शनिवार, 13 अप्रैल 2013

17वाँ देवीशंकर अवस्थी आलोचना सम्मान प्रियम अंकित को ...


समकालीन हिंदी आलोचना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिये देवीशंकर अवस्थी आलोचना सम्मान किसी युवा आलोचक(४५ वर्ष की आयु तक) को १९९५ से हर वर्ष प्रसिद्ध आलोचक देवीशंकर अवस्थी की स्मृति में उनके जन्म दिवस ०५ अप्रैल को दिया जाता है। इस बार का १७वाँ देवीशंकर अवस्थी सम्मान  वरिष्ठ कथाकार राजेंद्र यादव द्वारा आलोचक प्रियम अंकित को उनकी आलोचना पुस्तक पूर्वाग्रहों के विरुद्ध पर साहित्य अकादमी सभागार में ०५ अप्रैल को प्रदान किया गया इस अवसर पर आयोजित आलोचना के नये पूर्वाग्रह विषयक गोष्ठी में वैभव सिह, बजरंग बिहारी तिवारी, अभय कुमार दुबे और प्रियम अंकित नें अपने वक्तव्य दिये और कार्यक्रम का संचालन संजीव कुमार ने किया।  
पुरस्कार निर्णायक समिति के वक्तव्य और प्रशस्ति पाठ का वाचन करते हुए आलोचक नित्यानंद तिवारी ने बताया कि इस पुरस्कार का चयन पाँच सदस्यीय निर्णायक समिति सर्वश्री राजेंद्र यादव, अजित कुमार, नित्यानंद तिवारी, अशोक वाजपेयी, और सुश्री अर्चना वर्मा द्वारा सर्वसम्मति से किया गया। इससे पूर्व यह पुरस्कार मदन सोनी, पुरुषोत्तम अग्रवाल, विजय कुमार, सुरेश शर्मा, शंभुनाथ, वीरेंद्र यादव, अजय तिवारी, पंकज चतुर्वेदी, अरविंद त्रिपाठी, कृष्ण मोहन, अनिल त्रिपाठी, ज्योतिष जोशी, प्रणय कृष्ण, सुश्री प्रोमिला के.पी. ,  संजीव कुमार और जितेंद्र श्रीवास्तव को मिला है वर्ष १९९९ इसका अपवाद है क्योंकि किसी व्यक्ति को सम्मान के योग्य पाया नहीं जा सका था।  
२६ अगस्त १९७६ में कानपुर में जन्मे प्रियम अंकित आगरा कॉलेज, आगरा के अंग्रेजी विभाग में अध्यापनरत हैं उनकी यह पहली पुस्तक समकालीन कहानी की आलोचना में संभावनाओं के नए द्वार खोलती है जिससे अनेक कोणों से आज की कथादृष्टि को परखा जा सकता है।
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इस मौक़े पर आलोचक और निर्णायक समिति के सदस्य नित्यानंद तिवारी ने प्रियम अंकित को दिये गये प्रशस्ति पत्र को पढ़ते हुए कहा कि पूर्वाग्रहों के विरुद्ध यह केवल किताब का शीर्षक नहीं है यह प्रियम अंकित की आलोचनादृष्टि का प्रस्थान बिंदु है। प्रगतिवादियों और प्रयोगवादियों की रस्साकशी के पुराने पड़ गये राग को पीछे छोड़ कर वे पूर्वाग्रहों की संहिता के विरुद्ध मोर्चा खोलने के अलावा अपनी पीढ़ी के रचनाकर्म को नवोन्मेष का नाम देते हैं और उसको व्यावहारिक उदाहरणों के साथ सप्रमाण चिंहित करते हैं। उनकी किताब नवोन्मेष की दुनिया के गली, चौराहों, सड़कों, स्थानों, दरवाजों पर लगे नामपट्ट और उन नामों की अपनी विशिष्ट संभावनाओं का नक्शा पेश करती है। इसे नवोन्मेष की इस संहिता का सूत्रपात कहा जा सकता है। नवोन्मेष की इस दुनिया का देशकाल उत्तर आधुनिक है तीसरी दुनिया में इस कालगति के संग अपने परिप्रेक्ष्य में प्रियम निरंतर यह सजगता बनाये रखते हैं कि विकल्पों के अतिशय और बहुलता की इस दुनिया में एक तरफ अब तक स्थिरता और शाश्वतता अर्जित की गई सत्ताओं के खिलाफ़ विद्रोह करने का आत्मतोष तो दूसरी तरफ व्यवस्था परिवर्तन के लिये होने वाले
 तमाम सकारात्मक प्रयासों को ग्रैंड-नैरेटिव या मेटा-नैरेटिव कहकर खारिज कर देने की सुविधा भी मौजूद है, बहुलता का स्वागत भी है और चुनाव की सावधानी भी, जिसे प्रियम नें नवोन्मेष का नाम दिया है वह अपनी दुनिया के बाहर अभी तक प्रायः कुछ संदेश कुछ आशंका के साथ विवादास्पद है। प्रियम ने एक ओर उसके पक्ष से मोर्चा खोला है तो दूसरी ओर भीतर आने का दरवाजा भी। उन्होंने व्यवस्था और सत्ता के सांस्कृतिक छद्म सूचना प्रौद्योगिकी का अदम्य विस्तार. उपभोक्ता समाज के भीतर पनपती नव-साम्राज्यवादी और फासीवादी प्रवृत्ति, विभ्रम, यथार्थ आदि उत्तर-आधुनिक आलोचना के शब्दकोश और मुहावरों को निरीह अकादमिक और बौद्धिकता के छद्म से छुड़ाकर कहानी के मध्म में निहित सत्य की पहचान का जरिया बनाया है और रचनाओं में अभिव्यक्ति की विडंबनाओं को रेखांकित किया है। हिंदी की आलोचना में इसे एक नई शब्दावली के विकास की पहल के रूप में देखा जा सकता है। हिंदी कहानी के नवोंमेष को अगले पड़ाव को सुव्यवस्थित रूप से चिंहित, सुविचारित ढंग से विश्लेषित और संतुलनपूर्वक मूल्यांकित करने और इस क्रम में आलोचना की एक उपयुक्त शब्दावली विकसित करने के लिए वर्ष २०१३ का देवीशंकर अवस्थी आलोचना सम्मान प्रियम अंकित को दिया जा रहा है।

पूर्वाग्रहों को प्रेरित करते रहा जाए ताकि वे आत्मालोचना से जी न चुराएं – प्रियम अंकित

आलोचना के नये पूर्वाग्रह विषय पर बोलते हुए प्रियम ने कहा कि रचनाकार और आलोचक दोनों ही एक विशेष समय का और एक विशेष समाज का हिस्सा होते हैं उस समय और समाज की मान्यताएँ, अभिरुचियाँ, संस्कार, आस्वाद, विचार आदि उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के भीतर व्यापते हैं हमारी साहित्यिक चेतना हमारी वास्तविक सामाजिक दुनिया के भीतर ही आकार लेती है हालाँकि यह भी सत्य है कि रचना खुद अपना एक समानांतर समाज भी रचती है और आलोचना की एक जिम्मेदारी यह भी है कि वह इस समानांतर समाज का भी नागरिक होने की तमीज़ हममे पैदा करे। उन्होंने आगे कहा कि हर समाज के अपने पूर्वाग्रह होते हैं क्या यह रचनाकार  और आलोचक दोनो के लिये संभव है कि जिस समाज का हिस्सा वे होते हैं उसके पूर्वाग्रहों का पूरी तरह अतिक्रमण कर सकें। फ़िराक़ साहब के शेर –
किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी। 
ये हुस्नो इश्क़ तो धोखा है सब मगर फिर भी।। 

का हवाला देते हुए वे कहते है कि आलोचना का एक काम रचना के भीतर और अपने भीतर इसी मगर फिर भी की व्यापकता और गहराई की खोज करना है आज की हिंदी आलोचना में स्थित पूर्वाग्रहों की खोज के बिंदु बीसवीं सदी की हिंदी आलोचना में देखने के क्रम में उनका कहना है कि आज आलोचना में जो कुछ भी नया है चाहे वो नया सामर्थ्य हो या नये पूर्वाग्रह उसके सूत्र बीसवीं सदी की हिंदी आलोचना के अंतिम दशक की रचनात्मक और विमर्शात्मक त्वरा में खोजे जा सकते हैंवे रचनादृष्टि और आस्वाद के नये धरातल को सुगम बनाने को भी आलोचना का एक प्रमुख काम मानते हैं। वे आगे कहते हैं कि कला तकनीकों के इस्तेमाल को लेकर जो भी पूर्वाग्रह व्याप्त हों - चाहे वे नये हों या पुराने – उनका विरोध करना आलोचना के लिए बड़ी चुनौती बन जाता है। लेकिन आलोचना जब इस पूर्वाग्रह का विरोध करने के क्रम में नये कहानीकारों पर हावी रूपकात्मकता, फैंटेसीप्रियता, वाक्चातुर्य आदि तत्वों का बेजा समर्थन करने लगती है, तो दूसरे किस्म के नये पूर्वाग्रहों की स्थापना होती है। अंत में अपने वक्तव्य का निष्कर्ष देते हुए और पूर्वाग्रह का लगभग समर्थन करते हुए वे कहते है कि पूर्वाग्रह पुराने हों या नये आखिर तो कहलाएंगे पूर्वाग्रह ही आलोचना में अगर कोई पूर्वाग्रह दरकार हो भी, तब भी, आलोचना का भला इसी में है कि पूर्वाग्रहों को प्रेरित करते रहा जाए ताकि वे आत्मालोचना से जी न चुराएं। 

रचना कई बार अपने जन्म की परिस्थितियों से पूर्वाग्रह लेकर आती है – वैभव सिंह  

आलोचना के नये पूर्वाग्रह विषय पर अपनी बात रखते हुए वैभव सिंह ने कहा कि जब हम नये पूर्वाग्रह की बात कर रहे होते हैं तो क्या हम यह कह रहे होते हैं कि पुराने पूर्वाग्रह वाकई पुराने पड़ गये है जिसमे कहा जाता था कि अज्ञेय बड़े या नागार्जुन। हालांकि यह बड़ा चुनौतिपूर्ण काम है और यह भी कि पूर्वाग्रह जीवित मनुष्यों के ही होते है मुर्दों के नहीं। लेखक जब भी लिखता है वह समय संकटपूर्ण ही होता है क्योंकि हर युग के अपने संकट होते हैं जिस तरह लेखक के लिेए कोई समय संकटविहीन नहीं होता उसी तर्ज पर लेखक के लिए कोई भी समय पूर्वाग्रहविहीन नहीं होता। पूर्वाग्रह दरअसल इन परिस्थितियों की ही उपज होते हैं। पूर्वाग्रहों का संबंध सिर्फ आलोचक के मन से नहीं होता बल्कि वे अपने समय की विचारधाराओं और अपने समय के वर्चस्वशाली झूठ और वर्चस्वशाली सत्य से आते हैं। रचना कई बार अपने जन्म की परिस्थितियों से पूर्वाग्रह लेकर आती हैं और युगीन परिस्थितियाँ पूर्वाग्रह को जन्म देतीं हैं। अपने समय की रचनाशीलता का विश्लेषण हमेशा से ही आलोचना के लिए एक चुनौती रहा है आज भी एक वर्ग विचारधारा और साहित्य को अलगाने के पक्ष में है। आज जिस तरह से विचारधारा की संस्कृति पर आक्रमण किया जा रहा है वह आलोचना और रचना दोनो की ही संस्कृति के लिये खतरा है। यह एक तरह से आलोचना का बौद्धिक संकट है। वैभव ने आगे सवाल किया कि पूर्वाग्रहों से मुक्ति का क्या अर्थ है? हमें यह भी साफ करना होगा। दरअसल रचना और आलोचना में संबंध बना रहे हमारी कोशिश इसमें निहित रहनी चाहिये। रचना को कच्चा माल समझने से बचना चाहिए यह एक तरह से रचना का निरादर है।

पूर्वाग्रहों से मुक्ति की पूर्व शर्त है पूर्वाग्रहों की ठीक-ठीक पहचान करना – बजरंग बिहारी तिवारी

बजरंग बिहारी तिवारी ने अपने वक्तव्य की शुरुआत में कहा कि पूर्वाग्रहों को पहचाने बिना उनसे मुक्त होने या उन्हें गले लगाने का निर्णय नहीं लिया जा सकता। उनका कहना था कि  वे अपने थोड़े बहुत लेखन और विमर्श के जिस क्षेत्र में सक्रिय हैं वह तो  पूर्वाग्रहों का बड़ा उर्वर इलाका है उन पूर्वाग्रहों  के बारे में न बोलकर उस स्थिति पर बात की जिससे मुखातिब होने से समकालीन हिंदी आलोचना कतराती नजर आती है कतराने का यह उपक्रम पूर्वाग्रह विशेष के चलते है हिंदी की उपभाषाओं के स्वतंत्र होने के आंदोलन में निहित पूर्वाग्रह का जिक्र करते हुए उन्होंने रामविलास शर्मा का हवाला देते हुए कहा कि रामविलास शर्मा ने परंपरा का मूल्याँकन में मैथिली भाषा के आंदोलन पर विचार करते हुए यह उम्मीद जताई थी कि पृथकता का यह आंदोलन सफल नहीं होगा और हिंदी जाति अक्षुण्ण बनी रहेगी पर इतिहास ने उन्हें सही साबित नहीं किया। संस्कृत और प्राकृत के उदाहरणो का प्रयोग कर वे निष्कर्ष निकालते हैं कि इस देश में उनके देखते भाषिक बहुलता शर्म का विषय कभी नहीं रही। जिन्हें हिन्दी की बोलियां कहा जाता है वे भले अब अपने को भाषा कह रहीं हैं इन भाषाओं के बोलने वालों ने अपने को हिंदी से अलगाते हुए स्वतंत्र भाषआ का दर्जा पाने के लिए अपना आंदोलन तेज किया है। कभी इस समस्या पर रामविलास शर्मा ने मैथिली आंदोलन के संदर्भ में कहा था कि यह बोली हिंदी से अलग नहीं होगी पर इतिहास ने उन्हें सही साबित नहीं किया। बोलियों के अलगाव के आंदोलनों के प्रश्न पर समकालीन हिंदी आलोचना किंकर्तव्यविमूढ़ नजर आती है। इस समस्या को सही संदर्भ में समझने के लिए हमें बीसवीं सदी के पहले से चौथे दशक के हिंदी साहित्य की पड़ताल करनी होगी। उनका कहना था कि यह दौर जागरण और सुधार के युग के रूप में जाना जाता है। इसी दौर में हम औपनिवेशिक मानसिकता के शिकार हुए। इसी दौर में हिंदी भाषा की अपेक्षा भाषा का एक अन्य रूप सभ्य होने की शर्त समझा जाने लगा और रीति कविता को एक कलंक समझा जाने लगा। करीब ५०० वर्षों तक जो भाषा अखिल भारतीय स्तर पर साहित्यिक अभिव्यक्ति का सशक्त और स्वीकृत माध्यम थी उसे परिदृश्य से ओझल कर देने का लगभग सफ़ल प्रयास किया गया। अंत में उनका कहना था कि ब्रजभाषा के खिलाफ़ यह अभियान वास्तव में हिन्दी का अपनी ही उपभाषाओं के विरुद्ध अभियान बना। इसके बाद आधुनिक हिन्दी का जो छिन्नमूल अहंकारी रूप निर्मित हुआ वह हम सबके सामने है।

   पूर्वाग्रह अतीत और भविष्य के मध्य सेतु का काम करते हैं – अभय कुमार दुबे

अभय दुबे ने अपने वक्तव्य की शुरुआत बजरंग बिहारी तिवारी के देव के संदर्भ में कहे गये कथन को उठाते हुए की और रामविलास शर्मा के हवालों से इस शीर्षक पर अपना वक्तव्य दिया उन्होंने कहा कि रामचंद्र शुक्ल ने रीतिकाल की जो आलोचना स्थापित की वे रामविलास शर्मा के रास्ते होते हुए ही हिंदी में स्थापित हुई। उन्होंने कहा कि रामविलास जी को नायिका-भेद से दिक्कत है जबकि नायक-भेद से नहीं। नायिका-भेद से रामविलास जी को घोर आपत्ति है जो कि एक बड़ा पूर्वाग्रह है। देह विमर्श नाम का एक डंडा हिंदी में बना लिया गया है जिससे हिंदी के नारीवादियों को लगातार पीटा जाता रहा है। पर ऐसा नहीं है कि मैं पूर्वाग्रह को लेकर बहुत चिंतित हूँ मुझे लगता है कि पूर्वाग्रह अतीत और भविष्य के मध्य सेतु का काम करते हैं। उन्होंने हजारी प्रसाद जी के संबंध में रामविलास जी के पूर्वाग्रहों का संकेत देते हुए कहा कि  हजारी प्रसाद जी द्वारा रीतिकाल को सैकुलर काव्य कहने की वजह से रामविलास जी कुपित रहे। उन्होंने इस बात पर आश्चर्य जताया कि हिंदी में मार्क्सवादी राजनीति जितनी नाकामयाब है उतना ही सास्कृतिक मार्क्सवाद कामयाब है। इसे थोड़े चुटीले लहजे में लेते हुए उन्होंने कहा कि परम श्रद्धा के साथ मार्क्सवाद की दुनिया में जो नये काम हुए हैं हम उन्हें नहीं पढेंगे। हिंदी की दुनिया अभी भी साठ-स्त्तर के जमाने के मार्क्सवाद में अटकी है। आज की पूँजी को समझने के लिए पुराना मार्क्सवाद कोई सामग्री उपलब्ध नहीं करवाता। ये कैसा पूर्वाग्ह है कि हिंदी के साहित्यिक रूप को तरजीह दी जाती है और बाकि रूपो को खारिज कर दिया जाता है लिखित और पाठीय संस्कृति को इस भाषा ने आतंकित किया है इससे बोलियाँ त्रस्त हैं क्या टी.वी की भाषा का अपना संदर्भ नहीं है जबकि हम जानते है कि वह एक दृश्य भाषा है।
सभी वक्ताओं के वक्तव्य के बाद राजेंद्र यादव ने अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए प्रियम अंकित को बधाई दी पर साथ ही यह चिंता भी जताई की आज के आलोचक समय-समय पर लिखे-पढ़े गये लेखों को जोड़कर किताब की शक्ल दे देते हैं। उन्हें यह शिकायत प्रियम से भी है उन्होंने कहा कि क्या यह अच्छा न होता कि प्रियम प्रतिबद्धता और विचारधारा को लेकर एक पुस्तक लिखते या आलोचना के पूर्वाग्रह नामक इसी पुस्तक को एक सूत्रबद्ध ढ़ंग से लिखते। उन्होंने कमलेश अवस्थी के प्रति अपना आभार जताते हुए कहा कि देवीशंकर जी से उनके व्यक्तिगत संबंध थे। वे आज भी उनसे भावनात्मक रूप से जुड़े हुए हैं इसलिये वे यहाँ आ सकें या न आ सकें पर मानसिक रूप से इस समारोह में हमेशा उपस्थित रहते हैं। इसी सुअवसर पर देवीशंकर अवस्थी की पुस्तक ब्रजभाषा भक्तिकाव्य का उत्तरार्द्ध का विमोचन वरिष्ठ साहित्यकार राजेंद्र यादव और नित्यानंद तिवारी द्वारा किया गया।   
मंच संचालन देवीशंकर अवस्थी पुरस्कार से सम्मानित आलोचक संजीव कुमार ने किया। इस अवसर पर साहित्य समाज के जाने माने लेखक-साहित्यकार नित्यानंद तिवारी, अशोक वाजपेयी, विश्वनाथ त्रिपाठी, सुरेश सलिल, देवेन्द्र राज अंकुर, जितेंद्र श्रीवास्तव, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, शरद दत्त, निर्मला जैन, बलराम, देवीप्रसाद त्रिपाठी, पंकज चतुर्वेदी, भाषा सिंह, गंगा प्रसाद विमल, दिनेश मिश्र, मंगलेश डबराल, दिनेश कुमार शुक्ल, प्रसून लतांत, मेत्रैयी पुष्पा, रश्मि वाजपेयी, सुनीता बुद्धिराजा, रेखा अवस्थी व अवस्थी जी का परिवार उनके पुत्र, पौत्र व पुत्र-वधु आदि उपस्थित रहे।        
 प्रस्तुति -  तरुण गुप्ता
मोबाइल - 09013458181