सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

दिवाली मुबारक हो





कल दीपावली है

कुछ लोग

पटाखे जलाएंगे

कुछ लोग

दिल ।

एक तबका वो होगा

जिसके बंग्लो और कोठियो पर

लड़ियों की जगमगाहट होगी

कीमती मोमबत्तियाँ और दिये जलेंगे

और एक वो

जहाँ शायद चूल्हा भी ना जले ।


शराब की

सप्लाई के साथ डिमांड भी बढ़ जाएगी

जुआरियों के लिए

जश्न का दिन होगा कल

ना जाने कितनो की दिवाली होगी

और कितनो का दिवाला निकलेगा ।


राजधानी में पुलिस

अपनी जेब गरम करेगी ।


घरों में

लक्ष्मी की पूजा होगी

लेकिन बाहर लक्ष्मी,

लक्ष्मी की आस में

लक्ष्मणरेखा पार कर रही होगी ।


ऐसे ही दिवाली मनेगी

हर साल मनती है

मैं पिछले कई सालों से

यही देखता आया हूँ

'दिवाली मुबारक हो ' के पोस्टर

चौराहों पर चिपके मिलेंगे

जिसमें बेगै़रत नेता

बदसूरत छवि लिए

हाथ जो़ड़े दिखेंगे ।

जो इन्हीं पोस्टरों के पीछे से कहेंगे

कि

चाहे किसी के पास कुछ हो

या ना हो

भले ही किसी के घर में

आग लगे-चोरी हो

चाहे दिल्ली में कोई

सुरक्षित हो या ना हो

चाहे कहीं पर भी लोग मरें-ब्लास्ट हो

पर सभी को

हमारी तरफ़ से

"दिवाली मुबारक हो ।"

(पुन: प्रकाशित )

सोमवार, 20 अक्तूबर 2008

जातीय स्मृति पर संकट

कुछ दिन बाद दिवाली की धूम होगी , ये बात और है कि ये धूम दिवाली पर ही नज़र आएगी । अब त्यौहारों के प्रति कोई क्रेज़ नही रह गया , लगता है । मुझे याद है १५ अगस्त की पतंगबाज़ी मार्च में ही शुरु हो जाया करती थी । होली की शरुआत फाल्गुन में नहीं , बसंत में ही बच्चों के हाथों हो जाया करती थी । हम आठ आने का ढेर सारा रंग लाते थे क्योंकि मम्मी ढ़ाई रुपये की बैंगन वाली पिचकारी नहीं दिलवातीं थीं । दिवाली एक महीने पहले ही परचून की दुकानों पर मामा-चॉकलेट और फूँकवाले बम मिलने शुरु हो जाते थे । हम बच्चे एक रुपये के दस बम लेते और क्लास में धमाचौकड़ी मचाते , पढ़ने का तो जैसे मन ही नही करता था उन दिनों । एक त्यौहार जाता और अगले त्यौहार की तैयारियाँ शुरु हो जातीं । मेरी कॉलोनी के वो बच्चे अब छिछोरों की फेहरिस्त में शामिल हैं खूब धमाल मचाते थे । मुझे याद है जब कॉलोनी की बत्ती चली जाती तो सब बच्चे दुलारी (७० साल की एक बुढिया ) के घर के सामने पहुँच जाते और खूब ज़ोर से हल्ला करते , जानबूझ कर बम उसी के दरवाजे के आगे फोड़ते , क्योंकि वो हमें खेलने नहीं देती थी । ये सीजन हमारे बदला लेने का सीजन हुआ करता था । वो हमारे पीछे छड़ी लेकर दौड़ती और हम उसके पोपले मुँह का मज़ाक़ उड़ाते । लेकिन अब ये सब सोचकर अजीब लगता है । अब ये आलम है कि दिवाली कब है ये भी मुझे पूछना पड़ता है । वो हर त्यौहार का बेसब्री से इंतज़ार करना , वो क़ाग़ज़ का रावण बनाना , कुत्ते की पूँछ में बिजली बम लगाना , अब बड़ा याद आता है । वो सब शरारते , बहुत याद आती हैं । बचपन में जाने को जी चाहता है ।ये मेरी मजबूरी है लेकिन मैं जा नहीं पाता लेकिन जब आज के बच्चों को देखता हूँ तो और दुखी होता हूँ उनमें भी अब वो क्रेज़ नही रह गया है जो पहले हुआ करता था ।दिवाली आएगी और चली जाएगी । जैसे संडे आता है और चला जाता है । त्यौहार हमारी जातीय स्मृति होते हैं और जातीय स्मृति का मरना किसी भी समाज के लिए किसी भी सूरत में सही नही माना जा सकता । ऐसा मेरा मानना है ।

शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

आवाज़

मैंने कब कहा
मुझे तुम प्यार करो ।


मैंने कब कहा
मेरा ध्यान रखो ।


मैंने कब कहा
मुझे दुलारा करो ।



बस


मुझे पेट में न मारा करो ।

कोई होता जिसको अपना.......


जिन लोगों के घर नही होते
वो बाहर जाकर
फुटपाथ पर चलते
निठल्ले घूमते
दिखते.....
उन्हें घर की बदहवासी का
लोगों की नज़रंदाज़ी का
सड़कों की बदइंतज़ामी का
पूरा ख़याल होता है ।

जिन लोगों के घर होते हैं
वो घर के भीतर
डरे-सहमे खिड़कियों से झांकते
दिखते....
उन्हें घर की दीवारों के सूनेपन का
बाहर की
भागती
ज़िन्दगी की घुटन का
पूरा ख़याल होता है ।

पर

जिन लोगों के घर
होकर भी नहीं होते
वो घर में रहकर भी
बाहरी
बाहर जाकर भी
बाहरी
बनकर
दोस्तों के साथ बातें करते
अपनी रातों को दिन बनाते
ब्लॉग लिखते
सोती आँखों को जगाते
बिना खाए सोते
दिखते....
चूँकि वो
ना तो घर पर
और ना ही बाहर,
किसी को मिलते,
उनका ना तो घर को ,
ना बाहर को
ख़याल होता है

बस

उनके आगे तो
एक यही सवाल होता है
क्या आज भी घर जाकर ,
भूखे
सोना होगा
क्योंकि
अब तक तो
रसोई का दरवाज़ा बंद हो चुका होगा
घरवाले सो चुके होंगे।
हाँ।
जीने का दरवाज़ा खुला होगा
क्योंकि उनको लगा होगा
कि एक शख़्स
इस सराय में
सोने के लिये
आने वाला है .....................शायद ।

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

अभियान ( शेष भाग )

भारत में धर्म एक खतरनाक चीज़ है । इसलिए अधिकतर वो लोग जो इसके खिलाफ बोलना चाहते है कुछ नही बोल पाते । भारत में त्यौहार आस्था का विषय है और आस्था व धर्म दोनों ही मुझे खतरनाक मालूम होते हैं क्योंकि कम से कम भारत में तो इनके नाम पर कुछ भी कराया जा सकता है । गुजरात के दंगे , कंधमाल , ८४ की दिल्ली कुछ भी भूलने लायक नही है ये सव भूलने के विरुद्ध है । आस्था , जिसे बचपन में मैंने विश्वास के अर्थों में ग्रहण किया था आज मुझे देश के पर्यावरण के लिए खतरा मालूम होती है । चाहे गणेश उत्सव हो , दुर्गा पूजा या आंध्रा में होने वाली मूर्ती पूजा , सभी का संबंध विसर्जन से है । यह विसर्जन नदियों को विसर्जित करता है इस बात से हम लोग वाकिफ हैं । कल विजयदशमी थी उससे पहले नवराञों मे माँ दुर्गा की पूजा हुई , घरों में धार्मिक सामग्री ( सूखे फूल , मूर्तियां , सिंथेटिक रंग की कीचड़ ) इकट्ठी हुई । आज से नदियों में इन्हें प्रवाहित करने का सिलसिला शुरू होगा । कल का दिन बुराई पर भलाई (अच्छाई ) की जीत के रूप में याद किया जाता है । यह रावण की हार और राम की जीत का दिन है । लेकिन प्रदूषण के रावण से इस संग्राम में पर्यावरण के राम हर बार क्यों हार जाते हैं ? दो टूक में कल के हिन्दुस्तान ने यह सवाल उठाया था । अपनी पिछली पोस्ट में मैंने आपसे कुछ सुझाव मांगे थे और अपनी अगली पोस्ट में अपने सुझाव देने का वादा किया था सुझावों की यह मांग इसलिए की गई थी क्योंकि मैं ब्लॉग के सामाजिक सरोकारो में विश्वास रखता हूँ मुझे उम्मीद थी कि हमारे ब्लॉगर्स इस अभियान में शरीक़ होंगे मगर...............खैर छोड़िये , बात यमुना की चल रही थी यमुना को हमारी परंपरा में माँ का दर्जा दिया गया है और यह परंपरा वही है जो नवदुर्गा में हमारा विश्वास बनाए हुए है । तो फिर एक पूजनीय सामग्री को हम दूसरी माँ को प्रदूषित करने का कारण कैसे बना सकते हैं । पर सवाल उठता है कि अगर प्रवाहित(विसर्जित) ना करें तो क्या करें , क्योंकि कहीं और हम इन्हें फेंक या डाल नही सकते । यह करोड़ो आस्थाओ और उनके विश्वास का सवाल है । हम उनकी भावनाओं से नही खेल सकते।
इसके लिए पहला सुझाव कृञिम जलाशयों के रूप में हमारे सामने उभरता है । हमने वज़ीराबाद पर यमुना नदी के किनारे स्नान घर के ऱूप मे सूर यमुना घाट का निर्माण करवाया है । क्या हम इसी की तर्ज़ पर यमुना के ही जल का अलग से एक कुंड नही बना सकते , जहाँ यह सब सामग्री विसर्जित की जा सके । जिसका बाद में पुनर्चक्रण कर लिया जाए इससे लोगों की आस्था भी बनी रहेगी और यमुना प्रदूषित भी नहीं होगी । ३ साल पहले मुम्बई की मेयर ने गणेश उत्सव के दौरान यही तरक़ीब इस्तेमाल की जो काफी सफल रही।
दूसरा सुझाव यह है कि सरकार हर निगम ,ब्लॉक , क्षेञ , में उत्सवों के दौरान पंडाल या सामग्री गृह बनायें । जहाँ यह सभी सामग्री रखी जा सके जिसका बाद में सरकार खाद , भराव आदि के रूप में या जैसा भी पर्यावरण के अनुकूल हो इसका प्रयोग करे ।
सुझाव और भी हैं जैसे कि मूर्तियों के निर्माण में प्लास्टर ऑफ पैरिस की जगह चिकनी मिट्टी का उपयोग , सिंथेटिक रंगों के स्थान पर प्राकृतिक रंगों का प्रयोग आदि । उपरोक्त सुझावों को अपनाकर हम न केवल नदियों को प्रदूषित होने से बचा पाएंगे बल्कि अपनी आस्था के सवाल को भी सार्थक जवाब दे पाएंगे । यह सुझाव सिर्फ यमुना की रक्षा के लिए ही नही बल्कि हर उस जल-कुंड , जलाशय , आदि जलस्रोतो के हित में होंगे जो हमारी आस्था का शिकार बन प्रदूषित होते हैं ।

शनिवार, 4 अक्तूबर 2008

अभियान

पिछले दिनों यमुना में जो उफान आया उसे अधिकतर लोगो ने नकारात्मक नज़रिए से ही देखा होगा देखना भी चाहिए इसने अपने आस-पास बसने वाली आबादी को अपनी चपेट में ले लिया था जिसके कारन लोगो को कैम्पों में शरण लेनी पड़ी थी । मेरा घर यमुना के उस पार है और हमारी फेकल्टी इस पार । इसलिए मेरा लगभग रोज़ यमुना के इस पार आना होता है । आज भी आना हुआ ,४ दिन पहले पानी खतरे के निशान तक था आस-पास की बस्तिया डूबी हुई थी फसल ख़राब हो चुकी थी जिसका परिणाम दिल्ली में सब्जियों के आसमान छूटे दाम है । यह सीज़न त्योहारों का है इससे पहले श्राद थे । यह सब कुछ था लेकिन एक बात जो अजीब थी वो ये की यमुना साफ़ थी । जब मैंने यमुना के उफान को पहली दफा देखा तो मुझे एक ओर उसमे आने वाली बाढ़ के चिन्ह दिखाई दिए और दूसरी ओर इन त्योहारों के मौसम में भी यमुना के साफ़ रहने पर विश्वास नही हो सका । मन में एक सवाल उठा की जिस यमुना को साफ़ करने के लिए दिल्ली और केन्द्र सरकार हजारों करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है जिसके बाद भी कोई पोजिटिव रेसपोंस नही मिल रहा था उसे इस उफान ने कर दिखाया । आज यमुना साफ़ है पानी घट चुका है लेकिन यह ज़्यादा दिनों तक साफ़ नही रह सकेगी दिल्ली में त्योहारों का मौसम इसके नाले के रूप में परिणत होने का मौसम होता है । नवरात्रे चल रहे है घरो में माँ दुर्गा की पूजा अर्चना हो रही है । और साथ ही हो रही है इकट्ठी ,धार्मिक सामग्री (फूल , धुप , अगरबती ) । जो आगामी दशहरे के बाद यमुना में विसर्जित होगी । और यमुना दोबारा नाले के रूप में परिणत होगी । हम दिल्ली वासी ये सब जानते है लेकिन तब भी अपनी धार्मिक भावनाओं को ऊंचा रखने के क्रम में एक नदी की भावना को मार देते है संभवत यह बाढ़ उसी का अभिशाप हो । ऐसा नही की दिल्ली सरकार ने इस सम्बन्ध में कोशिश नही की । उन्होंने कोशिश की लेकिन वो कोशिश कम और खानापूर्ति ज़्यादा लगी । उसने बस-अड्डे और आई टी ओ के पुल के किनारे लोहे की जालियां लगवा दी लेकिन वह कोई पुख्ता इन्तेजाम नही था इस समस्या का । कुछ ही दिनों में ये जालियां वहाँ रहने वाले नशेडियों , स्मेकियों के लिए आमदनी का जरिया बन गई । और उन्होंने साबित कर दिया की दिल्ली सरकार का यह अभियान भी मात्र तुगलकी फरमान है । तब से अब तक यमुना साल में कम से कम दो बार तो ज़रूर धार्मिक कारणों से गन्दी की जाती है । मेरे पास इसका एक समाधान है जिसे मै अपनी अगली पोस्ट में बताऊंगा तब तक आप सोचिये की इसके लिए क्या किया जा सकता है । इस बारे में लिखने का मकसद यही है की आप लोगो के सुझाव अभियान बनकर सामने आयें ।