१.वो वेलेंटाइन डे
दूर वो दिखाई दी।.. उसने सोचा अब तो दे ही दूँ , पर फिर रुक गया। उसे आज ही उसके दोस्त ने कहा था कि ऐसे मामलो में जल्दबाजी ठीक नहीं। उसने फिर कंधे तक लटके बैग को पीछे किया और चेहरे पर आई बेचैनी को हटाने की कोशिश करने लगा। "कैसे दूँ वो बुरा तो नहीं मानेगी ना? कहीं दोस्ती भी ...नहीं-नहीं" उसने अपने अंदर एक और लड़के के होने का आभास महसूस किया। "दे ही देता हूँ अब नहीं दूँगा तो कब दूँगा।" वह उसके पास गया..फरवरी की धूप में वह ऐसी दिखती मानो कच्छ के रण मे पानी की चमक। उसने पास जाके थोड़ा हिचकिचाकर कहा.."एक्सक्यूज़ मी" .."हाँ क्या है" कुछ नहीं वह फिर रह गया।उसे लगा यह वो लड़की नहीं जिसे वह चाहता है। बैग की चेन जो उसने खोल ली थी। बंद करके बैग कंधे पर टांग लिया। ऐसा लगता है मानो कल की ही बात हो।
पिछले नौ सालों से आज के दिन हर बार डायरी के भीतरे छुपाये गये फूल को देख कर वह अपने कॉलेज के दिनों में खो जाता है।
२. कार्ड
दोपहर जिसमें सर्दियों के समापन का संकेत था। धूप पेड़ों से छनकर उस हरे लोहे के बैंच पर बैठी निशा के गालों और बालों को उम्रदराज़ बना रही थी। निशा के होंठो पर जमी पपड़ी कुछ कहना चाह रहीं थी। आंखें नीचे की ज़मीन में कुछ ढ़ंढ रही गिलहरी को घूर रहीं थी। चेहरा एक ही जगह जमा हुआ था लेकिन दिमाग में कुछ चल रहा था। मालियों की खुरपी माहौल को अशांत किये हुए थी। लंच होने ही वाला था शायद इसलिए वे अपना हाथ का काम समेट लेना चाहते थे। कौओ और गिलहरियों ने पेड़ों से उतरना शुरु कर दिया था। मिट्टी पर अभी पानी छिड़का गया था जिससे उठी खुशबू अब भी वसंत को क़ायम रखे थी।
निशा के बराबर में काफी देर से चुप बैठे विनोद ने पूछा - "क्या हुआ, कुछ तो कहो, चुप क्यों बैठी हो?" पलकें उठी, कोरों से पानी की कुछ बूँदें नीचे ही लुढ़कने ही वाली थी कि निशा ने चेहरे पर एकाएक मुस्कराहट लाते हुए कहा - "कुछ नहीं।" "... कुछ तो, प्लीज़ कुछ तो कहो? बताओ तो।" "... कुछ नहीं - कहा ना। क्या तुम भी मुझे चैन से जीने नहीं दोगे। मैं कुछ देर चुप रहना चाहती हूँ। इतने सालों की रिलेशनशिप में भी तुम ये नहीं समझ सके।" विनोद को जैसे ऐसे किसी जवाब की उम्मीद निशा से नहीं थी, वह अवाक् निशा के चेहरे को देखने लगा। उसने देखा उसके गाल होंठों की तरह सूखे हुए थे जैसे रात भर नमकीन द्रव्य में डूबे हों।..." प्लीज़ कुछ तो कहो..आज फैरेवल पार्टी है, कॉलेज का आखिरी दिन..कुछ तो बोलो..कुछ तो कहो.". उसने एक बार फिर कोशिश की।
निशा का शरीर जो अब तक अचेत था। एकदम हरकत में आया उसने अपने लाल पर्स से एक कार्ड निकाला और विनोद को थमाकर मालियों की मेहनत और लहराती घासों को कुचलती हुई चली गयी।
आज इतने सालों बाद भी निशा के पैरों के निशान उस जगह मौजूद है। उस बैंच पर उसका अहसास मौजूद है। उसके जेहन में हर साल सर्दियों की समाप्ति निशा के खयाल को पैदा कर देती है।
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