शनिवार, 13 अप्रैल 2019

2018 का देवीशंकर अवस्थी सम्मान युवा आलोचक मृत्युंजय पांडेय को

मृत्युंजय पाण्डेय विश्वनाथ त्रिपाठी और राजेंद्र कुमार द्वारा सम्मान ग्रहण करते हुए साथ में हैं विनोद तिवारी, संजीव कुमार, पंकज चतुर्वेदी


24वाँ देवीशंकर अवस्थी सम्मान युवा आलोचक श्री मृत्युंजय पांडेय को उनकी पुस्तक ‘रेणु का भारत’ के लिए दिया गया। उन्हें यह सम्मान रवींद्र भवननई दिल्ली के साहित्य अकादमी सभागार में आयोजित एक समारोह में वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी और राजेंद्र कुमार ने प्रदान किया। इस वर्ष की सम्मान समिति में अशोक वाजपेयीराजेंद्र कुमारनंदकिशोर आचार्य और सम्मान समिति की संयोजिका कमलेश अवस्थी शामिल थीं।  आलोचना के क्षेत्र में दिया जाने वाला यह प्रतिष्टित पुरस्कार हिंदी के सुप्रसिद्ध आलोचक स्वर्गीय श्री देवीशंकर अवस्थी की स्मृति में उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कमलेश अवस्थी द्वारा वर्ष 1995 में स्थापित किया गया था। यह सम्मान अवस्थी जी के जन्मदिवस के अवसर पर प्रतिवर्ष 45 वर्ष तक की आयु के किसी युवा आलोचक को दिया जाता है। सम्मान के तहत साहित्यकार को प्रशस्तिपत्रस्मृति चिह्न और ग्यारह हजार रुपये की राशि प्रदान की जाती है। अब तक यह सम्मान सर्वश्री मदन सोनीपुरुषोत्तम अग्रवाल,विजय कुमारसुरेश शर्माशम्भुनाथवीरेंद्र यादवअजय तिवारीपंकज चतुर्वेदीअरविंद त्रिपाठीकृष्णमोहन अनिल त्रिपाठीज्योतिष जोशीप्रणय कृष्णप्रमीला के. पी. संजीव कुमारजितेंद्र श्रीवास्तव,प्रियम अंकितविनोद तिवारीजीतेंद्र गुप्तावैभव सिंह, पंकज पराशर एवं अमिताभ राय को प्रदान किया जा चुका है।
परंपरानुसार देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह में किसी एक प्रासंगिक विषय पर व्याख्यान का आयोजन भी किया जाता है। इस बार का विषय था ‘देवीशंकर अवस्थी की आलोचना और हमारा समय’ इस विषय पर बोलने के लिए आमंत्रित वक्ता थे संजीव कुमार, वैभव सिंह, पंकज चतुर्वेदी। समारोह की अध्यक्षता वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने की।

अवस्थी जी ने समकालीनता को रचना के मूल्याँकन की कसौटी माना था - विनोद तिवारी
विनोद तिवारी ने सम्मान समारोह का विधिवत आरंभ और संचालन करते हुए कहा देवीशंकर अवस्थी  36 वर्ष की अल्पायु मिलने के बावजूद भी अपनी उम्र का एक तिहाई हिस्सा लगभग 12 वर्ष पठन पाठन को देते हैं और सबसे महत्त्वपूर्ण यह कि वे अपने समय में चल रही तमाम बहसों में पूरी तरह से शामिल और संवादरत दिखते हैं। हालांकि उनके लेखन का अधिकांश कथालोचना के रूप में है लेकिन तब भी कविता, नाटक और सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचना के प्रश्नों को उठाने में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।  आज पुस्तक समीक्षा का स्तर जिस दर्जे का है ऐसे समय में देवीशंकर अवस्थी याद आते हैं। उनकी विवेक के रंग में पुस्तक समीक्षा की जिस गंभीरता को बनाए रखा गया है उसमें अवस्थी जी की महत्ती भूमिका है। आज पुस्तक समीक्षा एक परिचयात्मक हिस्सा बनकर रह गयी है। अवस्थी जी ने समकालीनता को रचना के मूल्याँकन की कसौटी माना था। अगर आज की आलोचना का मुख्य स्वर कथालोचना के रूप में है तो क्या इसमें नामवर सिंह और देवीशंकर अवस्थी की कथालोचना और उसके टूल्स शामिल नहीं हैं।

आलोचक की दृष्टि में अतीत, वर्तमान और भविष्य विच्छिन्नता में नहीं आते- राजेंद्र कुमार
प्रशस्ति वाचन से पहले राजेंद्र कुमार ने देवीशंकर अवस्थी का पुण्य स्मरण करते हुए कहा कि  महज 36 वर्ष की अवस्था में उसमें भी केवल 12 वर्ष में इतना विपुल लेखन जिसका प्रमाण चार खंडों में आई रचनावली है, यह युवा लेखकों के लिए रश्क़ का विषय हो सकता है। अपनी छोटी सी उम्र में वे बड़े बड़े प्रश्नों  को उठा रहे थे। ये आज के युवा आलोचकों के लिए प्रेरणापूर्ण चुनौती है। जिस समय अवस्थी जी ने साहित्य के क्षेत्र में अपना प्रवेश किया था वह समय विभिन्न नए साहित्यिक आंदोलनों की स्थापना और विकास का समय रहा। अवस्थी जी का अपने समय की बहसों में हस्तक्षेप रहा। राजेंद्र जी ने अवस्थी जी के साथ साही को याद करते हुए कहा कि मुझे ऐसे समय में अवस्थी जी के साथ विजयदेव नारायण साही का भी खयाल आता है दोनों ही अपने समय की बहसों में सक्रिय उपस्थिति और हस्तक्षेप किया करते थे। आज के आलोचक  छोटे छोटे नामवर सिंह और छोटे छोटे रामविलास शर्मा बनके रह गए हैं। जबकि साही और अवस्थी जी ऐसे आलोचकों के लिए भी चुनौती हैं। वे आज होते तो किसी भी रूप में नामवर सिंह और रामविलास शर्मा से कम महत्त्वपूर्ण न होते।
उन्होंने नयी कहानी और नयी कविता के साथ नयी समीक्षा का प्रश्न उठाया। उनका मानना था कि आलोचक के लिए समकालीनताबोध पहली शर्त है। उनका समकालीनताबोध केवल वर्तमान से ही संबद्ध नहीं था किसी भी आलोचक की दृष्टि में अतीत, वर्तमान और भविष्य विच्छिन्नता में नहीं आते। यह आश्चर्य का विषय है कि वे राजनीतिक विषयों पर भी लिखते हैं और उनका लिखा आज भी प्रासंगिक है। आर. एस . एस के संबंध में उनका लिखा आज भी प्रासंगिक है।
आज के युवा लेखकों के संबंध में राजेंद्र जी ने कहा कि आज के हमारे युवा लेखक समग्र लेखन न करके फुटकर लेखन ज्यादा करते हैं इस संबंध में मृत्युंजय पांडेय की पुस्तक रेणु का भारत एक समग्र प्रयास है। हमें ऐसे प्रयासों को तरजीह देनी चाहिए। हमें प्रयास करना चाहिये कि हम अपने साहित्यकारों और उनकी कृतियों को समग्रता में देखने की दृष्टि विकसित करें।
मृत्युंजय पांडेय को 24वें देवीशंकर अवस्थी सम्मान की बधाई देते हुए राजेंद्र जी ने चयन समित द्वारा दिये गए प्रशस्ति पत्र का वाचन करते हुए कहा कि हिंदी आलोचना  के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने वाले युवा आलोचकों को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से स्थापित देवीशंकर अवस्थी सम्मान से इस वर्ष श्री मृत्युंजय पाण्डेय को अलंकृत करते हुए हमें अत्यंत हर्ष हो रहा है।  ..वर्ष 2018 को देवीशंकर अवस्थी सम्मान श्री मृत्युंजय पाण्डेय को उत्कृष्टता, प्रासंगिकता और विश्लेषण क्षमता के लिए उनकी नवीनतम प्रकाशित आलोचना कृति रेणु का भारत पर दिए जाने का निर्णय सर्वसम्मति से हुआ है। यह अध्ययन रेणु को आँचलिकता के दायरे से बाहर लाकर उनके समग्र कृतित्व को एक बृहतर परिप्रेक्ष्य में देखने का सार्थक प्रयास है। साहित्यिक सर्जनात्मकता को समाजशास्त्रीय अवधारणाओं के आधार पर देखने समझने की आलोचकीय पद्धति से अलग हटकर श्री पाण्डेय अपने इस अध्ययन में लेखक रेणु की संवेदना को केंद्र में रखते हैं और उसी के प्रसार में बदलते सामाजिक राजनीतिक यथार्थ को समझने का उद्यम करते हैं। ..मृत्युंजय पाण्डेय की दृष्टि में रेणु की साहित्यिक संवेदना तथा महात्मा गाँधी की सत्याग्रही संवेदना सहधर्मा है। सुखद संयोग ही है कि श्री पांडेय को देवीशंकर अवस्थी सम्मान महात्मा गाँधी के 150वें जयन्ती वर्ष में मिल रहा है।

मृत्युंजय पाण्डेय अपना वक्तव्य देते हुए

आलोचना का वर्तमान परिदृश्य बहुत उत्साहवर्धक नहीं – मृत्युंजय पाण्डेय
सम्मानित आलोचक मृत्युंजय पांडेय ने अपने वक्तव्य में कहा कि आज आलोचना के नाम पर बहुत सी ऐसी चीज़े लिखी जा रही है उसे आलोचना नहीं कहा जा सकता। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा आलोचना का वर्तमान परिदृश्य बहुत उत्साहवर्धक नहीं है। नयी पीढ़ी आलोचना की जो बागडोर संभाल रही है उसमें पैनी दृष्टि और तटस्थता का अभाव दिख रहा है। उसमें साहस की कमी दिख रही है। साहस की कमी की वजह से या तो हम पक्ष में लिख रहे हैं या बिलकुल चुप हैं। जो हमारे काम का है जो हमारे खेमे का है जो हमारी पसंद का है उसकी हम प्रशंसा कर रहे हैं। और जो हमारे काम का नहीं उस पर हम चुप्पी साध लेते हैं। वर्तमान परिदृश्य के संबंध मृत्युंजय पांडेय न कहा कि आज जब सच को झूठ और झूठ को सच की तरह पेश किया जा रहा है आज जब शब्दों के अर्थ बदल रहे हैं।  शब्द अपना मूल्य खो रहे हैं। आज जितना शब्दों का उनके अर्थों का अवमूल्यन हुआ है उतना कभी नहीं हुआ। युग के मुहावरे बदल रहे हैं। झूठ, अफवाह, लफ्फाजी और फॉरवर्ड के इस युग में आलोचक का दायित्व अत्यधिक बढ़ जाता है। आलोचक का काम सिर्फ कृतियों की आलोचना करना ही नहीं बल्कि सामाजिक राजनीतिक कुरीतियों पर कुठाराघात करना भी है। उसे अपने सामाजिक राजनीतिक परिवेश का पूरा ज्ञान होना चाहिए। पर अफसोस ऐसा हो नहीं रहा । हम वही देख रहे हैं जो हमें दिखाया जा रहा है।
अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा कि आलोचना की एक साथ एक दूसरी समस्या यह दिख रही है कि नामवर सिंह मैनेजर पाण्डेय के बाद आलोचना को परंपरा से जोड़कर देखने की दृष्टि खत्म हो गई है आज की कृति या आज के समय का मूल्याँकन करते वक्त परंपरा के निशान नहीं दिख रहे।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर को जिस कबीर को सारे वाद-विवाद, साँचे और जात पाँत से ऊपर उठाकर लाए थे आज उन्हें पुनः उसी साँचे में डाल दिया गया है। परंपरा को जानने के लिए इतिहासबोध का होना बहुत ज़रूरी है। जिसके पास इतिहासबोध होगा वही परंपरा को, संस्कृति को समझ पाएगा। उसका मूल्याँकन कर पाएगा। इतिहास बोध का अर्थ सिर्फ अतीतबोध नहीं है।
उत्तर-आधुनिकता के आलोचना  पर पड़ दुष्प्रभाव के संबंध में मृत्युंजय ने कहा कि उत्तर आधुनिकता ने आलोचना को बहुत क्षति पहुँचाई है। रचना को समग्र रूप में देखने की परंपरा खत्म हो गई है। आँख, नाक, कान के डॉक्टर की तरह सब उसे तोड़कर देख रहे हैं। यह सही है कि उत्तर आधुनिकता ने हमें रचना के कई पाठ दिए लेकिन उसने समग्रता में, सिस्टम में देखने की दृष्टि छीन ली।
अपने वक्तव्य के अंत में उन्होंने माना कि एक आलोचक के रूप में उनके समक्ष भी ये सभी समस्याएँ और चुनौतियाँ हैं। हमारी पीढ़ी को इन चुनौतियों को झेलना है बल्कि कहीं ज्यादा झेलना पड़ रहा है। हमें अपने बड़े बुजुर्गों के मार्गदर्शन में इसकी राह भी खोजनी है। वर्तमान समय में आलोचना की चुनौती इन समस्याओं से पार पाने में निहित है।
अपने समय को समझे बिना आप किसी समय को नहीं समझ सकते - विश्वनाथ त्रिपाठी
देवीशंकर अवस्थी रचनावली के प्रकाशन को लेकर त्रिपाठी जी ने खुशी ज़ाहिर की और कहा कि ऐसे समय में जब सचमुच का यश प्राप्त करना दुर्लभ हो गया है। ऐसे समय में एक सुखद घटना यह भी घटी है कि देवीशंकर अवस्थी रचनावली के चार खंड प्रकाशित हो चुके हैं। उनके प्रकाशित होने से देवीशंकर अवस्थी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व का उचित ढ़ंग से मूल्याँकन हो सकेगा।
रचनावली के संपादन के संबंध में त्रिपाठी जी ने कहा कि यह इतने अच्छे ढंग से हुआ है कि इसके पहले जिन रचावलियों का संपादन हुआ है उनमें से मुझे केवल नेमीचंद्र जैन द्वारा संपादित मुक्तिबोध रचनावली की ही याद आ रही है। एक एक शब्द एक व्यक्तित्व की तरह है प्रुफ की कोई गलती नहीं है। जिस तरह से देवीशंकर अवस्थी रचनावली का संकलन किया गया है, ऐसा मालूम होता है कि देवीशंकर जी ने जैसा जिस रूप में लिखा  उसे भाभी जी(श्रीमती कमलेश अवस्थी) ने सहेज रखा है। आप जानते ही है कि प्रेम अपनी राह निकाल ही लेता है। रचनावली की संपादक रेखा अवस्थी की  प्रशंसा करते हुए त्रिपाठी जी ने कहा कि इस रचनावली के निर्माण में रेखा अवस्थी की मेहनत दिखाई देती है, इतनी मेहनत से रेखा द्वारा संपादन किया गया है। कि यह मेहनत पूरी रचनावली और उसके एक एक शब्द में दिखाई देती है। ऐसी मेहनत बहुत कम रचनावलियों में दिखाई देती है।
आलोचना के वर्तमान परिदृश्य से नाराज़गी आलोचना के लिए शुभ लक्षण
मृत्युंजय पांडेय के संबंध में विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि जिस आलोचक को आज सम्मानित किया गया वह आलोचक यदि हिंदी आलोचना के वर्तमान परिदृश्य से इतना नाराज़ है तो यह बहुत शुभ लक्षण है। भयावह स्थिति तब होगी जब हिंदी आलोचक हिंदी आलोचना की प्रशंसा करने लगेंगे। अगर हममें आत्मालोचना की क्षमता है और ऐसी आत्मालोचना की क्षमता की आलोचना के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखाई दे रहा तो यह निश्चित ही शुभ लक्षण है। अपने समय को समझे बिना आप किसी भी समय को नहीं समझ सकते। जिस युग में अवस्थी जी लिख रहे थे वह नेहरू युग था आधुनिक भारत के निर्माण की नींव रखने वाले नेहरू। जिसे अब ध्वंस करने का प्रयास किया जा रहा है।  एक सजग और सक्रिय बोध से देखना नए साहित्य की विशेषता है इसलिए अवस्थी जी इस नए साहित्य  में नयी संभावनाओं  को देख रहे थे।
देवीशंकर अवस्थी की राजनीतिक समझ पर विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि आर. एस. एस के बारे देवीशंकर अवस्थी ने लिखा है कि यह अपना काम खुद करने की बजाय अन्य संस्थाएँ खोल कर कराएगा। यह 1960-62 में कहा गया कथन है। इसकी प्रासंगिकता को आप आज देख सकते हैं।
अपने वक्तव्य के अंत में उन्होंने कहा कि रचनावली को पढ़कर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि अवस्थी जी ने आलोचक बनने की व्यवस्थित तैयारी कर रखी थी। अगर वे अकाल मृत्यु को प्राप्त न हुए होते तो हम इसका अनुमान ही कर सकते हैं कि वे क्या होते।
नयी कहानी के दौर में पहली बार हिंदी आलोचना में रिगर दिखलाई पड़ा - संजीव कुमार
अवस्थी जी की कहानी आलोचना पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि अवस्थी जी की कहानी संबंधी आलोचना उतनी प्रासंगिक नहीं है और यह वे आज की आलोचना की दृष्टि से नहीं बल्कि आज की रचना की दृष्टि से कह रहे हैं।
उन्हें खासतौर पर लगता है कि आज के आलोचकों के लिए देवीशंकर अवस्थी प्रासंगिक हैं कहानीकारों के लिए न हों, कहानीकारों की सराहना करने की दृष्टि से न हों, यह संभव है। नयी कहानी के दौर में पहली बार हिंदी आलोचना में रिगर दिखलाई पड़ा। उससे पहले लिखने के फॉर्मूले थे। नामवर जी और अवस्थी जी दोनों बड़े कद के आलोचक हैं और दोनों के यहाँ बहुत इनसाइट्स हैं कहानी को लेकर, मसलन सूत्र बहुत हैं। लेकिन प्रबंधात्मक आलोचना बेहद कम हैं।  कहानी आलोचना पर फुटकर लेखन नामवर जी के यहाँ और अवस्थी जी के यहाँ दोनों के यहाँ हुआ। नामवर जी के यहाँ कहानी आलोचना के जो सूत्र मिलते हैं उनका कोई मुकाबला नहीं। अवस्थी जी की कहानी आलोचना में नामवर जी की तुलना में बेशक कम सूत्र मिलते हों लेकिन वो सूत्र कमाल के हैं वो बहुत महत्त्वपूर्ण सूत्र हैं। अगर हमारे समय में एक खास तरह की कहानी लिखी गई है तो उसको समझने के लिए शब्द हमें स्वयं ही बनाने होंगे।
उन्होंने कहा कि योगेंद्र आहूजा और अनिल यादव की कहानी(गौ सेवक) की आलोचना करने के लिए नामवर जी या अवस्थी जी की कहानी आलोचना बहुत मददगार साबित नहीं होती। आप नयी कहानी आलोचना के सूत्रों से आज की कहानी को नहीं समझ सकते।
रचनावली के संबंध में संजीव कुमार ने कहा कि इतनी कायदे से छपी रचनावली हिंदी में बेहद कम हैं, कमलेश जी द्वारा इकट्ठा की गई जानकारी और रेखा जी द्वारा संपादित यह रचनावली अद्भुत बन पड़ी है। यह रचनावली अवस्थी जी के नाम से युवा आलोचना का पुरस्कार होने का बहुत सुदृढ़ तर्क है।   
जब अस्तित्व दाँव पर लगा हो तो रचनाशीलता की गति और बढ़ जाती है - पंकज चतुर्वेदी
देवीशंकर अवस्थी की कविताओं पर बोलते हुए पंकज चतुर्वेदी ने कहा कि हमारा समय अहंकार और अक्रामकता का समय है और अवस्थी जी अपनी कविताओं में इसका विरोध करते हैं। उन्होंने इस बात को इंगित किया कि अवस्थी जी ने कविता को अपना प्राथमिक कार्य नहीं माना और न ही कभी अपना कविता संग्रह छपवाने का प्रयास किया। उसके बावजूद उनकी कविताएं उनके जीवन और समाज में पसरी भयावहता जिसे वे हॉरर की संज्ञा देते हैं को दिखाती हैं। तुलसीदास के हवाले से पंकज चतुर्वेदी ने कहा कि कविता के लिए सज्जनता अनिवार्य शर्त है और अवस्थी जी की कविताएं इस सज्जनता को बनाए रखती हैं। उनकी कविता और जीवन में कोई फाँक नहीं दिखती। जहाँ एक ओर उनकी प्रेम कविताओं में प्रेम निवेदन और मनुहार है वहीं  पटेल चैस्ट इंस्टिट्यूट में इलाज के दौरान लिखी उनकी कविताएँ भयावह जीवन स्थितियों से भरी हैं। इस पर पंकज जी की टिप्पणी है कि जब अस्तित्व दाँव पर लगा हो तो रचनाशीलता की गति और बढ़ जाती है।
आज जब सत्ता बहुत बड़बोली है, और उसमें सुनने का धैर्य नहीं है सिर्फ बोलते जाने की हड़बड़ी है, जाहिर तौर पर इसमें कोई चिंतन नहीं है। ऐसे में अवस्थी जी अपनी कविता में 60 के दशक में लिख रहे हैं कि सुनना भी बड़ा धैर्य चाहता है। साथ ही कहते हैं कि सुनने योग्य श्रुतिगोचर कुछ सत्य नहीं  अवस्थी जी की ये पंक्तियाँ हमारे समय के सच को उसकी पूरी प्रासंगिकता के साथ बयां करती हैं।
पंकज जी का कहना है कि उनकी कविताएँ इस बात का इशारा देती हैं कि अवस्थी जी का व्यक्तित्व अंतर्मुखी नहीं ही रहा होगा। मुक्तिबोध उनके प्रिय कवि थे उनका जीवन भी मुक्तिबोध की तरह संघर्षपूर्ण रहा। वे भी अध्यवसाय में डूबे थे चार खण्डों में छपी रचनावली इस बात का प्रमाण है। कम उम्र के बावजूद इतना विपुल लेखन। चार खण्डों की रचनावली उनके 12 वर्षों के लेखन का संकलन है।
अवस्थी जी की कविता सत्य लेलो, बोझा ढ़ो लो/ शायद भविष्य की संताने कृतज्ञ हो पाएँ /इसलिए वर्तमान को जी लो।  के हवाले से पंकज जी ने कहा कि अपनी कविता में भी वे वर्तमान का साथ नहीं छोड़ते और उनका वर्तमान समकालीनता बोध से जुदा नहीं हैं।

आलोचना का काम जिम्मेदारी के साथ विचार के क्षेत्र में साहस दिखाना है - वैभव सिंह
देवीशंकर अवस्थी की उपन्यास संबंधी आलोचना पर बोलते हुए वैभव सिंह ने कहा कि आलोचना का काम हायरारकी बनाना नहीं है। जहाँ फलां छोटे आलोचक और फलां बड़े आलोचक की बहस होती है वहाँ आलोचना से हम वंचित हो जाते हैं ऐसे आलोचक हमें कुछ नहीं सिखा पाते। हमें अपने आलोचकों से मेहनत करना सीखना है उनकी सिन्सैरिटी से हमें सीखने की ज़रूरत है। आलोचना हवाई तर्को का नाम नहीं है आलोचना जिम्मेदारी है जो विचार के क्षेत्र में निभाई जाती है। इसलिए आलोचना का काम जिम्मेदारी के साथ विचार के क्षेत्र में एडवेंचर दिखाना है। और निश्चित ही ऐसा साहस अवस्थी जी की उपन्यास आलोचना में हैं। कई असहमतियों के बावजूद इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उनकी आलोचना रचना की गहन जाँच पड़ताल कर तर्क के साथ अपने निर्णय पर पहुँचती है।
सम्मान समारोह से पहले इस वर्ष दिवंगत हुए साहित्यकारों कृष्णा सोबती, विष्णु खरे, फहमिदा रियाज़, नामवर सिंह, अर्चना वर्मा के प्रति शोक प्रकट किया गया और श्रद्धांजलि दी गई ।
                                                                                                 
                                                                                             प्रस्तुति - तरुण 




नोट- अंत में रिकॉर्डिंग मशीन की बैटरी डाउन हो जाने की वजह से  वैभव सिंह का वक्तव्य रिकॉर्ड नहीं हो सका, स्मृति के आधार पर ही वैभव सिंह वाला भाग लिखा गया है। इसलिए भी उनकी कई महत्त्वपूर्ण बातें समाहित नहीं हो सकीं। इसके लिए खेद है।  लेखक या किसी पाठक को आपत्ति होने पर इसका संपादन कर दिया जाएगा। - तरुण