सोमवार, 10 अप्रैल 2017

22वें देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह की विस्तृत रिपोर्ट



2016 का देवीशंकर अवस्थी सम्मान युवा आलोचक श्री पंकज पराशर को उनकी पुस्तक ‘कविता के प्रश्न और प्रतिमान’ के लिए दिया गया। उन्हें यह सम्मान रवींद्र भवन, नई दिल्ली के साहित्य अकादमी सभागार में आयोजित एक समारोह में वरिष्ठ आलोचक श्री विश्वनाथ त्रिपाठी ने प्रदान किया। इस वर्ष की सम्मान समिति में अशोक वाजपेयी, मैनेजर पांडेय, विजय कुमार, नंदकिशोर आचार्य और कमलेश अवस्थी शामिल थे।
आलोचना के क्षेत्र में दिया जाने वाला यह प्रतिष्टित पुरस्कार हिंदी के सुप्रसिद्ध आलोचक स्वर्गीय श्री देवीशंकर अवस्थी की स्मृति में उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कमलेश अवस्थी द्वारा वर्ष 1995 में स्थापित किया गया। यह सम्मान अवस्थी जी के जन्मदिवस के अवसर पर प्रतिवर्ष 45 वर्ष तक की आयु के किसी युवा आलोचक को दिया जाता है। सम्मान के तहत साहित्यकार को प्रशस्तिपत्र, स्मृति चिह्न और ग्यारह हजार रुपये की राशि प्रदान की जाती है। अब तक यह सम्मान सर्वश्री मदन सोनी, पुरुषोत्तम अग्रवाल, विजय कुमार, सुरेश शर्मा, शम्भुनाथ, वीरेंद्र यादव, अजय तिवारी, पंकज चतुर्वेदी, अरविंद त्रिपाठी, कृष्ण मोहन, अनिल त्रिपाठी, ज्योतिष जोशी, प्रणय कृष्ण, प्रमीला के. पी. संजीव कुमार, जितेंद्र श्रीवास्तव, प्रियम अंकित, विनोद तिवारी, जीतेंद्र गुप्ता, एवं वैभव सिंह को प्रदान किया जा चुका है।
परंपरानुसार देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह में किसी एक प्रासंगिक विषय पर व्याख्यान का आयोजन भी किया जाता है। इस बार का विषय था ‘विश्वविद्यालय और हिंदी आलोचना’, इस विषय पर बोलने के लिए आमंत्रित वक्ता थे आशुतोष कुमार, हेमलता महिश्वर, और गोपाल प्रधान। समारोह की अध्यक्षता विश्वनाथ त्रिपाठी ने की ।
हाशिये पर रहकर भी हिंदी आलोचना समकालीन सवालों से जूझ रही है – पंकज पराशर
22वें देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह का आगाज़ पंकज पराशर के वक्तव्य से हुआ। अपने वक्तव्य में श्री पंकज पराशर ने कहा कि विश्वविद्यालय ज्ञान सृजन के लिए होते हैं पर यह संभव नहीं है जब वे प्रश्नों के क्रीड़ा स्थल हों, जॉक देरिदा ने ठीक ही विश्वविद्यालय को किसी शर्त के बगैर प्रश्न करने का स्थल कहा है। प्रश्न करने की यह योग्यता विश्वविद्यालय को सत्तावान बनाती है सत्ताहीन भी। क्योंकि उनसे उठे प्रश्न सत्ता के केंद्रों के अहं को ठेस पहुँचाते हैं। और इस वजह से सत्ता के केंद्र कभी सच्चे विश्वविद्यालय के साथ नहीं होते, क्योंकि वे सत्ताधीशों को तंग करते हैं। अपने वक्तव्य में पंकज पराशर ने टेरी इगल्टन के लेख द स्लो डैथ ऑफ दि यूनिवर्सिटी के हवाले से कहा कि टेरी इगल्टन ने इस लेख में डैथ और मौत शब्द का प्रयोग व्यंजना में कम अभिधा में ज्यादा किया एक बात और मृत्यु का अर्थ केंद्रीयता का अभाव होना था और अक्सर ऐसे शीर्षक के बाद प्रश्नवाचक चिह्न लगाया जाता था पर स बार ऐसा नहीं है। यानी मौत का समाचार पक्का है। इसकी एफ आई आर किसी और ने नहीं , बल्कि प्रोफेसर इगल्टन ने कराते हुए इसे वैश्विक परिघटना माना उनके अनुसार विश्वविद्यालय की मौत के लिए जिम्मेदार कारकों में उच्च शिक्षा का कॉरपोरेटिकरण या वाणिज्यीकरण है। आज के प्रोफेसर मैनेजर रह गए हैं। और कुलपति मानो कर्त्ताधर्ता, जिसका मुख्य काम आर्थिक संसाधन जुटाना है न कि स्तरीय शिक्षा, शोध, ज्ञान का सृजन, संरक्षण, विस्तार या मूल्यों का संवर्धन।
विश्वविद्यालय के समसामयिक संदर्भों को उठाते हुए पंकज पराशर ने कहा कि पिछले कुछ वर्षों से विश्वविद्यालय में जैसा माहौल बनाया गया है उसके बाद वाद-विवाद और संवाद की कितनी गुंजाइश बची है। राजसत्ता, अर्थसत्ता और मीडिया का विश्वविद्यालय को लेकर जो एजेंडा है। उसे हम आप देख ही रहे हैं। पूरा का पूरा भारतीय मीडिया इस एजेंडे की सैटिंग में उलझ गया है। मीडिया का मूल काम सवाल खड़े करना है लेकिन यह तब एजेंडे में रूपांतरित हो जाता है, जब आप सवाल के जरिये किसी एजेंडे को खड़ा करते है। किस तरह खबरों को प्रमोट किया जाता है और किस तरह खबरों से खेला जाता है।
रचना के भीतर सामाजिक सत्य की महत्ता को उद्घाटित करते हुए पंकज पराशर ने कहा की मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक और सामाजिक सत्य रचना के भीतर तभी मूल्यवान होते हैं, जब वे उसकी समग्रता एवं कलात्मकता की रक्षा करते हों। यह देखकर दिल को थोड़ा मिलता है कि मठों और गढ़ों के हाशिये पर रहकर भी समकालीन आलोचना इन सवालों से जूझते हुए लिखी जा रही है, जिसे खोटे सिक्कों के बीच पहचानने की ज़हमत तो आपको उठानी पड़ेगी।
हिंदी आलोचना विश्वविद्यालय से शुरु नहीं हुई है – विश्वनाथ त्रिपाठी
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में विश्वनाथ त्रिपाठी देवीशंकर अवस्थी की स्मृतियों के झरोखे से भावुक लहज़े में कहा कि मैं नहीं जानता कि अवस्थी जी को अशोक वाजपेयी से ज्यादा आत्मीयता थी या मुझसे। मुझे लगता है अशोक जी से उनकी आत्मीयता ज्यादा थी क्योंकि मैं जब भी अवस्थी जी के पास जाता था तो ये मुझे वहाँ पहले से ही बैठे मिलते थे वो इसलिए कि दोनों ही साहित्य के योजना विलासी थे। लेकिन मुझे एक दूसरी सुविधा प्राप्त थी जो अशोक जी को प्राप्त नहीं थी। वो ये कि हम दोनों ही मॉडल टाउन में रहवासी थे। मेरे लिए ये बड़ा भावुक मौका है मैं एकाएक 50-52 साल पहले की स्मृतियों में चला जाता हूँ। सब कुछ वास्तविक सा लगने लगता है लगता है कि अभी सब कुछ है। स्मृतियाँ मानों सामने खड़ी हो जाती हैं। यह अवसर साल में एक बार आता है और हम सब लोग स्मृति की गंगा में स्नान कर लेते हैं।
हम दोनों ही पंडित हजारी प्रसाद द्विवेद्वी के शिष्य थे मुझे लगता है अवस्थी जी का पंडित जी से बहुत गहरा संबंध था। क्योंकि जितना मैं जानता आचार्य द्विवेदी ऐसे गुरु थे जो अपना मनचाहा विषय सबको नहीं देते थे। आचार्य शुक्ल लोकमंगल के आचार्य हैं , आचार्य द्विवेदी प्रेमाभक्ति के आचार्य है। और रामविलास शर्मा औदात्य के आलोचक है। इसी से मुझे ये लगता है कि आचार्य द्विवेदी के मन में अवस्थी जी के लिए गहरा विश्वास और ममत्व रहा होगा तभी उन्होंने अवस्थी जी को यह शोध विषय दिया होगा।
अपने वक्तव्य में विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि हिंदी आलोचना विश्वविद्यालय से शुरु नहीं हुई है, हिंदी में पहला आलोचना लेख या समीक्षा भारतेंदु की है। इसके अलावा हिंदी आलोचना पुनर्जागरण काल या नवजागरण काल के अखबारों, संपादकीय, पत्रिकाओं के लेखों आदि से मिलकर बनती है और स्वाधीनता आंदोलन का संघर्ष और ताप हमारे लेखकों और आलोचकों के लेखन में मौजूद है। विश्वविद्यालय और आलोचना पर अपनी बात को बड़े रोचक ढ़ंग से आगे बढ़ाते हुए डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि विश्वविद्यालयी आलोचना का जो योगदान है उस पर यदि आप सोचें तो बड़ी रोचक बातें सामने आती हैं। मिश्र बंधु विश्वविद्यालयी आलोचक थे और उनका हिंदी साहित्य में बहुत बड़ा योगदान है। लेकिन उन्होंने जो हिंदी नवरत्नों की सूची बनाई थी। उस पर यदि गौर करें तो आप देखेंगे। उसमें जायसी नहीं थे, उसमें कबीर भी सातवें स्थान पर थे। इससे आप विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के योगदान की स्थिति जाँच सकते हैं। यदि आचार्य शुक्ल न होते तो जायसी अग्रिम पंक्ति के कवियों में न होते। अगर आचार्य द्विवेद्वी न होते तो कबीर कितनी देर बाद आते ये भी देखने की बात होती।
जब हम लोग यहाँ आए थे तो प्राध्यापकीय आलोचना पर प्रहार शुरू हो चुके थे उस समय सृजनात्मक साहित्य के अलंबरदार अज्ञेय थे। और ये स्मरण करना शिक्षाप्रद होगा कि साहित्य अकादमी ने उन्हें हिंदी साहित्य पर एक लेख लिखने के लिए कहा था। उसमें उन्होंने आधुनिक काल के तीन युगांतरकारी कवियों का उल्लेख किया था। वो तीन युगांतरकारी कवि थे। भारतेंदु, निराला और स्वयं अज्ञेय। ऐसी वैज्ञानिकता से हिंदी विभागों में हल्ला मच गया था। शुक्ल जी ने तो हिंदी साहित्य के इतिहास में कहीं अपना नाम तक नहीं छापा है। इसके बाद यह भी देखने लायक होगा कि आचार्य द्विवेद्वी ने यह लेख जस का तस छापा और नीचे एक फुटनोट में लिख दिया कि अज्ञेय, सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन का ही नाम है।
लेकिन आलोचना में यह शिकायत पहले भी की जाती रही है जिनमें हरीश त्रिवेदी और शायद गायत्री स्पीवाक ने भी यह कहा है कि हमें ये देखना चाहिये कि हम किन मुद्दों को उठा रहे हैं क्या ये मुद्दे हमारी जातीयता या राष्ट्रीयता की मांग तक फिर आयातित होकर आए, हमें यह सोचना चाहिए कि सब का अंत, कविता का अंत, उपन्यास का अंत कर देना हल नहीं है। रामविलास जी अपनी किताब में शैक्सपीयर पर विचार करते हुए भरतमुनि तक जाते हैं मैंने जब उनसे इस बारे में पूछा तो उन्होंने मुझे बताया कि इस काम को करने की प्रेरणा मुझे अमरनाथ झा ने दी थी और कहा था कि जब तुम इतने समृद्ध हो तो उन पर विचार करते हुए अपने विचारकों को उद्धरित क्यों नहीं कर सकते। कम से कम हमारे विचारों को क्षेमेन्द्र की औचित्यचर्चा तक तो जाना ही चाहिए।
विश्वनाथ त्रिपाठी अपने वकतव्य का समापन करते हुए तकनीक की महत्ता और संभावना पर आगे कहा कि तकनीक से उन्हें बड़ी उम्मीद है। तकनीक के भीतर जो ज्ञानराशि का संचय है मुझे बहुत आशा है कि वो व्यर्थ नहीं जाएगा।
विश्वविद्यालय के अस्तित्व के लिए आवश्यक है कि वहाँ वाद विवाद और संवाद बना रहे – आशुतोष कुमार
आशुतोष कुमार ने अपने वकतव्य का आरंभ विष्णु पुराण के एक श्लोक से किया ‘तत्कर्म यन्न बिंधाय सा विद्या या विमुक्तये’ ये श्लोक कहता है कि जो मुक्त करे वही विद्या है। लेकिन उसमें निहित है कि वो बंधन में भी डाल सकती है। यह श्लोक कहता है कि इस तरह से कर्म भी काम करता है। इस तरह के कर्म को श्लोक में शिल्प नैपुणम कहा गया है उसे आज कल हम लोग कौशल विकास कहते हैं। और दूसरी तरह की विद्या वो है जो रचनात्मक बनाती है, जो दुनिया में बदलाव लाने की सीख देती है और रचनाकार को भी बदलने का प्रयास करती है जाहिर है जो बदलेगा वो भी मुक्त करेगा। हालांकि विष्णु पुराण की इस बात को मैं हैबरमास के हवाले से भी कह सकता था। लेकिन लोग कह सकते हैं कि पश्चिम के लोग तो वही बातें करते हैं जो हमारे पुराणों में लिखी गई हैं। वो कह सकते हैं, कहें। मुझे उससे कोई आपत्ति नहीं है बशर्ते कि उन बातों पर ध्यान दिया जाए जो कही गई हैं आशुतोष कुमार ने विष्णु पुराण के बाद हैबरमास के हवाले से विद्या और कर्म की वर्तमान प्रासंगिकता और स्थिति पर कहा कि हैबरमास भी तीन तरह के कर्म बताते हैं जिनमें पहला है टैक्नीकल कर्म, दूसरा प्रैक्टिकल कर्म और तीसरा है इनएंटीसिपेटरी कर्म । हैबरमास पहले का ताल्लुक विज्ञान तकनीक से और दूसरे का समाज विज्ञान से स्थापित करते हैं। तीसरे कर्म को हम मुक्तिकारी विद्या कह सकते हैं। वो असल में दर्शन है जिसमें मार्क्सवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद के साथ साथ वे फ्रायड आदि के दर्शन को रखते हैं। इसके साथ साथ वे दो तरह के कर्म की बात और करते हैं। पहला है वर्क और दूसरा है इंटरैक्शन। वर्क में उपकरणों और तकनीक से काम लिया जाता है जिसे आप विज्ञान से जोड़ते हैं। और हिंदी में जिसे अंतःक्रिया कहते हैं। इस प्रक्रिया में संवाद मूलक विवेक को वे मुक्तिकारी विवेक मानते हैं। जिसमें वे एक संवाद मूलक विवेक या मुक्तिकारी विवेक तक पहुँचने की कोशिश करते है और उनका मानना है कि यही विवेक लोकतंत्र के खतरों का सामना कर सकता है। यह विवेक ही आधुनिकता के अधूरे प्रोजेक्ट को पूरा कर सकता है। इसलिए वे विश्वविद्यालय को पब्लिक स्फेयर या जनक्षेत्र कहते हैं। ये विश्वविद्यालय के अस्तित्व के लिए आवश्यक है कि वहाँ वाद विवाद और संवाद बना रहे लेकिन अब ऐसा हो रहा कि वाद विवाद को वहाँ खतरा समझा जा रहा है। तो एक ऐसी प्रक्रिया चल रही है जहाँ हमारे सामने कौशल विकास या हार्ड वर्क को आगे बढाना है जो खासकर तकनीक और मैनेजमेंट पर बात करता है। इसलिये वे तकनीक और स्किल के सवाल के आगे मूल्यों पर बहस से बचना चाहते हैं। वे मूल्यों पर बात नहीं करना चाहते वे उन्हें मुक्तिकारी विद्या के केंद्र न मानकर केवल कौशल विकास के केंद्र बनाना चाहते हैं।
विद्या तभी होगी जब आलोचना का अधिकार होगा। बर्लिन विश्वविद्यालय की स्थापना के दौरान यह बहस चली की यूनिवर्सिटी किस तरह की होनी चाहिए और इस स्थापना की परिभाषा में विश्वविद्यालय की मठ जैसी नकारात्मक छवि को ध्यान में रखा गया था। वहाँ विश्वविद्यालय के लिए तीन बातें कही गई। एक, वहाँ टीचिंग और रिसर्च में एकता हो। दो, वहाँ अकादमिक स्वतंत्रता हो, और तीसरी विश्वविद्यालय के केंद्र में दर्शन विभाग हो।
विश्वविद्यालय में उपरोक्त तीन तरह की जो विशेषताएं बनाई गई उसके तहत ही विश्वविद्यालय में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया आरंभ हुई बावजूद इसके जब तक हम इस सिद्धांत का पालन करते हैं कि अकादमिक स्वतंत्रता से समझौता नहीं होगा तब तक उनका अस्तित्व बना रहता है।
लेकिन अब यह मान लिया गया है कि स्वतंत्रता एक दुरुपयोग होने की चीज़ है। उसी के तहत सारे कौशलों का विकास कर विद्यार्थियों को मूल्यों पर बात करने से बचाकर कौशल विकास कर नौकरी लेने की ओर विश्वविद्यालय अग्रसर कर रहे हैं।
हिंदी आलोचना के संदर्भ में वाद विवाद और संवाद की प्रक्रिया साथ साथ चलती है शुक्ल जी की छायावादी कवियों से लगातार बहस होती है, निराला जैसे विद्रोही कवि रामचंद्र शुक्ल की मृत्यु पर अविस्मरणीय कविता लिखते हैं यानि वाद विवाद एक संवाद में तब्दील होता है।
मध्यकाल के इतिहास की केंद्रिय समस्या हम जब हिंदु और मुसलमानों का संघर्ष मान लेते हैं। तब एक यह एक इतिहासदृष्टि बन जाती है। ये इतिहासदृष्टि द्विवेद्वी जी और शुक्ल जी दोनों में दिखाई देती लेकिन विश्वविद्यालय से इतर मुक्तिबोध, जैसे लेखक इस इतिहासदृष्टि को पलटते हैं। और यह कितनी अच्छी बात है कि मुक्तिबोध जयशंकर प्रसाद के संदर्भ में नंददुलारे वाजपेयी की आलोचना करते हैं। इसी तरह से जब स्त्री विमर्श, दलित विमर्श आदि का साहित्य हमारे सामने आता है तो उसे शुरु में स्वीकार नहीं किया जाता लेकिन आज ये हमारे पाठ्यक्रम का हिस्सा बन गया है। यह संवाद विश्वविद्यालय के लिए जरूरी है और आज का संकट यह है कि हम इस तरह की विरासत और संवाद के विवेक को भूले जा रहे हैं।
दलित और स्त्री साहित्य के सिद्धांत के साथ हम एक नए भारत की कल्पना कर सकते है – हेमलता महिश्वर
अगले वक्ता के रुप में हेमलता महिश्वर ने अपने वक्तव्य में सिमोन दी बाउवा के हवाले से कहा कि मैं सिमोन द बाउवा के पिता जार्ज बाउवा के संदर्भ से अपनी बात कहना चाहूँगी जब कहा जाता है कि मूल्य तिरोहित हो रहे हैं। तब ये प्रश्न भी उठता है कि लड़कियो की पूरी ऊर्जा को शांत करने में नहीं अनुशासन आदि मांगों पर खरा उतरने के लिए व्यर्थ होती जा रही है। शिक्षा कोरी आज्ञाकारिता कभी नहीं रही। ऐसे समय में जब हम हिंदी आलोचना और विश्वविद्यालय की बात करते हैं तब हमें कितनी छूट मिलती है और हम स्वयं को और अपने विद्यार्थियों को कितनी स्वतंत्रता दे पाते हैं।
हम जिस परिवेश में है और जिस तरह की आलोचना की बात कर रहे है क्या वो आलोचना संपूर्ण है इस बनाई हुई भाषा के दर्शन हम पर सीमित हैं हिंदी के पास अपना कोई दर्शन नहीं है। हो सकता है मेरी बातों से आपकी असहमति हो, और मैं रेखांकित करते हुए कहना चाहूँगी कि दलित साहित्य , आदिवासी साहित्य , स्त्री साहित्य को अगर हम देखें तो उसमें जिस मनुष्य की संकल्पना है यह साहित्य उस मनुष्य की उपस्थिति को दर्ज करने के लिए लगातार संवादरत है, प्रयत्नरत है। यह निश्चित हैं कि इन तमाम संकटों के बावजूद हम एक ऐसा समय देख सकते हैं जिसमें इस दलित और स्त्री के साहित्य के सिद्धांत के साथ हम एक नए भारत की कल्पना कर सकते है और यह छूट हम अपने छात्रों और विद्यार्थियों को दे रहे हैं । एक कविता के हवाले से अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए श्रीमती महिश्वर ने कहा कि
मनुष्य अंधेरा पीकर तर हुआ नहीं
कि उजाले अर्थहीन हो जाते हैं।
उनके हँसने पर गिद्ध उल्लसित होते हैं।
मगरमच्छ शर्मिंदा होते हैं उनके रोने पर ।
यह आलोचना हमने अपने यहाँ की है, चाहे राष्ट्र की जो स्थिति हो राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद के बीच में चाहे हम फँस रहे हों। पर उस राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद को अलग करना होगा। वरना शायद हमारे लिए कोई समय बचेगा नहीं। और ये अच्छा ही है कि यह समय हमारे सामने है। जब हम इनसे भी बुरे समय में थे तब भी हमने यहाँ तक की यात्रा की तो निश्चित ही इस विपरीत परिस्थिति में भी हमारे पास बहुत कुछ है। निश्चित ही इसमें भी हम कुछ नया कर गुजरेंगे।
गोपाल प्रधान ने अपने वक्तव्य में कहा कि आज विडंबना की बात यह है कि जिस समय विश्वविद्यालय की हत्या की कोशिश हो रही है उस समय हम विश्वविद्यालय और आलोचना की बात कर रहे हैं। ध्यान दें, मृत्यु नहीं हो रही है, हत्या हो रही है और विश्वविद्यालय की हत्या के साथ समाज में समूचे आलोचना के वातावरण की भी हत्या हो रही है। विश्वविद्यालय अपने नाम में ही पिछले दिनों की प्रभुत्वशाली विचारधारा का प्रतिरोध लिए हुए हैं। क्योंकि वह विश्वविद्यालय है इसलिए उसे राष्ट्रवाद में महदूद नहीं किया जा सकता। पिछले दिनों के विश्वविद्यालय विवाद के बीच हम सभी जानते हैं कि इसी दिल्ली में एक विश्वविद्यालय है साउथ एशियन यूनिवर्सिटी। यह पूरे दक्षिण एशिया का विश्वविद्यालय है पूरे दक्षिण एशिया के छात्र उसमें पढ़ते हैं। आप किस देश की वंदना उन सभी छात्रों से करवाएंगे। यानि विश्वविद्यालय अपने नाम के साथ ही प्रभुत्वशाली विचारधारा के प्रतिरोध की आवाज को लेकर चलते हैं। लेकिन विडंबना मैं इसलिए कह रहा था क्योंकि हम विश्वविद्यालयों की सीमा को भी पहचानते हैं।
आलोचना को भी एक हद तक आत्मपरीक्षण करने की आवश्यकता है- गोपाल प्रधान
अपने वक्तव्य में पंकज पराशर के वक्तव्य का संदर्भ इस्तेमाल करते हुए गोपाल प्रधान ने कहा कि इस बात से बड़ा मनोरंजक दृश्य उभरता कि शायद विश्वविद्यालय आधुनिककाल में पुराने किस्म के दास स्वामियों के केंद्र बन गए हैं । जो भौतिक श्रम से अलग पड़े हुए केवल मानसिक श्रम के केंद्र बन गए। इसलिए विश्वविद्यालय भी आलोचना से परे नहीं होते हैं। और यह भी विडंबना है कि जब विश्वविद्यालय की आलोचना करने का वक्त आया है तभी विश्वविद्यालय की हत्या भी हो रही है। इसलिए इसके समर्थन में इसके बचाव में हमें खड़ा होना पड़ रहा है। और समर्थन या बचाव करते हुए भी इस बात से आँखें नहीं मूँदी जानी चाहिए कि वास्तव में विश्वविद्यालय एक तरह से सामाजिक ढाँचे का पुनर्उत्पादन ही करते हैं। स्वयं विश्वविद्यालय एक संस्था के रूप में भी अगर आप देखें तो शिक्षण संस्थान में सबसे उच्च पद पर आसीन होते हैं। भारत देश की मुश्किल से तीन चार पर्सेंट आबादी ही उच्च शिक्षा तक पहुँचती है। और ये ध्यातव्य है कि स्वयं विश्वविद्यालयों के भीतर भी एक तरह की जाति व्यवस्था है। इन विश्वविद्यालयों के भीतर के अकादमिक जगत में एक और जाति व्यवस्था होती है जिसमें एक ओर प्रोफेसर बैठता है। स्थायी शिक्षक होते हैं, अस्थायी शिक्षक होते हैं और ठेके पर काम करने वाले शिक्षक भी होते हैं। ठेके पर अध्यापकी करवाने जैसी शर्मनाक कोशिशें भी इन्हीं विश्वविद्यालयों के भीतर होती है। यह प्रवृत्ति अभी नई है लेकिन धीरे धीरे ये तमाम विश्वविद्यालयों में फैलेगी उस अध्यापक की छात्रों के प्रति कोई निष्ठा नहीं हैं। इसके बाद जब आप आगे बढते हैं तो शिक्षणेतर कर्मचारियों के प्रति अध्यापकों का क्या रवैया है हमारे भीतर एक तरह का सामंती नजरिया कैसे विश्वविद्यालय और अध्यापक के भीतर पैठ जाता है। रचनाकारों को लगता है नई प्रवृतियों के प्रति विश्वविद्यालय जागरूक नहीं होते। विश्वविद्यालयों के अध्यापकीय वातावरण ने साहित्य और राजनीति को विरोधी बनाने की आम समझ बना दी है। समूची दुनिया में जो बड़े परिवर्तन हो रहे हैं उनके प्रति साहित्य और साथ ही आलोचना भी असंवेदनशील हैं हमें इससे भी इंकार नहीं करना चाहिए हम इस तरह के संकटों से साहित्य को मुक्त रखना चाहते हैं। यह भी विडंबना है। स्वयं आलोचना को भी एक हद तक आत्मपरीक्षण करने की आवश्यकता है, साथ ही मैं कहना चाहूँगा कि अस्मितामूलक विमर्श को भी अपने आत्मपरीक्षण की जरूरत है।
जैसाकि देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह की परंपरा रही है इस वर्ष भी देवीशंकर अवस्थी के प्रतिनिधि आलोचना लेखों में से चुनकर एक लेख ‘रचना और आलोचनाः अंतराल के प्रश्न पर पुनर्विचार’ का वाचन तरुण गुप्ता द्वारा किया गया।
इस अवसर पर सांसद डी.पी. त्रिपाठी, निर्मला जैन, अजीत कुमार, अभय मौर्य, विभा मौर्य, विनोद तिवारी, अल्पना मिश्र, और साहित्य समाज की जानी मानी हस्तियाँ के साथ साथ अवस्थी जी का पूरा परिवार मौजूद रहा। समारोह में आए सभी गणमान्य अतिथियों का धन्यवाद ज्ञापन अवस्थी जी के ज्येष्ठ सुपुत्र श्री अनुराग अवस्थी ने किया।
प्रस्तुति – तरुण गुप्ता



शनिवार, 1 अप्रैल 2017

OUTCAST- आउटकास्ट की प्रस्तुति और बेहतर हो सकती थी

जाति का प्रश्न जितना जरूरी और मौजूँ है उतना ही विवादित भी। और फिर इस प्रश्न को एक नाटक की शक्ल देते हुए मंच पर प्रदर्शित करना किसी चुनौती से कम नहीं है। यह खूब जोखिमभरा काम है। यह बात खुशी देती है कि युवा निर्देशक इस जोखिम को उठाने को तैयार है। ऐसा ही एक जोखिम रणधीर ने अपने नाटक आउटकास्ट में उठाया है। यह नाटक शरणकुमार लिम्बाले की आत्मकथा अक्कारमाशी पर आधारित है। उन्नीसवें भारंगम की बहुत सारी प्रस्तुतियों से इतर इस प्रस्तुति के लिए दर्शकों का उत्साह एलटीजी सभागार के ठसाठस भरने से लगाया जा सकता था। लेकिन यह बात जानते हुए कि इस नाटक को मेटा अवार् के लिए चुना गया है बेहद खेद के साथ यह बात कह रहा हूँ।
एक बेहतरीन स्क्रिप्ट  और दर्शकों के उत्साहवर्धन के बावजूद रणधीर एक जानदार प्रस्तुति नहीं दे पाते हालाँकि 19वें भारंगम में जब अधिकतर प्रस्तुतियों की हालत बदतर हो तो यह प्रस्तुति खुशी का सबब बन सकती है। पर सच यही है कि प्रस्तुति कई स्तरों पर प्रभाव नहीं छोड़ पाती जहाँ वह प्रभाव छोड़ सकती थी वहाँ भी नहीं।
1.       एकाधिक मौके ऐसे आते हैं जब अभिनेता का उच्चारण और एक्सेंट गड़बड़ा जाता है। कई जगह अभिनेता र और ड़ में गड़बड़ कर गए हैं ऐसा संभवतः बिहार की पृष्ठभूमि के अभिनेता होने की वजह से रहा होगा। लेकिन यही तो चुनौती है कि अभिनेता स्किप्ट के स्थान एवं बोली व भाषा के साथ ही उसके लहज़े का खयाल रखे, और यहीं अभिनेता ऐसा नहीं कर पा रहा है तो निर्देशक का दायित्व है कि वह इसे दुरुस्त करवाए। अन्यथा प्रदर्शन में साधारणीकरण होने की जो बात की जाती रही है वह अवरोध में बदलेगी और एक दर्शक का अभिनीत चरित्र के साथ तारतम्य नहीं बैठ सकेगा।

2.       अक्कारमाशी यानि मेरा जन्मदाता कौन, मेरा पिता कौन के सवाल पर लिखी गई शरणकुमार लिंबाले की एक बेहतरीन आत्मकथा है। जो बाकि जातिगत भेदभाव, दलितों की स्थिति आदि सवालों को उठाते हुए लेखक के बुनियादी सवाल को केंद्र में रखकर लिखी गई है। लेकिन आउटकास्ट की प्रस्तुति में यह सवाल काफी बाद में उभरता है, हालांकि कई बार निर्देशक को यह छूट देनी चाहिए कि वह टैक्स्ट से थोड़ा हटकर अपनी तरह से प्रस्तुति दे, लेकिन यह दारोमदार फिर निर्देशक का ही है कि जो बदलाव वो टैक्स्ट से अपनी प्रस्तुति में कर रहा है उसे वह बुनियादी सवाल से न हटने दे।


3.       एक दर्शक होने के नाते मैं महसूस करता हूँ कि नाट्य प्रस्तुति में बुनियादी तौर पर प्रभाव उत्पन्न करने की क्षमता होनी चाहिए साथ ही यह प्रस्तुति नाटक की कथावस्तु सवालों को समकालीन संदर्भों में देखते हुए हो तो और बेहतर। रणधीर इस बात के लिए निश्चित ही प्रशंसा के हकदार हैं कि वे समकालीन संदर्भों का सहारा लेते हैं। और जिस तरह से वे अपने नाटक का शुभारंभ करते हैं वह उनके एक भावी बेहतर निर्देशक बनने की ओर संकेत करता हैं लेकिन नाटक अपने मध्य में भटकाव महसूस कराता है ऐसा मालूम होता है जैसे निर्देशक समझ न पा रहा हो कि वह कैसे इस नाटक को बांधे और खत्म करे, यह जानते हुए भी नाटक का अंत उसे कब और कैसे करना है।

4.       और हाँ, मैं अभी तक यह नहीं समझ पाया कि नाटक के प्रदर्शन में पानी और झाग का इतना बिखराव क्यों था क्या उसके बिना नाटक अधूरा जान पड़ता। या उसके बिना काम नहीं चल सकता था। या वह नाटक एवं स्क्रिप्ट की डिमांड था। इतना पानी वो भी मंच पर मैंने पहली बार बिखेरते हुए देखा, तालाब और पोखर के दृश्य को दर्शाने के लिए निर्देशक को कुछ और तकनीक का सहारा लेना चाहिए था या फिर सीन के प्रदर्शन के और विकल्पों पर विचार करना चाहिए था।


जब हम किसी कृति खासकर आत्मकथा और उसमें भी दलित आत्मकथा के मंचन के लिए स्क्रिप्ट तैयार करते हैं तो कितना कुछ सोचना पड़ता होगा, एक रचना को स्क्रिप्ट में तब्दील कर मंचित करने में जितना परिश्रम और जोखिम उठाना पड़ता है,  एक अस्मितामूलक रचना को स्क्रिप्ट में तब्दील कर मंचित करने में उससे चौगुना परिश्रम और जोखिम उठाना पड़ता होगा। मैं ऐसी सिर्फ संभावना जता सकता हूँ क्योंकि में सिर्फ मंच के इस तरफ एक दर्शक की भूमिका में हूँ। एक निर्देशक की भूमिका में नहीं। वो मंच के इस ओर भी है, और उस ओर भी, मंच के बीचोबीच भी मौजूद है और अभिनेता की डायलॉग डिलीवरी में भी। वह मंच पर केंद्रित प्रकाश में भी है और उसके सारे साउंड इफैक्ट में भी। कुल मिलाकर वह नरसिम्हा की भूमिका में है। ऐसी भूमिका निभाने वाला निर्देशक जब एक दलित आत्मकथा के मंचन करने का फैसला लेता होगा, तो बहुत कुछ पहले ही सोच लेता होगा, मसलन कई लोग विरोध करेंगे, या फिर कई लोग सिर्फ तालियाँ पीटेंगे। दरअसल कोई भी निर्देशक खालिस तालियों या खालिस प्रशंसा को नहीं ही सुनना  चाहता होगा। रणधीर भी ऐसा नहीं चाहते होंगे। एक दर्शक होने के नाते मैं महसूस कर रहा हूँ कि आउटकास्ट की प्रस्तुति और बेहतर हो सकती थी, निर्देशक में वो दमखम है, बस उसे थोड़ा निखारने की जरूरत है।