मंगलवार, 29 सितंबर 2009

अहमद फ़राज़ की बेहतरीन ग़ज़ल

ज़िन्दगी तेरी अता है तो ये जानेवाला
तेरी बख़्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जायेगा

आँख से दूर न हो दिल से उतर जायेगा

वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जायेगा


इतना मानूस न हो ख़िल्वत-ए-ग़म से अपनी

तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जायेगा


तुम सर-ए-राह-ए-वफ़ा देखते रह जाओगे

और वो बाम-ए-रफ़ाक़त से उतर जायेगा


ज़िन्दगी तेरी अता है तो ये जानेवाला

तेरी बख़्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जायेगा


डूबते डूबते कश्ती तो ओछाला दे दूँ

मैं नहीं कोई तो साहिल पे उतर जायेगा


ज़ब्त लाज़िम है मगर दुख है क़यामत का "फ़राज़"

ज़ालिम अब के भी न रोयेगा तो मर जायेगा

मंगलवार, 22 सितंबर 2009

'जब कुछ नही है तो सत्य केवल मानवीय सम्बन्ध है' - विश्वनाथ त्रिपाठी

विश्वनाथ ञिपाठी को सुनना मुझे इसलिए भी अच्छा लगता है क्योंकि वो अभी भी हिन्दी के उन आलोचकों में शामिल हैं जो बात-बात पर फतवा देते नहीं चलते और जो उस गुरु-शिष्य परंपरा का हिस्सा है जो मानती है कि गंगाजल से अधिक पविञ अगर कुछ है तो वो है श्रमजल।


आख़िर मैं ये बातें क्यों कर रहा हूँ दरअसल हिंदी अकादमी (जो पिछले दिनों .........क्यों चर्चा में थी क्या ये बताने की ज़रूरत है) ने कबीर पर विश्वनाथ ञिपाठी का एक व्याख्यान आयोजित किया था जहाँ ञिपाठी जी ने कबीर और उनकी कविता के बारे में बहुत कुछ कहा हालाँकि मुझे बार-बार लगा कि वे उतना कुछ नहीं कह सके जितना हम लोग सुनने और वो बोलने आए थे इसकी क्या वजह रही मुझे नहीं मालूम।

बहरहाल जितना भी कहा वो काफी कुछ हटके था जैसाकि मैंने पहले भी कहा कि मुझे उन्हें सुनना इसलिये पसंद है कि वो बात-बात पर फतवे नहीं दिया करते जो इन दिनों का चलन बन गया है जिस तरह राजनीति ने साहित्य में अपनी पैठ बनायी है(व्यक्तिगत रूप से मैं इसे बुरा नहीं मानता) उसी तरह राजनीति के ही एक बहुत अहम फार्मूले(संभवत फतवों की प्रथा वहीं से चली मालूम होती है) ने साहित्य में अपनी जगह पा ली है। व्याख्याता इससे जल्दी पॉपुलर हो जाता है ना?
खैर मै उनके व्याख्यान पर आता हूँ ञिपाठी जी ने कबीर पर बात करते हुए कहा कि हर बड़े रचनाकार का द्वन्द्व होता है जिस प्रकार तुलसीदास के यहाँ रामराज्य और कलयुग के मध्य द्वन्द्व दिखता है उसी तरह कबीर के यहाँ भी काल और अकाल के बीच यह द्वन्द्व दिखता है। क्या कारण है कि कबीर की अधिकांश कविताएँ मृत्यु याकि काल पर लिखी गई है? उन्होंने तो यहाँ तक कहा कि मुझे जितना कबीर में मृत्युबोध(शायद यही शब्द इस्तेमाल किया था) दिखाई देता है हिन्दी के किसी और कवि में उतना नहीं।

अब तक के अधिकतर विचारक भक्ति-आंदोलन को नवजागरण या लोकजागरण से जोड़ते आए थे लेकिन ञिपाठी जी उसे स्वतंञता आंदोलन से जोड़ते है वे गाँधी-जुलाहा-कबीर का सहसंबंध बनाते है जो काफी हद तक मुझे एक नई बात लगी उनका कहना है याकि मानना है कि गाँधी यूँ तो तुलसी का अनुसरण करते है और उनके रामराज्य को भारत मे स्थापित करना चाहते है लेकिन स्वतंञता की लड़ाई लड़ते है कबीर के चरखे से , जो उस दौरान सम्पूर्ण स्वदेशी और असहयोग का ताक़तवर हथियार था। इसी संदर्भ में वे आगे कहते है कि लोकजागरण निसंतान नहीं होते उनकी संताने होतीं हैं ज़ाहिर है लोकजागरण अपनी मशाल आने वाली पीढ़ी को सौंपते चलते है अब ये काम उस पीढ़ी का है कि वह उसे कहाँ तक ले जाती है।
कबीर में हमें प्रश्नवाचकता ज़्यादा दिखती है उनके यहाँ उत्तर बहुत कम हैं। ज़ाहिर है प्रश्न वहीं होंगे जहाँ कौतूहल होगा, जानने की इच्छा होगी, अपने सवालों के जवाब ना मिलने की बैचेनी होगी । कबीर के यहाँ ये सब है इसलिये वो सवाल अधिक करते है और जवाब जानने के लिए लोक की तरफ देखते हैं। कबीर अपने दोहो, सबद,रमैनी में सत्य पर बल देते है मानवीय संबंधों पर बल देते हैं इसलिये उनका कहना है कि 'जब कुछ नही है तो सत्य केवल मानवीय सम्बन्ध है'

हालाँकि उनकी एक बात से मैं अब तक सहमत नहीं हो पाया हूँ एक जगह उन्होंने कहा कि जहाँ प्रेम होगा वहाँ डर नहीं होगा । जबकि मुझे लगता है कि डर तो वही होता है जहां प्यार होता है लगाव होता है। हमारे घरवालों को हमारी चिंता लगी रहती है। समय से घर ना पहुँचो तो फोन पर फोन मिलाने लग जाते है इसिलिये ना कि वो हमसे प्रेम करते है नहीं तो उन्हें क्या? खैर हो सकता है उनका संदर्भ कुछ और रहा हो पर प्रेम हममे चिंता, शक़-शुबहा, और डर सभी कुछ अपने आप ले आता है ये किसी प्लानिंग के तहत नहीं होता। यह अपने आप होता है जैसे प्रेम अपने आप होता है।

रविवार, 20 सितंबर 2009

बद्रीनारायण की कविता

प्रेमपत्र

प्रेत आएगा
किताब से निकाल ले जायेगा प्रेमपत्र
गिद्ध उसे पहाड़ पर नोच-नोच खायेगा

चोर आयेगा तो प्रेमपत्र ही चुराएगा
जुआरी प्रेमपत्र ही दांव लगाएगा
ऋषि आयेंगे तो दान में मांगेंगे प्रेमपत्र

बारिश आयेगी तो प्रेमपत्र ही गलाएगी
आग आयेगी तो जलाएगी प्रेमपत्र
बंदिशें प्रेमपत्र ही लगाई जाएँगी

सांप आएगा तो डसेगा प्रेमपत्र
झींगुर आयेंगे तो चाटेंगे प्रेमपत्र
कीड़े प्रेमपत्र ही काटेंगे

प्रलय के दिनों में सप्तर्षि मछली और मनु
सब वेद बचायेंगे
कोई नहीं बचायेगा प्रेमपत्र

कोई रोम बचायेगा कोई मदीना
कोई चांदी बचायेगा कोई सोना

मै निपट अकेला कैसे बचाऊंगा तुम्हारा प्रेमपत्र

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

यह उसकी आवाज़ थी

घर में घुसते ही
मैंने अपने कपड़े उतारे
जिसे वह बुद्धिजीवी का
चोगा कहती है।

खाने की मेज़ पर
केवल कुछ किताबें खुली हुई पड़ी थीं
जिन्हें मै पढ़ने से डरता था।

वह चारो तरफ
कहीं नहीं थी
उसके कमरे का दरवाज़ा
भीतर से बंद था।

रसोईघर में जाने की
मेरी हिम्मत नहीं हुई।

मै सोफे पर
टांगें फैला पसर गया
और छत पर
रुका हुआ पंखा देखने लगा।

अचानक मेरी दृष्टि
सोफे के पास मेज़ पर रखे
केसैट टेप रेकार्डर पर पड़ी
जिस पर एक चिट लगी थी
'इसे सुनो।'

मैंने 'की' दबा दी
तरह-तरह की चीखें आने लगीं।
कुछ देर उन्हें सुनते-सुनते
जब मै घबरा गया
तब एक साफ आवाज़
सुनाई दी--
यह उसकी आवाज़ थी :

'यदि तुम कायरो की
ज़िन्दगी जियोगे
तो मै यह घर छोड़कर
चली जाऊँगी।

बुधवार, 9 सितंबर 2009

साही की कविता

प्रार्थना : गुरु कबीरदास के लिए

परम गुरु
दो तो ऐसी विनम्रता दो
कि अंतहीन सहानुभूति की वाणी बोल सकूँ
और यह अंतहीन सहानुभूति
पाखंड न लगे ।

दो तो ऐसा कलेजा दो
कि अपमान, महत्वाकांक्षा और
भूख की गांठों में मरोड़े हुए
उन लोगों का माथा सहला सकूं
और इसका डर न लगे
कि कोई हाथ ही काट खायेगा ।

दो तो
ऐसी निरीहता दो
कि इस दहाड़ते आतंक के बीच
फटकार कर सच बोल सकूँ
और इसकी चिन्ता न हो
कि इस बहुमुखी युद्ध में
मेरे सच का इस्तेमाल
कौन अपने पक्ष में करेगा ।

यह भी न दो
तो इतना ही दो
कि बिना मरे चुप रह सकूँ ।

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

जो अब तक लिखा नही गया था

आज भी मै वहीं बैठा हूँ

जहाँ उस दिन बैठा हुआ था ।

तुम्हारे पास लेकिन तुमसे दूर

वहीं

जहाँ आज भी तुम्हारी देह या उसी जैसा कुछ

रखा हुआ है इसी खाली कुर्सी पर

जिसकी आत्मा पर लोगो ने नोवेल लिख डाले

और मै कुछ न लिख सका ।

क्योंकि तुम मेरे दिल में थी दिमाग में नही,

जबकि लेखन तो दिमाग की उपज बन चुका है न आज ।

उसी कुर्सी पर

आज मै एक अजीब सी बदहवासी

एक अजीब सी खामशी देख रहा हूँ

मेरे दोस्त कहते है मेरा दिमाग चल गया है

क्या अजीब अजीब चीजे (न दिखने वाली) देखता है?

हाँ, उनके लिए ये फीलिंग चीजे ही तो है ,

लेकिन मेरे लिए ये न ख़त्म होने वाला इंतज़ार है ।

बुधवार, 2 सितंबर 2009

कुछ उद्धरण और, मलयज की डायरी(भाग-१)से

०४जनवरी,५८
किसी पुस्तक की समीक्षा के क्या मानी होते हैं? क्या पुस्तक-समीक्षक शुरु से ही यह मानकर चलता है कि वह एक ऐसे स्तर पर है जहाँ से वह अपनी मान्यताओं द्वारा संचालित पुस्तक पर निर्णय दे या उस पर विचार करे ?.....मुझे लगता है कि आजकल पुस्तक-समीक्षा के नाम पर प्राय यही होता है यानी समीक्षक अपने को एक उच्च दर्जे पर समझता है। लेकिन मेरे विचार से यह गलत दृष्टिकोण है। पुस्तक-समीक्षा के यह मानी होने चाहिए कि समीक्षक कृतिकार के साथ मिलकर कृति के आंतरिक मूल्य और उन मूल्यों की ओर इंगित करने वाली दिशा का अध्ययन करे। इस तरह से रचना के विकास की संभावनाओं पे ठोस रूप से विचार किया जा सकता है।.......


०२मार्च,५७
काव्य व्यक्तित्व तीन प्रकार के होते हैं।
पहला वह जो बदलते युग के मानव-मूल्यों से अपने विकास की संगति बिठा लेता है। उसमे सतत जागरूकता की एक सहज शक्ति होती है जो उसे रूढ़ होने नहीं देती, उसमे आगे और आगे विकसित होने के लिए विस्फोट होते हैं। दूसरे वह जो सम्पूर्ण रूप में अपने को आगे ले चलने में अशक्य होते हैं। वो उन विकसित मूल्यों, संदर्भो के प्रति जागरूक होते हुए भी,उसे अस्वीकार न करते हुए भी, उसे अपना निजीपन-अपना अतीत-दान नहीं कर पाते। तीसरे वे होते हैं जो अपने समय के आगे कभी नहीं बढ़ते, रुद्ध होते हैं और आजीवन उसे ही गौरवांवित करते रहते हैं।(किसी भी काल में एकाध ही में तीनों प्रकार के व्यक्तित्व मिलते हैं।)


१८मई,५७
मुझे लगता है कि आज के ईमानदार लेखक का लेखन-कार्य बहुत कुछ एक परवशता , एक कम्पलसन की स्थिति में हो रहा है। प्राचीन काल के लेखकों कि तरह लेखन के प्रति पूर्ण रूप से आत्यांतिक वह नहीं बन सकता। उसकी रचना प्रक्रिया में ही जैसे अन्तर्विरोध, प्रेशर और लाचारी के तत्व सम्मिलित हैं जो सिर्फ उसे बीती पीढ़ी के लेखकों से अलग करते हैं। वरन् उसके सामने कला की अभिव्यक्ति का एक विराट प्रदेश भी खोलते हैं।.........


१८अक्टूबर,५९
कविता पढ़ो तो कवि की हैसियत से नहीं, एक साधारण पाठक की तरह, यानी न आलोचक की तरह न कवि की तरह।कविता लिखो, लेकिन कवि की तरह नहीं। कविता बस आदमी की भाषा हो और कुछ नहीं। इससे ज्यादा की कोशिश कविता में आदमी को कवि बना देती है और कविता को जीवनहीन।......

१९अगस्त,६०
कल नामवर जी से बात करते-करते हफ्तों पहले कही उनकी एक बात याद आती है(शमशेर जी से) मैं कवि को केवल अपना हृदय दे सकता हूँ, अपनी सहानुभूति नहीं। नोट, बाद में विचार करने पर --यह दृष्टिकोण एक इन्टेग्रेटेड पर्सनेलेटी वाला व्यक्ति ही रख सकता है।