गुरुवार, 2 सितंबर 2010

बिलकुल माँ वाली खुशबू

अपने तमाम सार्वजनिक दायित्वों के बावजूद हम सब में एक निजत्व होता है। “माँ में से एक खुशबू आती थी बिल्कुल माँ वाली” ‘उड़ान’ फिल्म का यह संवाद इसी निजत्व की ईमानदार अभिव्याक्ति है।
यह आज मुझे अधिक महसूस हो रहा है कल जन्माष्टमी है। एक वक्त था जब इस त्योहार के अवसर पर मेरा घर घी में खोये को भूनने की खुशबू से भर जाता था हमारे सामने वाली पड़ोसन(जिन्हें हम ताई कहते थे) और मेरी माँ मिलकर हम भाई-बहनों के लिए पंजीरी और मैथी के लड्डू बनातीं थीं और मेरे लिए स्पेशल पेड़े बनते थे क्योंकि मैं पंजीरी और मैथी के लड्डू दोनों ही पसंद नहीं करता था। पंजीरी में कसा हुआ गोला डलता था जो मेरे दाँतों मे अटकता था और लड्‍डू मुझे कड़वे लगते थे उस वक्त। क्या कुछ है जो आज उस स्मृति बनी याद को फिर से सच में तबदील कर सके।
मेरे घर में पापा हैं, भैया है-भाभी है मगर आज मेरा घर उस खुशबू से महरूम है जो कुछ समय पहले तक मेरे घर में आती थी।

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