शनिवार, 25 सितंबर 2010

बहसतलब-५ (पहले दिन की लघु रिपोर्ट)

बहसतलब-५ का आयोजन इस बार सूरजकुंड स्थित जंगल फॉल कैम्प मे हुआ हालाँकि पहले इतनी दूर इस सेमिनार को आयोजित करवाने के कारण अविनाश एंड पार्टी पर थोड़ा गुस्सा आया, लगा कि इंडिया हैबिटेट सेंटर में क्या दिक्कत थी? पर मंडी हॉउस पर कैब व्यवस्था और जंगल फॉल कैम्प के ट्रैडिशनली मेंटेन्ड तंबुओ को देख कर वो सारा मलाल अपने आप गायब हो गया। सचमुच बहुत बेहतरीन आयोजन और साथ ही बहुत बढिया आयोजन स्थल ।
दो दिनों के चार सत्रों में से पहले दिन के पहले सत्र में ‘किसके हाथ में बॉलीवुड की कंटेंट फैक्टरी की लगाम’ पर बहस हुई। सुधीर मिश्रा, अनुराग कश्यप, जयदीप वर्मा, अनुषा रिज़वी, महमूद फ़ारूक़ी, चंद्रप्रकाश द्विवेदी इस मुद्दे पर बोलने के लिए मौजूद थे। यह सत्र पूरे आयोजन का सबसे शानदार सत्र था लगभग तीन घंटे चली बहस में किसी में भी बोझिलता की स्थिति पैदा होते नहीं दिखी। सुधीर मिश्रा और अनुराग कश्यप की बातों ने प्रभावित किया ।“सिनेमा का बजट जैसे-जैसे बढ़ता जाएगा,उसकी लगाम एक के हाथ में होने के बजाए कई लोगों के हाथ में होती जाएगी। निर्देशक के हाथ में होकर भी कईयों के हाथों में।“-अनुराग कश्यप
अंत में फैसला जिसकी लाठी(पैसा) उसी की भैंस के रूप में निकलता दिखाई दिया। यही वो सत्र रहा जिसमे जयदीप वर्मा बहुत इमोशनल हो गये और सिनेमा के मामले में एक बेहतर भविष्य की चाहत रखने वाले लोगों पर अन्जाने में ही इमोशनल अत्याचार कर बैठे उनके वक्तव्य बहुत शानदार रहता अगर श्रोताओं को उससे निराशा का अनुभव न होता खैर बाद के सत्रों में उन्होंने इस पर काफी सफाई दे दी। अनुषा रिज़वी कम बोली , और जयदीप वर्मा ने इस सत्र में बोलते वक्त क्योंकि वक‍्त का ख़याल नहीं रखा था सो चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने इसकी पूर्ति करते हुए सिर्फ २ मिनट में अपनी बातो समेट डाला। दोबारा कहना चाहिए कि यह सत्र इस पूरे आयोजन की जान था। भूपेन और अतुल तिवारी जी ने हस्तक्षेप किया । अतुल तिवारी की सिनेमा की समझ ने बेहद प्रभावित किया शायद वह हस्तक्षेप इस पूरे आयोजन का सबसे बढिया हस्तक्षेप था।


दूसरा सत्र- ‘न तुम हमें जानो न हम तुम्हें जाने’ में भी सुधीर, अनुषा और अनुराग बने रहे साथ ही इस सत्र में नीलेश मिश्र और विनोद अनुपम ने जॉइन किया. बात स्त्री-पुरुष संबंधों के साथ हुए ट्रीटमेंट पर होनी थी लेकिन क्या होने लगा कुछ समझ नहीं आया और इसमे बहुत गहरी भूमिका उन दर्शकों की रही जो सवाल पूछने के नाम पर पूरा भाषण पिलाने पर तुल गये। मेरे जैसे कुछ नादान इस पूरे मुहावरे को समझ ही नहीं सके शायद बहस की तलब इसे ही कहते हों । विनीत ने तो कहा भी कि ऐसे आयोजनों में सवालो के लिए कूद जाना चाहिये पर मुझे ऐसी खेल-कूदों को समझने में अभी थोड़ा और वक़्त लगेगा।
कुल मिलाकर यह सत्र मुझे एवरेज लगा लेकिन सुधीर और अनुराग ने पुन प्रभावित किया।

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

बिलकुल माँ वाली खुशबू

अपने तमाम सार्वजनिक दायित्वों के बावजूद हम सब में एक निजत्व होता है। “माँ में से एक खुशबू आती थी बिल्कुल माँ वाली” ‘उड़ान’ फिल्म का यह संवाद इसी निजत्व की ईमानदार अभिव्याक्ति है।
यह आज मुझे अधिक महसूस हो रहा है कल जन्माष्टमी है। एक वक्त था जब इस त्योहार के अवसर पर मेरा घर घी में खोये को भूनने की खुशबू से भर जाता था हमारे सामने वाली पड़ोसन(जिन्हें हम ताई कहते थे) और मेरी माँ मिलकर हम भाई-बहनों के लिए पंजीरी और मैथी के लड्डू बनातीं थीं और मेरे लिए स्पेशल पेड़े बनते थे क्योंकि मैं पंजीरी और मैथी के लड्डू दोनों ही पसंद नहीं करता था। पंजीरी में कसा हुआ गोला डलता था जो मेरे दाँतों मे अटकता था और लड्‍डू मुझे कड़वे लगते थे उस वक्त। क्या कुछ है जो आज उस स्मृति बनी याद को फिर से सच में तबदील कर सके।
मेरे घर में पापा हैं, भैया है-भाभी है मगर आज मेरा घर उस खुशबू से महरूम है जो कुछ समय पहले तक मेरे घर में आती थी।