साहित्य न केवल मन के भावों
को अभिव्यक्त करने का माध्यम है बल्कि दूसरे के भावों अनुभवों की अभिव्यकित का भी
साधन है। साहित्य के माध्यम से ही हम एक स्थान पर बैठे बैठे दूसरे स्थान विशेष की
संस्कृति, भाषा, रहन-सहन, खान-पान, संस्कार, आदि के विषय में जान सकते हैं।
इस प्रकार साहित्य किसी भी प्रकार का दर्पण और धरोहर है। किसी व्यक्ति विशेष या
जाति विशेष का उस पर कोई अधिकार नहीं। प्रायः तत्कालीन समय में उठने वाले ज्वलंत
प्रश्न ही साहित्य में वाद-विवाद का प्रश्न बनते हैं। दलित साहित्य भी साहित्य में
एक ज्वलंत प्रश्न बन कर उभर रहा है।
हिंदू समाज में चार वर्णों
में विभाजित है। पहला सवर्ण पुरुष, दूसरा सवर्ण स्त्री,
तीसरा दलित पुरुष,
चौथा दलित स्त्री। इन चार स्तरों के आधार पर ही समाज में यहाँ तक कि
साहित्य में भी इन चार स्तरों पर ही हमें इनका स्थान दिखलाई पड़ता है। समाज और
साहित्य पर सबसे अधिक वर्चस्व सवर्ण पुरुषों का उसके पश्चात सवर्ण स्त्री का, तत्पश्यात दलित पुरुष और
सबसे अंत में दलित स्त्री। हम देख सकते हैं कि दलित स्त्री का स्थान समाज और
साहित्य में निम्न से निम्नतर है। और इस पुरुष प्रधान समाज में दलित पुरुष को सवर्ण
स्त्री के पीछे रखा गया है। वास्तव में दलित स्त्रियों की स्थिति हमारे समाज में दलित पुरुषों से भी बेकार है। उन्हें समाज में दो-दो मार झेलनी होती है पहला स्त्री होने की और दूसरा दलित होने की। यहीं पर एक सवर्ण स्त्री एक दलित स्त्री से अलग हो जाती है इस जाति-भेद के कारण ही उनके बहुत से सरोकार अलग अलग दिखाई देते हैं। इन दोनों के अंतर को एम. प्रभावती , प्रभा मुथल, सुशीला मूले, आशा थोरात, अरुणा लोखाड़े, कौशल्या आदि
स्त्री विमर्श को लेकर बहुत सारी बातें की जाती हैं। समय-समय पर गोष्ठियाँ-संगोष्ठियाँ , वर्कशॉप और न जाने क्या-क्या होता रहता है परंतु इन सभी कार्यक्रमों में केवल सवर्ण स्त्री को ही केंद्र में रखा जाता है। एक दलित अथवा आदिवासी स्त्री के अधिकारों उनकी यातनाओं और पीड़ाओ आदि के विषय में यहाँ भी कोई विशेष चर्चा होती दिखलाई नहीं पड़ती। सभी सिर्फ अपने-अपने अधिकारों की बात करते हैं। हमारे समाज(दलित समाज) में भी हम देखते हैं कि अधिकांश दलित पुरुष ही विभिन्न कार्यक्रमों में अधिक दिखाई देते हैं। दलित स्त्रियों की संख्या कुछ ही दिखलाई पड़ती है। स्वतंत्रता सभी को प्यारी है यह बात हमसे(दलितों) अधिक और कौन जान सकता है। इतने सालों की यातना झेलने के बाद आज भी हम अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहें हैं। पर दलित स्त्रियाँ वे तो दलित पुरुषों से भी पीछे हैं। आज की दलित अस्मिता का प्रश्न वास्तव में दलित पुरुषों की अस्मिता का प्रश्न है। आज कितनी दलित स्त्रियाँ ऐसी हैं जो वक्ता के रूप में विभिन्न कार्यक्रमों में दिखाई देती हैं। उन्हें तो अपने दलित पुरुषों से भी अपने अधिकार माँगने पड़ते हैं। दलित स्त्रियों के विषय में तुलनात्मक रूप में दलित पुरुषों द्वारा ही अधिक लिखा जा रहा है। फिर चाहे वह साहित्य की कोई भी विधा क्यों न हो। जब दलितों के विषय में दलित ही बेहतर ढंग से लिख सकतें हैं तो दलित स्त्रियों के विषय में दलित स्त्रियाँ क्यों नहीं, जबकि उन्हें तो समाज में रहकर दो-दो मारें झेलनी पड़ती हैं। दलित स्त्रियाँ अपने अनुभवों की जितनी सहज अनुभूति कर सकती हैं उतनी अन्य व्यक्ति नहीं। क्योंकि कल्पनाएँ भी सीमारहित नहीं होतीं। यहां यह सवाल उठना भी स्वाभाविक है कि दलित स्त्रियों को रोका किसने है? पर क्या दलित स्त्रियों को दलित पुरुषों की अपेक्षा वे सामाजिक-आर्थिक अधिकार दिए जाते हैं जो उनके आगे बढ़ने में सहायक हों। यहाँ तक कि उनके लिए एक ख़ाक़ा भी पहले से ही तैयार कर दिया जाता है।
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