शनिवार, 20 नवंबर 2010

लोहिया का लेखन आपको लोहियावादी नहीं, बल्कि बुद्धिवादी बनाता है..

यह साल लोहिया का शताब्दी वर्ष है। साल के शुरु(फरवरी २०१०) मे साहित्य अकादमी ने लोहिया पर तीन दिवसीय सेमिनार का आयोजन करवाया था जिसमे समाजवादियों का एक पूरा जत्था मौजूद था देशभर से समाजवादी चिंतकों(लोहियावागदियों को इकट्ठा किया गया था। मस्तराम कपूर, कृष्णदत्त पालीवाल, रमेशचंद्र शाह, हरीश त्रिवेदी, नामवर सिंह, अनामिका, प्रेम सिंह और ना जाने कितने ही लोग थे इन लोगों में ऐसे बहुत लोग थे जो अपने विचारों से समाजवादी नहीं थे लेकिन ऐसा कोई नहीं था जो लोहिया की बौद्धिकता और उनके लेखन का क़ायल न हो। कुल मिलाकर यह एक सफल सेमिनार था जहाँ लोहिया के प्रशंसकों ने पर्चे पढे थे रमेशचंद्र शाह का पर्चा तो बहुत विश्लेषणपरक था। वह उन लोगों को ज़रूर पढ़ना चाहिये जिन्हें लोहिया में सिर्फ कमिया ही कमिया नज़र आतीं हैं। लोहिया पर वह सिर्फ शुरुआत थी उसके बाद अकार सामयिक वार्ता, ने लोहिया पर विशेषांक निकाला। अकार के सिलसिले में प्रो. आनंद कुमार ने बेजोड़ काम किया है। डॉ प्रेम सिंह के संपादन में युवा संवाद का अगला अंक लोहिया विशेषांक होगा।

खैर इन बातों को यहाँ संक्षेप में रखने का मक़सद उस कोशिश से आपको परिचित करवाना था जो इन दिनों लोहिया के प्रशंसकों और गाँधी शांति प्रतिष्ठान द्वारा अंजाम दी जा रही है। आज(२० नवंबर २०१०) से २२.११.२०१० तक लोहिया के संस्कृति, कला, साहित्य व भाषा विषयक लेखन पर कार्यशाला आयोजित की जा रही है। आज इस कार्यशाला का पहला दिन था जिसमें लोगों की संख्या ने बेशक़ निराश किया लेकिन यह निराशा प्रो.आनंद कुमार के वक्तव्य के बाद आशा में बदल गयी। रही सही कसर सी.एस.डी.एस में फेलो मेधा ने लोहिया के लेखन में स्त्री विमर्श से संबंधित अपने वक्तव्य में पूरी कर दी।
लोहिया के संस्कृति विमर्श पर बोलते हुए प्रो. आनंद कुमार ने कहा कि लोहिया का लेखन हमें अपनी दिमागी खिड़कियों को खोलने की सीख देता है और वे हमें तुलसी और कबीर की ओर ले जाते हैं। मार्क्सवाद की सीमा बताते हुए उन्होंने कहा कि प्रतिक्रिया के लिए मार्क्सवाद पहले प्रतिकूल परिस्थितियों के हद से गुज़रने की छूट देतें है यानि जब तक परिस्थितियाँ पक नहीं जाएगी तब तक पूँजीवादियों के साथ चलेंगें। उन्होंने यहाँ तक कहा कि लोहिया को पढने के बाद आप लोहियावादी बने या न बने लेकिन यह तय है कि उनका लेखन आपको बौद्धिक जरूर बना देगा। आप विमर्श के साथ खुद को खड़ा पाएंगे।
मेधा ने लोहिया के स्त्री-पुरुष संबंधी लेखन पर विचार करते हुए कहा कि लोहिया के लिए स्त्री एकायामी नहीं है उसके कई डाइमेंशन हैं यही कारण है कि लोहिया स्त्री-पुरुष संबंध को अधिक आनंदपूर्ण और रचनात्मक बनाने की बात करते हैं। स्त्री-पुरुष के बीच वे एक सखा-सखी के संबंध जैस कृष्ण और कृष्णा(द्रौपदी) का था की बात करते हैं। सावित्री से ज्यादा महत्वपूर्ण वह द्रौपदी को मानते हैं जबकि हमारी आस्था में सावित्री ज्यादा श्रेष्ठ मानी गयी थी। वह इस दुर्भावना को तोड़ते हैं। साथ ही स्त्री के शोषण में धर्म की भूमिका को बेहतर ढंग से समझते है.।
इससे पहले डॉ प्रेम सिंह ने लोहिया के लेखन पर मौलिक चिंतन की संभावनाओं की खोज पर बल दिया था। इस कार्यशाला का सबसे बेहतरीन समय वह रहा जब एक शोधार्थी(सत्यप्रकाश) ने लोहिया के लेख राम,कृष्ण और शिव पर अपना विश्लेषणपरक वक्तव्य दिया सही रूप में उसे वक्तव्य भी नहीं कहना चाहिये वास्तव में वह उस नौजवान की जिज्ञासाएँ थीं जो लोहिया के लेखन से रूबरू होते हुए पाठक के मन स्वत ही जगह बना लेती हैं लेकिन शर्त यही है कि लोहिया मसखरी की जगह गंभीरता की मांग करते हैं। सत्यप्रकाश ने वास्तव में उस गंभीरता का परिचय दिया था। मैं अपनी स्मृति के आधार पर उसके कथनों को लिखने की अपेक्षा आपके साथ उसकी पूरी रिकॉर्डिंग शेयर करना पसंद करूँगा।
कुल मिलाकर आज का दिन लोहिया के लेखन को समझने में ही बीता। इसने पूरे माहौल को काफी गंभीर बना दिया था लेकिन इस गंभीरता को होस्ट की तरफ से शाम को दोबारा दी गई चाय और हिरण्य हिमकर के आहंग(एक कविता कोलाज़) ने बोझिल नहीं होने दिया। कल फिर उस बहसनुमा माहौल में जाना होगा लेकिन आज कुछ ज्यादा पढकर जाऊँगा। ताकि मैं भी सक्रियता दिखा सकूँ।

रविवार, 31 अक्तूबर 2010

वाकई वो बहुत दुखद समय था..

मेरे घर के बराबर में एक छोटी सी पार्कनुमा जगह है जहाँ अक्सर अंकल जी टाइप कुछ लोग बैठे मिलते है वो अक्सर समसामयिक मुद्दों पर बात करने के लिए लालायित रहते हैं और अगर उन्हें कोई ऐसा बन्दा मिल जाए जो थोड़ा बहुत पढ़-लिख रहा हो और उनके पास कम बैठता हो तो वो ऐसे मौके को गँवाये बिना उसे अपने पास बुला लेते है और सुबह पढ़े गए अखबारो की भड़ास उस पर निकालते हैं मैं ये बात जानता था लेकिन तब भी उनके पास बैठना मुझे अच्छा लगता था क्योंकि वो बहुत भावुक थे और उनकी भावुकता में एक ईमानदारी थी जिसका मैं हमेशा से क़ायल रहा हूँ (आप- कुछ घायल भी कह सकते हैं) खैर तो कल भी यही हुआ मैं किसी काम से निकल रहा था और उन्होंने आवाज़ दी मैंने अनसुना किया उन्होंने फिर दोहराया और फिर वही........ मैं अपने आप को नहीं रोक सका। बाते चलीं-- डी.टी.सी. की किराया वृद्धि, जयपुर में लगी आग, खजूरी वाला केस......................, और क्या चल रहा है जैसे बातों से होकर।
यक-ब-यक मुद्दा पच्चीस साल पहले चला गया। तुम्हें पता है पच्चीस साल पहले क्या हुआ था? मुझे वल्ड कप का ख्याल आया और मेरी आँखों में कपिल देव की वल्ड कप उठाए तस्वीर घूम गयी लेकिन मैं चुप रहा क्योंकि उनके इस प्रश्न में खुशी नहीं एक दुख-सा कुछ दिख रहा था। कुछ सैकेंड एक अजब सी खामोशी पसर गयी थी जैसे वो मेरे जवाब का इंतज़ार कर रहे हों और मैं उनके। आज ही के दिन इंदिरा की हत्या हुई थी उन्होंने इंदिरा ऐसे कहा जैसे वो उनके घर की कोई सदस्या हो जिससे उन्हें गहरा लगाव[Image] रहा हो। कोई माननीय जैसा संबोधन नहीं।------ क्यों? मेरे मन में ये सवाल उठ रहा था। मैं चुप रहा आज में उनसे बहस नहीं करना चाहता था। फिर एकाएक एक दूसरे अंकल जी ने कहा बेटा हमारे लिये तो भगवान थी वो। अब में चुप नहीं रह पाया मैंने कहा अंकल जी उन्होंने इमरजेंसी लगवाई, अपने बेटे को नसबंदी का निरंकुश अधिकार दे दिया ......वो सब ठीक है पर तुझे पता है जहाँ आज तू बैठा है जहाँ तू रहता हैं वो सब उसी की बदौलत हैं। मैंने ऐसा कुछ अपने पापा से पहले भी सुन रखा था। पता है हम लोग पदम नगर, जहां तेरी वो हिंदी वाली...क्या कहते हैं उसे, वो जो अंधा मुगल के पास है(हिंदी अकादमी-मैंने कहा) हां वही, तुझे पता है अशोक(मेरे पापा) अंधा मुगल में ही पढ़ता था वहीं हम सबकी झुग्गियाँ थीं सब गरीबी हटाओ के नाम पर गरीबों को हटा रहे थे लेकिन उसने हमें पच्चीस-पच्चीस ग़ज़ के मकान दिये जहाँ आज हम रहते हैं और ये जो मंगोल पुरी. जहाँगीर पुरी, सुल्तान पुरी नंद नगरी जैसी कॉलोनियाँ आज हैं ये सब उसी की देन हैं तभी तो यहाँ से कॉग्रेस ही ज्यादातर जीतती [Image]हैं। मैंने कहा- हत्या के बाद इतने लोगों को मार देना और दंगे की आड़ में अपनी हवस पूरी करना। क्या ये बहुत शाबाशी का काम था? क्या आप जैसे कई लोग उनमें शरीक़ नहीं थे .... ? नहीं नहीं, इसका मतलब तुम हक़ीक़त से वाकिफ नहीं हो तुम्हें पता है हम लोगों ने कई सिक्खों को अपने घरों में जगह दी थी उनसे हमारी आज भी मुलाक़ात होती है उन लोगों ने अपने बाल तक कटवा लिये थे उस दौरान.। बड़ा खतरनाक संमय था वो।

दरअसल यहाँ से सटे बोर्डर के इलाकों में ये कांड ज़्यादा हुआ था और ये जो बोर्डर के लोग रईस बने बैठें हैं ना आज इनमें बहुत से ऐसे हैं जिन्होंने सिक्खों को मारकर उनकी ज़मीनें हथिया ली थीं। जिनके वे आज मालिक हैं। वाकई बहुत डरावना समय था वो। तेरे पापा तो मरते-मरते बचे थे उस दिन। हुआ यो कि अशोक सुबह छ बजे घर से निकलता और देर रात घर लौटता था उस वक्त। जिस दिन इंदिरा मरी उस दिन इस खबर को राजीव गाँधी के बंगाल से दिल्ली लौटने तक दबाये रखा गया। देर शाम इंदिरा के मरने की खबर रेडिया पर आई तब अशोक पैरिस ब्यूटी(करोल बाग़) में था उसे ये खबर नही मिली थी उन दिनो वजीराबाद का इलाका ऐसा नहीं था जैसा आज हैं वहाँ सुनसान रहता था आबादी के नाम पर परिंदा भी नहीं। खजूरी, भजनपुरा, यमुना विहार सिंगल रोड़। रोड़ के दोनो ओर बड़े-बड़े खाईनुमा गड्ढे़। रात ग्यारह-बारह का समय। वो लौट रहा था शोर्ट कट के लिये उसने खेतों का रास्ता चुना तभी एक आदमी से खबर लगी इंदिरा को मार दिया और साथ ही दंगो की भी खबर लगी वो किस तरह से घर लौटा ये तुम उससे ही पूछना........बड़ा दुखद समय था वो।ये सब उसी ने हमें बताया था। सबके चेहरे पर वही खामोशी फिर से....।

मुझे समझ नहीं आ रहा था कि ये लोग समसामयिक मुद्दों पर सरकार की बखिया उधेड़ने वाले, अभी कल ही तो डी.टी.सी के रेट बढ़ने पर कॉग्रेस को गालियाँ दे रहे थे। ये पच्चीस साल पहले कहाँ चले गए। लेकिन सच उनकी भावुकता में एक ईमानदारी थी जिसमें ये सवाल भी था कि आज कॉग्रेस के चुनावी पोस्टरों में सोनिया,राजीव तो दिख जाएंगे इंदिरा गाँधी कहाँ ग़ुम हो जाती है। चलो बेटा तुम काम करो हमने खा[Image]मखाँ तुम्हारा टाइम ले लिया जाओ पढ़ाई करो ..............बड़ा ही लायक बच्चा है.............मेरे चल देने पर किसी ने धीरे से कहा। खैर उनकी बातों ने मुझमें भी उस दौर को समझने के लिये इच्छा जगा दी थी। सो, नेट पर बी. बी.सी खोला और वहाँ सतीश जैकब और आनंद सहाय का ऑडियो सुना(सतीश जैकब वही रिपोर्टर है जिन्होंने बी.बी.सी को सबसे पहले ये खबर दी थी) , मार्क टली, शेषाद्री चारी, सुमित चक्रवर्ती के बीबीसी में और रामचन्द्र गुहा का दैनिक भास्कर में छपा लेख पढा; लगा उस दौर की सच्ची रिपोर्टिंग तो यही लोग कर रहें है जो गली-मोहल्लों में उस अनुभव की बदहवासी को अपने सीने में अब तक दफन किये हुए हैं वो बताना चाहते हैं लेकिन हमारे पास सुनने का समय ही नही हैं। सच.............
लेबल: गाँधी परिवार
1 टिप्पणी १-११-०९ तरुण गुप्ता के द्वारा
हटाएँ

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

वो बचपन बहुत बहादुर था

अभी मैं अपनी ज़िन्दगी के सत्ताईसवें वर्ष में हूँ पर जीवन में बचपन रह रहके लौटता है हमारी जवानी हमारा बुढ़ापा बार बार बचपन की तरफ लौटता है।

मैं तुम्हें अपने बचपन का एक संस्मरण सुनाता हूँ। मेरे घर के पास ही एक पीपल का पेड़ है उसी के बराबर में एक और पेड़ हुआ करता था जो हमारे बचपन ने लटक लटक कर तोड़ दिया, जिससे बाला की अम्मा ने हमारे बचपन को बाँधने की कोशिश की थी। पर बचपन कहाँ बँधने वाला है वो तो जेठ की दोपहरियों में जब सभी बच्चों की माएँ अपने अपने घरों में सो रहीं होती थीं तब हम नहर पर जाने या इस पीपल पर चढ़ने को तिलमिला रहे होते थे।
ऐसे ना जाने कितने किस्से मुझे याद हैं। एक किस्सा वो जब मेरा भाई भैंस की पीठ पर बैठा था और एक दम से भैंस खड़ी हो गयी थी गूमड़ा निकल आया था सिर में। इस डर से कि माँ मारेगी ‘गुल्ली लग गयी है’ कह दिया था उसने।

मेरा भाई मुझसे ज़्यादा शरारती था। मेरे घर के छज्जे के बिल्कुल नीचे एक टांड हुआ करती थी जिस पर हम अपने कंचे, लट्टू और गुल्ली-डंडा जैसे साज़ो सामान रखा करते थे। हम सभी भाई-बहन पापा से बहुत डरते थे। पार्क में जाने के लिए पापा के काम पर जाने का इंतज़ार करने में ही हमारा वक़्त बीतता था। पापा के जाते ही हमारा सारा साज़ो-सामान निकल आता।

हुआ यों कि एक बार भाई नक्के-दुए(खड़क्कास) में कुछ ज़्यादा ही कंचे हार गया था कंचे लेने बो टांड पर चढ़ना चाहता था। शाम का वक्त था पापा के आने का वक़्त हो रहा था। उसने खाट लगाई और उसके सहारे टांड पर चढ़ गया। मैं उससे चिढ़ता था इसलिए मैंने खाट बिछा दी ताकि वो उतर ना सके। इतने में ही पापा आते दिखे। मैं खुश था कि भैया की पिटाई होगी उसका सारा ख़ज़ाना नीलाम हो जाएगा। पर हर बार की तरह भाई ने मुझे इस जुगत मे भी मात दे दी। जब उसने देखा कि उतरने का कोई और जुगाड़ नहीं है तो उसने ‘जय हनुमान जी की’ कहके छलाँग लगा दी। खाट चारो खाने चित्त हो गयी उसके चारों पाए टूट गये और उसकी बान(रस्सी) ज़मीन से आ लगी। भाई को चोटें भी आई। कोहनी और घुटनों से खून भी निकला, पर वो बचपन कुछ ऐसा था कि जैसे बहादुरी और जुनून कूट कूट कर भरा गया हो हममे। पर असल बात ये है कि घर में चोट दिखाने या उससे डॉक्टर से ठीक कराने का रिवाज़ ही नहीं था। छोटी मोटी चोटों का इलाज तो हम मिट्टी, थूक या बीड़ी के बंडल के क़ाग़ज़ को लगाकर कर लिया करते थे। वो बचपन बहुत बहादुर था ।

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

"वो मेरी जवानी की पैदाइश के दिन .."

वो मेरी जवानी की पैदाइश के दिन थे जब मैंने पहली बार पीछे से उसे देखा था और मैं उसके प्यार में गिर गया था। लोग प्यार में आँखों से दिल में उतरते हैं मैं पीठ से आँखों की तरफ जा रहा था। दिल के बारे में मैंने सोचा ही नहीं।
बस सब दोस्तों की तरह अपनी भी एक बंदी हो, यही था ‘जीवन का एक माञ लक्ष्य।‘ रात में जवानी हिचकौले मारती थी सुबह प्रमाण मिलते थे। वो वाकई मेरी जवानी की पैदाइश के दिन थे जिस दिन हमारे प्री-बोर्ड थे उस दिन पूनम की आँख मुझसे मिल गयी थी और मेरी जबानी पैदा हुई थी उस वक़्त मैं इतना ईमानदार था कि पेपर में आया निबंध ‘मेरे जीवन का लक्ष्य’ मैंने पूरे तीन घंटों तक लिखा था ऐसा पहली बार हुआ था जब मैं पूरे तीन घंटे तक पेपर करता रहा था। दोस्त परेशान थे साला कहता था ‘कुछ नहीं पढ़ा अब कैसा लिखे जा रहा है’ – बाहर मिल बच्चू।


पर मुझे क्या. ‘मेरे जीवन का लक्ष्य’ उन आँखों में था जो आज मिल गयी थी मुझे। मेरी इस नयी नवेली जवानी ने अपनी आँखें अभी मूँद रखी थीं। सपनो में भी पूनम- यह क्या था. ओह पूनम , कम एंड हग मी, आई वान्ना किस यू- आई लब यू। प्यार के नाम पर यही शब्द आते थे मुझे। जो मैंने रात रात भर स्टार मूवीज़ और एच.बी.ओ को देख देखकर सीखे थे। उस दौरान मैं हिंदी फिल्मों को पसंद नहीं करता था और न ही दूरदर्शन को, ये मुझे प्यार के नाम पर दो फूलों को हिलते-मिलते दिखाते थे जबकि मैं कुछ और ज़्यादा की आस(प्यास) लगाये था जो कुछ हद तक अंग्रेज़ी चैनल पूरी करते थे। यह सब क्या था आज बड़ा अजीब सा लगता है। उन रातों में एक अजीब सी बदहवासी थी लेकिन जाने क्यों वो बहुत ईमानदार रातें थीं।


रात की सारी कामुक थकान हम दोस्त लोग बेतकल्लुफी से एक दूसरे से बयाँ करते थे। ‘मेरे सपने में कल पूनम आई थी’ मैंने बंटी को बता दिया था और बंटी ने खुश्क़ी ली थी वाह बेटा तेरी तो निकल पड़ी...। सब हँस पड़े थे और मैं ग्लानिबोध से पीड़ित था। मन ही मन ठान लिया था कि इन सालों को अब कुछ नहीं बताना। ये मेरी नवजात जवानी की किशोरावस्था के दिन थे और साथ ही मेरी ईमानदारी के बेईमान बनने के भी। उस दिन के बाद से मैंने दोस्तों से सपने(पूनम) की बातें शेयर करना बंद कर दिया था। शायद अब मैं जवान बन रहा था। हमारे मोहल्ले में चर्चा था कि सुशील राय का बेटा अब समझदार हो गया है। समझदार क्या, कुछ ज़्यादा ही अंतर्मुखी हो गया था सारा सारा दिन कमरे में लेटा रहता, अंधेरे बंद कमरे में अपने को मज़ा आने लगा। दोस्तों की रंगीनीयत से घिन सी हो गयी थी। रात रात भर नींद नहीं आती थी।
एक रात हमारी सामने वाली पड़ोसन रात तीन बजे पानी भरने उठी तो उसने मुझे जगा पाया। उसे लगा मैं तीन बजे तक पढ़ रहा हूँ। दरअसल वह पहली रात थी जब मैं तीन बजे तक जगा था क्योंकि सुबह बंटी को लोलिता वापिस करनी थी। खैर मेरे रात में पढ़ने की खबर पूरी गली में आग की तरह फैल चुकी थी। घरवाले खुश थे पर मैं दिन ब दिन अपने आप में सिमटता जा रहा था।


मुझे सब याद है उस दौरान हमारी कॉलोनी में लाइट चली जाया करती थी और मैं अंधेरे कमरों में बैठा पूनम को खोजा करता था। मेरा बचपन चार्ली चैप्लिन को देखते बीता था और मेरी जवानी ने डिस्कवरी पर हिटलर को देखा था दोनों प्रेमी थे दीवानगी की हद तक। मैं भी प्रेमी था दीवानगी की हद तक। पर ना तो चैप्लिन बन सकता था और ना ही हिटलर। दोनों की मूँछे(छोटी) थीं और मुझे मूँछें बिल्कुल पसंद ना थीं मैं बिना मूँछों का रहना चाहता था जबकि मूँछें हमारे खानदान की शान हुआ करतीं थीं। दरअसल पूनम को भी मूँछों वाले लड़कों से सख्त नफरत थी। उसका बाप उसे बहुत मारता था। उसका भाई उस पर बंदिशें लगाता था। दोनों की ही मूँछें थीं। उसे मूँछों से सख्त नफरत थी। मैं उसे अपने दिल की रानी मान बैठा था, सो उसकी नफरत से मुझे प्यार कैसे हो सकता था। खैर मैंने प्रतिज्ञा ली कि अब चाहे घर छूटे या माँ रूठे पर मैं ताउम्र मूँछें नहीं रखूँगा।


वो चौदह फरवरी का दिन था जब मैंने पूनम के गालों का स्वाद चखने के लिए उसे पार्क के पीछे मेदिर के पास बुलाया था। मुझे आज भी याद है वो लाल सूट पहनकर, दो चोटी करके और बालो में खूब सारा तेल डाल कर आई थी लेकिन तब भी वो मेरे सपनों की रानी थी मेरे लिए दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की। उसके गाल ऐसे चिकने थे कि हवा उसे छूने से पहले ही रपट जाती थी। आँखें ऐसी कोहिनूरी थीं कि जी करता काश ये दो कंचे मेरे पास होते और फिर मैं अपनी जान लड़ा देता लेकिन इन्हें किसी महारानी के ताज में नहीं सजने देता।


खैर मंदिर के पीछे जहाँ का माहौल बिल्कुल भी रोमेंटिक ना था। मैंने उसे बुलाया। अपने गमले से तोड़ा एक फूल भी मेरे हाथ में था जिसे मैंने छिपाने के लिए अपनी जेब में डाल लिया था। दस मिनट बाद वो आई। वो दस मिनट मुझे आर. के. शर्मा के एक घंटे के पीरियड के समान लगे थे। वो आई और ‘भाई पीछे है हम कल मिलेंगे’ कहकर चली गयी। ना जाने उस दिन मुझे क्या हो गया था मैंने उसका पीछा किया और ये देखकर के पीछे कोई नहीं है उसका हाथ पकड़ लिया। ऐसा लगा जैसे कोई रूई का बंडल हो, वह काँप रही थी। डर से उसके गाल लाल हो गये थे। तब जबरन मैंने उसके गालो को चूमा(चाटा) था और वह भाग गयी थी तब उसी तरह का था मैं। जेब में रखा फूल चपटा होकर बिखर गया था। आज तक वो स्वाद मेरी ज़बान पर रखा है। उस दिन मेरी जवानी वयस्क हो गयी थी और मैंने पहली बार ‘स्मूच कैसे करते है?’ ये सवाल बंटी से पूछा था। बंटी ने मुझे ‘मोरनिंग शो’ दिखाया था। फिल्म का नाम ‘भरी जवानी’ जैसा कुछ था इस ‘मोरनिंग शो’ की बदौलत रात की बदहवासी बेचैनी में बदल गयी थी उन बेचैन रातों में भावी संतानो की हत्या हुई इस ग्लानिबोध को लेकर मेरी सुबह हुई थी।

‘मेरे जीवन लक्ष्य’ की बदौलत मैं फेल हो गया था और दोस्त मेरी खिल्ली उड़ा रहे थे ‘देख लिया गद्दारी का नतीजा।‘ उस दिन मुझे पहली बार लगा था कि दुनिया में दोस्त जैसी कोई चीज़ नहीं होती।

शनिवार, 25 सितंबर 2010

बहसतलब-५ (पहले दिन की लघु रिपोर्ट)

बहसतलब-५ का आयोजन इस बार सूरजकुंड स्थित जंगल फॉल कैम्प मे हुआ हालाँकि पहले इतनी दूर इस सेमिनार को आयोजित करवाने के कारण अविनाश एंड पार्टी पर थोड़ा गुस्सा आया, लगा कि इंडिया हैबिटेट सेंटर में क्या दिक्कत थी? पर मंडी हॉउस पर कैब व्यवस्था और जंगल फॉल कैम्प के ट्रैडिशनली मेंटेन्ड तंबुओ को देख कर वो सारा मलाल अपने आप गायब हो गया। सचमुच बहुत बेहतरीन आयोजन और साथ ही बहुत बढिया आयोजन स्थल ।
दो दिनों के चार सत्रों में से पहले दिन के पहले सत्र में ‘किसके हाथ में बॉलीवुड की कंटेंट फैक्टरी की लगाम’ पर बहस हुई। सुधीर मिश्रा, अनुराग कश्यप, जयदीप वर्मा, अनुषा रिज़वी, महमूद फ़ारूक़ी, चंद्रप्रकाश द्विवेदी इस मुद्दे पर बोलने के लिए मौजूद थे। यह सत्र पूरे आयोजन का सबसे शानदार सत्र था लगभग तीन घंटे चली बहस में किसी में भी बोझिलता की स्थिति पैदा होते नहीं दिखी। सुधीर मिश्रा और अनुराग कश्यप की बातों ने प्रभावित किया ।“सिनेमा का बजट जैसे-जैसे बढ़ता जाएगा,उसकी लगाम एक के हाथ में होने के बजाए कई लोगों के हाथ में होती जाएगी। निर्देशक के हाथ में होकर भी कईयों के हाथों में।“-अनुराग कश्यप
अंत में फैसला जिसकी लाठी(पैसा) उसी की भैंस के रूप में निकलता दिखाई दिया। यही वो सत्र रहा जिसमे जयदीप वर्मा बहुत इमोशनल हो गये और सिनेमा के मामले में एक बेहतर भविष्य की चाहत रखने वाले लोगों पर अन्जाने में ही इमोशनल अत्याचार कर बैठे उनके वक्तव्य बहुत शानदार रहता अगर श्रोताओं को उससे निराशा का अनुभव न होता खैर बाद के सत्रों में उन्होंने इस पर काफी सफाई दे दी। अनुषा रिज़वी कम बोली , और जयदीप वर्मा ने इस सत्र में बोलते वक्त क्योंकि वक‍्त का ख़याल नहीं रखा था सो चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने इसकी पूर्ति करते हुए सिर्फ २ मिनट में अपनी बातो समेट डाला। दोबारा कहना चाहिए कि यह सत्र इस पूरे आयोजन की जान था। भूपेन और अतुल तिवारी जी ने हस्तक्षेप किया । अतुल तिवारी की सिनेमा की समझ ने बेहद प्रभावित किया शायद वह हस्तक्षेप इस पूरे आयोजन का सबसे बढिया हस्तक्षेप था।


दूसरा सत्र- ‘न तुम हमें जानो न हम तुम्हें जाने’ में भी सुधीर, अनुषा और अनुराग बने रहे साथ ही इस सत्र में नीलेश मिश्र और विनोद अनुपम ने जॉइन किया. बात स्त्री-पुरुष संबंधों के साथ हुए ट्रीटमेंट पर होनी थी लेकिन क्या होने लगा कुछ समझ नहीं आया और इसमे बहुत गहरी भूमिका उन दर्शकों की रही जो सवाल पूछने के नाम पर पूरा भाषण पिलाने पर तुल गये। मेरे जैसे कुछ नादान इस पूरे मुहावरे को समझ ही नहीं सके शायद बहस की तलब इसे ही कहते हों । विनीत ने तो कहा भी कि ऐसे आयोजनों में सवालो के लिए कूद जाना चाहिये पर मुझे ऐसी खेल-कूदों को समझने में अभी थोड़ा और वक़्त लगेगा।
कुल मिलाकर यह सत्र मुझे एवरेज लगा लेकिन सुधीर और अनुराग ने पुन प्रभावित किया।

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

बिलकुल माँ वाली खुशबू

अपने तमाम सार्वजनिक दायित्वों के बावजूद हम सब में एक निजत्व होता है। “माँ में से एक खुशबू आती थी बिल्कुल माँ वाली” ‘उड़ान’ फिल्म का यह संवाद इसी निजत्व की ईमानदार अभिव्याक्ति है।
यह आज मुझे अधिक महसूस हो रहा है कल जन्माष्टमी है। एक वक्त था जब इस त्योहार के अवसर पर मेरा घर घी में खोये को भूनने की खुशबू से भर जाता था हमारे सामने वाली पड़ोसन(जिन्हें हम ताई कहते थे) और मेरी माँ मिलकर हम भाई-बहनों के लिए पंजीरी और मैथी के लड्डू बनातीं थीं और मेरे लिए स्पेशल पेड़े बनते थे क्योंकि मैं पंजीरी और मैथी के लड्डू दोनों ही पसंद नहीं करता था। पंजीरी में कसा हुआ गोला डलता था जो मेरे दाँतों मे अटकता था और लड्‍डू मुझे कड़वे लगते थे उस वक्त। क्या कुछ है जो आज उस स्मृति बनी याद को फिर से सच में तबदील कर सके।
मेरे घर में पापा हैं, भैया है-भाभी है मगर आज मेरा घर उस खुशबू से महरूम है जो कुछ समय पहले तक मेरे घर में आती थी।

सोमवार, 30 अगस्त 2010

पीपली लाइव - अनुभव की तंज़िया नज़र


जैसा मैंने अपनी १४ अगस्त२०१० की डायरी में लिखा है-
पीपली लाइव देखने के दौरान जितना मेरे साथ बैठे सहदर्शक हँस रहे थे मुझमे उतनी ही एक टीस रह-रहके उभर आती थी अब जब मैं पूरी फिल्म देख चुका हूँ और राजौरी गार्डेन के 'वेस्ट गेट माल' में मुस्कुराते जोड़ो को देख रहा हूँ तो भी मेरे जेहन में राकेश के लटके हुए/जले हुए हाथ की वो इमेज बार-बार उभर रही है और मुझे यकीन है कि फिल्म का दर्शक इस इमेज को इतनी जल्दी बिसराने वाला नहीं। चाहे मुन्नी कितनी ही बदनाम क्यों न हो । खैर मै जल्द से जल्द स्वतंत्रता दिवस पर सजाये गए उस माल से निकलना चाहता हूँ हालांकि मै अपने दोस्तों के साथ हँस-बोल रहा हूँ उनकी मस्ती में उनका साथ दे रहा हूँ शायद इसलिए की मेरे जन्मदिन पर उनकी ट्रीट में कोई कमी न रह जाये. पर मै परेशान हूँ कुछ उथल-पुथल सी मची है । महमूद और अनुषा रिज़्वी का निर्देशन कुछ इस तरह का है कि वो आपको आईना नहीं दिखाते बल्कि आपकी शक्लो- सूरत(बदसूरत) ही आपके सामने रख देते हैं अब आप हँसिये या तालियाँ बजाइये। सच से रूबरू कराना ही शायद उनके लेखन-निर्देशन की एक शैली है शायद व्यंग्य(satire) इसे ही कहते हैं।

अनुषा और महमूद फारूकी ने उस तंज़ नज़र को फिर से पैदा करने की कोशिश की है जिसे रघुवीर सहाय ने अपनी कविताओं खासकर 'हँसो हँसो जल्दी हँसो' में बयाँ किया है । मैं घर आकर रघुवीर सहाय संचयिता खोलता हूँ "...निर्धन जनता का शोषण है / कहकर आप हंसें । लोकतंत्र का अंतिम क्षण है / कहकर आप हंसें । ...कितने आप सुरक्षित होंगे / मै सोचने लगा । सहसा मुझे अकेला पाकर / फिर से आप हंसें। "(आपकी हँसी) और मूवीटाइम के हॉल न0-01 में बैठे दर्शकों के खिले चेहरे मेरे सामने हो लेते हैं.
"हँसो पर चुटकुलों से बचो / उनमे शब्द हैं / कही उनमे अर्थ न हों जो किसी ने सौ साल पहले दिए हों । ********और ऐसे मौको पर हँसो / जो कि अनिवार्य हों / जैसे गरीब पर किसी ताकतवर की मार / जहां कोई कुछ कर नहीं सकता / उस गरीब के सिवाय / और वह भी अक्सर हँसता है।"(हँसो हँसो जल्दी हँसो)


निश्चित ही सिर्फ नत्था इस फिल्म का mukhyaनायक नहीं है, राकेश एक दमदार किरदार है जो मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित करता है,जिस तरह प्रेमचंद की एक कहानी 'ईदगाह' मे एकाएक 'चिमटा' नायक बन जाता है यहाँ नायक के सिलसिले में मुझे ऐसी ही गुंज़ाइश दिखती है.. खैर

दरअसल यह एक नाट्यनुमा फिल्म है मुझे शुरु से लेकर अंत तक लगता रहा कि यह एक नाटक है
और मैं अपने दिल को समझाता रहा कि नहीं यह तो फिल्म है फिर लगा ...(एक गहरी आह के साथ)नाटक ही तो है लोकतंत्र और उसके स्तंभों का, जो अपनी सारी कमज़ोरियों के बावजूद सबसे ताकतवर है यही कहते है ना हमलोग बहुधा...

सोमवार, 23 अगस्त 2010

खाआआअ ...........प

"मैं तुम्हे चाहता हूँ"
यही कहा था उसने
कि आसमान सिर पे आ गिरा था उसके
मुझे याद है अब भी

वो मेरी गली का सबसे होशियार लड़का था
कोलेज में अव्वल आया था
लडकियां मरती थी उस पर
पर उसका दिल सिर्फ एक पर आया था
लोग कहते हैं कि वो उसकी बहन थी

'बहन'

बहन कैसे?
मैं तो इकलौता लड़का हूँ
वह बार रिरियाता था

अरे !
दूर के रिश्ते की
वो बहुत खूबसूरत थी
नाम मुझे याद नहीं आ रहा
बहुत ही प्यारा नाम था उसका...
दोनों एक-दूसरे को बहुत चाहते थे

फिर एक दिन
उसकी लाश
यमुना पुश्ते पर मिली
यही बताया था मोहल्ले के एक बुज़ुर्ग ने मुझे

कुछ समझ न आया
अजब सी गंध थी मोहल्ले में उस दिन
फिजा में दो शब्द ताल ठोंक रहे थे
खाआआअ ...........प

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

ज्यादा दिन नहीं बीते हैं..

जब दो युगल बैठे थे
पेड़ की आड़ लिए
तुमने फुसफुसाया था कानो में
पेड़ कट गया था अगले ही पल

तिमारपुर के केस को बीते
ज्यादा वक़्त नहीं गुज़रा है अभी
पाले बदलते रहते हैं बस
प्यार पर बंदिशें लगती रहती हैं बस

प्रेमियों को डरना पड़ता है
'डर के आगे जीत है' जैसे वाक्य तो अब सुनने को मिलने लगें हैं
वर्ना तो दुनिया '...प्यार किया तो डरना क्या' जैसे एक गीत के सहारे ही
दीवारों में चुन जाने के लिए तैयार रहती थी

ज्यादा दिन नहीं बीते हैं..

तुम्हारे मोहल्ले में कई कुत्ते पीछे लग गए थे
रीना के, याद होगा तुम्हे
तुम भी तो उनके साथ थे
रीना ने जींस क्या पहन ली थी
तुम्हे तो सूंघने का मौका मिल गया था
तुम सबने मिलकर गोश्त चूसा था
चटखारे लिए थे इस समाज ने

रीना ने पहल की थी
तुमने दबा दी थी
''मोडर्न हुआ चाहती थी साली''
कानो में अब भी गुंजायमान है मोहल्ले के

तुम और तुम्हारे साथी
फिकरे कसते हों युगलों पर
छेड़ते हो लड़कियों को
बंदिशें लगाते हो प्रेम पर
तमाचे मारते हो लोकतंत्र पर
लानत देते हो सरकार की कारगुजारियों पर

कभी पूछा है अपने घर की औरतों से
तुमने,
वो क्या चाहती हैं ?

सोमवार, 12 जुलाई 2010

बरसात की एक शाम...

इस मौसम की सबसे जोरदार बरसात
अबके नहीं आई मुझे तुम्हारी याद ......क्यों?
क्या इसलिए
कि मै
अब तक
अपने घर के निचले तल से
पानी निकालने में व्यस्त था
या फिर अब तक
घर न लौटे भाई की
चिंता सता रही थी मुझे
या फिर इन सबसे अलग
मैंने पहली बार सोचा
कि मै तुम्हे क्यों याद करता हूँ.........

शनिवार, 29 मई 2010

तालों में 'नैनीताल' बाकि सब तलैया..



'तालों में नैनीताल बाकी सब तलैया' ये गीत उस वक़्त हमारे ज़हन में बार-बार गूँज रहा था जब मै और मेरे दोस्त नैनीताल के पास ही 'भीम-ताल' और 'नौकुचिया-ताल' देखने गए . भीम ताल के बारे में कहा जाता है की इसकी उत्पत्ति भीम ने अपने गदा-प्रहार से की थी और नौकुचिया-ताल इसलिए प्रसिद्द है की इसके नौ कोने है साथ ही यह भी कहा जाता है कि जो भी व्यक्ति इसके नौ कोनों को एक साथ देखले उसके प्राण-पखेरू उड़ जाते है. हम गए तो इसलिए थे कि नैनी-ताल की तरह ही वहाँ हमें नए सुखद-अनुभव मिलेंगे, थोड़ी और मौज-मस्ती होगी लेकिन वहां अनुभव तो मिला पर वो सुखद नहीं बन सका. काफी सूनापन था वहां. कारण तो यही लगता है कि वहाँ की सरकार ने उसे एक टूरिस्ट स्पोट के रूप में विकसित करने की कभी कोशिश ही नहीं की होगी . . नैनीताल अगर आज ज्यादा प्रसिद्द हो सका है तो उसका एक बड़ा कारण , उस पर सरकार की तवज्जो और इसके पास मालरोड का होना भी है.
खैर जब तक नैनीताल में था वहाँ की हवाए बहुत सुहाती थी खासकर नैनी-झील के किनारे-किनारे माल रोड पर चलते हुए आइस-क्रीम खाना . वाह! क्या खूबसूरत एहसास था वो . अब इस वक़्त दिल्ली में यहाँ धुल भरी आँधियों ने मेरे सुखद सर्द-एहसासों पर ज़ोरदार प्रहार किया है दिल्ली और नैनीताल के बीच कही अपने को पाता हूँ .

शुक्रवार, 21 मई 2010

बद्री नारायण की कविता

नया ज्ञानोदय के मई अंक में बद्री नारायण की कविता 'पेड़ की शोकसभा' वर्तमान हालातों को देखते हुए बहुत जानदार जान पड़ती है जिन लोगों ने बद्री नारायण की कविता 'प्रेम-पत्र' पढ़ी होगी वो उनके पहले ही मुरीद होंगे . उनका एक अलग ही अंदाज़ है कविता कहने का, वे कविता में माम्लातों को बातों की शक्ल में बयाँ करते है एक बानगी देखिये-
एक पेड़ की शोकसभा में आमंत्रित है आप
आइये पेड़ की शोकसभा में
आइये
कल जनतंत्र और राजसत्ता ने
उतार कर मानवीय चेहरा
तोप, बम, हेलिकॉप्टर
कर दिया था तैनात
रात भर के चले अर्धसैनिक बलों के अभियान में
यह पेड़ अंतत: मारा गया
देखिये खबर लहरिया अख़बार के पांचवे पेज के चौथे कॉलम
की न्यूज़ है यह..

पूरी कविता पढने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें www.jnanpith.net

गुरुवार, 13 मई 2010

हमें याद रखना होगा की विश्व-कप में भारत का प्रतिनिधित्व अभी बरक़रार है...




भारत में क्रिकेट और होकी का न जाने क्यों छत्तीस का आंकड़ा ही बना रहता है. अभी ज्यादा समय नहीं बीता है होकी विश्व कप को बीते जिसमे होकी खिलाडियों ने अपने लचर प्रदर्शन के कारण न्यूज़ चेनल्स की आलोचना झेली थी अगर आपको याद हो तो उस दौरान धोनी ब्रिगेड शानदार प्रदर्शन कर रही थी तब उनकी उपलब्धियों के पुल बंधे जा रहे थे.पर अब जब होकी दक्षिण कोरिया को हराने के बाद ऑस्ट्रेलिया को भी हरा चुकी है और अपना बेहतरीन प्रदर्शन कर रही है तब क्रिकेट की बुलंदियों अपना सिर (शर्म से या किसी और वजह से...) झुकाने को बेताब दिखाई दे रही हैंl
सुबह जब दैनिक भास्कर की खबर 'भारत ने लंका को हराया' पढ़ी तो रात २बजे तक देखे मैच की सारी खुमारी उतर गयी पहले तो लगा अख़बार में गलती से उल्टा लिख गया होगा पर जब डिटेल पढ़ी तो पता चला की जब धोनी और युसूफ पठान जैसे बम फूस हो गए थे तब मिताली राज और सुलक्षणा नाइक श्री लंका पर कहर बरबा रही थी .चलो पुरुष क्रिकेट टीम ने न सही महिलाओ की ब्रिगेड ने तो विश्व कप की अहमियत समझी. कल जिस तरह से भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने सेमीफ़ाइनल में जगह बनाई है उससे नई उम्मीदें जगी है यह टीम बधाई की हक़दार है हमें याद रखना होगा की विश्व-कप में भारत का प्रतिनिधित्व अभी बरक़रार है.
मेरा बधाईनुमा सलाम स्वीकारो ...!

रविवार, 9 मई 2010

अस्तित्व

धूल उडती है घर में , बाहर ; हर चीज़ जो उसके दायरे में है या नहीं है चढ़ जाती है और अगर कोई उस धूल को उस चीज़ पर से न हटाये या उस पर ध्यान न दे तो वो धूल उस चीज़ पर एक मोटी-सी परत या कहें अपना एक पूरा लबादा छोड़ जाती है वो लबादा या कि परत उस धूल का अस्तित्व है और उसे हटाने के बाद भी दोबारा वहीं पर उसी जगह पर उभरना उसका संघर्षl
यह संघर्ष दोनों तरफ जारी धूल अपना काम कर रही है और सफाई करने वाले अपना. फिर क्यों हम अपना कम नहीं करते, क्या हम उस धूल से भी ... अजी छोड़िये आप कहेंगे क्या फ़िज़ूल कि बातें लेकर बैठ गया पर फ़िज़ूल की ही सही(आप की नज़र में) लेकर तो बैठा हूँ न, कम से कम बातों को तो फ़िज़ूल नहीं बना रहा हूँ l
खैर, बात धूल की हो रही थी नहीं शायद अस्तित्व की ... पर अंत में आना तो अस्तित्व पर ही था न? हाँ तो अस्तित्व; क्या है ये अस्तित्व . मुझे लगता है अपनी पहचान को खुद्दारी और जिंदादिली के साथ जिंदा रखने की सक्रिय कोशिश है अस्तिव l
जो कम धूल बखूबी कर रही है पर हम शायद कतरा रहे है इससे l धूल हटाई जाने पर फिर अपनी जगह आ जाती है पर गिरने के बाद पहले तो चलने के बारे में सोचते ही नहीं. और अगर सोचते है तो पहले जैसा विश्वास ख़त्म हो जाता है हमारा l

बुधवार, 24 मार्च 2010

LSDक्या करें कुछ समझ नहीं आता, कोई मंज़र नज़र नहीं आता


महीने, दो महीने पहले सुनील शानबाग द्वारा निर्देशित नाटक 'सैक्स, मोरेलिटी और सेंसरशिप' देखा था l इसमें गालियों की भरमार थी और मै बार-बार ये सोच रहा था कि शुक्र है हमारे बुज़ुर्ग लोग यहाँ नहीं आये वर्ना उनकी थोथी नैतिकता के पैरों तले हम बेवजह कुचले जाते l इस नाटक में सुनील शानबाग ने 'सखाराम बाइनडर' को उपजीव्य बनाकर इस अनैतिक दौर में 'सैक्स' और 'मोरेलिटी' को डिफाइन करने की सफल कोशिश की है l यह कोशिश सफल इसलिए है कि न सिर्फ यह सैंसरशिप के वास्तविक पैमानों को खोलती है बल्कि इस तथाकथित नैतिकता और मूल्यों के युग में आज के वक़्त की असलियत को सैंसर करने के षड्यंत्र को भी दिखाती है l
'लव,सैक्स और धोखा' में भी मुझे कुछ ऐसा ही अनुभव होता है फर्क सिर्फ इतना है कि वहां असलियत को सैंसर करने के षड्यंत्र को दिखाया गया था और यहाँ असल जिंदगी को, जिससे बहुधा हमें मुँह फेरने की आदत है l LSD को देखने के क्रम में ek दर्शक कई वर्गों में हमें दिखता है एक वर्ग वह है जो इस फिल्म में 'सेक्स' की आस लिए गया था हालाँकि इसकी उम्मीद कम है क्योंकि सेक्स दर्शन अब दुर्लभ नहीं रहा उससे वैबसाईट भरी पड़ी है
एक वर्ग और है इसे हम बौद्धिक वर्ग कह सकते है इसने दिबाकर बैनर्जी की पहली दोनों फिल्में 'खोंसला का घोंसला' और 'ओये लक्की, लक्की ओये' देखीं हैं जो दिबाकर के प्रयोगों की प्रगतिशील समझ से वाकिफ है जो वस्तुत: दिबाकर बैनर्जी के इस नए प्रयोग को देखने गया था दिबाकर ऐसे दर्शक को निराश नहीं करते बिलकुल सुनील शानबाग की तरह l

इस फिल्म की रिलीज़ के दिन(१९ मार्च) शाम को जब घर लौटा तो एक मीडिया चैनल पर एक समीक्षक(कुछ अजनबी से) को इस फिल्म को कोसते हुए सुना, यूँ तो वो भी उनकी पिछली दोनों फिल्मों के प्रशंसक थे लेकिन इस फिल्म(लव,सेक्स और धोखा) के शीर्षक में 'सैक्स' शब्द को देखकर ही वे भभक उठे, उन्हें शिकायत थी कि दिबाकर इस फिल्म से समाज में अश्लीलता फ़ैलाने की कोशिश कर रहे हैंl शायद इससे उनकी नैतिकता प्रभावित हुई थीl
तब तक मैंने फिल्म नहीं देखी थी लेकिन जब देखी तो किसी एंगल से भी वो अश्लील या फूहड़ नहीं लगी बल्कि इससे कही ज्यादा सेक्सुअल सीन तो हमें महेश भट्ट की फिल्मों में देखने को मिल जाते हैं l यदि आप उसे अश्लीलता माने तो? हालांकि मै इसे अश्लीलता नहीं मानता यह तो सच्चाई के सारनाथ का छिपा हुआ शेर मात्र है
हालांकि यह फिल्म उन लोगों को निराश कर सकती है जो सिनेमा को एक मनोरंजन और आनंद प्रदान करने वाली विधा मानते हैं, यह उन लोगों में भी खीज पैदा कर सकती है जो इसमें 'लव,सेक्स और धोखा' की जगह 'प्यार,इश्क और मोहब्बत' पर सेक्स कैसे हावी होता है? यह देखने गए हों l साथ ही यह उन लोगों के लिए भी निराशा और गुस्से का सबब साबित हो सकती है जो समाज में व्याप्त अनैतिकता और विद्रूप स्थितियों से मुँह फेरने को ही मूल्य और नैतिकता मानते हों इस तरह के लोग दरअसल एक तरह के यूटोपिया में रहने के आदि हैं लेकिन जो लोग दिबाकर बैनर्जी के काम से परिचित हैं वो इन सब ढकोंसलों को दरकिनार करते हुए एक बौद्धिक दर्शक की हैसियत से इस फिल्म को देखने के खूबसूरत पर खतरनाक एहसास से वाकिफ ज़रूर होंगे l.
दिबाकर का यह नजरिया वाकई काबिलेतारीफ है कि बिना किसी शूटिंग लोकेशन के, बिना किसी बड़े नामी हीरो-हिरोइन के, और फिजूलखर्ची किये बिना वह हमें हमारे समाज-तंत्र की विद्रूप स्थितियों की खबर दे देते है वे दरअसल व्यावसायिक सिनेमा के दौर में जोखिम लेते हुए एक बौद्धिक नज़रिए को कायम रखने का प्रयोग कर रहे है l ये हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हम इसे एक पोसिटिव नज़रिए से देखें ना कि इसे एक 'सेक्स को बढ़ावा देने वाली फिल्म' कहकर नकार दें l
सच तो ये है कि इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे आप अनैतिक या सेक्सुअल कहेंगे, यह तीन छोटी डोक्युमेंटरी को मिलाकर बनी एक फिल्म है क्या आज भी प्रेमियों को मौत की सजा नहीं सुनाई जाती? क्या आज भी भारत में ज़्यादातर सेक्स स्कैंडल हिडन कैमरों की मदद से नहीं बनते? क्या मीडिया में 'पैड न्यूज़' या 'ब्लैकमैलिंग' नहीं होती ? अगर दिबाकर इन्हें हमारे सामने रख़ रहे है तो हमें इन्हें एक्सेप्ट करने में हिचक क्यों हो रही है ? क्या फिल्म के शीर्षक में 'सैक्स' शब्द के होने के कारण ही ये बखेड़ा खड़ा हो रहा है यदि ऐसा है तो हमें इससे उबरने की ज़रुरत है l
दिबाकर अपनी इस फिल्म में शायद यह दिखाना चाहते हैं कि छोटा-बड़ा हर कैमरा अपने आप में एक निर्देशक है इन मायनो में निर्देशक, निर्देशक कम एडिटर की भूमिका ज्यादा निभाता जान पड़ता है l क्योंकि कैमरा तो सिर्फ शूट करता है लेकिन निर्देशक उस शूटिंग को (LSD के सन्दर्भ में) सही मायने में एडिट करता चलता है इस फिल्म की तीन कहानियों को एक ही कलात्मक विचार में पिरोने की सफल कोशिश के दौरान दिबाकर डायरेक्टर-कम-एडिटर बन गए हैं ज़रुरत है इस तरह के नए प्रयोगों को तवज्जो देने की ताकि हर गली हर नुक्कड़ पर एक निर्देशक-एक एडिटर का ख्वाब जन्म ले सके l साहित्य में यह कहा जाता है कि ऐसी कोई वस्तु नहीं जिस पर कविता न लिखी जा सके l इस फिल्म के सन्दर्भ में दिबाकर हमें यही बताने की कोशिश करते हैं l
यह फिल्म हमें रश्मि(एक कैरेक्टर) जैसी उन तमाम लड़कियों के बारे में सोचने के लिए विवश करती है जो ना चाहते हुए भी उस स्कैंडल का हिस्सा हैं जिसका दायरा घर से लेकर मीडिया की चहल-पहल और यू-ट्यूब तक फैला है यह फिल्म शायद सबसे दर्दनाक तरीके से एक सांवली, भावुक(ईमानदार) लड़की की बदकिस्मती को ही नहीं दिखाती बल्कि इस ठरकी समाज के उस नंगेपन को भी दिखाती है जो कहता है कि 'कपडे उतारने के बाद काली-गोरी सब अच्छी लगती हैं l'

गुरुवार, 28 जनवरी 2010

बतूता का जूता - सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

इब्नबतूता पहन के जूता
निकल पड़े तूफान में
थोड़ी हवा नाक में घुस गई
घुस गई थोड़ी कान में


कभी नाक को, कभी कान को
मलते इब्नबतूता
इसी बीच में निकल पड़ा
उनके पैरों का जूता


उड़ते उड़ते जूता उनका
जा पहुँचा जापान में
इब्नबतूता खड़े रह गये
मोची की दुकान में।
सन्दर्भ:- कविता-कोश (www.kavitakosh.org)
गुलज़ार का लिखा 'इश्किया' का गीत 'इब्न-बतूता...जूता...' सर्वेश्वर की कविता का समकालीन संस्करण जान पड़ता है...

रविवार, 24 जनवरी 2010

चुप्पी एक विचार है ओर विचारों की हत्या नहीं होती....

ये तस्वीरें गवाह हैं उस गुनाह की दास्ताँ की जो आजकल कैम्पस(आर्ट फैकल्टी, दिल्ली विश्वविद्यालय) में विद्यार्थी परिषद् द्वारा लिखी जा रही है, वाकई वो डरते हैं हमारे चुप रहने से भी; क्योंकि चुप्पी एक विचार है और विचारों की हत्या नहीं होती..., ज्यादा लिखना ज्यादा बोलना है और जब चुप्पी एक कारगर हथियार हो तो बोलना उनलोगों के साथ कन्धा मिलाना होगा जो जन-विरोधी कारनामों को अंजाम दे रहे हैं. ये चुप्पी एक लम्बे वाक-संघर्ष से उपजी है जो ज्यादा खतरनाक साबित होगी इन संस्कृति के ठेकेदारों के खिलाफ . इसलिए साथियों तस्वीरें गवाह हैं...हमारी एकजुटता की, ये गवाह है हमारे साहस की, हमारे मनोबल की, ये गवाह है उनकी कमजोरियों की, उनकी बौख्लाहटों की ....
(बीते दिनों, विद्यार्थी परिषद् के लोगों ने आर्ट फैकल्टी में जनचेतना की पुस्तक प्रदर्शनी पर हमला बोल दिया था, और उनकी गाड़ी को खासा नुक्सान पहुंचाया था, इतना ही नहीं चोरी पर सीनाजोरी यह क़ि अगले दिन पुलिस के सामने जनचेतना के कार्यकर्ताओं के साथ 'देश के गद्दारों को गोली मारों सालो को' जैसी भाषा का प्रयोग कर अपने मंसूबे साफ़ कर दिए थे, इसके बाद वहाँ से एहतियात के तौर पर या किसी और वजह से जनचेतना की गाडी को हटा दिया गया क्योंकि इतनी कुव्वत तो पुलिस-प्रशासन में थी नहीं की ए.बी.वी.पी. के खिलाफ कोई एक्शन वह लेती, सो जनचेतना क़ी गाडी को हटाना ही उसने बेहतर समझा.) वाकई समाज बेहतरी की और बढ़ रहा है...