शनिवार, 20 नवंबर 2010

लोहिया का लेखन आपको लोहियावादी नहीं, बल्कि बुद्धिवादी बनाता है..

यह साल लोहिया का शताब्दी वर्ष है। साल के शुरु(फरवरी २०१०) मे साहित्य अकादमी ने लोहिया पर तीन दिवसीय सेमिनार का आयोजन करवाया था जिसमे समाजवादियों का एक पूरा जत्था मौजूद था देशभर से समाजवादी चिंतकों(लोहियावागदियों को इकट्ठा किया गया था। मस्तराम कपूर, कृष्णदत्त पालीवाल, रमेशचंद्र शाह, हरीश त्रिवेदी, नामवर सिंह, अनामिका, प्रेम सिंह और ना जाने कितने ही लोग थे इन लोगों में ऐसे बहुत लोग थे जो अपने विचारों से समाजवादी नहीं थे लेकिन ऐसा कोई नहीं था जो लोहिया की बौद्धिकता और उनके लेखन का क़ायल न हो। कुल मिलाकर यह एक सफल सेमिनार था जहाँ लोहिया के प्रशंसकों ने पर्चे पढे थे रमेशचंद्र शाह का पर्चा तो बहुत विश्लेषणपरक था। वह उन लोगों को ज़रूर पढ़ना चाहिये जिन्हें लोहिया में सिर्फ कमिया ही कमिया नज़र आतीं हैं। लोहिया पर वह सिर्फ शुरुआत थी उसके बाद अकार सामयिक वार्ता, ने लोहिया पर विशेषांक निकाला। अकार के सिलसिले में प्रो. आनंद कुमार ने बेजोड़ काम किया है। डॉ प्रेम सिंह के संपादन में युवा संवाद का अगला अंक लोहिया विशेषांक होगा।

खैर इन बातों को यहाँ संक्षेप में रखने का मक़सद उस कोशिश से आपको परिचित करवाना था जो इन दिनों लोहिया के प्रशंसकों और गाँधी शांति प्रतिष्ठान द्वारा अंजाम दी जा रही है। आज(२० नवंबर २०१०) से २२.११.२०१० तक लोहिया के संस्कृति, कला, साहित्य व भाषा विषयक लेखन पर कार्यशाला आयोजित की जा रही है। आज इस कार्यशाला का पहला दिन था जिसमें लोगों की संख्या ने बेशक़ निराश किया लेकिन यह निराशा प्रो.आनंद कुमार के वक्तव्य के बाद आशा में बदल गयी। रही सही कसर सी.एस.डी.एस में फेलो मेधा ने लोहिया के लेखन में स्त्री विमर्श से संबंधित अपने वक्तव्य में पूरी कर दी।
लोहिया के संस्कृति विमर्श पर बोलते हुए प्रो. आनंद कुमार ने कहा कि लोहिया का लेखन हमें अपनी दिमागी खिड़कियों को खोलने की सीख देता है और वे हमें तुलसी और कबीर की ओर ले जाते हैं। मार्क्सवाद की सीमा बताते हुए उन्होंने कहा कि प्रतिक्रिया के लिए मार्क्सवाद पहले प्रतिकूल परिस्थितियों के हद से गुज़रने की छूट देतें है यानि जब तक परिस्थितियाँ पक नहीं जाएगी तब तक पूँजीवादियों के साथ चलेंगें। उन्होंने यहाँ तक कहा कि लोहिया को पढने के बाद आप लोहियावादी बने या न बने लेकिन यह तय है कि उनका लेखन आपको बौद्धिक जरूर बना देगा। आप विमर्श के साथ खुद को खड़ा पाएंगे।
मेधा ने लोहिया के स्त्री-पुरुष संबंधी लेखन पर विचार करते हुए कहा कि लोहिया के लिए स्त्री एकायामी नहीं है उसके कई डाइमेंशन हैं यही कारण है कि लोहिया स्त्री-पुरुष संबंध को अधिक आनंदपूर्ण और रचनात्मक बनाने की बात करते हैं। स्त्री-पुरुष के बीच वे एक सखा-सखी के संबंध जैस कृष्ण और कृष्णा(द्रौपदी) का था की बात करते हैं। सावित्री से ज्यादा महत्वपूर्ण वह द्रौपदी को मानते हैं जबकि हमारी आस्था में सावित्री ज्यादा श्रेष्ठ मानी गयी थी। वह इस दुर्भावना को तोड़ते हैं। साथ ही स्त्री के शोषण में धर्म की भूमिका को बेहतर ढंग से समझते है.।
इससे पहले डॉ प्रेम सिंह ने लोहिया के लेखन पर मौलिक चिंतन की संभावनाओं की खोज पर बल दिया था। इस कार्यशाला का सबसे बेहतरीन समय वह रहा जब एक शोधार्थी(सत्यप्रकाश) ने लोहिया के लेख राम,कृष्ण और शिव पर अपना विश्लेषणपरक वक्तव्य दिया सही रूप में उसे वक्तव्य भी नहीं कहना चाहिये वास्तव में वह उस नौजवान की जिज्ञासाएँ थीं जो लोहिया के लेखन से रूबरू होते हुए पाठक के मन स्वत ही जगह बना लेती हैं लेकिन शर्त यही है कि लोहिया मसखरी की जगह गंभीरता की मांग करते हैं। सत्यप्रकाश ने वास्तव में उस गंभीरता का परिचय दिया था। मैं अपनी स्मृति के आधार पर उसके कथनों को लिखने की अपेक्षा आपके साथ उसकी पूरी रिकॉर्डिंग शेयर करना पसंद करूँगा।
कुल मिलाकर आज का दिन लोहिया के लेखन को समझने में ही बीता। इसने पूरे माहौल को काफी गंभीर बना दिया था लेकिन इस गंभीरता को होस्ट की तरफ से शाम को दोबारा दी गई चाय और हिरण्य हिमकर के आहंग(एक कविता कोलाज़) ने बोझिल नहीं होने दिया। कल फिर उस बहसनुमा माहौल में जाना होगा लेकिन आज कुछ ज्यादा पढकर जाऊँगा। ताकि मैं भी सक्रियता दिखा सकूँ।