शुक्रवार, 15 अप्रैल 2022

27वाँ देवीशंकर अवस्थी सम्मान युवा आलोचक अच्युतानंद मिश्र को

 




                                                       

27वाँ देवीशंकर अवस्थी सम्मान युवा आलोचक अच्युतानंद मिश्र को उनकी पुस्तक ‘कोलाहल में कविता की आवाज़’ के लिए प्रदान किया गया। उन्हें यह सम्मान रवींद्र भवननई दिल्ली के साहित्य अकादमी सभागार में आयोजित एक समारोह में वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने प्रदान किया। इस वर्ष की सम्मान समिति में अशोक वाजपेयीराजेंद्र कुमारनंदकिशोर आचार्य, एवं सम्मान समिति की संयोजिका कमलेश अवस्थी शामिल थीं।  आलोचना के क्षेत्र में दिया जाने वाला यह प्रतिष्टित पुरस्कार हिंदी के सुप्रसिद्ध आलोचक स्वर्गीय श्री देवीशंकर अवस्थी की स्मृति में उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कमलेश अवस्थी द्वारा वर्ष 1995 में स्थापित किया गया था। यह सम्मान अवस्थी जी के जन्मदिवस के अवसर पर प्रतिवर्ष 45 वर्ष तक की आयु के किसी युवा आलोचक को दिया जाता है। सम्मान के तहत साहित्यकार को प्रशस्तिपत्रस्मृति चिह्न और सम्मान राशि प्रदान की जाती है।

अब तक यह सम्मान सर्वश्री मदन सोनीपुरुषोत्तम अग्रवाल,विजय कुमारसुरेश शर्माशम्भुनाथवीरेंद्र यादवअजय तिवारीपंकज चतुर्वेदीअरविंद त्रिपाठीकृष्णमोहन,    अनिल त्रिपाठीज्योतिष जोशीप्रणय कृष्णप्रमीला के. पी. संजीव कुमारजितेंद्र श्रीवास्तव,प्रियम अंकितविनोद तिवारीजीतेंद्र गुप्तावैभव सिंह, पंकज पराशर, अमिताभ राय, मृत्युंजय पांडेय, आशुतोष भारद्वाज और राहुल सिंह को प्रदान किया जा चुका है। पिछले दो पुरस्कार कोविड के संकटग्रस्त समय में ऑनलाइन मोड में आयोजित किए गए थे लगभग दो वर्षों बाद यह सम्मान अपने पूर्व रूप में लौटा। इस बार का खास आकर्षण प्रसिद्ध कवि एवं सिने निर्देशक श्री देवीप्रसाद मिश्र द्वारा देवीशंकर अवस्थी के जीवन पर आधारित फिल्म का प्रदर्शन रहा।

अच्युतानंद मिश्र को प्रशस्ति पत्र प्रदान करते हुए सम्मान समिति ने अपने संयुक्त वक्तव्य में कहा बोकारो, झारखण्ड में जन्मे अच्युतानंद मिश्र ने कविता और आलोचना दोनों ही क्षेत्रों में सार्थक सक्रियता और चिंतनशीलता दर्ज की है। उनकी रुचि का वितान विस्तृत है और उसमें कबीर, मुक्तिबोध, विजयदेव नारायण साही, श्रीकांत वर्मा, विजय कुमार, लीलाधर जगूड़ी, अनामिका, अरुण कमल आदि शामिल हैं। उन्होंने महत्वपूर्ण कविता को हमारे समय, उसके बेहद उलझे यथार्थ और वैचारिक संदर्भ में अवस्थित करने और उसके फलितार्थों को समझने की सार्थक कोशिश की है। उन्हें कोलाहल में कविता की आवाज़ अरण्यरोदन नहीं, ज़रूरी और अनिवार्य आवाज़ लगती है। श्री मिश्र की आलोचना-भाषा में गहरा चिंतन है और वे इसरार करते हैं कि मनुष्यता की आदिम भाषा कविता है। देवीशंकर अवस्थी सम्मान चयन समिति आलोचना की बौद्धिक और नैतिक ज़िम्मेदारी निभाने, कविता का अनेकविध मर्म खोलने तथा साहित्य और समय के संबंध-द्वन्द्व की समझ को बढ़ाने के लिए श्री अच्युतानंद मिश्र को उनकी पुस्तक कोलाहल में कविता की आवाज़ के लिए सत्ताईसवें देवीशंकर अवस्थी सम्मान से विभूषित करते हुए प्रसन्नता का अनुभव करती है।

 

विज्ञान चीज़ों को निर्धारित करता है और ज्ञान को मूर्त करता है वह निश्चितता की दुनिया है – अच्युतानंद मिश्र

अपने वक्तव्य में अच्युतानंद मिश्र ने देवीशंकर अवस्थी की स्मृति को नमन करते हुए एवं सम्मान समिति  और निर्णायकों के प्रति अपना आभार व्यक्त करते हुए कहा कि उन्होंने आलोचना की आगे बढ़ रही परंपरा में मुझे जोड़ने लायक समझा इसके लिए निर्णायक मंडल का पुनः आभार। अपनी पुस्तक कोलाहल में कविता की आवाज़ को मैथिली भाषा के महत्त्वपूर्ण कवि श्री हरिकृष्ण झा को समर्पित करते हुए और पिछले ढाई 3 वर्षों में दिवंगत हुए लेखकों साहित्यकारों की स्मृति को नमन करते हुए सम्मानित आलोचक अच्युतानंद मिश्र ने कहा कि  50 के दशक में हिंदी आलोचना में एक नयी परंपरा विकसित हो रही थी जो संवाद की परंपरा थी दुर्भाग्य से तीस चालीस बरसों बाद धीरे-धीरे यह  परंपरा  क्षीण हो गयी। उन्होंने अपने वक्तव्य में आगे कहा कि दुनिया को देखने के दो नज़रिये हैं एक नज़रिया विज्ञान का है जो चीज़ों को निर्धारित करता है, दरअसल विज्ञान ज्ञान को मूर्त करता है।

दूसरा रास्ता कला का है, विज्ञान ज्ञान और चेतना का जो राजमार्ग है उस राजमार्ग के बगल से कला की एक पगडंडी गुज़रती है और विज्ञान जो निश्चितता की दुनिया है। उस दुनिया से बाहर जाती हुई एक अनिश्चितता की दुनिया है जो कला की दुनिया है। उन्होंने दृष्टांत द्वारा कला और विज्ञान के इस फर्क को समझाते हुए कहा कि एक कलाकार ने एक स्वप्न देखा उसने मोम के पंख बनाए और वह सूरज की और उड़ने लगा उसके पंख पिघल गए वह मर गया पर इस सबके पीछे वह उड़ने का स्वप्न छोड़ गया । यह जो उड़ने का स्वप्न है इसे बरसो बाद विज्ञान ने साकार किया। यह स्वप्न, कला और स्मृति का रास्ता अनिश्चितता का रास्ता है और कठिन रास्ता है लेकिन तमाम सत्ताएँ, तमाम तरह की निश्चितताएँ इसे बार-बार नियंत्रित और निर्धारित करने की कोशिश करती हैं। अच्युतानंद का कहना है कि प्लेटो जरूर कोई वैज्ञानिक रहा होगा जिसने अपने समय, समाज और मनुष्य की नैतिकता आदि को परिभाषित करना चाहा होगा और कलाकार ने उस परिभाषा के बाहर जाने की कोशिश की होगी और यही वजह रही होगी कि प्लेटो ने अपने गणतंत्र से कलाकार को बाहर निकाल दिया लेकिन  प्लेटो ने जो कलाकार को इस गणतंत्र से बाहर निकाला वह आज तक इस गणतंत्र से बाहर है और उसका गणतंत्र के प्रति जो आलोचनात्मक विवेक है कला के मूल में वही विवेक है और यही कला का रास्ता है।  उनका कहना है कि अगर हम थोड़ा सा ध्यान से देखें  तो अट्ठारवीं सदी के बाद विज्ञान और कला का जो द्वंद है वह अपनी दिशा बदलता है जिसके बाद विज्ञान दर्शन से तकनीक की तरफ बढ़ने लगता है। अगर आप 19वी सदी को याद करें तो यह नए और पुराने के द्वंद्व के रूप में याद की जाती है लेकिन 20वी सदी को हम कैसे याद करें, क्या उसे हम मुक्ति की सदी के रूप में याद करें, या उसे हम बड़े या बृहत्तर घेराव की सदी के रूप में याद करें। क्योंकि हमारा आज बीसवीं सदी को देखने और समझने से जुड़ा हुआ है। मनुष्य ने बीसवीं सदी में जितनी तरह के अंतर्विरोधों को देखा और जाना है। वह मनुष्यता के इतिहास में इससे पूर्व कभी नही रहे होंगे। यह जो अकूत गति है इसका निर्माण बीसवीं सदी के प्रारंभ में होने लगा था। इसके जरिये हम आज के और अपने समय के विवेक को समझ सकते हैं। अच्युतानंद ऐसे समय में नीत्शे,रामचंद्र शुक्ल और एडोर्नों को याद करते हैं। उनका मानना है कि इन तीनों के रास्ते बीसवीं सदी के आलोचनात्मक विवेक को हम बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। नीत्शे ने कहा था कि जब हम धीरे धीरे कविता पढ़ते हैं तो हम दरअसल आधुनिकता की आलोचना कर रहे होते हैं। शुक्ल जी ने भी कहा था कि ज्यों ज्यों सभ्यता का विकास होगा कविकर्म कठिन होता जाएगा। एडोर्नो भी ऐसा ही कहते हैं। अच्युतानंद मिश्र का मानना है कि इन वक्तव्यों को अलग अलग न देखकर एक रूप में देखना चाहिए। आलोचना इन्हीं रास्ते के माध्यम से अपना विवेक अर्जित करती है। इनका संबंध हमारे मनोविज्ञान और राजनीति से है। जिसके जरिये हमारा आलोचनात्मक विवेक विकसित होता है और जिसे धीरे धीरे कुंद करने का प्रयास हो रहा है। कला और आलोचनात्मक विवेक के सवाल को सिर्फ साहित्य और संस्कृति तक सीमित नहीं रखा जा सकता। पचास के दशक में हिंदी आलोचना इसी क्रिटिकल थियरी के रास्ते अपने संवाद संप्रेषित करती है। यह संवाद साहित्य पर होकर भी समाज, राजनीति, मनोविज्ञान जैसे तमाम तरह के विषयों और बहसों को समाहित करता है। जिसमें संदर्भ साहित्य का होता है पर बहस में अन्य अनुशासन स्वतः आ जाते हैं। यही क्रिटिकल थियरी आलोचनात्मक विवेक की नयी संभावना है।

 

नामवर सिंह, देवीशंकर अवस्थी और सुरेंद्र चौधरी संवाद की जिस परंपरा को विकसित करते हैं। ऐसी परंपरा जिसमें साहित्य का संबंध अन्य अनुशासनों से जुड़ता है। पर यह एक सवाल है कि वह परंपरा आगे के वर्षों में छिन्न क्यों हो जाती है। पूँजीवाद के संदर्भ और वर्तमान संकट को उद्घाटित करते हुए उन्होंने कहा कि भाषा, समयबोध और नैतिकता के बदलते मानदंड ये ऐसे घटक हैं जो वर्तमान समय और इसके संकटों की समझ विकसित करने का प्रयास करते हैं। इन घटकों में लगातार परिवर्तन हो रहे हैं आने वाला समय इन परिवर्तनों को विवेकसंगतता में समझने में निहित है। उनका कहना है कि क्रांति का बोध बीसवीं सदी के पहले आया था अब क्रांति को दुग्ध क्रांति या सूचना क्रांति के रूप में बदला जा रहा है। कैसे यह सूचना क्रांति डिजिटल क्रांति में तब्दील हो गयी। जबकि इससे पहले हमें पहली बार तब इस डिजीटलीकण का आभास हुआ था जब हमें पता चला कि पी.टी. उषा सैकेंड के सौवें हिस्से से हार गयीं। हमारे लिए समय बोध यहाँ से शुरु हुआ।

2000 के बाद का समय हिंदी में उत्तर आधुनिकता को लेकर  एक अजीब तरह की  नकारात्मकता का समय भी है। ऐसा क्यों है हमें यह सवाल पूछना चाहिए। क्यों 19वीं सदी के सोचने, समझने और देखने के कार्यकारण संबंध नष्ट हो चुके हैं जिस समय मैं हंस रहा हूं उसी समय मेरे पास रोने का तर्क भी है यह अब से पहले कभी नहीं था यह हमें हमारे अपने समय ने दिया है यह एक तरह से नई तरह की संस्कृति है जिसे हम पुरानी संस्कृति की कविता में नहीं ले सकते। जो नया समय है नई संस्कृति है नए रूप आकार है उन्हें लेकर हम कैसे विचार करें। इस तरह के प्रश्न नए आलोचनात्मक विवेक के प्रश्न हो सकते हैं। हमने अपने समय की ताकत के नए रूपों और नए संबंधों को लेकर सोचना अभी शुरू नहीं किया है एक अन्य सवाल यह भी है कि अभी हिंदी में लेखक और प्रकाशक को लेकर बहस छिड़ी हुई है लेखक प्रकाशक और पाठक का जो त्रिकोण था जिसमें तर्क हुआ करते थे वह स्थिति बिखर चुकी है। अब लेखक उस अर्थ में लेखक नहीं है, प्रकाशक प्रकाशक नहीं है और पाठक पाठक नहीं है यह त्रिकोण संबंधों का त्रिकोण अब खंडित हो चुका है और तीनों एक ही मुकाम पर खड़े हैं और वह है उपभोक्ता। यह नई तरह की संस्कृति है जिस पर हमें बात करनी चाहिए।

 


कविता अपने समय और समाज का नोटिस लेती है - विश्वनाथ त्रिपाठी

अच्युतानंद मिश्र को बधाई देते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि ऐसे समय में आलोचना में जो बचाया जा सकता है उसे ध्यान में रखते हुए आलोचना करना एक जरूरी काम है। अपने समय और इसकी रचनाशीलता को उसके एक वृहद ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है और वह जरूरत अच्युतानंद मिश्र पूरी कर रहे हैं वे बधाई के पात्र हैं। हमारा समय बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है ऐसे में अगर मैं आपसे यह कहूं  कि आठ से दस साल पहले हम जो अमरूद का टेस्ट करते थे वह कहाँ चला गया तब आप कहेंगे कि यह अमरूद की बात कर रहा है एडोर्नो की बात नहीं। पर बात होनी चाहिए कि पूरी संस्कृति का स्वाद बदल दिया गया है।

सड़क चौड़ी जरूर कर दी गई है पर उसके आसपास छोले कुलचे वाला था अगल बगल  कुछ खोखे वाले थे वो सब कहां चले गए। हमें ध्यान रखना चाहिए कि ऊपर का फैसला सबसे नीचे से होता है इसलिए संस्कृति का फैसला सबसे निचला आदमी करेगा इसलिए विवेकानंद ने कहा था कि आप ईश्वर की बात करते हैं जब तक मेरे देश का कुत्ता भी भूखा है उसे रोटी देना मेरा धर्म है ईश्वर की उपासना करना नहीं। हम कविता की बात करें संस्कृति की बात करें अगर हम उस आदमी की बात नहीं करते हम उसे ध्यान में नहीं रखते हैं तो यह सारा आडंबर है। वह चौड़ी सड़क कैसे प्रतीक बना सिर्फ रघुवीर सहाय नहीं भगवत रावत ने भी इस पर कविता लिखी है,  कविता अपने समय समाज का नोटिस लेती है और चोड़ी सड़क पर बात करते हुए भी हाशिये के जन को नहीं बिसराती बल्कि उसे मुख्य संदर्भ बनाती है।

अपने वक्तव्य में उन्होंने आगे कहा कि हमने कई संस्थान खोले हैं, गालिब अकेडमी खुली है अशोक वाजपेयी ने बहुत बड़ा संस्थान खोला है वे काम कर रहे हैं ये संस्थान अवस्थी जी की याद दिला रहे हैं। जब सत्ता संस्कृति पर संकट डालती है तब जो छोटी-छोटी वित्तीय स्थिति से चलने वाले संस्थान महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं वह सत्ता और संकटों का प्रतिरोध करते हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें खुशी है कि देवीशंकर अवस्थी संस्थान इस कसौटी पर खरा उतरा है। यह संस्थान जरूर चलते रहना चाहिए।

 

आज का समय कोलाहल का समय है – मृदुला गर्ग

अच्युतानंद मिश्र को बधाई देते हुए मृदुला गर्ग ने कहा पुरस्कृत किताब का नाम मुझे बहुत पसंद है कोलाहल में कविता की आवाज। आज का समय कोलाहल का समय है और अच्युतानंद ने बिल्कुल ठीक कहा कि विवेक, नैतिकता, स्वायत्तता, स्वतंत्रता दूसरे की मुक्ति में दिलचस्पी अब खत्म हो चुकी है एक कोलाहल है कि किसी तरह पूंजी के सहारे और ताकत के सहारे हम आगे बढ़ जाएँ।

खुद सत्ता हमारी संस्कृति, हमारे विचार करने की शक्ति को अपनी गिरफ्त में लेने का प्रयास कर रही है। सत्ता विज्ञापन और पूँजी की ताकत से एक झूठे आडंबर को रचती ही नहीं बल्कि मनुष्य के विवेक को झूठ में तब्दील कर रही है। यह झूठा विवेक जबरन ठूँसा जा रहा है। और नागरिक को भक्त में परिणत करने का प्रयास लगातार जारी है और यह सब विज्ञापन के द्वारा संभव होता है वह विज्ञापन आपको बताता है कि आप क्या देखें  क्या खाएँ, क्या पीएँ और क्या बोलें। पहले हमारे आसपास विज्ञापनों से अधिक मनुष्य और संवेदनशील आदमी हुआ करते थे उन्हीं के सहारे जिंदगी चला करती थी। वह आदमी जिन्हें आप ताउम्र याद रखें आप बड़े बड़े शख्स को भूल जाते हैं आप अपने आस पास के मेहनतकश और सहायकों को याद रखते हैं। अपने निजी अनुभव के हवाले से मृदुला जी ने कहा कि मैं आज भी लक्ष्मी मेडिकोज के उस व्यक्ति को नहीं भूली हूँ। जिसने मुझे मेरे घर आकर दवाई पहुँचाई। आज ऐसी संवेदना लगभग नदारद है। पहले एक संवेदना थी जो अब खत्म हो गई इसलिए रचनाकार और आलोचक का जो रिश्ता होना चाहिए वह भी अब रहा नहीं है। रचनाकार बहुत स्वार्थी जीव होता है वह यह तो चाहता है कि हर आलोचक उसकी पुस्तक की आलोचना करे.समीक्षा करें लेकिन वह आलोचना की किताब नहीं पढ़ता। आलोचना के सिद्धांतों को जानने की कोशिश नहीं करता। यह भी जानने की कोशिश नहीं करता कि रचना और आलोचना का उद्गम एक ही विवेक से होता है और यह विवेक तब पैदा होता है जब आप समाज और उसकी स्थिति से जुड़े होते हैं सिर्फ जुड़े ही नहीं बल्कि उसकी आलोचना करने की हिम्मत भी आपके अंदर होती है। आज वह हिम्मत हमारे भीतर खत्म होती जा रही है हमारे विचारों में एक विकृत मानसिकता पैदा की गई है।

यह  बताने का काम भी सत्ता ही कर रही है कि आप कौन हैं आप क्या हैं और आपको क्या चाहिए, आपका भविष्य कैसा हो। पूरी मानवीय सभ्यता और मानव के बीच में क्या निर्णय लिया जाए। कोविड ने हमें बताया कि प्रकृति को हमने कितना कमजोर जान लिया था।  आप उसे नष्ट करने की कोशिश में जुटे रहे, वह तो नष्ट नहीं हुई लेकिन वह आप को नष्ट करने के लिए तैयार है। जिसकी एक झलक कोराना ने हमें दिखलाई और यही देश के अंदर सत्ता और हमारे बीच चल रहा है। हम बार-बार हथियार डाल देते हैं। क्रांति से तो हम घबराने लगे हैं क्रांति सिर्फ सूचना की होती है जो सूचना बेबुनियाद रूप में क्रांति के रूप में आपके सामने आती हैं बड़ी दिलफरेब होती हैं वह जो दिखाई जाती हैं और आपको विश्वास हो जाता है कि हमने बहुत प्रगति कर ली हमने हर क्षेत्र में क्रांति कर ली है, हम ताकत पा चुके हैं।

 

साहित्य और आलोचना को प्रतिरोध की विधाओं के रूप में बचाए रखना जरूरी - अशोक वाजपेयी

अशोक वाजपेयी ने अच्युतानंद की किताब कोलाहल में कविता की आवाज़ के शीर्षक की वर्तमान संदर्भसापेक्षता उद्घाटित करते हुए कहा इस किताब के शीर्षक में जो रूपक है । यह काहे का कोलाहल है जिसमें कविता  की आवाज उठ रही है। मुझे याद नहीं आता कि हमने कभी झूठ, नफरत, भेदभाव, सांप्रदायिकता, हिंसा, बलात्कार का कोलाहल इतनी बुरी तरह सुना हो और इतने माध्यमों से सुना हो जितना कि हमें सुनाया जा रहा है और इस कोलाहल को कम से कम हिंदी अंचल में व्यापक रूप से स्वीकार्यता मिल गई है यह वह समय है जहां आलोचना करने को अपराध की श्रेणी में घोषित किया जा रहा है। अभी यह  राजनीति के क्षेत्र में या सामाजिक क्षेत्र में है अभी यह साहित्य के क्षेत्र में नहीं आया है लेकिन यह वहाँ भी देरसबेर आ सकता है। जब प्रश्न पूछना आलोचना करना आज की सत्ता और राजनीति वर्जित कर रही है और इसके विरुद्ध हमारे बुद्धिजीवी जो शिक्षण संस्थानों में काम करते हैं और मोटी तनख्वाह पाते हैं। उनका एक या दो प्रतिशत भी इसके विरुद्ध नहीं आया है। यहां तक कि वह अपने शिक्षण संस्थानों की स्वायत्तता के नष्ट होने पर भी कुछ नहीं कह रहे और जिस विवेक की बात अच्युतानंद कर रहे थे वह लगभग अप्रसांगिक करार दिया चुका है। ऐसे समय में लेखक को अपने ऊपर संदेह करना चाहिए कि क्या यह समाज वही है जो अभी कुछ वर्ष पहले तक प्रतिरोध और क्रांति को उसके मौलिक और सच्चे अर्थों में जगह देता था। क्या यह वही हिंदू धर्म है जो हिंदुत्व नाम के एक भयानक विद्रूप के रूप मे घटित किया जा रहा है और सारी संस्कृति तमाशा बन गयी है। बड़े से बड़ा तमाशा होता है और इस तमाशे में हम सब शामिल होते हैं। यह समय बहुत गहरे संकट का समय है इसमें  सौभाग्य से हिंदी के महत्वपूर्ण लेखकों ने सारे प्रलोभनों और तनावों के बावजूद अपना पाला नहीं बदला है। ऐसे समय में साहित्य और आलोचना को प्रतिरोध और प्रश्नाकुलता की विधाओं के रूप में बचाए रखना और दोनों को सच और उम्मीद की विधाओं के रूप में बचाए रखना जरूरी है। यह कठिन होगा तो होगा।  जिस तकनीक को हम बहुत संभावनाशील नज़रों से देख रहे हैं और उस पर गर्व कर रहे हैं इसी तकनीक का प्रयोग सबसे ज्यादा घृणा और हिंसा और सांप्रदायिकता फैलाने के लिए हो रहा है। विजयदेव नारायण साही ने कहा था की बीसवीं शताब्दी 19वीं शताब्दी की गोद में बैठी हुई है जिन तीन विचारकों ने बीसवीं शताब्दी को प्रभावित किया वह दरअसल 19वीं शताब्दी में आए। चाहे समाजवाद हो, मनोविश्लेषणवाद हो या  आइंसटीन  का सिद्धांत ये सभी 19वीं सदी की पैदाइश हैं। क्या बीसवीं शताब्दी हमारे सिर पर बैठी हुई है याद रखने की जरूरत है कि बीसवीं शताब्दी में सबसे ज्यादा स्वतंत्र देश बने इससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था। ऐसे में देवीशंकर अवस्थी को याद करना और इस पुरस्कार के बहाने आलोचना की जरूरत को रेखांकित करना जरूरी है हम इस पुरस्कार को और इसकी परंपरा को जीते जी घटने या कम होने नहीं देंगे।

कार्यक्रम का संचालन रवींद्र त्रिपाठी ने किया। इस अवसर पर नित्यानंद तिवारी, रेखा अवस्थी, विनोद तिवारी, ज्योतिष जोशी, वैभव सिंह, वीरभारत तलवार, मैनेजर पांडेय एवं साहित्य समाज के सुधीजनों की गरिमामयी उपस्थिति रही। आमंत्रित वक्ताओं का स्वागत श्री अनुराग अवस्थी, वरुण अवस्थी, वत्सला डकूना, कार्तिकेय अवस्थी एवं देवीशंकर अवस्थी के परिवार के सदस्यों द्वारा किया गया। धन्यवाद ज्ञापन देवीशंकर अवस्थी के सुपुत्र श्री अनुराग अवस्थी द्वारा किया गया। 

पिछले वर्ष दिवंगत हुए साहित्य समाज के लेखकों एवं श्रीमती गौरी अवस्थी (धर्मपत्नी श्री अनुराग अवस्थी) की स्मृति में दो मिनट का मौन रखा गया और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित किये गए।

                                                                                                                        प्रस्तुति – तरुण गुप्ता

शनिवार, 13 अप्रैल 2019

2018 का देवीशंकर अवस्थी सम्मान युवा आलोचक मृत्युंजय पांडेय को

मृत्युंजय पाण्डेय विश्वनाथ त्रिपाठी और राजेंद्र कुमार द्वारा सम्मान ग्रहण करते हुए साथ में हैं विनोद तिवारी, संजीव कुमार, पंकज चतुर्वेदी


24वाँ देवीशंकर अवस्थी सम्मान युवा आलोचक श्री मृत्युंजय पांडेय को उनकी पुस्तक ‘रेणु का भारत’ के लिए दिया गया। उन्हें यह सम्मान रवींद्र भवननई दिल्ली के साहित्य अकादमी सभागार में आयोजित एक समारोह में वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी और राजेंद्र कुमार ने प्रदान किया। इस वर्ष की सम्मान समिति में अशोक वाजपेयीराजेंद्र कुमारनंदकिशोर आचार्य और सम्मान समिति की संयोजिका कमलेश अवस्थी शामिल थीं।  आलोचना के क्षेत्र में दिया जाने वाला यह प्रतिष्टित पुरस्कार हिंदी के सुप्रसिद्ध आलोचक स्वर्गीय श्री देवीशंकर अवस्थी की स्मृति में उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कमलेश अवस्थी द्वारा वर्ष 1995 में स्थापित किया गया था। यह सम्मान अवस्थी जी के जन्मदिवस के अवसर पर प्रतिवर्ष 45 वर्ष तक की आयु के किसी युवा आलोचक को दिया जाता है। सम्मान के तहत साहित्यकार को प्रशस्तिपत्रस्मृति चिह्न और ग्यारह हजार रुपये की राशि प्रदान की जाती है। अब तक यह सम्मान सर्वश्री मदन सोनीपुरुषोत्तम अग्रवाल,विजय कुमारसुरेश शर्माशम्भुनाथवीरेंद्र यादवअजय तिवारीपंकज चतुर्वेदीअरविंद त्रिपाठीकृष्णमोहन अनिल त्रिपाठीज्योतिष जोशीप्रणय कृष्णप्रमीला के. पी. संजीव कुमारजितेंद्र श्रीवास्तव,प्रियम अंकितविनोद तिवारीजीतेंद्र गुप्तावैभव सिंह, पंकज पराशर एवं अमिताभ राय को प्रदान किया जा चुका है।
परंपरानुसार देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह में किसी एक प्रासंगिक विषय पर व्याख्यान का आयोजन भी किया जाता है। इस बार का विषय था ‘देवीशंकर अवस्थी की आलोचना और हमारा समय’ इस विषय पर बोलने के लिए आमंत्रित वक्ता थे संजीव कुमार, वैभव सिंह, पंकज चतुर्वेदी। समारोह की अध्यक्षता वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने की।

अवस्थी जी ने समकालीनता को रचना के मूल्याँकन की कसौटी माना था - विनोद तिवारी
विनोद तिवारी ने सम्मान समारोह का विधिवत आरंभ और संचालन करते हुए कहा देवीशंकर अवस्थी  36 वर्ष की अल्पायु मिलने के बावजूद भी अपनी उम्र का एक तिहाई हिस्सा लगभग 12 वर्ष पठन पाठन को देते हैं और सबसे महत्त्वपूर्ण यह कि वे अपने समय में चल रही तमाम बहसों में पूरी तरह से शामिल और संवादरत दिखते हैं। हालांकि उनके लेखन का अधिकांश कथालोचना के रूप में है लेकिन तब भी कविता, नाटक और सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचना के प्रश्नों को उठाने में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।  आज पुस्तक समीक्षा का स्तर जिस दर्जे का है ऐसे समय में देवीशंकर अवस्थी याद आते हैं। उनकी विवेक के रंग में पुस्तक समीक्षा की जिस गंभीरता को बनाए रखा गया है उसमें अवस्थी जी की महत्ती भूमिका है। आज पुस्तक समीक्षा एक परिचयात्मक हिस्सा बनकर रह गयी है। अवस्थी जी ने समकालीनता को रचना के मूल्याँकन की कसौटी माना था। अगर आज की आलोचना का मुख्य स्वर कथालोचना के रूप में है तो क्या इसमें नामवर सिंह और देवीशंकर अवस्थी की कथालोचना और उसके टूल्स शामिल नहीं हैं।

आलोचक की दृष्टि में अतीत, वर्तमान और भविष्य विच्छिन्नता में नहीं आते- राजेंद्र कुमार
प्रशस्ति वाचन से पहले राजेंद्र कुमार ने देवीशंकर अवस्थी का पुण्य स्मरण करते हुए कहा कि  महज 36 वर्ष की अवस्था में उसमें भी केवल 12 वर्ष में इतना विपुल लेखन जिसका प्रमाण चार खंडों में आई रचनावली है, यह युवा लेखकों के लिए रश्क़ का विषय हो सकता है। अपनी छोटी सी उम्र में वे बड़े बड़े प्रश्नों  को उठा रहे थे। ये आज के युवा आलोचकों के लिए प्रेरणापूर्ण चुनौती है। जिस समय अवस्थी जी ने साहित्य के क्षेत्र में अपना प्रवेश किया था वह समय विभिन्न नए साहित्यिक आंदोलनों की स्थापना और विकास का समय रहा। अवस्थी जी का अपने समय की बहसों में हस्तक्षेप रहा। राजेंद्र जी ने अवस्थी जी के साथ साही को याद करते हुए कहा कि मुझे ऐसे समय में अवस्थी जी के साथ विजयदेव नारायण साही का भी खयाल आता है दोनों ही अपने समय की बहसों में सक्रिय उपस्थिति और हस्तक्षेप किया करते थे। आज के आलोचक  छोटे छोटे नामवर सिंह और छोटे छोटे रामविलास शर्मा बनके रह गए हैं। जबकि साही और अवस्थी जी ऐसे आलोचकों के लिए भी चुनौती हैं। वे आज होते तो किसी भी रूप में नामवर सिंह और रामविलास शर्मा से कम महत्त्वपूर्ण न होते।
उन्होंने नयी कहानी और नयी कविता के साथ नयी समीक्षा का प्रश्न उठाया। उनका मानना था कि आलोचक के लिए समकालीनताबोध पहली शर्त है। उनका समकालीनताबोध केवल वर्तमान से ही संबद्ध नहीं था किसी भी आलोचक की दृष्टि में अतीत, वर्तमान और भविष्य विच्छिन्नता में नहीं आते। यह आश्चर्य का विषय है कि वे राजनीतिक विषयों पर भी लिखते हैं और उनका लिखा आज भी प्रासंगिक है। आर. एस . एस के संबंध में उनका लिखा आज भी प्रासंगिक है।
आज के युवा लेखकों के संबंध में राजेंद्र जी ने कहा कि आज के हमारे युवा लेखक समग्र लेखन न करके फुटकर लेखन ज्यादा करते हैं इस संबंध में मृत्युंजय पांडेय की पुस्तक रेणु का भारत एक समग्र प्रयास है। हमें ऐसे प्रयासों को तरजीह देनी चाहिए। हमें प्रयास करना चाहिये कि हम अपने साहित्यकारों और उनकी कृतियों को समग्रता में देखने की दृष्टि विकसित करें।
मृत्युंजय पांडेय को 24वें देवीशंकर अवस्थी सम्मान की बधाई देते हुए राजेंद्र जी ने चयन समित द्वारा दिये गए प्रशस्ति पत्र का वाचन करते हुए कहा कि हिंदी आलोचना  के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने वाले युवा आलोचकों को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से स्थापित देवीशंकर अवस्थी सम्मान से इस वर्ष श्री मृत्युंजय पाण्डेय को अलंकृत करते हुए हमें अत्यंत हर्ष हो रहा है।  ..वर्ष 2018 को देवीशंकर अवस्थी सम्मान श्री मृत्युंजय पाण्डेय को उत्कृष्टता, प्रासंगिकता और विश्लेषण क्षमता के लिए उनकी नवीनतम प्रकाशित आलोचना कृति रेणु का भारत पर दिए जाने का निर्णय सर्वसम्मति से हुआ है। यह अध्ययन रेणु को आँचलिकता के दायरे से बाहर लाकर उनके समग्र कृतित्व को एक बृहतर परिप्रेक्ष्य में देखने का सार्थक प्रयास है। साहित्यिक सर्जनात्मकता को समाजशास्त्रीय अवधारणाओं के आधार पर देखने समझने की आलोचकीय पद्धति से अलग हटकर श्री पाण्डेय अपने इस अध्ययन में लेखक रेणु की संवेदना को केंद्र में रखते हैं और उसी के प्रसार में बदलते सामाजिक राजनीतिक यथार्थ को समझने का उद्यम करते हैं। ..मृत्युंजय पाण्डेय की दृष्टि में रेणु की साहित्यिक संवेदना तथा महात्मा गाँधी की सत्याग्रही संवेदना सहधर्मा है। सुखद संयोग ही है कि श्री पांडेय को देवीशंकर अवस्थी सम्मान महात्मा गाँधी के 150वें जयन्ती वर्ष में मिल रहा है।

मृत्युंजय पाण्डेय अपना वक्तव्य देते हुए

आलोचना का वर्तमान परिदृश्य बहुत उत्साहवर्धक नहीं – मृत्युंजय पाण्डेय
सम्मानित आलोचक मृत्युंजय पांडेय ने अपने वक्तव्य में कहा कि आज आलोचना के नाम पर बहुत सी ऐसी चीज़े लिखी जा रही है उसे आलोचना नहीं कहा जा सकता। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा आलोचना का वर्तमान परिदृश्य बहुत उत्साहवर्धक नहीं है। नयी पीढ़ी आलोचना की जो बागडोर संभाल रही है उसमें पैनी दृष्टि और तटस्थता का अभाव दिख रहा है। उसमें साहस की कमी दिख रही है। साहस की कमी की वजह से या तो हम पक्ष में लिख रहे हैं या बिलकुल चुप हैं। जो हमारे काम का है जो हमारे खेमे का है जो हमारी पसंद का है उसकी हम प्रशंसा कर रहे हैं। और जो हमारे काम का नहीं उस पर हम चुप्पी साध लेते हैं। वर्तमान परिदृश्य के संबंध मृत्युंजय पांडेय न कहा कि आज जब सच को झूठ और झूठ को सच की तरह पेश किया जा रहा है आज जब शब्दों के अर्थ बदल रहे हैं।  शब्द अपना मूल्य खो रहे हैं। आज जितना शब्दों का उनके अर्थों का अवमूल्यन हुआ है उतना कभी नहीं हुआ। युग के मुहावरे बदल रहे हैं। झूठ, अफवाह, लफ्फाजी और फॉरवर्ड के इस युग में आलोचक का दायित्व अत्यधिक बढ़ जाता है। आलोचक का काम सिर्फ कृतियों की आलोचना करना ही नहीं बल्कि सामाजिक राजनीतिक कुरीतियों पर कुठाराघात करना भी है। उसे अपने सामाजिक राजनीतिक परिवेश का पूरा ज्ञान होना चाहिए। पर अफसोस ऐसा हो नहीं रहा । हम वही देख रहे हैं जो हमें दिखाया जा रहा है।
अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा कि आलोचना की एक साथ एक दूसरी समस्या यह दिख रही है कि नामवर सिंह मैनेजर पाण्डेय के बाद आलोचना को परंपरा से जोड़कर देखने की दृष्टि खत्म हो गई है आज की कृति या आज के समय का मूल्याँकन करते वक्त परंपरा के निशान नहीं दिख रहे।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर को जिस कबीर को सारे वाद-विवाद, साँचे और जात पाँत से ऊपर उठाकर लाए थे आज उन्हें पुनः उसी साँचे में डाल दिया गया है। परंपरा को जानने के लिए इतिहासबोध का होना बहुत ज़रूरी है। जिसके पास इतिहासबोध होगा वही परंपरा को, संस्कृति को समझ पाएगा। उसका मूल्याँकन कर पाएगा। इतिहास बोध का अर्थ सिर्फ अतीतबोध नहीं है।
उत्तर-आधुनिकता के आलोचना  पर पड़ दुष्प्रभाव के संबंध में मृत्युंजय ने कहा कि उत्तर आधुनिकता ने आलोचना को बहुत क्षति पहुँचाई है। रचना को समग्र रूप में देखने की परंपरा खत्म हो गई है। आँख, नाक, कान के डॉक्टर की तरह सब उसे तोड़कर देख रहे हैं। यह सही है कि उत्तर आधुनिकता ने हमें रचना के कई पाठ दिए लेकिन उसने समग्रता में, सिस्टम में देखने की दृष्टि छीन ली।
अपने वक्तव्य के अंत में उन्होंने माना कि एक आलोचक के रूप में उनके समक्ष भी ये सभी समस्याएँ और चुनौतियाँ हैं। हमारी पीढ़ी को इन चुनौतियों को झेलना है बल्कि कहीं ज्यादा झेलना पड़ रहा है। हमें अपने बड़े बुजुर्गों के मार्गदर्शन में इसकी राह भी खोजनी है। वर्तमान समय में आलोचना की चुनौती इन समस्याओं से पार पाने में निहित है।
अपने समय को समझे बिना आप किसी समय को नहीं समझ सकते - विश्वनाथ त्रिपाठी
देवीशंकर अवस्थी रचनावली के प्रकाशन को लेकर त्रिपाठी जी ने खुशी ज़ाहिर की और कहा कि ऐसे समय में जब सचमुच का यश प्राप्त करना दुर्लभ हो गया है। ऐसे समय में एक सुखद घटना यह भी घटी है कि देवीशंकर अवस्थी रचनावली के चार खंड प्रकाशित हो चुके हैं। उनके प्रकाशित होने से देवीशंकर अवस्थी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व का उचित ढ़ंग से मूल्याँकन हो सकेगा।
रचनावली के संपादन के संबंध में त्रिपाठी जी ने कहा कि यह इतने अच्छे ढंग से हुआ है कि इसके पहले जिन रचावलियों का संपादन हुआ है उनमें से मुझे केवल नेमीचंद्र जैन द्वारा संपादित मुक्तिबोध रचनावली की ही याद आ रही है। एक एक शब्द एक व्यक्तित्व की तरह है प्रुफ की कोई गलती नहीं है। जिस तरह से देवीशंकर अवस्थी रचनावली का संकलन किया गया है, ऐसा मालूम होता है कि देवीशंकर जी ने जैसा जिस रूप में लिखा  उसे भाभी जी(श्रीमती कमलेश अवस्थी) ने सहेज रखा है। आप जानते ही है कि प्रेम अपनी राह निकाल ही लेता है। रचनावली की संपादक रेखा अवस्थी की  प्रशंसा करते हुए त्रिपाठी जी ने कहा कि इस रचनावली के निर्माण में रेखा अवस्थी की मेहनत दिखाई देती है, इतनी मेहनत से रेखा द्वारा संपादन किया गया है। कि यह मेहनत पूरी रचनावली और उसके एक एक शब्द में दिखाई देती है। ऐसी मेहनत बहुत कम रचनावलियों में दिखाई देती है।
आलोचना के वर्तमान परिदृश्य से नाराज़गी आलोचना के लिए शुभ लक्षण
मृत्युंजय पांडेय के संबंध में विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि जिस आलोचक को आज सम्मानित किया गया वह आलोचक यदि हिंदी आलोचना के वर्तमान परिदृश्य से इतना नाराज़ है तो यह बहुत शुभ लक्षण है। भयावह स्थिति तब होगी जब हिंदी आलोचक हिंदी आलोचना की प्रशंसा करने लगेंगे। अगर हममें आत्मालोचना की क्षमता है और ऐसी आत्मालोचना की क्षमता की आलोचना के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखाई दे रहा तो यह निश्चित ही शुभ लक्षण है। अपने समय को समझे बिना आप किसी भी समय को नहीं समझ सकते। जिस युग में अवस्थी जी लिख रहे थे वह नेहरू युग था आधुनिक भारत के निर्माण की नींव रखने वाले नेहरू। जिसे अब ध्वंस करने का प्रयास किया जा रहा है।  एक सजग और सक्रिय बोध से देखना नए साहित्य की विशेषता है इसलिए अवस्थी जी इस नए साहित्य  में नयी संभावनाओं  को देख रहे थे।
देवीशंकर अवस्थी की राजनीतिक समझ पर विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि आर. एस. एस के बारे देवीशंकर अवस्थी ने लिखा है कि यह अपना काम खुद करने की बजाय अन्य संस्थाएँ खोल कर कराएगा। यह 1960-62 में कहा गया कथन है। इसकी प्रासंगिकता को आप आज देख सकते हैं।
अपने वक्तव्य के अंत में उन्होंने कहा कि रचनावली को पढ़कर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि अवस्थी जी ने आलोचक बनने की व्यवस्थित तैयारी कर रखी थी। अगर वे अकाल मृत्यु को प्राप्त न हुए होते तो हम इसका अनुमान ही कर सकते हैं कि वे क्या होते।
नयी कहानी के दौर में पहली बार हिंदी आलोचना में रिगर दिखलाई पड़ा - संजीव कुमार
अवस्थी जी की कहानी आलोचना पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि अवस्थी जी की कहानी संबंधी आलोचना उतनी प्रासंगिक नहीं है और यह वे आज की आलोचना की दृष्टि से नहीं बल्कि आज की रचना की दृष्टि से कह रहे हैं।
उन्हें खासतौर पर लगता है कि आज के आलोचकों के लिए देवीशंकर अवस्थी प्रासंगिक हैं कहानीकारों के लिए न हों, कहानीकारों की सराहना करने की दृष्टि से न हों, यह संभव है। नयी कहानी के दौर में पहली बार हिंदी आलोचना में रिगर दिखलाई पड़ा। उससे पहले लिखने के फॉर्मूले थे। नामवर जी और अवस्थी जी दोनों बड़े कद के आलोचक हैं और दोनों के यहाँ बहुत इनसाइट्स हैं कहानी को लेकर, मसलन सूत्र बहुत हैं। लेकिन प्रबंधात्मक आलोचना बेहद कम हैं।  कहानी आलोचना पर फुटकर लेखन नामवर जी के यहाँ और अवस्थी जी के यहाँ दोनों के यहाँ हुआ। नामवर जी के यहाँ कहानी आलोचना के जो सूत्र मिलते हैं उनका कोई मुकाबला नहीं। अवस्थी जी की कहानी आलोचना में नामवर जी की तुलना में बेशक कम सूत्र मिलते हों लेकिन वो सूत्र कमाल के हैं वो बहुत महत्त्वपूर्ण सूत्र हैं। अगर हमारे समय में एक खास तरह की कहानी लिखी गई है तो उसको समझने के लिए शब्द हमें स्वयं ही बनाने होंगे।
उन्होंने कहा कि योगेंद्र आहूजा और अनिल यादव की कहानी(गौ सेवक) की आलोचना करने के लिए नामवर जी या अवस्थी जी की कहानी आलोचना बहुत मददगार साबित नहीं होती। आप नयी कहानी आलोचना के सूत्रों से आज की कहानी को नहीं समझ सकते।
रचनावली के संबंध में संजीव कुमार ने कहा कि इतनी कायदे से छपी रचनावली हिंदी में बेहद कम हैं, कमलेश जी द्वारा इकट्ठा की गई जानकारी और रेखा जी द्वारा संपादित यह रचनावली अद्भुत बन पड़ी है। यह रचनावली अवस्थी जी के नाम से युवा आलोचना का पुरस्कार होने का बहुत सुदृढ़ तर्क है।   
जब अस्तित्व दाँव पर लगा हो तो रचनाशीलता की गति और बढ़ जाती है - पंकज चतुर्वेदी
देवीशंकर अवस्थी की कविताओं पर बोलते हुए पंकज चतुर्वेदी ने कहा कि हमारा समय अहंकार और अक्रामकता का समय है और अवस्थी जी अपनी कविताओं में इसका विरोध करते हैं। उन्होंने इस बात को इंगित किया कि अवस्थी जी ने कविता को अपना प्राथमिक कार्य नहीं माना और न ही कभी अपना कविता संग्रह छपवाने का प्रयास किया। उसके बावजूद उनकी कविताएं उनके जीवन और समाज में पसरी भयावहता जिसे वे हॉरर की संज्ञा देते हैं को दिखाती हैं। तुलसीदास के हवाले से पंकज चतुर्वेदी ने कहा कि कविता के लिए सज्जनता अनिवार्य शर्त है और अवस्थी जी की कविताएं इस सज्जनता को बनाए रखती हैं। उनकी कविता और जीवन में कोई फाँक नहीं दिखती। जहाँ एक ओर उनकी प्रेम कविताओं में प्रेम निवेदन और मनुहार है वहीं  पटेल चैस्ट इंस्टिट्यूट में इलाज के दौरान लिखी उनकी कविताएँ भयावह जीवन स्थितियों से भरी हैं। इस पर पंकज जी की टिप्पणी है कि जब अस्तित्व दाँव पर लगा हो तो रचनाशीलता की गति और बढ़ जाती है।
आज जब सत्ता बहुत बड़बोली है, और उसमें सुनने का धैर्य नहीं है सिर्फ बोलते जाने की हड़बड़ी है, जाहिर तौर पर इसमें कोई चिंतन नहीं है। ऐसे में अवस्थी जी अपनी कविता में 60 के दशक में लिख रहे हैं कि सुनना भी बड़ा धैर्य चाहता है। साथ ही कहते हैं कि सुनने योग्य श्रुतिगोचर कुछ सत्य नहीं  अवस्थी जी की ये पंक्तियाँ हमारे समय के सच को उसकी पूरी प्रासंगिकता के साथ बयां करती हैं।
पंकज जी का कहना है कि उनकी कविताएँ इस बात का इशारा देती हैं कि अवस्थी जी का व्यक्तित्व अंतर्मुखी नहीं ही रहा होगा। मुक्तिबोध उनके प्रिय कवि थे उनका जीवन भी मुक्तिबोध की तरह संघर्षपूर्ण रहा। वे भी अध्यवसाय में डूबे थे चार खण्डों में छपी रचनावली इस बात का प्रमाण है। कम उम्र के बावजूद इतना विपुल लेखन। चार खण्डों की रचनावली उनके 12 वर्षों के लेखन का संकलन है।
अवस्थी जी की कविता सत्य लेलो, बोझा ढ़ो लो/ शायद भविष्य की संताने कृतज्ञ हो पाएँ /इसलिए वर्तमान को जी लो।  के हवाले से पंकज जी ने कहा कि अपनी कविता में भी वे वर्तमान का साथ नहीं छोड़ते और उनका वर्तमान समकालीनता बोध से जुदा नहीं हैं।

आलोचना का काम जिम्मेदारी के साथ विचार के क्षेत्र में साहस दिखाना है - वैभव सिंह
देवीशंकर अवस्थी की उपन्यास संबंधी आलोचना पर बोलते हुए वैभव सिंह ने कहा कि आलोचना का काम हायरारकी बनाना नहीं है। जहाँ फलां छोटे आलोचक और फलां बड़े आलोचक की बहस होती है वहाँ आलोचना से हम वंचित हो जाते हैं ऐसे आलोचक हमें कुछ नहीं सिखा पाते। हमें अपने आलोचकों से मेहनत करना सीखना है उनकी सिन्सैरिटी से हमें सीखने की ज़रूरत है। आलोचना हवाई तर्को का नाम नहीं है आलोचना जिम्मेदारी है जो विचार के क्षेत्र में निभाई जाती है। इसलिए आलोचना का काम जिम्मेदारी के साथ विचार के क्षेत्र में एडवेंचर दिखाना है। और निश्चित ही ऐसा साहस अवस्थी जी की उपन्यास आलोचना में हैं। कई असहमतियों के बावजूद इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उनकी आलोचना रचना की गहन जाँच पड़ताल कर तर्क के साथ अपने निर्णय पर पहुँचती है।
सम्मान समारोह से पहले इस वर्ष दिवंगत हुए साहित्यकारों कृष्णा सोबती, विष्णु खरे, फहमिदा रियाज़, नामवर सिंह, अर्चना वर्मा के प्रति शोक प्रकट किया गया और श्रद्धांजलि दी गई ।
                                                                                                 
                                                                                             प्रस्तुति - तरुण 




नोट- अंत में रिकॉर्डिंग मशीन की बैटरी डाउन हो जाने की वजह से  वैभव सिंह का वक्तव्य रिकॉर्ड नहीं हो सका, स्मृति के आधार पर ही वैभव सिंह वाला भाग लिखा गया है। इसलिए भी उनकी कई महत्त्वपूर्ण बातें समाहित नहीं हो सकीं। इसके लिए खेद है।  लेखक या किसी पाठक को आपत्ति होने पर इसका संपादन कर दिया जाएगा। - तरुण

सोमवार, 9 अप्रैल 2018

2017 का देवीशंकर अवस्थी सम्मान युवा आलोचक अमिताभ राय को


2017 का देवीशंकर अवस्थी सम्मान युवा आलोचक अमिताभ राय को
2017 का देवीशंकर अवस्थी सम्मान युवा आलोचक श्री अमिताभ राय को उनकी पुस्तक सभ्यता की यात्राः अंधेरे मेंके लिए दिया गया। उन्हें यह सम्मान रवींद्र भवन, नई दिल्ली के साहित्य अकादमी सभागार में आयोजित एक समारोह में वरिष्ठ आलोचक श्री विश्वनाथ त्रिपाठी ने प्रदान किया। इस वर्ष की सम्मान समिति में अशोक वाजपेयी, राजेंद्र कुमार, नंदकिशोर आचार्य और कमलेश अवस्थी शामिल थे।  आलोचना के क्षेत्र में दिया जाने वाला यह प्रतिष्टित पुरस्कार हिंदी के सुप्रसिद्ध आलोचक स्वर्गीय श्री देवीशंकर अवस्थी की स्मृति में उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कमलेश अवस्थी द्वारा वर्ष 1995 में स्थापित किया गया। यह सम्मान अवस्थी जी के जन्मदिवस के अवसर पर प्रतिवर्ष 45 वर्ष तक की आयु के किसी युवा आलोचक को दिया जाता है। सम्मान के तहत साहित्यकार को प्रशस्तिपत्र, स्मृति चिह्न और ग्यारह हजार रुपये की राशि प्रदान की जाती है। अब तक यह सम्मान सर्वश्री मदन सोनी, पुरुषोत्तम अग्रवाल, विजय कुमार, सुरेश शर्मा, शम्भुनाथ, वीरेंद्र यादव, अजय तिवारी, पंकज चतुर्वेदी, अरविंद त्रिपाठी, कृष्ण मोहन, अनिल त्रिपाठी, ज्योतिष जोशी, प्रणय कृष्ण, प्रमीला के. पी. संजीव कुमार, जितेंद्र श्रीवास्तव, प्रियम अंकित, विनोद तिवारी, जीतेंद्र गुप्ता, वैभव सिंह एवं पंकज पराशर को प्रदान किया जा चुका है।
परंपरानुसार देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह में किसी एक प्रासंगिक विषय पर व्याख्यान का आयोजन भी किया जाता है। इस बार का विषय था आलोचना और अंतःकरणइस विषय पर बोलने के लिए आमंत्रित वक्ता थे राजेंद्र कुमार, नंदकिशोर आचार्य और अच्युतानंद मिश्र। समारोह की अध्यक्षता नंदकिशोर आचार्य ने की।
संजीव कुमार ने इस सम्मान समारोह का संचालन करते हुए देवीशंकर अवस्थी की पुस्तक नयी कहानी संदर्भ और प्रकृति  के हवाले से कहा कि अवस्थी जी की आलोचना में चीज़ो को एकांगी तरीके से देखने की दृष्टि नहीं मिलती वहाँ एक समेकित दृष्टि दिखाई देती है। अवस्थी जी इस सम्मान समारोह में इस रूप में हमारे बीच मौजूद हैं। यह 23वाँ देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह है। एस सुखद क्षण यह भी है कि देवीशंकर अवस्थी की रचनावली रेखा अवस्थी और कमलेश अवस्थी के संपादन में वाणी प्रकाशन से  छप कर आ गई है।
अगर नयी कविता की तर्ज पर नयी आलोचना भी होती तो विवेक के रंग पुस्तक उसका मुखपत्र होती - विश्वनाथ त्रिपाठी
इस मौक़े पर विश्वनाथ त्रिपाठी ने देवीशंकर अवस्थी के साथ बिताये संस्मरणों को साझा करते हुए कहा कि यह सम्मान समारोह हिंदी साहित्य के इतिहास में धँस चुका है। हमने पत्नी के लिए जिन विशेषणों को सुना है उसमें एक शब्द अर्धांगिनी भी है भाभी कमलेश अवस्थी ने सत्यनिष्ठा और कर्मठता से इस शब्द को सार्थक किया है। इतनी कम उम्र में बाबू देवीशंकर अवस्थी जितना लिख गए यह किसी आश्चर्य से कम नहीं, और जिस तन्मयता से उनकी रचनाओं को सहेजा गया उन्हें सुरक्षित रखा गया इसके लिए  भाभी साधुवाद की हकदार हैं।
हिंदी साहित्य के सुधी पाठक जानते हैं कि हिंदी साहित्य में भूमिकाओं के रूप में महत्त्वपूर्ण साहित्य का सृजन हुआ है । विवेक के रंग सन् 1964 में प्रकाशित हुआ है इसका नाम ही बताता है कि अवस्थी जी ने कितना परिश्रम किया होगा। इसकी भूमिका को पढ़ने से ही मालूम हो जाता है कि उनकी अपने समकालीन साहित्य पर कितनी जबरदस्त पकड़ थी। अगर नई कहानी और नयी कविता की तर्ज पर नयी आलोचना भी होती तो विवेक के रंग नामक पुस्तक उसका मुखपत्र होती।
एक आलोचक की पहचान यह भी है कि वह अपने समय की अच्छी और खराब रचना को अलग करें। यह रेखांकित किया गया है कि रचना को आलोचना से अनुकूलित होना चाहिये । यह बहुत सुखद है कि पश्चिम की नयी समीक्षा का प्रभाव होने के बावजूद देवीशंकर अवस्थी की आलोचना पश्चिम की नयी समीक्षा के दबाव को अपने ऊपर नहीं चढ़ने देती। इस सब से लगता है कि वो एक बहुत बड़ी तैयारी कर रहे थे। मुझे लगता है कि देवीशंकर अवस्थी एक मैराथॉन रेस के लिए खुद को तैयार कर रहे थे और अगर आज वो जीवित होते तो आलोचना संसार में एक चमकता हुआ नाम होते।
विश्वनाथ त्रिपाठी ने मॉडल टाउन की स्मृतियों को याद करते हुए कहा कि जब वो मॉडल टाउन में रहते थे तब हमारा रोज ही मिलना होता था। मेरे मन में कभी कभी आता है कि मैं मॉडल टाउन की स्मृतियों के बारे में लिखूँ वो अच्छा बुरा हो तो हो, पर रोचक जरूर होगा।
आलोचक साहस और निर्भीकता को किसी भी कारण से कभी  न छोड़े – अशोक वाजपेयी
कवि आलोचक अशोक वाजपेयी ने कहा कि अब कम ही लोग बचे हैं जो देवीशंकर अवस्थी से मिले हैं या जिन्हें उनके साथ का सौभाग्य मिला है। उन्होंने मज़ाकिया लहज़े में कहा कि तब मैं यहाँ नया नया आया था और सैंट स्टीफन कालेज का छात्र था। तो ऐसे समय में अवस्थी जी के इशारे पर या वो इशारा न भी करें तब भी उनके घर चला जाया करता था जहाँ एक निशांत गोष्ठी हुआ करती थी जिसका नियम था कि जो लोग उस गोष्ठी में हैं उसकी कोई प्रशंसा नहीं करेंगे और जैसे ही कोई व्यक्ति उस गोष्ठी से जाएगा उसकी निन्दा शुरु कर देंगे तो लोग वहाँ से जाने में संकोच करते थे।
उन दिनों मैंने एक समीक्षा लिखी थी रघुवीर सहाय पर तब मेरी उम्र उन्नीस बरस थी वह समीक्षा कृति में छपी थी  और तब हिंदी साहित्य में हमारा काहे का स्थान था उसी दौरान अवस्थी जी ने फोन किया और पूछा कि विवेक के रंग में तुम्हारी कौन सी समीक्षा शामिल करें तब मैंने रघुवीर सहाय वाली समीक्षा के लिए कह दिया तब उन्होंने बताया कि रघुवीर सहाय से भी उनकी बात हुई है रघुवीर सहाय ने भी कहा है कि अशोक वाली समीक्षा ले लीजिये। इस तरह विवेक के रंग में मैं उम्र में सबसे छोटे  समीक्षक के रूप में शामिल हुआ। बहरहाल  आलोचक का एक काम यह भी है कि वो साहस और निर्भीकता को किसी भी कारण से कभी  न छोड़े। चारू चंद्रलेख की जैसी समीक्षा उन्होंने की वह निर्भीकता और साहस का काम है क्योंकि यह समीक्षा उनके गुरू हजारीप्रसाद द्विवेदी  की पुस्तक की समीक्षा थी। हर बार की तरह उन्होंने यह बात पुनः दोहराई इतने सालों में भी कमलेश जी ने कभी भी ज्यूरी के निर्णय में हस्तक्षेप नहीं किया ।
देवीशंकर अवस्थी ने अपनी आलोचना के सेतु परंपरा और समकालीनता से बनाए हैं - रेखा अवस्थी
इस मौके पर रेखा अवस्थी ने देवीशंकर अवस्थी रचनावली के संपादन के दौरान मिले अनुभव को साझा करते हुए कहा कि मैंने इस रचनावली की भूमिका की शुरुआत ही निराला की प्रसिद्ध पंक्ति क्या कहूँ आज जो नहीं कही से की है, हर बार यही लगता था कि क्या कहूँ आज जो नहीं कही।  इस रचनावली का प्रकाशन वास्तव में आप सबके सहयोग और भाभी श्रीमती कमलेश अवस्थी की तपस्या का फल है मैं तो केवल साधन मात्र हूँ भाभी ने कैसे एक एक चीज़ संभाल कर रखी, हमारे घर में  आज भी1957-58 के कागज़ और पैम्फ्लैट तक मौजूद हैं, ये सब भाभी(कमलेश अवस्थी) की मेहनत का प्रतिफल है।
हमारे बड़े भाई देवीशंकर अवस्थी ने हमें कैसे उस अभावग्रस्तता में संभाला होगा कबीर ने कहा था कबीर बादल प्रेम का हम पर बरसा आई, अंतर भीगी  आत्मा हरी भरी बनराई।  उनका संरक्षण अगर हमें न मिलता, उनकी मेहनत, उनके सरोकार हमने देखे उनका प्रेम और जीवन उनकी कर्मठता हमारे लिए प्रेरणा और शक्ति है। देवीशंकर अवस्थी रचनावली के प्रकाशन के दौरान मिले अनुभवों का साझा करते हुए रेखा अवस्थी ने बताया कि इस रचनावली में 2232 पृष्ठ हैं समस्या यह थी कि इस रचनावली को कैसे संपादित करें कैसे वर्गीकृत करें। मेरी कोशिश ये रही कि लेखन का ऐतिहासिक क्रम इस रचनावली में जरूर उभरे, इसलिए मैंने उनके द्वारा संपादित सभी किताबें विवेक के रंग आदि देखीं कि वे कैसे पुस्तकों का संपादन करते थे उनकी संपादकीय दृष्टि ने भी मेरी रचनावली के संपादन में मदद की। मैंने आलोचना के लेखों का विधागत और तिथिक्रम का ध्यान रखा मैंने ये भी ध्यान रखा कि उनकी आलोचना और लेखों का जो व्यावहारिक पक्ष है वह भी साथ साथ चलता रहे। इस सबमें मुझे अशोक वाजपेयी से बहुत मदद मिली। वो हमारे सलाहकार रहे।
इस रचनावली के सहयात्री बहुत सारे हैं। मैंने इस रचनावली में उपन्यास, आलोचना, कहानी, कविता, और नाटक नामक विधा के साथ ही उनके समीक्षा लेखों को साथ रखा। इस तरह एक खण्ड में पाँच उपखण्ड रखे हैं। इस अवसर पर श्रीमती रेखा अवस्थी ने सन 1954 में लिखी देवीशंकर अवस्थी की कविता लेना, देना,और जीना भी श्रौताओ के साथ साझा की।
जीवन की अशेष संभावनाएँ चुके नहीं
मन के विकार ये यूहीं मिटे नहीं
निर्धूम अग्नि से निस्पंद वायु से निस्तब्ध ताल से
निस्तब्ध स्थिति प्रज्ञ से हमको होना नहीं।
ये सही है कि पूर्व युगों से लेना है हमें
और आगे आने वाली पीढियों को बहुत कुछ देना है हमें
फिर भी हम भूलें क्यों
लेना है और देना है हमें जीवित वर्तमान से।
इस रचनावली में हमने देवीशंकर अवस्थी की संपादित पुस्तकों की भूमिकाएँ, समय समय पर लिखी टिप्पणियाँ और साथ ही कलयुग के अंकों को स्कैन करके इस रचनावली में प्रकाशित किया गया है। एक लेख जो प्रेमाभक्ति पर है वो अब तक छपा नहीं था। उसे हमने इस रचनावली में स्थान दिया है। अवस्थी जी के शोध प्रबंध की प्रासंगिकता आज के दौर में और अधिक बढ़ गई है जब स्त्री विमर्श और जेंडर की समझ के दायरे सिकुड़ते जा रहे हैं ऐसे समय में अवस्थी जी का शोध प्रबंध खासकर उसमें मधुरा भक्ति वाला लेख जरूर पढ़ा जाना चाहिए। इसलिए मुझे लगता है कि देवीशंकर अवस्थी ने अपनी आलोचना के सेतु परंपरा और समकालीनता से बनाए हैं इनके बीच से उन्होंने अपना रास्ता बनाया है।

पुरस्कृत आलोचना पुस्तक समाजशास्त्रीय और शैलीवैज्ञानिक दोनों प्रकार की आलोचना पद्धतियों के सहारे कविता के पाठ का द्वार खोलती है।- निर्णायक मंडल
हिंदी में किसी एक कविता पर पूरी पुस्तक लिखने का चलन प्रायः नहीं रहा है। इस दृष्टि से मुक्तिबोध की सबसे ज्यादा चर्चित कविता अंधेरे में पर इतने विस्तार और इतनी गंभीरता से पूरी पुस्तक लिखकर श्री अमिताभ राय ने हिंदी आलोचना में जो नई शुरुआत की है, आशा की जा सकती है कि प्रबुद्ध पाठकों का ध्यान वह अवश्य आकृष्ट करेगी। यह बात प्रो. राजेंद्र कुमार ने अमिताभ राय को सम्मान देते हुए उनकी प्रशस्ति में कही।
 23वां देवीशंकर अवस्थी सम्मान अमिताभ राय को प्रदान करते हुए उन्होंने आगे कहा कि यह पाठ-केंद्रित आलोचना का एक महत्त्वाकांक्षी प्रयास है। पाठ की निर्मिति कैसे होती है, पाठ को खोलने की प्रविधियाँ क्या क्या हो सकती हैं, इन प्रश्नों से जूझते हुए इस पुस्तक का लेखक अंधेरे में कविता के पाठ को इस तरह विश्लेषित करता है कि इस विश्लेषण के बहाने मानव सभ्यता की अब तक की यात्रा के विभिन्न पड़ावों को रेखांकित किया जा सके।
यह आलोचना पुस्तक समाजशास्त्रीय और शैलीवैज्ञानिक दोनों प्रकार की आलोचना पद्धतियों के सहारे कविता के पाठ का द्वार खोलती है। यहाँ तक कि लंबी कविता से पूर्ण विराम, अर्द्ध विराम और विस्मयबोधक चिह्न वगैरह भी कविता के पाठ को खुलने देने में  कितनी मदद करते हैं, इस संबंध में भी श्री अमिताभ राय ने अपने विश्लेषण में कई सार्थक संकेत किए हैं।
अस्तु, श्री अमिताभ राय को उनकी पुस्तक सभ्यता की यात्राः अंधेरे में पर वर्ष 2017 का देवीशंकर अवस्थी सम्मान सर्वसम्मति से दिया जा रहा है।
आलोचना का मुख्य कार्य ढ़ाँचे का निर्माण करना है- अमिताभ राय
अमिताभ राय ने अपने वक्तव्य में कहा कि मुझे ये बार बार महसूस होता है कि यह पुरस्कार मुझे इसलिए दिया गया कि मेरी पुस्तक का संबंध मुक्तिबोध से जुड़ा हुआ था मैं स्वयं को बहुत अव्यवस्थित इंसान मानते हूँ जबकि अपने इर्द गिर्द सभी लोगो को बेहद व्यवस्थित पाता हूँ।
इस अवसर पर आलोचना और अंतःकरण विषयक गोष्ठी भी आयोजित की गई इस विषय पर अमिताभ राय ने अपना वक्तव्य देते हुए कहा कि इसे मैं विषय की तरह नहीं प्रश्न की तरह ले रहा हूँ। यह प्रश्न इसलिए उभरता है क्योंकि हम आज भी आलोचना को एकायामी रूप में एक शास्त्रीय विधा के रूप में या अकादमिक प्रणाली के रूप में देखते हैं।
वस्तुतः आलोचना इंसान का बिल्कुल बुनियादी गुण है बच्चे से लेकर वृद्ध तक में आलोचकीय प्रवृत्ति को देखा जा सकता है। जब हम आलोचना की बात कर रहे होते हैं तो अकसर रचना को छोड़ देते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि हर बड़ी और सार्थक कृति अपने युग की सबसे बड़ी आलोचना होती है। तब सवाल उठाना चाहिए कि आलोचना रचना है कि नहीं।  वास्तव में अकादमिक दुनिया  का जो सार्थक हिस्सा है, वह समाज के लघु वृहत वृत्तों से ही अपने लिए पोषक तत्त्व ग्रहण करता है न कि रचना से।
अमिताभ ने आलोचना का मुख्य कार्य ढ़ाँचे का निर्माण करना माना जो बहुत ठोस होता है जिसे अनुपम और विचित्र शब्दावली के माध्यम से नहीं दर्शाया जा सकता। यह ढ़ाँचा स्वायत्त न होकर समाज, और उसकी संस्कृति परंपरा की एक सघन संरचना है। इनमें से प्रत्येक की सिद्धि एक दूसरे के साथ ही है। उनका मानना है कि इस ढ़ाँचे के निर्मित हो जाने पर हम इसके अवयवों पर बात नहीं करते । इसी तरह हम रचना के पूरा हो जाने पर उसके निर्माण में सम्मिलित तत्त्वों की अलग अलग चर्चा नहीं करते।
अपने वक्तव्य के अंत में उन्होंने कहा कि रचनाकार के लिए नैतिकता और मानवीयता आवश्यक है वैसे ही आलोचक के लिए भी नैतिकता आवश्यक है। यह आवश्यक है क्योंकि हम जिस समाज में रहते हैं जिस परिवार में रहते है वह वास्तविक धरातल पर न्यूनाधिक सामन्ती ही है। एक सामाजिक के रूप में मानवीयता के पक्ष में खड़े होने के लिए हमें निरंतर अपने परिवार और समाज की सामंती जकड़नों को धकेलना पड़ता है। यह मानवीय आवश्यकता और नैतिकता हमें सत्य के पक्ष में खड़े होने का साहस देती है। अन्यथा सामंती जकड़नों में पूँजीवादी वीभत्स में और अपने निजी स्वार्थों के वशीभूत हम अक्सर जीबन में समझौते करते चलते हैं। 
एक ऐसी सर्विलांस व्यवस्था है जो हमारे भीतर प्रत्यारोपित हो गई है - अच्युतानंद मिश्र
उन्होंने वर्तमान संदर्भ सापेक्षता में अपना वक्तव्य देते हुए कहा कि आज जब हम आलोचना और अंतःकरण की बात कर रहे हैं तब हमें यह देखना होगा कि आलोचना को साहित्य तक सीमित करके नहीं देखा जा सकता। समय को केवल एक ही धारा में देखते रहने के आदि होने के बजाय हमें यह भी समझना होगा कि इसके बीच में जो ब्रेक पॉइंट्स आते हैं वहाँ से इसे कैसे देखा जाए। आलोचना पर बात करते हुए उन्हें लगता है कि आलोचना की शुरुआत आधुनिकता के उदय के साथ होती है। इस तरह से देखें तो आलोचना का प्रस्थान बिंदु फ्रांसीसी क्रांति यानि 1789 के आस पास से परिलक्षित होता है। आचार्य शुक्ल ने भी कविता पर बात करते हुए काव्यशास्त्रीय चिंतन में काव्यचिंतन को लेकर जो तमाम तरह की बातें कही थीं शुक्ल जी उन सब पर बात करते हैं।
शुक्ल जी की खासियत है कि वे कविता को अंतर्आनुशासनिक तर्ज पर मसलन कविता को मनोविज्ञान आदि अन्य विषयों से संबद्ध करते हुए देखते हैं। यह आधुनिक आलोचना की एक प्रवृत्ति थी। अच्युतानंद ने आगे कहा कि आप देखें एडवर्ड सईद ने संगीत पर किताब लिखी, वाल्टर बैंजामिन का एक लेख है द वर्क ऑफ आर्ट इन द एज ऑफ मैकेनिकल रिप्रोडक्शन(यांत्रिक पुनर्उत्पादन के युग में कला का काम) जिसमें वे इस बात पर बल देते हैं कि कैमरे के आने के बाद रचनात्मकता कैसे प्रभावित हुई। आलोचना के संदर्भ में भी यह बात लागू होती है।
कांट के हवाले से उन्होंने कहा कि सामंतवाद और पूंजीवाद के बीच विभाजक रेखा समय का बोध है। समय का बोध होने से एक नए तरह के समाज का निर्माण होता है मुझे लगता है कि अट्ठारहवी शताब्दी के तमाम बिंदु (स्वतंत्रता, समानता आदि) आलोचना से संबद्ध है। जो कुछ भी तार्किक है वह मानवीय चिंतन के दायरे में आता है। मुझे लगता है कि यहाँ से आलोचना का त्रिकोण बनता है। जिसमें एक तरफ बाहरी दुनिया है, एक तरफ आंतरिक और दूसरी तरफ हमारा व्यक्तित्व है। मुक्तिबोध संभवतः हिंदी के पहले लेखक हैं जो इस त्रिकोण  की बुनियाद को अपने चिंतन में शामिल करते हैं।
 उन्होंने दोस्तोवस्की के उपन्यास के हवाले से कहा कि जैसे उनके एक उपन्यास के पात्र को यह महसूस होता कि कोई आँखें उसे घूर रहीं हैं वह पीछे मुड़कर देखता और किसी को नहीं पाता है। उसे लगता है ये आँखें उसकी पीठ पर चिपकी हुई हैं। अच्युतानंद आधुनिक कैमरे की इजाद को इस दृश्य से जोड़ते हैं और कहते हैं कि यह कैमरे की एक ऐसी सर्विलांस व्यवस्था है जो हमारे भीतर प्रत्यारोपित हो गई है  और यही प्रत्यारोपण हमारे पूरे अंतःकरण को बाँट देता है। जिसकी सबसे खतरनाक बात यह है कि हम खुद पर ही निगरानी रखने लगते हैं। इस सर्विलांस सिस्टम से हमारा अंतकरण समस्याग्रस्त हो गया है। दरअसल कैमरा सिर्फ आभासी है दरअसल हम स्वयं ही खुद को देख रहे हैं। कैमरे की निगाह से कोई नहीं देख रहा। अच्युतानंद इस चुनौती की ओर इशारा करते हैं कि आज हम आलोचना, आलोचनात्मक विवेक, अंतकरण और अंतकरण की आवाज़ को कैसे इन तमाम तरह की दिक्कतों के बावजूद सुरक्षित रख सकते हैं।
उन्होंने मार्क्स के हवाले से कहा कि कार्लमार्क्स ने एक बहुत सुंदर बात कही थी कि मनुष्य के पास जो शक्ति है वह है उसके हाथ और उसकी संवाद करने की ताकत। अगर हम इस संवाद को एक नई तरह से विकसित करें तो हम कुछ सकारात्मक कर सकते हैं।
आलोचना विवेक और संवेदना का योग है - राजेंद्र कुमार
अपने वक्तव्य से पहले प्रो. राजेंद्र कुमार ने बताया कि जब वे डीएवी कॉलेज में बीएस. सी कर रहे थे तब देवीशंकर अवस्थी वहाँ अध्यापक हो चुके थे उन्होंने अवस्थी जी की स्मृति को नमन किया और अमिताभ को बधाई देते हुए अपने वक्तव्य में कहा कि आलोचना और अंतःकरण नामक विषय में अंतःकरण शब्द उन्हें परेशान करता है, उन्होंने सवाल कि आखिर क्या अर्थ लिया जाए इसका। अगर इसका संबंध विवेक से माने जिसका अवस्थी जी कई जगह इस्तेमाल करते हैं। तब सवाल उठता है कि क्या विवेक और अंतःकरण एक ही चीज़ है। अपने वक्तव्य में वे इस बात को इंगित करते हैं कि आज विवेक एक तरह की चालाकी बन गया है अब लोगों द्वारा समय और अवसर को देखकर विवेक का सहारा लिया जाता है। अगर विवेक को चालाकी न माने तो अंतकरण शब्द विवेक का समानार्थी न होने के बावजूद भी इससे संबद्ध है। आलोचक को समझना चाहिए कि उसके विवेक के तकाज़ों की तरह ही उसके अंतःकरण के तकाज़े भी महत्त्वपूर्ण हैं।
आलोचना में आलोचक का विवेक और अंतकरण दोनों ध्वनित होने चाहिए हम सभी के भीतर एक आंतरिक संकाय मौजूद रहता है जो हमें गलत और सही का निर्णय लेने में मदद करता है। मिल्टन की एक बड़ी मशहूर स्पीच है जिसमें उन्होंने जितने भी प्रकार की स्वतंत्रताएँ हो सकती हैं उनमें सबसे बड़ी स्वतंत्रता की परिभाषा देते हुए तीन चीज़ो को प्रमुख माना है। जानना, कहना, और बहस करना। यानि जानने, कहने और बहस करने की स्वतंत्रता को मिल्टन सर्वोपरि मानता है। कविता के संदर्भ में भी यह बात कही जा सकती है और यह आलोचना के लिए भी उतनी ही जरूरी है। इसलिए जब भी हम अंतकरण के हवाले से आलोचना पर बात करें तो यह जरूरी हो जाता है कि अंतकरण की पहचान की जाए। इसके तीन पक्ष हो सकते हैं। पहला रचना के अंतकरण की पहचान, दूसरा उस रचना के रचयिता के अंतकरण की पहचान,  और तीसरा है आलोचना के अंतकरण की पहचान। इन तीन स्तरों पर विचार करना चाहिए  साही जी ने भी कहा है कि रचना के अंतकरण की पहचान के साथ अपनी संवेदनात्मक ग्रहणशीलता का मेल करना होता  है।
आज की आलोचना का यह दुर्भाग्य है कि आलोचना,  रचना हमें क्या सौंपना चाहती है इसका पता नहीं दे पा रही। आलोचक के आग्रह, उसकी प्रतिबद्धता, उसकी विचारधारा का पता देने में ही अधिकांश आलोचना खत्म हो जाती है, यह हमारे समय की विडंबना है। रचनाकार जो रचना में दे रहा है यह आवश्यक नहीं है कि जो रचनाकार की सीमा हो वही रचना की सीमा भी बन जाए। तुलसी के संदर्भ में भी यह देखा जा सकता है। तुलसी ने शंबूक वध का प्रकरण निकाल दिया जबकि वाल्मीकि रामायण मे ये है। संभवतः यह प्रकरण उनके अंतकरण की व्यापकता की वजह से नहीं आ सका हो। ताल्सटाय के हवाले से राजेंद्र कुमार ने कहा कि ये कोई जरूरी नहीं है कि रचनाकार का व्यक्तित्व जैसा है वैसी ही चींज़े उसकी रचना में भी आ जाए, ऐसा नहीं है।
आलोचना और आलोचक के अंतकरण के सवाल को उठाते हुए प्रो. राजेंद्र कुमार ने आगे कहा कि  इसके लिए दो बातें जान लेनी जरूरी हैं। पहला, आलोचना एक बौद्धिक कार्यवाही होने के बावजूद भी संवेदनहीन नहीं होती आलोचक का अपना अंतकरण इस संवेदना को बरकरार रखता है। अगर कोई उन्हें कहे कि आलोचना की परिभाषा कीजिए तो वे कहेंगे कि आलोचना विवेक और संवेदना का योग है और दूसरी बात यह कि आलोचना में बहुमत की अवधारणा जैसी कोई चीज़ नहीं होती। मलयज की डायरी के हवाले से राजेंद्र कुमार ने कहा कि आलोचना के प्रत्येक क्षण में मैं और अकेला होता जाता हूँ इससे मलयज आलोचना में स्वतंत्र विवेक के साथ आलोचनात्मक ईमानदारी को बनाए रख सके चाहे बहुमत कुछ कहता हो मलयज ने अपने अंतःकरण की सुनी। हमें सोचना होगा कि एक सार्थक आलोचना में अंतकरण की आवाज को कैसे बनाए रखा जाए।
साहित्य के अंतकरण से पहले आलोचना स्वयं के अंतकरण की पहचान करे - नंदकिशोर आचार्य
नंदकिशोर आचार्य ने अपना अध्यक्षीय वक्तव्य से पहले अमिताभ राय को बधाई दी और कहा कि देवीशंकर अवस्थी जी की स्मृति के बहाने आलोचना की प्रतिभाओं को खोजने का जो काम कमलेश अवस्थी और उनके परिवार ने किया इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं।
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में उन्होंने कहा कि अंतकरण की पहचान करने के लिए ही साहित्य काम नहीं करता बल्कि साहित्य उसकी निर्मिति भी करता है। सवाल है कि आलोचना का काम क्या है उसका कार्य है साहित्य में रचना का मूल्याँकन और साहित्य के अंतकरण की पहचान करना । इससे पहले की वह साहित्य के अंतकरण की पहचान करे उसे स्वयं के अंतकरण की पहचान करनी चाहिए।
अंतःकरण को नैतिकता से संबद्ध मानते हुए नंदकिशोर आचार्य ने कहा कि हमारी परंपरा में दो तरह की नैतिकता मानी गई है। एक सदाचार और दूसरी लोकाचार से संबंधित है। अहल्या और द्रौपदी का हवाला देते हुए उन्होंने शास्त्रगत नैतिकता और लोकगत नैतिकता की बात की। अन्ना कैरेनीना का उदाहरण देते हुए नंदकिशोऱ आचार्य ने कहा कि इस उपन्यास को पढ़ते हुए हमारी सारी सहानुभूति अन्ना के साथ जाती है कैरेनिन के साथ नहीं। पास्तरनाक भी डॉ. जियागो में इस शास्त्रगत नैतिकता के पक्ष में खड़े नहीं होते। यही नहीं जैनेन्द्र गाँधीवादी होने पर भी अपने अंतकरण से मृणाल के चरित्र का गठन करते हैं। जबकि यह पात्र गाँधीवाद के सिद्धांत के अनुकूल नहीं है। इसी तरह धनिया के चरित्र को देखें इसका गठन भी लेखक अपने अंतकरण से इन चरित्रों का निर्माण करता है।
लेखक किसी रणनीतिकार की तरह से अपनी नैतिकता तय नहीं करता इसलिए रचनाकार को भी इसका खयाल रखना चाहिए। प्रसंगवश नैतिकता कई बार विरुद्ध चली जाती है। मुक्तिबोध जैसा बड़ा लेखक भी रणनीतिगत नैतिकता का शिकार हो जाता है। स्टालिन के नरसंहार के प्रति मुक्तिबोध शांत रह जाते हैं। वहाँ उनका अंतकरण मूलभूत नैतिकता के विरुद्ध दिखाई देता है। महात्मा गांधी ने अपने अंतकरण  से कई बार ऐसे निर्णय लिए जिससे बहुत सारे लोग सहमत नहीं थे उन्होंने बहुत लोगों की आलोचना सही, पर अपने अंतकरण का भी खयाल रखा। आलोचना का मुख्य काम रचना को किसी एक नजरिये से या एकांगी रुप में देखने में नहीं बल्कि रचना को उसकी संश्लिष्टता में देखने का प्रयास करने में निहित है।
इस मौके पर अरुण माहेश्वरी ने रचनावली के प्रकाशन में रेखा अवस्थी, मुरली बाबू, और कमलेश जी को धन्यवाद दिया कि उन्होंने वाणी प्रकाशन में विश्वास जताया और उन्हें इसके प्रकाशन का बृहद काम सौंपा।
कार्यक्रम के आरंभ में इस वर्ष दिवंगत हुए साहित्यकारों को श्रद्धांजलि दी गई ।
                                                                                                                       
प्रस्तुति – तरुण गुप्ता