रविवार, 9 मई 2010

अस्तित्व

धूल उडती है घर में , बाहर ; हर चीज़ जो उसके दायरे में है या नहीं है चढ़ जाती है और अगर कोई उस धूल को उस चीज़ पर से न हटाये या उस पर ध्यान न दे तो वो धूल उस चीज़ पर एक मोटी-सी परत या कहें अपना एक पूरा लबादा छोड़ जाती है वो लबादा या कि परत उस धूल का अस्तित्व है और उसे हटाने के बाद भी दोबारा वहीं पर उसी जगह पर उभरना उसका संघर्षl
यह संघर्ष दोनों तरफ जारी धूल अपना काम कर रही है और सफाई करने वाले अपना. फिर क्यों हम अपना कम नहीं करते, क्या हम उस धूल से भी ... अजी छोड़िये आप कहेंगे क्या फ़िज़ूल कि बातें लेकर बैठ गया पर फ़िज़ूल की ही सही(आप की नज़र में) लेकर तो बैठा हूँ न, कम से कम बातों को तो फ़िज़ूल नहीं बना रहा हूँ l
खैर, बात धूल की हो रही थी नहीं शायद अस्तित्व की ... पर अंत में आना तो अस्तित्व पर ही था न? हाँ तो अस्तित्व; क्या है ये अस्तित्व . मुझे लगता है अपनी पहचान को खुद्दारी और जिंदादिली के साथ जिंदा रखने की सक्रिय कोशिश है अस्तिव l
जो कम धूल बखूबी कर रही है पर हम शायद कतरा रहे है इससे l धूल हटाई जाने पर फिर अपनी जगह आ जाती है पर गिरने के बाद पहले तो चलने के बारे में सोचते ही नहीं. और अगर सोचते है तो पहले जैसा विश्वास ख़त्म हो जाता है हमारा l