्र कुमार, नंदकिशोर आचार्य, एवं सम्मान समिति की संयोजिका कमलेश अवस्थी शामिल थीं। आलोचना के क्षेत्र में दिया जाने वाला यह प्रतिष्टित पुरस्कार हिंदी के सुप्रसिद्ध आलोचक स्वर्गीय श्री देवीशंकर अवस्थी की स्मृति में उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कमलेश अवस्थी द्वारा वर्ष 1995 में स्थापित किया गया था। यह सम्मान अवस्थी जी के जन्मदिवस के अवसर पर प्रतिवर्ष 45 वर्ष तक की आयु के किसी युवा आलोचक को दिया जाता है। सम्मान के तहत साहित्यकार को प्रशस्तिपत्र, स्मृति चिह्न और सम्मान राशि प्रदान की जाती है।
अब तक यह सम्मान सर्वश्री मदन सोनी, पुरुषोत्तम अग्रवाल,विजय कुमार, सुरेश शर्मा, शम्भुनाथ, वीरेंद्र यादव, अजय तिवारी, पंकज चतुर्वेदी, अरविंद त्रिपाठी, कृष्णमोहन, अनिल त्रिपाठी, ज्योतिष जोशी, प्रणय कृष्ण, प्रमीला के. पी. संजीव कुमार, जितेंद्र
श्रीवास्तव,प्रियम अंकित, विनोद
तिवारी, जीतेंद्र गुप्ता, वैभव
सिंह, पंकज पराशर, अमिताभ राय, मृत्युंजय पांडेय, आशुतोष
भारद्वाज और राहुल सिंह को प्रदान किया जा चुका है। पिछले दो पुरस्कार कोविड के
संकटग्रस्त समय में ऑनलाइन मोड में आयोजित किए गए थे लगभग दो वर्षों बाद यह सम्मान
अपने पूर्व रूप में लौटा। इस बार का खास आकर्षण प्रसिद्ध कवि एवं सिने निर्देशक
श्री देवीप्रसाद मिश्र द्वारा देवीशंकर अवस्थी के जीवन पर आधारित फिल्म का
प्रदर्शन रहा।
अच्युतानंद मिश्र को प्रशस्ति पत्र प्रदान करते हुए
सम्मान समिति ने अपने संयुक्त वक्तव्य में कहा “बोकारो, झारखण्ड में जन्मे अच्युतानंद
मिश्र ने कविता और आलोचना दोनों ही क्षेत्रों में सार्थक सक्रियता और चिंतनशीलता
दर्ज की है। उनकी रुचि का वितान विस्तृत है और उसमें कबीर, मुक्तिबोध, विजयदेव
नारायण साही, श्रीकांत वर्मा, विजय कुमार, लीलाधर जगूड़ी, अनामिका, अरुण कमल आदि
शामिल हैं। उन्होंने महत्वपूर्ण कविता को हमारे समय, उसके बेहद उलझे यथार्थ और
वैचारिक संदर्भ में अवस्थित करने और उसके फलितार्थों को समझने की सार्थक कोशिश की
है। उन्हें ‘कोलाहल में कविता की आवाज़’ अरण्यरोदन नहीं, ज़रूरी और अनिवार्य आवाज़ लगती है। श्री मिश्र की
आलोचना-भाषा में गहरा चिंतन है और वे इसरार करते हैं कि मनुष्यता की आदिम भाषा
कविता है। देवीशंकर अवस्थी सम्मान चयन समिति आलोचना की बौद्धिक और नैतिक
ज़िम्मेदारी निभाने, कविता का अनेकविध मर्म खोलने तथा साहित्य और समय के
संबंध-द्वन्द्व की समझ को बढ़ाने के लिए श्री अच्युतानंद मिश्र को उनकी पुस्तक ‘कोलाहल में कविता की आवाज़’ के लिए सत्ताईसवें
देवीशंकर अवस्थी सम्मान से विभूषित करते हुए प्रसन्नता का अनुभव करती है।”
विज्ञान चीज़ों को निर्धारित करता है और ज्ञान को मूर्त
करता है वह निश्चितता की दुनिया है – अच्युतानंद मिश्र
अपने वक्तव्य में अच्युतानंद मिश्र ने देवीशंकर अवस्थी की स्मृति को नमन करते
हुए एवं सम्मान समिति और निर्णायकों के
प्रति अपना आभार व्यक्त करते हुए कहा कि उन्होंने आलोचना की आगे बढ़ रही परंपरा
में मुझे जोड़ने लायक समझा इसके लिए निर्णायक मंडल का पुनः आभार। अपनी पुस्तक ‘कोलाहल में कविता की आवाज़’ को मैथिली भाषा के महत्त्वपूर्ण कवि श्री हरिकृष्ण झा को समर्पित करते
हुए और पिछले ढाई 3 वर्षों में दिवंगत हुए लेखकों
साहित्यकारों की स्मृति को नमन करते हुए सम्मानित आलोचक अच्युतानंद मिश्र ने कहा
कि 50 के दशक में हिंदी आलोचना में एक नयी
परंपरा विकसित हो रही थी जो संवाद की परंपरा थी दुर्भाग्य से तीस चालीस बरसों बाद
धीरे-धीरे यह परंपरा
क्षीण हो गयी। उन्होंने अपने वक्तव्य में आगे कहा कि दुनिया को देखने के दो
नज़रिये हैं एक नज़रिया विज्ञान का है जो चीज़ों को निर्धारित करता है, दरअसल
विज्ञान ज्ञान को मूर्त करता है।
दूसरा रास्ता कला का है, विज्ञान ज्ञान और चेतना का
जो राजमार्ग है उस राजमार्ग के बगल से कला की एक पगडंडी गुज़रती है और विज्ञान जो
निश्चितता की दुनिया है। उस दुनिया से बाहर जाती हुई एक अनिश्चितता की दुनिया है
जो कला की दुनिया है। उन्होंने दृष्टांत द्वारा कला और विज्ञान के इस फर्क को
समझाते हुए कहा कि एक कलाकार ने एक स्वप्न देखा उसने मोम के पंख बनाए और वह सूरज
की और उड़ने लगा उसके पंख पिघल गए वह मर गया पर इस सबके पीछे वह उड़ने का स्वप्न
छोड़ गया । यह जो उड़ने का स्वप्न है इसे बरसो बाद
विज्ञान ने साकार किया। यह स्वप्न, कला और स्मृति का रास्ता अनिश्चितता का रास्ता
है और कठिन रास्ता है लेकिन तमाम सत्ताएँ, तमाम तरह की निश्चितताएँ इसे बार-बार
नियंत्रित और निर्धारित करने की कोशिश करती हैं। अच्युतानंद का कहना है कि प्लेटो
जरूर कोई वैज्ञानिक रहा होगा जिसने अपने समय, समाज और मनुष्य की नैतिकता आदि को
परिभाषित करना चाहा होगा और कलाकार ने उस परिभाषा के बाहर जाने की कोशिश की होगी और
यही वजह रही होगी कि प्लेटो ने अपने गणतंत्र से कलाकार को बाहर निकाल दिया लेकिन प्लेटो ने जो कलाकार को इस गणतंत्र से बाहर
निकाला वह आज तक इस गणतंत्र से बाहर है और उसका गणतंत्र के प्रति जो आलोचनात्मक
विवेक है कला के मूल में वही विवेक है और यही कला का रास्ता है। उनका कहना है कि अगर हम थोड़ा सा ध्यान से देखें
तो अट्ठारवीं सदी के बाद विज्ञान और कला का
जो द्वंद है वह अपनी दिशा बदलता है जिसके बाद विज्ञान दर्शन से तकनीक की तरफ बढ़ने
लगता है। अगर आप 19वी सदी को याद करें तो यह नए और पुराने के द्वंद्व के रूप में
याद की जाती है लेकिन 20वी सदी को हम कैसे याद करें, क्या उसे हम मुक्ति की सदी के
रूप में याद करें, या उसे हम बड़े या बृहत्तर घेराव की सदी के रूप में याद करें। क्योंकि
हमारा आज बीसवीं सदी को देखने और समझने से जुड़ा हुआ है। मनुष्य ने बीसवीं सदी में
जितनी तरह के अंतर्विरोधों को देखा और जाना है। वह मनुष्यता के इतिहास में इससे
पूर्व कभी नही रहे होंगे। यह जो अकूत गति है इसका निर्माण बीसवीं सदी के प्रारंभ
में होने लगा था। इसके जरिये हम आज के और अपने समय के विवेक को समझ सकते हैं। अच्युतानंद
ऐसे समय में नीत्शे,रामचंद्र शुक्ल और एडोर्नों को याद करते हैं। उनका मानना है कि
इन तीनों के रास्ते बीसवीं सदी के आलोचनात्मक विवेक को हम बेहतर तरीके से समझ सकते
हैं। नीत्शे ने कहा था कि ‘जब हम धीरे धीरे कविता पढ़ते
हैं तो हम दरअसल आधुनिकता की आलोचना कर रहे होते हैं।‘ शुक्ल
जी ने भी कहा था कि ‘ज्यों ज्यों सभ्यता का विकास होगा कविकर्म
कठिन होता जाएगा।‘ एडोर्नो भी ऐसा ही कहते हैं। अच्युतानंद
मिश्र का मानना है कि इन वक्तव्यों को अलग अलग न देखकर एक रूप में देखना चाहिए। आलोचना
इन्हीं रास्ते के माध्यम से अपना विवेक अर्जित करती है। इनका संबंध हमारे
मनोविज्ञान और राजनीति से है। जिसके जरिये हमारा आलोचनात्मक विवेक विकसित होता है
और जिसे धीरे धीरे कुंद करने का प्रयास हो रहा है। कला और आलोचनात्मक विवेक के
सवाल को सिर्फ साहित्य और संस्कृति तक सीमित नहीं रखा जा सकता। पचास के दशक में
हिंदी आलोचना इसी क्रिटिकल थियरी के रास्ते अपने संवाद संप्रेषित करती है। यह
संवाद साहित्य पर होकर भी समाज, राजनीति, मनोविज्ञान जैसे तमाम तरह के विषयों और
बहसों को समाहित करता है। जिसमें संदर्भ साहित्य का होता है पर बहस में अन्य अनुशासन
स्वतः आ जाते हैं। यही क्रिटिकल थियरी आलोचनात्मक विवेक की नयी संभावना है।
नामवर सिंह, देवीशंकर अवस्थी और सुरेंद्र चौधरी संवाद की जिस परंपरा को विकसित
करते हैं। ऐसी परंपरा जिसमें साहित्य का संबंध अन्य अनुशासनों से जुड़ता है। पर यह
एक सवाल है कि वह परंपरा आगे के वर्षों में छिन्न क्यों हो जाती है। पूँजीवाद के
संदर्भ और वर्तमान संकट को उद्घाटित करते हुए उन्होंने कहा कि भाषा, समयबोध और नैतिकता
के बदलते मानदंड ये ऐसे घटक हैं जो वर्तमान समय और इसके संकटों की समझ विकसित करने
का प्रयास करते हैं। इन घटकों में लगातार परिवर्तन हो रहे हैं आने वाला समय इन
परिवर्तनों को विवेकसंगतता में समझने में निहित है। उनका कहना है कि क्रांति का
बोध बीसवीं सदी के पहले आया था अब क्रांति को दुग्ध क्रांति या सूचना क्रांति के
रूप में बदला जा रहा है। कैसे यह सूचना क्रांति डिजिटल क्रांति में तब्दील हो गयी।
जबकि इससे पहले हमें पहली बार तब इस डिजीटलीकण का आभास हुआ था जब हमें पता चला कि
पी.टी. उषा सैकेंड के सौवें हिस्से से हार गयीं। हमारे लिए समय बोध यहाँ से शुरु
हुआ।
2000 के बाद का समय हिंदी में उत्तर आधुनिकता को लेकर एक अजीब तरह की नकारात्मकता का समय भी है। ऐसा क्यों है हमें यह
सवाल पूछना चाहिए। क्यों 19वीं सदी के सोचने, समझने और देखने
के कार्यकारण संबंध नष्ट हो चुके हैं जिस समय मैं हंस रहा हूं उसी समय मेरे पास
रोने का तर्क भी है यह अब से पहले कभी नहीं था यह हमें हमारे अपने समय ने दिया है
यह एक तरह से नई तरह की संस्कृति है जिसे हम पुरानी संस्कृति की कविता में नहीं ले
सकते। जो नया समय है नई संस्कृति है नए रूप आकार है उन्हें लेकर हम कैसे विचार
करें। इस तरह के प्रश्न नए आलोचनात्मक विवेक के प्रश्न हो सकते हैं। हमने अपने समय
की ताकत के नए रूपों और नए संबंधों को लेकर सोचना अभी शुरू नहीं किया है एक अन्य
सवाल यह भी है कि अभी हिंदी में लेखक और प्रकाशक को लेकर बहस छिड़ी हुई है लेखक
प्रकाशक और पाठक का जो त्रिकोण था जिसमें तर्क हुआ करते थे वह स्थिति बिखर चुकी है।
अब लेखक उस अर्थ में लेखक नहीं है, प्रकाशक प्रकाशक नहीं है और पाठक पाठक नहीं है
यह त्रिकोण संबंधों का त्रिकोण अब खंडित हो चुका है और तीनों एक ही मुकाम पर खड़े
हैं और वह है उपभोक्ता। यह नई तरह की संस्कृति है जिस पर हमें बात करनी चाहिए।
कविता अपने समय
और समाज का नोटिस लेती है - विश्वनाथ त्रिपाठी
अच्युतानंद
मिश्र को बधाई देते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि ऐसे समय में आलोचना में जो
बचाया जा सकता है उसे ध्यान में रखते हुए आलोचना करना एक जरूरी काम है। अपने समय
और इसकी रचनाशीलता को उसके एक वृहद ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है
और वह जरूरत अच्युतानंद मिश्र पूरी कर रहे हैं वे बधाई के पात्र हैं। हमारा समय
बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है ऐसे में अगर मैं आपसे यह कहूं कि आठ से दस साल पहले हम जो अमरूद का टेस्ट करते
थे वह कहाँ चला गया तब आप कहेंगे कि यह अमरूद की बात कर रहा है एडोर्नो की बात
नहीं। पर बात होनी चाहिए कि पूरी संस्कृति का स्वाद बदल दिया गया है।
सड़क चौड़ी जरूर
कर दी गई है पर उसके आसपास छोले कुलचे वाला था अगल बगल कुछ खोखे वाले थे वो सब कहां चले गए। हमें ध्यान
रखना चाहिए कि ऊपर का फैसला सबसे नीचे से होता है इसलिए संस्कृति का फैसला सबसे
निचला आदमी करेगा इसलिए विवेकानंद ने कहा था कि आप ईश्वर की बात करते हैं जब तक
मेरे देश का कुत्ता भी भूखा है उसे रोटी देना मेरा धर्म है ईश्वर की उपासना करना
नहीं। हम कविता की बात करें संस्कृति की बात करें अगर हम उस आदमी की बात नहीं करते
हम उसे ध्यान में नहीं रखते हैं तो यह सारा आडंबर है। वह चौड़ी सड़क कैसे प्रतीक बना
सिर्फ रघुवीर सहाय नहीं भगवत रावत ने भी इस पर कविता लिखी है, कविता अपने समय समाज का नोटिस लेती है और चोड़ी
सड़क पर बात करते हुए भी हाशिये के जन को नहीं बिसराती बल्कि उसे मुख्य संदर्भ
बनाती है।
अपने
वक्तव्य में उन्होंने आगे कहा कि हमने कई संस्थान खोले हैं, गालिब अकेडमी खुली है
अशोक वाजपेयी ने बहुत बड़ा संस्थान खोला है वे काम कर रहे हैं ये संस्थान अवस्थी
जी की याद दिला रहे हैं। जब सत्ता संस्कृति पर संकट डालती है तब जो छोटी-छोटी
वित्तीय स्थिति से चलने वाले संस्थान महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं वह सत्ता और संकटों
का प्रतिरोध करते हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें खुशी है कि देवीशंकर अवस्थी संस्थान
इस कसौटी पर खरा उतरा है। यह संस्थान जरूर चलते रहना चाहिए।
आज का समय
कोलाहल का समय है – मृदुला गर्ग
अच्युतानंद
मिश्र को बधाई देते हुए मृदुला गर्ग ने कहा पुरस्कृत किताब का नाम मुझे बहुत पसंद
है ‘कोलाहल में कविता की आवाज’। आज का समय कोलाहल का समय है और अच्युतानंद ने बिल्कुल ठीक कहा कि विवेक,
नैतिकता, स्वायत्तता, स्वतंत्रता दूसरे की मुक्ति में दिलचस्पी अब खत्म हो चुकी है
एक कोलाहल है कि किसी तरह पूंजी के सहारे और ताकत के सहारे हम आगे बढ़ जाएँ।
खुद सत्ता
हमारी संस्कृति, हमारे विचार करने की शक्ति को अपनी गिरफ्त में लेने का प्रयास कर
रही है। सत्ता विज्ञापन और पूँजी की ताकत से एक झूठे आडंबर को रचती ही नहीं बल्कि
मनुष्य के विवेक को झूठ में तब्दील कर रही है। यह झूठा विवेक जबरन ठूँसा जा रहा
है। और नागरिक को भक्त में परिणत करने का प्रयास लगातार जारी है और यह सब विज्ञापन
के द्वारा संभव होता है वह विज्ञापन आपको बताता है कि आप क्या देखें क्या खाएँ, क्या पीएँ और क्या बोलें। पहले हमारे
आसपास विज्ञापनों से अधिक मनुष्य और संवेदनशील आदमी हुआ करते थे उन्हीं के सहारे
जिंदगी चला करती थी। वह आदमी जिन्हें आप ताउम्र याद रखें आप बड़े बड़े शख्स को भूल
जाते हैं आप अपने आस पास के मेहनतकश और सहायकों को याद रखते हैं। अपने निजी अनुभव
के हवाले से मृदुला जी ने कहा कि मैं आज भी लक्ष्मी मेडिकोज के उस व्यक्ति को नहीं
भूली हूँ। जिसने मुझे मेरे घर आकर दवाई पहुँचाई। आज ऐसी संवेदना लगभग नदारद है। पहले
एक संवेदना थी जो अब खत्म हो गई इसलिए रचनाकार और आलोचक का जो रिश्ता होना चाहिए
वह भी अब रहा नहीं है। रचनाकार बहुत स्वार्थी जीव होता है वह यह तो चाहता है कि हर
आलोचक उसकी पुस्तक की आलोचना करे.समीक्षा करें लेकिन वह आलोचना की किताब नहीं पढ़ता।
आलोचना के सिद्धांतों को जानने की कोशिश नहीं करता। यह भी जानने की कोशिश नहीं करता
कि रचना और आलोचना का उद्गम एक ही विवेक से होता है और यह विवेक तब पैदा होता है
जब आप समाज और उसकी स्थिति से जुड़े होते हैं सिर्फ जुड़े ही नहीं बल्कि उसकी
आलोचना करने की हिम्मत भी आपके अंदर होती है। आज वह हिम्मत हमारे भीतर खत्म होती
जा रही है हमारे विचारों में एक विकृत मानसिकता पैदा की गई है।
यह बताने का काम भी सत्ता ही कर रही है कि आप कौन
हैं आप क्या हैं और आपको क्या चाहिए, आपका भविष्य कैसा हो। पूरी मानवीय सभ्यता और
मानव के बीच में क्या निर्णय लिया जाए। कोविड ने हमें बताया कि प्रकृति को हमने
कितना कमजोर जान लिया था। आप उसे नष्ट
करने की कोशिश में जुटे रहे, वह तो नष्ट नहीं हुई लेकिन वह आप को नष्ट करने के लिए
तैयार है। जिसकी एक झलक कोराना ने हमें दिखलाई और यही देश के अंदर सत्ता और हमारे
बीच चल रहा है। हम बार-बार हथियार डाल देते हैं। क्रांति से तो हम घबराने लगे हैं
क्रांति सिर्फ सूचना की होती है जो सूचना बेबुनियाद रूप में क्रांति के रूप में आपके
सामने आती हैं बड़ी दिलफरेब होती हैं वह जो दिखाई जाती हैं और आपको विश्वास हो जाता
है कि हमने बहुत प्रगति कर ली हमने हर क्षेत्र में क्रांति कर ली है, हम ताकत पा
चुके हैं।
साहित्य और आलोचना
को प्रतिरोध की विधाओं के रूप में बचाए रखना जरूरी - अशोक वाजपेयी
अशोक वाजपेयी ने अच्युतानंद की किताब कोलाहल में कविता की
आवाज़ के शीर्षक की वर्तमान संदर्भसापेक्षता उद्घाटित करते हुए कहा इस किताब के शीर्षक में जो रूपक है । यह काहे का कोलाहल है जिसमें कविता की आवाज उठ रही है। मुझे याद नहीं आता कि
हमने कभी झूठ, नफरत, भेदभाव, सांप्रदायिकता, हिंसा, बलात्कार का कोलाहल इतनी बुरी
तरह सुना हो और इतने माध्यमों से सुना हो जितना कि हमें सुनाया जा रहा है और इस
कोलाहल को कम से कम हिंदी अंचल में व्यापक रूप से स्वीकार्यता मिल गई है यह वह समय
है जहां आलोचना करने को अपराध की श्रेणी में घोषित किया जा रहा है। अभी यह राजनीति के क्षेत्र में या सामाजिक क्षेत्र में
है अभी यह साहित्य के क्षेत्र में नहीं आया है लेकिन यह वहाँ भी देरसबेर आ सकता है।
जब प्रश्न पूछना आलोचना करना आज की सत्ता और राजनीति वर्जित कर रही है और इसके
विरुद्ध हमारे बुद्धिजीवी जो शिक्षण संस्थानों में काम करते हैं और मोटी तनख्वाह
पाते हैं। उनका एक या दो प्रतिशत भी इसके विरुद्ध नहीं आया है। यहां तक कि वह अपने शिक्षण संस्थानों
की स्वायत्तता के नष्ट होने पर भी कुछ नहीं कह रहे और जिस विवेक की बात अच्युतानंद
कर रहे थे वह लगभग अप्रसांगिक करार दिया चुका है। ऐसे समय में लेखक को अपने ऊपर
संदेह करना चाहिए कि क्या यह समाज वही है जो अभी कुछ वर्ष पहले तक प्रतिरोध और
क्रांति को उसके मौलिक और सच्चे अर्थों में जगह देता था। क्या यह वही हिंदू धर्म
है जो हिंदुत्व नाम के एक भयानक विद्रूप के रूप मे घटित किया जा रहा है और सारी
संस्कृति तमाशा बन गयी है। बड़े से बड़ा तमाशा होता है और इस तमाशे में हम सब
शामिल होते हैं। यह समय बहुत गहरे संकट का समय है इसमें सौभाग्य से हिंदी के महत्वपूर्ण
लेखकों ने सारे प्रलोभनों और तनावों के बावजूद अपना पाला नहीं बदला है। ऐसे समय
में साहित्य और आलोचना को प्रतिरोध और प्रश्नाकुलता की विधाओं के रूप में बचाए
रखना और दोनों को सच और उम्मीद की विधाओं के रूप में बचाए रखना जरूरी है। यह कठिन
होगा तो होगा। जिस तकनीक को हम बहुत संभावनाशील नज़रों से देख रहे हैं और उस पर गर्व कर रहे
हैं इसी तकनीक का प्रयोग सबसे ज्यादा घृणा और हिंसा और सांप्रदायिकता फैलाने के
लिए हो रहा है। विजयदेव नारायण साही
ने कहा था की बीसवीं शताब्दी 19वीं शताब्दी की गोद में बैठी हुई है जिन तीन विचारकों ने
बीसवीं शताब्दी को प्रभावित किया वह दरअसल 19वीं शताब्दी में आए। चाहे समाजवाद हो,
मनोविश्लेषणवाद हो या आइंसटीन का सिद्धांत ये सभी 19वीं
सदी की पैदाइश हैं। क्या बीसवीं शताब्दी हमारे सिर पर बैठी हुई है याद रखने की
जरूरत है कि बीसवीं शताब्दी में सबसे ज्यादा स्वतंत्र देश बने इससे पहले कभी ऐसा
नहीं हुआ था। ऐसे में देवीशंकर अवस्थी को याद करना और इस पुरस्कार के बहाने आलोचना
की जरूरत को रेखांकित करना जरूरी है हम इस पुरस्कार को और इसकी परंपरा को जीते जी
घटने या कम होने नहीं देंगे।
कार्यक्रम
का संचालन रवींद्र त्रिपाठी ने किया। इस अवसर पर नित्यानंद तिवारी, रेखा अवस्थी,
विनोद तिवारी, ज्योतिष जोशी, वैभव सिंह, वीरभारत तलवार, मैनेजर पांडेय एवं साहित्य
समाज के सुधीजनों की गरिमामयी उपस्थिति रही। आमंत्रित वक्ताओं का स्वागत श्री
अनुराग अवस्थी, वरुण अवस्थी, वत्सला डकूना, कार्तिकेय अवस्थी एवं देवीशंकर अवस्थी
के परिवार के सदस्यों द्वारा किया गया। धन्यवाद ज्ञापन देवीशंकर अवस्थी के सुपुत्र
श्री अनुराग अवस्थी द्वारा किया गया।
पिछले वर्ष
दिवंगत हुए साहित्य समाज के लेखकों एवं श्रीमती गौरी अवस्थी (धर्मपत्नी श्री अनुराग अवस्थी) की स्मृति में दो मिनट का मौन रखा गया और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित किये
गए।
प्रस्तुति
– तरुण गुप्ता