शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

रंग दे बसंती से आगे ....

प्रसून जोशी के लिखे गीत खून चला.....खून चला ( रंग दे बसंती ) ने हमारे दिल में उस जज़्बे को दोबारा जगाया था जो शायद 'जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कुर्बानी' के बाद कहीं खो सा गया था 'रंग दे बसंती' देखने के बाद हम ( मै ओर मेरे दोस्त ) काफी देर तक कुछ नही बोल पाए थे नौशाद तो जैसे ख़ामोश ही हो गया था उस दिन मुझे यक़ीन हुआ कि हम वाकई बहुत इमोशनल है । जिसे आज एक घटिया टर्म के रूप में यूज़ किया जा रहा है । रात को सोते वक़्त सपने में भी फ्लाइट लेफ्टिनेंट अजय राठौर की माँ और उसके दोस्त इंडिया गेट के सामने सत्ता के ठेकेदारो के हाथों दबाये जा रहे थे खून से लथपत लोगो का जुलूस दिखाई दिया था उस दिन सपने में । और कानो में 'बदन से लिपटकर ....खून चला खून चला ...' उनका यह गीत तब भी गूँज रहा था यह क्या था । क्या यह मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में की कसक थी जिसे वास्तविकता के बहुत करीब होने पर भी फैंटेसी कहा गया ? क्या हम इस गीत को किसी खेमे में बांधने की जुर्रत कर सकते हैं । उस वक़्त लगा कि प्रसून ही इस तरह के गीत लिख सकते है जिनमे उन्मुक्तता की उड़ान हो .। कुछ कर गुज़रने की चाहत हो । लेकिन जिस टोन में मस्सकली...मटककली लिखा गया है वह वाकई काबिलेगौर है । बेशक यह गाना किसी कबूतर पर बेस्ड हो पर इसमे उसी आज़ादी का संकेत हमें मिलता है । जो खून चला.... में हमें मिला था । दोनों गानों के गीतकार-संगीतकार सेम है । अंतर है तो सिर्फ इस बात का कि 'रंग दे बसंती' वाले गाने में जहाँ सुनने वाला अपने दिल में एक हूक का अनुभव करता है और तसल्ली से फिल्म के कंटेंट को समझते हुए गाने के बोलो पर और उसके पिक्चराइज़ेशन पर ध्यान देता है । वही मसकली...मटकली में झूमने का दिल करता है । उड़ियो ना डरियो ..कर मनमानी मनमा..नी म......नी । जी करता है डीजे पर यही गाना बजे और हम इस गाने के स्टैप्स को अपने पर आज़माये । इसी फिल्म में रेखा भारद्वाज का गाया एक विवादस्पद गीत भी है । जो बेसीकली एक फॉकसोंग है जिसे रहमान ने वैसा ही संगीत भी दिया है । चर्चा है कि यह रायपुर की जोशी बहनो ने लोकगीत के रूप में पहले-पहल गाया था । प्रसून जी ने इस गाने को इतनी महत्ता दिलाई और इसे पूरे देश में पॉपुलर बनाया इसके लिए उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए। पर क्या इस लोकगीत के रियल राइटर का नाम देने में कोई दिक्कत थी? क्या आपको या मेहरा जी को कोई डर सता रहा था । मै तो रंग दे बसंती देखने के बाद से ही आप दोनो का फैन हो गया हूँ इसलिये यह बर्दाश्त नहीं कर पाता कि आप लोगो पर कोई दूसरो का हक़ मारने का आरोप मढे़। या फ़िर आप पर अन्नू मलिक टाइप ठप्पा लगाए । और फिर जोशी बहनो ने कोई रॉयल्टी थोड़े ही मांगी है वे तो सिर्फ इतना चाहती हैं कि इस गीत के वास्तविक लेखकों का नाम भी आप लोग दे । क्या यह कोई नाजायज़ मांग है ।

4 टिप्‍पणियां:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

यह माँग बिल्कुल जा़यज है। बहुत अच्छी पोस्ट लिखी है।बधाई।'रंग दे बसंती' हमे भी बहुत अच्छी लगी थी।

MANVINDER BHIMBER ने कहा…

बहुत अच्छा लिखा है

विनीत कुमार ने कहा…

किसी के महान होने के मिथक ऐसे भी मौके को देखकर टूटते हैं

मुन्ना कुमार पाण्डेय ने कहा…

दो महीने बाद वापसी मुबारक मित्र.सही फरमा रहे हैं वाकई ..यह दुखद है.पर क्या करे फ़िल्म जगत में इसकी परम्परा काफ़ी पुरानी है.नदिया के पार के एकाध गीत किसी लोकल गीतकार ने लिखे थे पर जब फ़िल्म आई थी तो हर जगह रवीन्द्र जैन जी मौजूद थे.