मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

तुगलक : बुद्धिमान मूर्ख


ग्याहरवीं के प्रीबोर्ड की तैयारी कराते वक्त मेरे इतिहास के शिक्षक आर.के. शर्मा बार बार दोहराते तुगलक वंश वाले पाठ में से सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है मुहम्मद बिन तुगलक को बुद्धिमान मूर्ख क्यों कहा जाता है? प्रश्न के जवाब में वे राजधानी परिवर्तन से लेकर चाँदी की जगह ताँबे के सिक्के चलवाने और पुनः राजधानी परिवर्तन आदि पॉइंट्स को सामने रखते। पर तुगलक(निर्देशक भानु भारती) को देखते वक्त इतिहास एक विषय के
 रूप में मेरे सामने रहने के बावजूद अपने व्यतिक्रम के रूप में भी मेरे सामने आया। यशपाल शर्मा जब जब तुगलक के भेष में राजनीति खेलते मुझे पिछला इतिहास पलटता दिखाई देता। मैं नहीं समझ पाता कि यह वही तुगलक है जिसका पाठ मेरे इतिहास की किताबों में मौजूद था और जिसका मुसलसल पाठ मैं उस वक्त किया करता था सिर्फ इतिहास अंक बटोरने के मकसद से। फिर खुद ही अपनी बात को काटता और मन में कहता कि यह इतिहास का तुगलक या तुगलक के इतिहास का नाट्य प्रदर्शन नहीं बल्कि तुगलक के समय और सल्तनतकालीन राजनीति का दर्शन है और निश्चित ही जिसमें समकालीनता का बोध है।
यशपाल शर्मा के काम की सबने तारीफ की है मुझे भी लगता है कि उन्होंने अपना रोल बखूबी निभाया है(आवाज़ की मैचिंग फिट न बैठने के बावजूद)। नाटक देखते वक्त मैं मुहम्मद तुगलक के चरित्र को मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझने की कोशिश कर रहा था। साथ ही ये जानने की कोशिश कर रहा था कि उसे बुद्धिमान मूर्ख के विशेषण दिए जाने के पीछ कारण क्या थे हालाँकि सवाल पुराना था पर मेरे लिए इसका जवाब पुराना नहीं था। किस तरह से आपकी आधुनिकता समय की संदर्भवत्ता के बिना पुरानी पड़ जाती है इसकी मिसाल तुगलक का चरित्र और उसकी कारगुजारियाँ हैं।
गौर करें तो उसके फैसलों(राजधानी परिवर्तन और सिक्कों के रूप में बदलाव आदि) के पीछे तुगलक के तर्क सही थे राजधानी राज्य के केंद्र में होनी चाहिए दौलताबाद दिल्ली की अपेक्षा तत्कालीन राज्य के बीचोंबीच मौजूद थी, इसी तरह सिक्के का वजूद और महत्व राज्य की मोहर से जाना जाना चाहिए, जैसाकि आज होता है। इन मायनों में देखें तो तुगलक एक दूरदर्शी और बुद्धिमान शासक था। लेकिन फैसलों को जिस तर्ज़ पर लागू किया गया और बाकि चीज़ों को नज़रंदाज़ कर दिया गया सो उसका नतीजा तुगलक ने भुगता।
खैर नाटक पसंद आया। नाटक के अंदर भानु भारती तुगलक की इस दुविधा को दिखाने में सक्षम रहे हैं, मुझे लगता है कि यशपाल शर्मा को जो तारीफें मिल रहीं हैं उसमे भी उसी दुविधा का अहम रोल है जो शुरु से अंत तक यशपाल तुगलक के भेष में चस्पा किये रहते है और कहीं उसकी बनावट में फेर नहीं आता। तुगलक को जिस खुले मंच पर(फिरोजशाह कोटला के खंडहर, किला तो अब वह रह नहीं गया) खेलने का जोखिम उठाया गया है। वह सफल रहा है। भानु भारती, रमा यादव, मधुलिका नेगी, अम्बा सान्याल, कनु भारती, आर. के. धींगरा तालियों के हकदार हैं।
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रविवार, 21 अक्तूबर 2012

एकतरफा प्यार

एकतरफा प्यार
किसी बोद्ध भिक्षु की किताब के पन्नों से टकरा 
मर गया मच्छर
फूल की पंखुड़ी की तरह 
चिपका है पन्ने से
और अफसोस में
अभिशाप झेलता 
बोद्ध-भिक्षु 
तड़प तड़प के इस दिल से
आह निकाल 
समाधि ले 
कर्मविमुख 
हो रहा है
स्मृति से विस्मृत है उसकी
प्यार से पहले की अवस्था में
पढ़ा ये काव्यांश
चाहे कुछ हो
'जीवन नहीं मरा करता है'

मंगलवार, 24 जुलाई 2012

क्या मैं आदमी हूँ

तुमने कहा कभी तो हँसा करो,
मेरे लिए ही सही

मैंने अपने आँसुओ को सुखा दिया।
और दाँत दिखाकर हँसने लगा।

तुमने कहा तुम गुस्सा बहुत करते हो।
चिल्लाते क्यों रहते हो हर वक्त।

मैंने पाया
मेरी दुम निकल आयी है।
और मेरी जीभ से लार टपक रही है।

तुमने कहा
इर्रिटेट होना अच्छी बात नहीं।

मैंने अपने दिल के सारे घावों को ढँक लिया
और सेल्समैन की तरह हर बात पर मुस्कराने लगा।


फिर एक दिन तुमने कहा।
तुम 'वो आदमी' नहीं जिससे मैंने प्यार किया था।

मैं सोचने लगा
क्या मैं 'आदमी' हूँ।

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

एड हॉक इंटरव्यू

कमरे में घुसते ही एक अजीब सा सन्नाटा था। सामने बैठी मैडमें जिनके हाथ में एक एक पर्चा था आपस में खुसुरफुसुर में मगन थी। वह सकुचाती हुई भीतर घुसी। उसने सिर और आँखें नमस्ते के अंदाज़ में झुका दीं। 
एड हॉक पैनल में नाम है तुम्हारा ? (उनमें से एक ने पूछा)
जी मैम। (उसने सहम कर जवाब दिया) 

हाँ तो तुम्हारा पीएच.डी का काम किस विधा पर है।
मैम नैमिचंद्र जैन की रंग समीक्षा पर।

अच्छा तो बताओ भक्तिकाल के केंद्र में क्या है? (अब की बार कोने में बैठी उम्रदराज़ मैडम ने पर्चे पर नज़रे गड़ाते हुए पूछा)।
मैम भक्ति।
ओह।(मुँह बिचकाते हुए बराबर वाली मैडम ने यह भाव व्यक्त किया)

विपर्य किसे कहते है कहानी और उपन्यास में क्या अंतर है? (दूसरे कोने में बैठी मैडम ने तुरंत अगला सवाल दागा)
वह अपने बी.ए और एम.ए. के दिनों की स्मृतियों मे खो गई।

अगला सवाल पूछने के लिए दोनों किनारों की मैडमों ने बिल्कुल मध्य में बैठी मैडम की ओर देखा जो अपने मोबाइल पर नंबरों को रगड़ने में मगन थी।
ओह अच्छा ये बताओ भक्ति के ...( ये पूछ चुके है उनके बराबर में बैठी एक अन्य मैडम ने बीच में टोकते हुए कहा।)
ओह सॉरी हाँ तो आख्यानात्मक कविता और प्रगी...परगीता ...ये क्या लिखा है फोटोकॉपी वाले ने सही से प्रिंट नहीं किया।( प्रगीतात्मक। , एक अन्य मैडम ने कानों मे कहा) हाँ प्रगीतात्मक कविता किसे कहते है? (मैडम ने पर्चे को अजीब तरह से आँखों के करीब लाकर पूछा)
सॉरी मैम मुझे तो ये अवधारणा ही समझ नही आई। कविता तो कविता होती है उसे आख्यानात्मक और प्रगीतात्मक जैसे बोझिल शब्दों से जोड़ने की जरूरत ही क्या है?

ओह तो तुम क्लास में क्रांति करना चाहती हो। स्लैबस के खिलाफ बच्चों को खड़ा करना चाहती हो।
नहीं मैम मै तो। बस

नहीं नहीं बोलो
बाकि मैडमों ने ध्वनि मत में उस मैडम का साथ दिया।

अच्छा बताओं विरुद्धो का सामंजस्य किसकी रचना है?
उसे लगा कि उसका गला कोई दबा रहा है उसे उस कमरे में अजीब सी घुटन महसूस हुई। कमरे के सन्नाटे उसके कानों में चीखने लगे। उसने कानों पर दोनो हथेलियाँ कस लीं और उठने का प्रयास किया पर उसने पाया कि उसके नीचे पैर ही नहीं हैं।

रविवार, 1 जुलाई 2012

फिर उसकी कहानी कौन कहेगा?

उस दिन कुछ भी ऐसा नहीं था जो उसे लगा हो कि दिवाली आने वाली है वो बस अपने गुरु कुशवाहा जी द्वारा क्लास में कहे गये वाक्यों को याद रखे था। कि इस देश का संविधान हर एक को अपनी बात रखने की, पसंद-नापसंद की इजाज़त देता है। वह बहुत प्रेरित हुआ था उस दिन, उसने अपनी किताब का चैप्टर मौलिक अधिकार पूरा पढ़ डाला था उस दिन।
उन बाज़ारों में जहाँ लोग लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियाँ और हीरो-हिरोइन के पोस्टरों को खोजते फिर रहे थे वह हर पोस्टर और तस्वीरों की दुकान पर जाता पर उसे उसका हीरो नहीं मिलता। फिर थोड़ी दूर किनारे पर उसे वो पोस्टर दिखाई दिया जिसकी उसे तलाश थी।
उसके पड़ोसी जिन्हें वो चाचा कहता था उसका इंतज़ार कर रहे थे कि कब वो लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियाँ लाए। वो लौटा एक हाथ में लक्ष्मी-गणेश और दूसरे हाथ में अपने हीरो का पोस्टर लिए। उसने चाचा के हाथ में मूर्तियाँ पकड़ाईं और घर की तरफ मुड़ा ही था कि चाचा ने टोका अरे, रुक. ये क्या लाया है हमें भी तो दिखा।
चाचा वो कुशवाहा जी बहुत तारीफ करते हैं इनकी, कहते हैं कि इन जैसे लोग शताब्दियों में पैदा होते हैं पर दिखा तो चाचा ने कहते हुए उसके हाथ से पोस्टर झपट लिया। रबड़ उतारी और देखा। देखा क्या देखते ही आग बबूला हो गये। ये क्या , तेरी बुद्धि क्या घास चरने गयी है। भाईसाहब देखेंगे तो चिल्लाएंगे। बनियों-बामनों के घर में इसकी तस्वीर नहीं लगाते।
पर कुशवाहा जी तो...(उसने सहमी आवाज में कहा) गोली मार अपने कुशवाहा जी को..ये मास्टर तुम्हें कैसी शिक्षा दे रहा है। जानता नहीं कि ये शैडूलो का भगवान है। घर में इसे लगाया तो क्या सोचेंगे बिरादरी वाले। चाचा पर मोहन भी तो शाहरुख खान और सलमान खान की तस्वीरें लाया है लगाने को। तो क्या आप मुसलमान हो गये।.. पर वो उसके पसंदीदा हीरों हैं।.. ला दे इधर चर्ररर् फर्रररर. ..
चाचा पर ..पर फाड़ा क्यों? कुशवाहा जी कहते हैं कि इनकी वजह से ही देश के बहुत बड़े तबके को उसके अधिकार मिलें हैं हमारे देश का संविधान इन्होंने ही लिखा है। तेरे कुशवाहा कि खबर मैं लूँगा ये क्या सब सिखाये जा रहा हमारे बालको को.. चाचा मैं बच्चा नहीं हूँ अब. पर आपने फाड़ा क्यो।,,फाड़ा क्यों..? उसने खूद को अकेला पाया। और उस दिन के बाद ये अकेलापन दिन-ब-दिन बढ़ता गया।
तब वो ग्याहरवीं क्लास में था उसका दिल भर आया था उस दिन। तब वह सोच रहा था कि ये कैसी बिरादरी है जो एक मनुष्य को उसके कर्मों के कारण नहीं बल्कि जाति से पहचानती है। उसी क्लास में आर.के.शर्मा (इतिहास के अध्यापक) ने उसे बताया था कि रामायण महाभारत काल में जाति विभाजन कर्म आधारित था उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा था कि जैसे परशुराम ब्राह्मण होते हुए धनुष उठाने के कारण क्षत्रिय बने और वाल्मीकि दलित होने के बावजूद अपने कर्म के आधार पर ही ब्राह्मण।
वो तब भी कन्फ्यूज़ था ये सब क्या है? ये बातें पुरानी थी पर आज इतने सालों बाद अपने दलित दोस्तों के बीच उसे फिर वहीं अकेलापन झेलना पड़ा जो उसे पहले बिरादरी के नाम पर झेलना पड़ा था। एक अंतर्ऱाष्ट्रीय दलित सम्मेलन में घोषणा की गई कि दलितों पर लिखने का हक़ दलितों को ही है। उस उद्घोषणा में उसे उसके चाचा की बानगी दिखी उसे लगा फिर उसकी कहानी कौन कहेगा।

मुर्गी की टाँग


मुर्गी की टांग

नौसिखीए गुलशन ने आव देखा न ताव बस बाइक भगा दी और घर की तरफ दौड़ाई। उसके दिमाग से लाली की छवि एकदम से बदलकर मुर्गी की टाँग में समा गयी। घर आके उसने जल्दी से बाइक घर में घुसेड़ी और छत पर चला गया। मैं उसका जिग्री दोस्त हूँ ऐसा वो अक्सर कहता रहता। लेकिन ऐसे मौकों पर वो छत पर भाग जाता। लाली रामदीन टांक की एक लौती लड़की थी। जिसे इम्पैस करने के लिए वो भाई को दहेज में मिली नई नवेली बाइक जबरन दिखाने ले गया था। उसने मुझे ये बताया था पर उसके चेहरे का पसीना कुछ और बयाँ कर रहा था। क्या हुआ मैंने पूछा, कुछ नहीं उसने कहा और गली के छोर पर देखने लगा। ऐसा बदहवास मैंने उसे इससे पहले कभी नहीं देखा था। हमारा मोहल्ला उस वक्त बामन बनियों का मोहल्ला हुआ करता था और गुलशन को सामने के मोहल्ले की लाली पसंद आई थी वो मोहल्ला जहाँ न जाने के लिए हमारे घरवालों सख्त हिदायत दे रखी थी। पर ये लड़कपन का पहला प्यार था सुबह वह अपने मुर्गे-मु्र्गियों को दाना डालने के लिए बाहर निकलती थी यही वक्त चुना था उसने। मुझे पता था ये बवाल तो होना ही एक ना एक दिन। बामन का लड़का और चमारों की लड़की को ..। मोहल्ले की नाक नहीं कट जाएगी। गली के छोर से आवाजे आनी शुरु हुई।
यही गली है चाचा..यही भागा था वो लोंडा। ढ़ँढो यहीं होगा। वो रा चाचा. वो रा. छत पे छुपे गुलशन पर उनमें से एक की नज़र पड़ी। गुलशन भागा। मुझे पता था लाली के चक्कर में ये तगड़ा फँसेगा एक दिन। पर नहीं पता था कि वो दिन इतनी जल्दी आ जाएगा। ये तो शर्मा का घर है। उस समय जीने का दरवाजा बाहर की ओर था खींच कर लाने में कोई तकलीफ नहीं हुई थी उन्हें। तबियत से धुलाई की गई थी। मैं अच्छी दोस्ती का फर्ज निभा दूर से देख भर रहा था ये सब। मैं भागा आंटी गुलशन को वो लोग पीट रहे हैं इतने में मोहल्ला इकट्टा हो गया। साले उसकी टाँग तोड़ के भाग आया। रुकता तब बताते। बात कुछ नहीं थी पर बहुत बड़ी थी। लाली का सुंदर चेहरा उसके चाचा के चाँटों ने धुमिल कर दिया था और उसकी जगह मुर्गी की टूटी टाँग घूम रही थी। उस दिन के बाद गुलशन कभी उस सड़क से नहीं गुजरा। उसने छत से देखा लाली का भाई दाँत में फँसा लैग पीस का कतरा निकालने में व्यस्त था। लाली नीचे माचिस की तीली खोजने गयी हुई थी। मैं दोस्त की पिटाई पर पहले खौफ़ में था पर अब अंदर ही अंदर हँस रहा था कि साले मुर्गी की टाँग टूटने पर तेरा मुँह सुजा दिया उन लोगों ने। अगर मैं बता दूँ कि तून लाली का मुँह चुमा हुआ है तो। मजा आ जाएगा। गुलशन ने उस दिन के बाद लाली के बारे में मुझसे कोई बात नहीं की। कॉलेज में आकर एक दोस्त ने कहा कि लड़कपन का प्यार भी कोई प्यार होता है। 

मंगलवार, 26 जून 2012

कार्टून विवादः लोकतंत्र पर सवालिया निशान

भारत जैसे देश में जहाँ राजनीति धर्म और जाति की आड़ में होती हो वहाँ पिछला कार्टून प्रकरण एक बहुत बड़ी बात हमारे सामने रखता है। कार्टून खराब है। इसे किसकी भावनाओं को धक्का लगता है। यह बाद का सवाल है पर सबसे पहला और मौजूँ सवाल तो यह है कि इससे देश की संसद के उन सदस्यों की समझ की पोल एक बार फिर खुल गयी है जो किसी भी तर्ज़ पर एक बहसनुमा माहौल के पक्ष में नहीं हैं।  कार्टून का स्कैच कुछ यों है - एक घोंघा जिस पर संविधान लिखा है और जिस पर डॉ. अंबेडकर बैठें हैं उनके हाथ में चाबुक हैं और वो उसे हाँक रहे हैं उन्हीं के बगल में थोड़ा पीछे को जवाहरलाल नेहरू खड़े हैं उनके हाथ में भी चाबुक है। जनता तमाशबीनों में शामिल हैं। इस प्रकरण पर कुछ एक को छोड़कर लगभग सभी पार्टियों का रुख़ साफ है कि ऐसे कार्टून(सिर्फ यही नहीं) जिनमें बाबा साहेब और दलितों को अपमानित किया गया है तुरंत हटा देना चाहिए संसद में ये चीखें बेहद तेज़ी और तल्ख़ी से उठायी जा रहीं हैं मैडम सोनिया डैस्क पीट पीटकर कर ये कहने पर आमादा हैं कि यहीं नहीं बल्कि सभी कार्टूनों को किताबों से हटाओ। मिस्टर सिब्बल हाथ-जोड़ कर माफी मांग रहे हैं। न्यूज़ चैनल इस करबद्धता को दिखाने में व्यस्त हैं। हालत ये है कि जिन किताबों में ये कार्टून है। जिस सलाहकार समिति ने इसे किताबों में रखा हैं। उन्हें देखना उन पर चर्चा करना, अब अपमान समझा जा रहा है। हम ऐसे समय में जी रहें है जब हमारे साथी, हमारे प्रतिनिधी, मंत्री सिर्फ इस डर से कि कहीं उन्हें दलित विरोधी न मान लिया जाए इस प्रकरण पर बात करने से कतरा रहें हैं।

इस कार्टून विवाद पर बात करते वक्त हमें यह जानना होगा कि असल मसला है क्या। और बनाया क्या जा रहा है। यह कार्टून शंकर ने सन् १९४९ में बनाया था जिसे योगेंद्र यादव और सुहास पलसीकर ने ग्यारहवीं की राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तक में संदर्भित मुद्दे के अनुरूप डाला जैसे और कार्टून डाले गये थे। सनद रहे कि ये कार्टून कोई पाँचवी-छठी की किताब में नहीं बल्कि ग्यारहवीं की पुस्तक में दिए गये। हमें ये भी समझना होगा कि क्या ग्यारहवीं कक्षा के छात्रों, अध्यापकों या फिर उस सलाहकार समिति ने इस पर कोई आपत्ति नहीं उठायी थी जिस पर कि राजनीतिक दलों ने हल्ला बोला। बाबा साहेब हमारे लिए आदरणीय हैं और हमेशा रहेंगे। इस मुद्दे को दलित-सवर्ण पॉलिटिक्स का हिस्सा बनाने की अपेक्षा हमें इसे एक अलग स्तर पर समझना होगा। निश्चित ही जिन राजनीतिक दलों ने इस कार्टून को वापस लेने का फतवा जारी किया या जो लोग इसके पक्ष में हैं वे सभी इसे दलित-सवर्ण एंगल से व्याख्यायित कर रहे हैं। लेकिन क्या दलित भाइयों में  कुछ भी ऐसे नहीं हैं जो ये मानते हों कि हमारे देश के भविष्य छात्रों को इस मुद्दे पर अपनी बात रखने हक़ है। और इसी तरह अधयापकों , शिक्षाशास्त्रियों को इस मुद्दें पर बहस में शामिल होने का हक हैं। उसके बाद इसे पाठ्यपुस्तकों में रखने या न रखने का निर्णय लिया जाना चाहिए था पर भारत के इस लोकतंत्र में एक निरंकुश शासन की भाँति फतवा सुनाया गया। क्या लोकतंत्र इसी को कहते है जो सिर्फ भावनाओं में बहकर एक पक्ष की ही सुनकर रह जाए। जैसाकि मैंने कहा कि हालत ये हो गयी है कि कार्टून के पक्षकारों को दलितविरोधी मान लिया गया हैं। मुझे भी समझा जा सकता हैं। लेकिन क्या हम इन्हीं आधारों पर अपने लोकतंत्र को बनाये रख पाएंगे।। आप जानते हैं कि दक्षिण एशिया में सिर्फ दो ही देश है जिनमें अब तक भी लोकतंत्र बरकरार हैं और हम उनमें से एक हैं क्या हमारा देश इतना कमजोर हो गया हैं कि किसी मुद्दे पर बहस की अपेक्षा उसे सिर्फ इसलिए खारिज किया जाए क्योंकि वह एक खास तबके की वोट राजनीति का हिस्सा है। क्या कार्टून को हटाने से दलित भाइयों के साथ न्याय हो सकेगा। हमारा मानना है कि इस देश के छात्रों पर इस तरह के निर्णयों को छोड़ना चाहिए था पर ये काम भी हमारे सांसदों ने अपने हाथ में ले लिया। क्या ग्यारहवीं कक्षा के विद्यार्थियों को आप बिल्कुल नासमझ मान कर चल रहे हैं या आपका विश्वास है कि हमारी शिक्षा पद्धति इतनी सक्षम नहीं कि वह हमारे देश के विद्यार्थियों को इस कार्टून का सही अर्थ समझा सके। दोनों ही सूरतों में सरकार दोषी होगी न कि पाठ्यक्रम बनाने वाले अथवा कोई जाति या वर्ग।
हमें ताज्जुब है कि जिनके बारे में ये फैसला लिया गया उन बच्चों से, उनके अध्यापकों से इस संदर्भ में पूछा ही नहीं गया और तो और योगेंद्र यादव और सुहास पलशिकर को भी खुद को डिफेंड करने का मौक़ा नहीं दिया गया हम कैसा लोकतंत्र बना रहे हैं ये कैसा देश हैं जहाँ एक अध्यापक किसी राज्य की मुख्यमंत्री पर व्यंग्य किए गये कार्टून को ईमेल के जरिए फॉरवर्ड  करता हैं और रात को ही उसे जेल में डाल दिया जाता है। क्या लोकतंत्र पर ही सवालिया निशान नहीं है। कम से कम बाबा साहब ने तो ऐसा लोकतंत्र अथवा संविधान नहीं बनाया था जो भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मुखालफत करता हो या अपनी बात कहने की स्वतंत्रता न देता हो।पर वर्तमान हालातों को देखकर तो लगता है यहाँ सुनना कोई नहीं चाहता सब कहना चाहते हैं। और कहना भी क्या आदेश देना चाहते हैं। योगेंद्र यादव और सुहास पलशिकर ने इस्तीफा दिया पर किसी को कोई आपत्ति नहीं हुई उन्हें अपनी सफाई देने का मौक़ा तक नहीं दिया गया पर किसी को कोई दिक्कत नहीं। दिक्कत हैं तो सिर्फ कार्टून से। क्या आप वाकई मानते हैं कि ऐसे कार्टूनों को इतिहास के गर्भ में दबा देना चाहिए। क्या इतिहास हमारी वर्तमान नस्लों से अपने पुनर्मूल्याँकन की उम्मीद नहीं रखता। हमारी कोशिश यहाँ कार्टून की व्याख्या करने की नहीं है और न ही मैं उसके हटाने या रखने के पक्ष या विपक्ष में रखने के फेर में पड़ना चाह रहा हूँ। हाँ हम ये जरूर चाहते हैं कि ऐसे मुद्दों पर या विषयों पर जो देश के छात्रों उनकी किताबों अथवा पढ़ाई लिखाई से संबंधित हों उन पर उनका रुख जरूर लिया जाए। जिस सलाहकार समिति ने इन कार्टूनों को रखा क्या उनकी राय लेना या वो इन्हें रखने के पक्ष में क्यों है जानना बिल्कुल ज़रूरी नहीं। हम किस तरह के लोकतंत्र को बनाना चाहते हैं क्या ऐसा लोकतंत्र जिसमें सवर्ण सवर्ण नेताओं के और दलित दलित नेताओं के कंठ से अपना कंठ में मिला दे कम से कम बाबा साहेब तो ऐसा बिल्कुल नहीं चाहते होंगे।


रविवार, 17 जून 2012

ताई


पिता जब भी हमारा संडे मनाते माँ की हिम्मत नहीं होती कि वो बीच में आ हमें बचा लें। हिम्मत न होने पर भी वो निरुपा राव की तरह बीच में आती और पिता उन पर भी दो चार रसीद कर देते। हमारे समाज में पत्नी पर और बच्चों पर हाथ न उठाने वाला मर्द दरअसल मर्द ही नहीं समझा जाता। पिता के भीतर यह सोच बुआ और दूर के रिश्ते की दादीनुमा बूढ़ी औरत ने भरी। पिता में यह बात वह बार-बार भरती कि कहीं पिता जोरु के गुलाम न बन जाए। हमारे समाज में पत्नी से प्यार करने वाला और उसकी बातों में सहमति रखने वाले मर्द को जोरु का गुलाम या औरत के पेटिकोट में घुसने वाला मर्द समझा जाता है। खैर हम जब पिटते तो माँ हमें बचाने आती और खुद भी उस प्रतिभाग को पाती। ऐसे में हमारी सामने वाली पड़ोसन जिसे हम सब ताई कहते थे वहीं एक थी जिसकी शरण में हम सारे भाई बहन खुद को महफूज़ पाते। पिता ताई के सामने नहीं बोल पाते थे उनका कहना था कि वे उनका बहुत आदर करते है इसलिए उनके सामने उनका हाथ नहीं उठता था मैं आज तक ऐसी सोच को नहीं समझ सका हूँ।
ताई की डैथ मेरी माँ के मरने के एक महीने के भीतर ही हो गयी थी। वो बाथरूम में नहाते वक्त मृत पायी गयी थी मेरी ताई की लड़की ने मुझे आवाज़ दी थी मैं ही अपनी गोद में उनके निरवस्त्र शरीर को बाथरूम से उठाकर कमरे में लाया था सविता पास खड़ी रो रही थी और मैं ताई की आँखों के नीचे एक लंबी धार के दाग को देख रहा 
था उनकी आँखे पूरी तरह बंद नहीं थीं थोड़ी खुली हुई थी जिसकी वजह से मुझे उनके शरीर में जान होने का भ्रम बार बार हो रहा था। मैं पहला शख्स था जो बाथरूम में उनके दीवार से पीठ टिकाए बैठे शरीर को उठा कर लाया था वह इमेज काफी लंबे समय तक मेरे जहन में ताई के मरने के बाद भी जिंदा रही। ताई ने एक मग पानी भी अपने शरीर पर नहीं ड़ाला था। उनका शरीर बिल्कुल सूखा था सविता का कहना था कि ताई आधे घंटे से बाथरूम में ही थीं। कहते हैं उन्हें हर्ट अटैक आया था। सविता ने मुझे बताया था कि कोई बात तो थी नहीं बस पापा(ताऊ) से कहा-सुनी हुई थी और उन्होंने ने थोड़ा पीटा था बस उसके बाद (मम्मी)ताई नहाने चली गई पर सविता का कहना था कि ऐसा पहली बार था कि पापा के मारने पर भी मम्मी रोई नहीं थी और सीधा बाथरूम में नहाने चली गई थी। लोगो का कहना है कि ताई हमारे यहाँ की सबसे भली महिला थी अभी पच्चीस दिन पहले मेरी माँ की डैथ पर लोगों ने ऐसा ही कहा था। लेकिन मुझे लगा कि मरने और कहने के बीच में बहुत कुछ अनकहा रह गया।

शनिवार, 26 मई 2012

तुम्हारी आँखें मेरे नाम से ज्यादा खूबसूरत हैं।


तुम्हारे होंठों से
हज़ारों बातों को, सुनने की
चाहत कभी न थी।
बस, नाम मेरा
एक बार भी
तुम्हारे होंठों से न छुआ।
तुमने जब कहा 'तुम'
मैं सर्वनामों में संज्ञा तलाशने लगा
तुम्हें सब कुछ पता है
एक मेरे नाम के सिवा

मेरा चाहत रही सदा
तुम मेरा नाम पुकारों
और तुमने मुझे देख भर लिया।
तब जाके मैं समझा कि तुम्हारी आँखें
मेरे नाम से ज्यादा खूबसूरत हैं।

रविवार, 20 मई 2012

जब मैंने कहा


जब मैंने कहा
मुझे तुमसे प्यार है।
तुमने कुछ नहीं कहा
बस
तुम हँस दीं।

जब मैंने कहा
मैं तुम्हें चाहता हूँ बेपनाह
तुमने कुछ नहीं कहा
बस
मेरे होंठों पर अपनी उँगलियाँ रख दीं।

जब मैंने कहा
चलो, आज फिल्म देखने चलें?
तुमने कुछ नहीं कहा
बस
मुस्कुराई और क्लास में चलीं गईँ।

जब मैंने कहा
चलो पार्क में चलें
तुमने कुछ नहीं कहा
बस मेरा हाथ थामा
और चल दीं।

जब मैंने पूछा
शादी करोगी मुझसे?
तुमने लगभग हाथ झटकते हुए कहा
आर यू मैड..
आज के बाद हम कभी नहीं मिलेंगे।

शनिवार, 28 अप्रैल 2012

युवा शोध समवाय - 1 : एक रिपोर्ट

युवा शोध समवाय की पहली कड़ी के रूप में 'दिल्ली की दीवार' : समकालीन सिनेमाई उदाहरणों के माध्यम से आभासी दायरों की तलाश विषय पर मिहिर पंड्या ने अपना पर्चा पढ़ा। अध्यक्ष के पद पर संजीव कुमार और अन्य श्रोताओं के रूप में उपस्थित शोधार्थियों के समक्ष मिहिर ने अपने पर्चे की शुरुआत दो पुस्तकों के संदर्भों को केंद्र में रखते हुए की। पहली पुस्तक थी राहुल पंडित की हाल ही में प्रकाशित 'हैलो बस्तर' और दूसरी थी सुनील खिलनानी की 'भारतनामा'।




हिंसा और खौफ़ की शहरी परिदृश्य पर स्थापना 


 हालाँकि मिहिर के पर्चे पर भारतनामा और शहरनामा का प्रभाव है लेकिन तब भी मिहिर सिर्फ प्रभावित नहीं होते बल्कि उनके संदर्भों को अपने विषय के अनुकूल बना उसमें संशोधन भी करते चलते हैं। शहर के संदर्भ में कहे गये सुनील खिलनानी के कथन -"शहर भारतीय लोकतंत्र के नाटकीय दृश्यों में बदल गये हैं।" को मिहिर थोड़ा संशोधित करते हैं और कहते हैं कि 'शहर भारतीय लोकतंत्र के उस नाटकीय रणक्षेत्रों में बदल गए हैं जहाँ आप समाज में निरंतर गहरी होती हिस्सेदारी की लड़ाइयों के अक्स देख सकते है।' यह संशोधित कथन मिहिर के पर्चें की बुनियाद है। जहाँ से वे अपने पर्चें को उत्तरोत्तर आगे बढ़ाते हुए 'तेज़ाब' और परिंदा' के संदर्भो का इस्तेमाल शहर में हिंसा और भय के एकाएक अवतरण को विश्लेषित करने के लिए करते हैं। जिसके मध्य में नब्बे के दशक की उथल-पुथल भरी राजनीति (मंडल-कमंडल की राजनीति) भी सिनेमा को प्रभावित कर रही थी। मिहिर का पर्चा ९० के दशक की मंडल-कमंडल की राजनीति के दौर के सिनेमा में कैसे एकाएक शहरी परिदृश्य पर हिंसा और ख़ौफ़ की स्थापना होती है, को न सिर्फ दिखाता है बल्कि यह विश्लेषित करने का प्रयास करता है कि यही वह समय है जब 'क्षेत्रीय अस्मिताएँ राष्ट्रीय परिदृश्य पर हावी होने लगती हैं।' इन्हीं संदर्भों में वे 'तेज़ाब' और 'परिंदा' जैसी फिल्मों के उदाहरण के माध्यम से दर्शाते हैं कि यही वह समय भी है जब शहरी परिदृश्य भय और हिंसा से आक्रांत है। 'तेज़ाब' का महेश देशमुख कैसे मुन्ना में परिणत हो एक 'आदर्श सार्वभौम नागरिक' की पहचान खोकर समाज के हाशिये पर चला जाता है और निश्चित ही इसमें महेश देशमुख नहीं, बल्कि भय और हिंसा की वे परिस्थितियाँ और माहौल जिम्मेदार है जो एक ज़िम्मेदार और शिक्षित युवा(जिसका सपना देश की सेवा करना था और जिसे इसका पाठ उसके माता पिता पढ़ा रहे थे) एकाएक तड़ीपार मुजरिम बना देते हैं। इस ख़ौफ़ की एक झलक वे बिल्कुल ताज़ी फिल्म एजेंट विनोद' में भी देखते हैं उनका कहना है कि इस फिल्म का 'पूरा क्लाईमैक्स एक परमाणु बम के खौफ़ के इर्द-गिर्द बुना गया है. यहाँ भय की स्थापना का चरम वह दृश्य है जब पता चलता है कि दिल्ली शहर की सड़कों पर कोई आदमी परमाणु बम लेकर घूम रहा है. ऑटो-टूरिस्ट बस और मोटरसाईकिल से होता हुआ यह आतंकवादी कनॉट प्लेस के निरूलास में यह बम लेकर पहुँच जाता है।'

सत्ता खौफ़ की स्थापना के ज़रिये वे सब सहूलियतें हासिल करती है जिसकी उसे ज़रूरत है।


मिहिर का कहना है कि "इस तरह की मसाला फ़िल्म का अध्ययन में उदाहरण के बतौर इस्तेमाल बहुत ज़रूरी है. यह मिडिल क्लास के भीतर उसके रोज़मर्रा के जीवन में खौफ़ की स्थापना का सबसे कारगर टूल है और इस तरह सत्ता खौफ़ की स्थापना के ज़रिये वे सब सहूलियतें हासिल करती है जिसकी उसे ज़रूरत है. यहाँ उन प्रतीकों और उनके निहितार्थों को भी रेखांकित किया जाना चाहिए जिन्हें ’एजेन्ट विनोद’ जैसी फ़िल्म इस्तेमाल करती है. परमाणु बम का डेटोनेटर एक रुबाईयों की किताब में है. याने यही वो चाबी है जिससे बरमाणु बम को सक्रिय किया जा सकता है. दूसरा प्रतीक फ़िल्म में वो मुस्लिम प्रोफ़ेसर का चरित्र है जिनका घर दक्षिण दिल्ली के किसी पॉश इलाके (महरौली) में बताया गया है और जिन्हें फ़िल्म अपने क्लाइमैक्स के ठीक पहले पाकिस्तानी आतंकवादी साजिश के मुख्य सिपहसालार के रूप में चिह्नित करती है. यहाँ भी दृश्य में ख़ास नोटिस करने वाली बात है कि उनके घर में कैमरे का फ़ोकस बार-बार उनके किताबों से भरे कमरे की ओर रहता है." वह आगे जोड़ते हैं कि - "यह सिनेमा ख़ास तरह की समझदारी पर काम करता है जिसमें ’हम’ बनाम ’वे’ का भेद बहुत महत्वपूर्ण है. शहरी सभ्रांत के लिए यही भेद सबसे महत्वपूर्ण ’दीवार’ है जिसे बचाया जाना उदारीकृत हिन्दुस्तान की सबसे महत्वपूर्ण परियोजना है" इन आभासी दायरों की तलाश करने के क्रम में मिहिर सौ साल पुराने उस उत्सवगान और राष्ट्रमंडल के लिए सजाई गयी या कहें वास्तविकता को छिपाई गयी दिल्ली की हाल ही की उत्सवधर्मिता में एक साम्य देखते हैं। उनका कहना है कि - "राजधानी दिल्ली. दिल्ली के संदर्भ में यह ’आभासी दीवारें’ कई बार इतनी हावी हो जाती हैं कि यह असल भौतिक दीवारों का रूप अख़्तियार कर लेती हैं. क्या यह जानना मज़ेदार नहीं है कि सिपहसालार सुरेश कलमाडी की सरपरस्ती में एक महान खेल आयोजन की तैयारी करती वर्तमान दिल्ली और तत्कालीन वायसरॉय लार्ड हार्डिंग की सरपरस्ती में एक अभूतपूर्व राजदरबार के लिए कमर कसती सौ साल पुरानी दिल्ली में एक चीज़ समान है और वो है ’अवांछित तत्वों’ की पहचान और उन्हें अदृश्य बनाने की एक निरन्तर चलती योजनाबद्ध परियोजना." अपने पर्चें में समकालीन सिनेमा में आभासी दायरों की तलाश के साथ साथ मिहिर सिने-चरित्रों की उस आकांशा पर भी उंगली रखते हैं जो दिल्ली या इस जैसे शहरों में हाशिये के इलाकों में रहते हुए उनके जेहन में पैदा होती हैं इस इलाके को छोड़कर किसी पॉश कॉलोनी का हिस्सा बनने की इच्छा भी इन चरित्रों में दिखती है। इन्हें लगता हैं कि पैसा कमा लेने भर से वे इस 'दीवार' को तोड़ सकते हैं और अपर क्लास का हिस्सा बन सकते हैं। ओए लक्की, लक्की ओए फिल्म के माध्यम से मिहिर इस बात को समझाने की कोशिश करते हैं - 'ओये लक्की लक्की ओये’ के लखविंदर सिंह लक्की को भी ऐसा लगता है. शुरुआती दृश्य में आप देखते हैं कि हाशिए की किसी कॉलोनी में रहने वाले लक्की की तमन्ना शहर में मौजूद ’नागर समाज’ का हिस्सा बनने की है. लेकिन फ़िल्म के तीसरे एपीसोड तक तक आते-आते यह साफ़ हो जाता कि पैसा कमा लेने से उस ’नागर समाज’ में प्रवेश की कोई गारंटी नहीं. डॉ. हांडा जिस तरह उसे अपने रेस्टोरेंट और अपनी ज़िन्दगी से निकालते हैं, वह इसे उजागर करने के लिए काफ़ी है. सिनेमाई उदाहरण के तौर पर वह हिंदी फिल्म 'शौर्य' के संदर्भ का इस्तेमाल करते हुए उसमें दिल्ली की एक कॉलोनी मयूर विहार के पते के जिक्र का विश्लेषण करते हैं और कहते हैं कि - "यहाँ ’डी 52, मयूर विहार’ सिर्फ़ एक पता नहीं है, यह एक समूची ’नागर सभ्यता’ का प्रतिनिधि है जिसकी सुरक्षा का आश्वासन यह नागर समाज चाहता है. लेकिन इसी तर्क को जब थोड़ा आगे खींचा जाता है तो इसी ’डी 52, मयूर विहार’ की सुरक्षा के आश्वासन के नाम पर शहर के भीतर और शहर के बाहर सीमांतों पर अनगिनत नागरिकों के मानवाधिकारों का हनन होता है और इसे ’नागर समाज’ का मौन समर्थन प्राप्त होता है. यह ’अवांछित नागरिकों’ का शहर के परिदृश्य से सायास निष्कासन है और इस ’अवांछित वर्ग’ का निर्माण शहर के धार्मिक, भाषाई, क्षेत्रीय, आर्थिक हाशिए को जोड़कर होता है."

सिनेमा शहर के साथ क्या कर रहा है? - रविकांत 

बहरहाल मिहिर के पर्चे के बाद रविकांत ने अपनी बात रखते हुए कुछ सवाल उठाए जैसे - (१) सिनेमा शहरी विधा है यानि शहरों में आकर ही आप फिल्म बना सकते हैं सवाल ये है कि सिनेमा शहर के साथ क्या कर रहा है? (२) अगर शहर में इतनी विविधता है(बलदेव वंशी द्वारा संपादित पुस्तक के संदर्भ को लेकर उन्होंने यह बात कही) तो क्या सिनेमा इस विविधता को दिखा पाता है?


'अब दिल्ली दूर नहीं' : नेहरू युग का स्वप्न 

इन प्रश्नों से इतर वे 'अब दिल्ली दूर नहीं' को अपनी पसंदीदा फिल्म बताते हुए इसके संदर्भ में कहते हैं कि यह फिल्म आपको बताती है कि नेहरू अब वो नेहरू नहीं है जिससे की आप जब चाहे मिल सकते थे वे अब स्वतंत्र भारत के व्यस्त प्रधानमंत्री हैं। 'अब दिल्ली दूर नहीं' के उस हिस्से का भी रविकांत ज़िक्र करते है जहाँ एक अफसर उन बच्चों को कहता है बल्कि धमकी देता है जो उससे बात करने के लिए गाड़ी के आगे पत्थर रख देते हैं कि देखो ये शहर है और नागरिकता की कुछ शर्ते होती और तुम्हें कायदा और अदब सीखना होगा। पुराने ज़माने में जैसे चलता था वैसे नहीं चलेगा। रविकांत इस कथन को नेहरू के पटना यूनिवर्सिटी के छात्रों को दिए गये भाषण से कनैक्ट करते हैं। जहां वे छात्रों से कहते है कि अब तुम जाओ, अब तुम्हें आंदोलन करने की ज़रूरत नहीं है। अगर हम ये कहेंगे कि सिनेमा राष्ट्र का भौंपू है तो हम यहाँ ये मिस कर जाएंगे कि सिनेमा की कितनी गहरी आलोचना भी यहाँ छिपी हुई है और राष्ट्र किस तरह से नागरिक को बनाने की कोशिश कर रहा है।

 'रंग दे बसंती' : इसका क्लाइमैक्स सिनेमा में व्यवस्था की आलोचना भी है। 

बहरहाल रंग दे बसंती भी मेरी पसंदीदा फिल्म हैं सबसे महत्वपूर्ण और अच्छी बात जो मुझे इस फिल्म में लगती है वो है इसका क्लाइमैक्स। यह क्लाइमैक्स सिनेमा में व्यवस्था की आलोचना भी है। जहाँ फिल्म के वे चारो लड़के या नायक ऑल इंडिया रेडियो पर सफाई दे रहे हैं। जो एक सरकारी माध्यम है या सत्ता का प्रतिष्ठान है। वे ये बताते है कि हम सरकारी माध्यम का इस्तेमाल जनता से संपर्क साधने के लिए कर रहे हैं और सीधे जनता से मुख़ातिब हो रहे हैं। जनता द्वार उनकी बात सुन लेने के बावजूद सत्ता के गलियारों में उनकी बात नहीं सुनी जाती। वे राष्ट्र और सत्ता के लिए खतरा हो जाते है। और हुक्म आता है 'आई डोन्ट वॉन्ट एनी सर्वाइ्व' और कमांडो द्वारा उन्हें भून दिया जाता है और अंत में सीख यही है कि अगर राष्ट्रीय संचार माध्यमों से छेड़छाड़ करोगे तो इसका अंजाम बुरा होगा। शहर इसलिए भी शहर है कि बह मीडियाकृत हैं। शहर भी मीडिया के जरिये ही हमारे समक्ष मौजूद है। अब देखिए नागरिक बनने की एक शिक्षा आपको राजकपूर की फिल्मों से मिलती है तो एक अलग शिक्षा आमिर खान की फिल्मों से । यही सिनेमा की सफलता भी है सार्थकता भी। रविकांत ने परिचर्चा के लिए जो आधार निर्मित किया था वो प्रश्न काल में बेहद काम आया हालांकि ज्यादातर सवाल पर्चें पर केंद्रित नहीं थे लेकिन जो सवाल आए वे सिनेमा में शहर की महत्ता के प्रदर्शन को लेकर नहीं बल्कि शोधार्थियों के मन में सिनेमा को लेकर जो शंकाएँ हैं उनके मन में सिनेमा की भाषा, उसके स्तर, चरित्रों की बॉडी लैग्वेज के बदलाव के लक्षणों को जानने की जो जिज्ञासा है इससे संबंधित थे। प्रश्नो की आवृत्ति इतनी अधिक थी कि मिहिर को बार बार टोकना पड़ा। रंजीत, पंकज, नरेंद्र, रूपेश, विरेंद्र, भावना, प्रतिमा, और अदिति आदि श्रोताओं ने मिहिर के सामने अपनी शंकाएं, प्रश्न और टिप्पणिया रखीं। एक सवाल था कि जिस लोकेलिटी से हम बचते आ रहे हैं वह सिनेमा में आकर हमें आकृष्ट क्यों करती है? और टिप्पणी थी कि अफवाह को लेकर गाँव की पहचान मान लेने का भ्रम है लेकिन दिल्ली ०६ में दिखता है कि यह शहर से भी जुड़ी है। एक सवाल में हाशिये की पहचानों के संकट की बात की गई जिसका जवाब देते हुए मिहिर ने कहा कि मैं जब हाशिये की पहचानों की बात कर रहा हूँ तो सभी पहचानों की बात उसमे शामिल है चाहें वो आदिवासी हों, दलित हों. स्त्री हो या और तमाम अल्पसंख्यक पहचाने इसमें शामिल है। अपने जवाब के अंत में उन्होंने पर्चे की बात को दोहराया कि पैसा आ जाने से ही आप इस दीवार को नहीं तोड़ सकते है। साथ ही कहा कि इस तरह के संघर्ष शहर में ज्यादा तीव्रतर हो जाते हैं। एक अन्य सवाल के जवाब में मिहिर ने कहा कि चलो दिल्ली शहर के बीच में खाँचे बनाने की कोशिश कर रही है। दिल्ली ०६ में मुझे लगता हैं कि वह शहर के भीतर दो खाँचे बनाती हैं रामलीला और बंदर इन खाँचों के हिस्से हैं। और इस फिल्म मे एक विलोम रचने की कोशिश की गई है अमेरिका से लौटे एक चरित्र के माध्यम से इन सब सामुदायिक संदर्भों और खाँचों को देखने की   कोशिश यह फिल्म करती है।
  



फिल्म अध्ययन के लिए फिल्म एक डाटा है - संजीव कुमार
 
अंत में संजीव कुमार ने अपना अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए कहा कि- फिल्म अध्ययन आम तौर पर मूल्याँकन करने वाला अध्ययन नहीं होता जबकि हम जो हिंदी के शिक्षक और विद्यार्थी है, निर्णय देने लगते हैं। निर्णय देने के लिए हमारे पास रसवाद से लेकर मार्क्सवाद तक का आधार हो सकता है लेकिन हम अंततः मूल्याँकन देते हैं कि रचना अच्छी है कि नहीं। फिल्म अध्ययन दरअसल इस तरह का मूल्याँकन करने के लिए नहीं होता। फिल्म अध्ययन के लिए फिल्म एक डाटा है चाहे वह मसाला या बाज़ारू फिल्म ही क्यों न हो। यह अच्छा संकेत है कि आप लोगों ने जितने सवाल किये वो फिल्मों के अच्छा-बुरा होने के संदर्भ में न होकर फिल्मों को डाटा के रूप में लेते हुए किए गये थे। रविकांत ने जब कहा अपनी बातचीत में कि शहर सिर्फ गरियाने के लिए नहीं है। जो बातचीत चल रही थी उसमें मुझे दो दृश्य याद आ रहे थे एक तो दिल्ली ०६ का वह दृश्य मुझे दिल्ली ०६ की वो लड़की याद आती है जो मैट्रों की सीढ़ियाँ चढते हुए वॉशरूम में घुसती है और उसके बाद उसका भेस बदल जाता है और दूसरी फिल्म है पीपली लाइव का वो आखिरी दृश्य जिसमें गांव से भागकर वो बंदा दिल्ली पहुँचता है और अपनी पहचान गुम करके जीने लगता है। इस शहर के बहुत सारे अंधेरे पक्ष हैं दिल्ली की दीवार जो शीर्षक उदय प्रकाश की कहानी से मिहिर ने चुना है उसमें इन्हीं अंधेरे पक्षों को उद्घाटित किया है। लेकिन इसका एक पक्ष यह भी है कि यह आपको बिरादरी के उन सब तनावों से भी मुक्त करते हैं जो गाँव में आपको बाँध कर रखते हैं यह आपको उस तरह के शिकंजो से मुक्त करता है और वह आज़ादी भी देता है जिसकी व्यक्ति के तौर पर जरुरत महसूस की जाती है। तो आप सब लोगों को बहुत बहुत धन्यवाद की आप सब लोगों ने इसमें शिरकत की,आपने बहुत उत्साह के साथ इसमे भाग लिया और मुझे विश्वास है कि अगर आगे फिल्म जैसा विषय नहीं भी होगा तो आपका यह उत्साह बरक़रार रहेगा। विनोद कुमार शुक्ल, आलोक राय, प्रेमचंद के तमाम संदर्भों और समकालीन सिनेमा के उदाहरणों को इस्तेमाल करते हुए मिहिर जिन आभासी दायरों की तलाश करने की कोशिश करते हैं वे उसकी प्रक्रिया में है। वे इसके निष्कर्ष पर नहीं पहुँचे हैं। निष्कर्ष पर न पहुँचना मिहिर की सीमा नहीं है बल्कि खूबी है। प्रक्रिया में रहना उन तमाम फिल्मों के इंतज़ार करने में निहित हैं जो दिल्ली शहर की अलग तस्वीर दिखाने के लिए रिलीज़ होने की फ़िराक़ में हैं।

अपने पर्चें में मिहिर विषयानुरूप सिर्फ उदाहरण और संकेत करते हैं शायद इसी वजह से पर्चा कुछ ढीला-ढाला प्रतीत होता है। निश्चित ही इसमें समय सीमा भी ज़िम्मेदार है। लेकिन युवा शोध समवाय-१ में हिस्सा ले रहे रविकांत और बाकि शोधार्थियों ने अपने प्रश्नों और टिप्पणियों से मिहिर के पर्चे को लेकर ही नहीं बल्कि उसके ब्लॉग और अन्य जगह पर लिखे लेखों को इससे जोड़ते हुए सवाल पूछे हैं और संजीव कुमार ने परिचर्चा के समापन में कहा भी कि मिहिर को फिल्म का इन्साइक्लोपीडिया मानकर सवाल पूछे गये है और ये उनकी सफलता का सूचक है। 
अंत में औपचारिक धन्यवाद प्रतिमा ने दिया। अमितेश,भावना, तरुण व अन्य यू.टी.ए साथियों ने कार्यक्रम की व्यवस्था संभाली। इस अवसर पर वाणी प्रकाशन से अरुण माहेश्वरी और अदिति माहेश्वरी पूरे समय परिचर्चा में मौजूद रहे।
आशुतोष कुमार, अपूर्वानंद व शोधार्थियों की उपस्थिति ने इस कार्यक्रम में न केवल शिरक़त की बल्कि अपने सुझाव भी दिये।

गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

स्मृति में प्रेम

कॉलेज का विदाई समारोह। क्या मेरे प्यार का भी आज आखिरी दिन है? उसके मन में यही सवाल था उस दिन। उसकी नज़रे उसे खोज रहीं थी पर वो जैसे कहीं नहीं थी वह फिर कैंटीन की छत से कॉलेज के कॉरिडोर की और भागा पर उसे वहाँ भी नहीं पाया। उसकी सहेली ने बताया कि वो कॉमन रूम में तैयार हो रही है। वह इंतजार करने लगा। फिर वह बाहर निकली साड़ी का रंग नहीं बता सकता बहुत डिफ्रेंट थी बिल्कुल उसकी आँखों की तरह। दुनिया में ऐसी आँखें किसी की नहीं थी। वो ऐसा मानता था। वह उसके सामने से गुज़र गयी। वह कुछ बोल नहीं पाया। उसके साथी खुश थे। पर क्या था जो उसके मन में चल रहा था? वह फिर उसे खोजने लगा। कॉलेज के पिछले तीन सालों में वह इतना कभी खाली नहीं हुआ जितना कि आज। उसे लगा कि दिल से कोई द्रव्य निकल रहा है उसने दिल पर हाथ रखा पर कुछ नहीं निकल रहा था वहाँ कुछ तेजी से बज सा रहा था। वह कैंटीन की छत पर गया उसने देखा कि वह रुपेश के साथ फोटो खिचवा रही थी वह बहुत खुश थी रुपेश हमारी क्लास का सबसे डैशिंग लड़का था। उस दिन उसे पहली बार लगा कि वह बेहद बदसूरत है। उसे लगा कि उसकी माँ को बचपन में उसके माथे पर काजल नहीं लगाना चाहिए था उसे पहली बार माँ से इतनी शिकायत हुई। (संगम में हमें शामिल करने के लिए एम.ए. के विद्यार्थियों को आभार और शुभकामनाओं सहित उपरोक्त लघु कथा, शीर्षक है

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

16वाँ देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह : एक रिपोर्ट

१६वाँ देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह अपनी परंपरानुसार अवस्थी जी के जन्मदिवस 05 अप्रैल को साहित्य अकादमी के सभागार में संपन्न हुआ। इस मौके पर आधुनिकता और भारतीयता विषय पर इतिहासकार सुधीर चंद्र और संस्कृत के विद्वान राधावल्लभ त्रिपाठी ने अपने अपने वक्तव्य दिये। कार्यक्रम की अध्यक्षता आलोचक नित्यानंद तिवारी ने की। संचालन का दारोमदार संभालते हुए अशोक वाजपेयी ने कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए कहा कि यह आयोजन दिल्ली के उन बहुत थोड़े से आयोजनों में है जिसमें इतनी बड़ी संख्या में श्रोताओ की उपस्थिति होती है। ये भी इसकी प्रमाणिकता का एक और साक्ष्य है। हर बार की तरह इस बार भी विचार विमर्श के लिए जो विषय चुना गया वह समकालीन आलोचना की चिंताओं को अपने में जज़्ब किये था। विषय था आलोचना और भारतीयता।

आलोचनाःसृजन की पाठशाला - जितेंद्र श्रीवास्तव

सबसे पहले जितेंद्र श्रीवास्तव को पुरस्कारस्वरूप प्रशस्ति पत्र और अवस्थी जी की प्रतिमा भेंट की गई। यह पुरस्कार जितेंद्र श्रीवास्तव को उनकी पुस्तक ‘आलोचना का मानुष-मर्म’ के लिये दिया गया। इस अवसर पर जितेंद्र ने अपना वक्तव्य पढ़ते हुए आलोचना को विद्वता प्रदर्शन की नहीं बल्कि सृजन की पाठशाला माना। साथ ही उन्होंने कहा कि जब तक हम लोग आलोचना को आश्रित विधा मानते रहेंगे तब तक उसे दार्शनिक हस्तक्षेप के योग्य नहीं बना पाएंगे, जो उसका मुख्य कार्य है। उनके लिए आलोचना का आशय रचना की परख के साथ ही इस पक्ष की परख भी है कि वह मानुष-मर्म के विधान का उद्यम करती है या नहीं? यदि आलोचना किसी रचना में निहित मानवीय जिजीविषा और गरिमा का विश्लेषण नहीं कर पाती या उससे बचने का मार्ग खोजती है तो मेरे लिए वह बुद्धि विलास के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। वे अपनी आलोचना की कसौटी आलोचना में अंतर्वस्तु के सौंदर्य को मानते हैं साथ ही यह भी कहते चलते हैं कि इसका आशय यह नहीं है कि मैं रूप को अस्वीकार कर रहा हूँ। जितेंद्र श्रीवास्तव की चिंताएँ पिछले बीस बाइस वर्षों के साहित्य, समाज और राजनीति में होने वाले परिवर्तनों को लेकर भी है और इस बदलाव को समझने के लिए वे चित्त के बदलाव को समझना आवश्यक मानते हैं वे साहित्य को सुविधा का क्षेत्र समझने वालो के विरुद्ध है उनका कहना है कि साहित्य अनिवार्य रूप से सुविधा का क्षेत्र नहीं है। इधर के कुछ वर्षों में कविता को खेल समझने का चलन बढ़ा है। यह सिर्फ कविता के लिेए ही नहीं संपूर्ण साहित्य के लिए भी चिंता का विषय है।


                                                  आधुनिकता और भारतीयता



आधुनिकता और भारतीयता विषय पर बोलते हुए सुधीर चंद्र ने कहा कि उनके मन में अवस्थी जी से न मिल पाने की कसक और टीस बाकी है। उन्होंने कहा कि उन्नीस सौ साठ के आस पास देवीशंकर अवस्थी ने साठ के दशक के मोहभंग (भयावह संदर्भ और कुछ कहानियाँ) पर लिखना महत्वपूर्ण समझा। मैं नहीं जानता कि इस संदर्भ को लेकर जब वह यह लेख सन साठ में लिख रहे थे तो उनके मन में कितना भय था । लेकिन अब जब हम पढ़ते है और ये याद करते हैं कि पंद्रह साल बाद जो इमरजेंसी लागू होने जा रहीं थी उससे पहले ही भयावह संदर्भों की बात देवीशंकर जी ने सोची थी। उनकी आलोचनादृष्टि अपने समय को तो देख ही रही थी पर साथ ही आने वाले समय को भी देख रही थी। अवस्थी जी के रचना की समग्रता और रचना की आंतरिक सत्ता पर कहे गये कथन उन्हें आज के संदर्भों को लेकर काफी मौजूँ लगे। वे अवस्थी जी के रामविलास जी के संबंध में कहे गये कथन को उद्धृत करते हैं- “वास्तव में रामविलास जी फौजदारी आलोचक पद्धति के आलोचक हैं। वकील जैसे मुकद्दमें की दरखास्त बनाते समय बहस करते समय अपने मतलब के नुक्ते ढूँढता है वैसे ही रामविलास जी शुक्ल जी के पीछे पड़ गये तो उन्हें रामविलास शर्मा बनाकर छोड़ा, यशपाल जी के पीछ पड़ गये तो उन्हें अ-मार्क्सवादी ही सिद्ध किया।“ वे अवस्थी जी की इस बात से अभिभूत हैं कि रामविलास जी का पूरा सम्मान करते हुए भी देवीशंकर जी उनके संदर्भ में इतनी मार्के की बात कहते है, जो अंत तक उनके लेखन पर लागू होती है। सुधीर चंद्र ने अशोक वाजपेयी के संचालन के दौरान आधुनिकता और भारतीयता के संदर्भ में जोड़े़ गये उस सूत्र को पकड़ा जिसमे अशोक वाजपेयी ने भारतीयता को एकवचन में नहीं सोचने की बात कही थी। आधुनिकता और भारतीयता के संदर्भ में सुधीर चंद्र ने इस सूत्र का हवाला देते हुए कहा कि क्या कारण है कि भारतीयता शब्द का उच्चार जैसे ही होता है एक छवि हमारे मन में बन जाती है और वह छवि उस एकवचन की ओर झुकी हुई है जिसकी ओर अशोक ने इशारा किया।

भारतीयता कोई ऐसा विचार नहीं है कि जो ऑलरेडी स्थापित हो ये विकसित हो रहा है - सुधीर चंद्र


अशोक वाजपेयी की ही बात को दूसरे ढंग से कहते हुए उन्होंने कहा कि यह बहुवचन की ही बात नहीं यह एक परंपरा की बात है। परंपरा इस अर्थ में कि भारतीयता कोई ऐसी वस्तु या कोई ऐसा विचार नहीं है कि जो ऑलरेडी स्थापित हो ये विकसित हो रहा है और इसके विकास में खासी एक लड़ाई और संघर्ष चल रहा है। इसके विकास में कौन सी भारतीयता अथवा भारतीयताएँ आगे जाके बनेगी। जब से भारत में राष्ट्रवाद का विकास हुआ है अवचेतन में हिंदू और भारतीय एक दूसरे के पर्याय बन गये है। चेतन के स्तर पर ये हुआ हो या न हुआ हो ये ज़रूरी नहीं है लेकिन अवचेतन के स्तर पर जब ये होता है तो वो बहुत खतरनाक होता है और राष्ट्रवाद से ही भारतीयता की बात शुरु होती है। जब हमने भारतीय राष्ट्रवाद को ही हिंदू राष्ट्रवाद का पर्याय मान लिया तो बड़ी खतरनाक शुरुआत हमारे मानसिक विकास की और भारतीय इतिहास के विकास की होती है जिससे हमें सतर्क रहना होगा। एक उदाहरण के माध्यम से उन्होंने समझाने की कोशिश की कि भारत में धर्म और संस्कृति को अलग अलग रखना कितना जरूरी है? क्योंकि बहुधा इसे एक-दूसरे में अंतर्गुंफित करके विचार किया जाता है। अपने वक्तव्य की अंतिम कड़ी में उन्होंने देवीशंकर अवस्थी की आलोचना की शब्दावलियों रचना की समग्रता और रचना की आंतरिक सत्ता के उद्घाटन को समकालीन आलोचना के लिए महत्वपूर्ण बताया।


भारतीय मानकों से पश्चिम को आँकने का प्रयास - राधावल्लभ त्रिपाठी

अगले वक्ता के रूप में राधावल्लभ जी ने अपने विचार रखते हुए कहा कि सामान्यतः जो कुछ भारत में दिखाई पड़ता है वह भारतीयता है और जो कुछ भारत में लिखा जा रहा है वो भारतीय है। किसी भी प्रतिभाशाली रचनाकार के द्वारा और उस लिखे हुए पर जो कहा जा रहा है वो भारतीय आलोचना है उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर और अरविंद के माध्यम से भारतीयता को स्पष्ट करने की कोशिश की और कहा कि मैं रवीन्द्रनाथ और अरविंद को आलोचना मे बहुत महत्वपूर्ण मानता हूँ क्योंकि दोनों ने ये अद्भुत कोशिश की, कि वे पश्चिम को बताएँ कि हमारे मानकों से वे क्या हैं? और पश्चिम के सामने अपने मानक रखकर भारतीयता का मूल्याँकन करें कि उनके बरक्स फिर हम क्या हैं? वे रवींद्रनाथ टैगोर की किताब प्राचीन साहित्य के हवाले से कहते हैं कि जिस तरह पॉलिटिक्स और नेशन इन दोनों शब्दों का समवर्ती शब्द हमारी भारतीय भाषाओं में कहीं नहीं है उसी तरह धर्म तो हमारा अपना शब्द है उसका समवर्ती शब्द उनकी भाषाओं में कहीं नहीं है। रवींद्रनाथ और अरविंद द्वारा सुझाये गये दो भारतीय महाकाव्यों(रामायण और महाभारत) के माध्यम से राधावल्लभ त्रिपाठी भारतीयता और भारतीय आलोचना की पहचान करने का मापदंड मानते है उनका कहना हैं कि अगर महाकाव्य की पहचान की जाए तो हमारे सामने उसके दो ही मानक हैं - रामायण और महाभारत । इनके माध्यम से हम भारतीय आलोचना की और भारतीयता की पहचान भी कर सकते हैं। राधावल्लभ जी का कहना है कि ये दोनों ही समीक्षक भारतीय मानकों से पश्चिम को आँकते हैं। और सवाल उठाते हैं कि पश्चिम इनके आगे क्या है? जहाँ पश्चिम एकदम से कटाक्षेप करके कहता है कि इसके लिए तो हमारे आगे कुछ नहीं है वहीं भारतीय आलोचना और भारतीय दृष्टि उसके पास जाकर के कुछ और सोचने की, बताने की कोशिश करती है।


संस्कृति धर्म का अतिक्रमण करके भी हो सकती है। - नित्यानंद तिवारी


इसके बाद अध्यक्षीय वक्तव्य के लिए नित्यानंद तिवारी ने अपने भाषण की शुरुआत अशोक वाजपेयी और राधावल्लभ जी के कथनों पर टिप्पणी करते हुए की उन्होंने कहा कि अशोक जी ने कहा था कि ‘आलोचना और भारतीयता का संबंध या इस संबंध में कोई सवाल नहीं उठाया गया है।‘ पर ऐसा नहीं है सवाल उठाया गया है। उन्होंने अपनी बात के प्रमाण स्वरूप हजारी प्रसाद द्विवेदी की दो किताबों साहित्य का मर्म और लालित्य तत्व का हवाला दिया। और साथ ही कहा कि यह सवाल सिर्फ द्विवेदी जी ही नहीं बल्कि शुक्ल जी ने भी उठाया है इसलिए ऐसा नहीं है कि यह विषय (आलोचना और भारतीयता) कोई अजूबा हों, या इससे पहले जेहन में न आया हो। इसके बाद उन्होंने राधावल्लभ जी के द्विवेदी जी के संदर्भ मे कहे गये कथनों पर अपनी टिप्पणी देते हुए कहा कि विनिवेशण, अन्यथाकरण, अन्वयन, भावानुप्रवेश, यथालिखितानुभाव, करणविगम आदि एस्थेटिक्स की शब्दावली हैं जिसे द्विवेदी जी ने निकाला, काव्यशास्त्र नहीं। साथ ही अचरज व्यक्त किया कि इस शब्दावली का उपयोग या इसको समझने का उपक्रम हिंदी आलोचना में अब तक क्यों नहीं किया गया? उन्होंने सुधीर चंद्र द्वारा उठाए गये धर्म और संस्कृति के सवाल को एक अच्छा सवाल क़रार देते हुए कहा कि संस्कृति धर्म का अतिक्रमण करके भी हो सकती है। भारतीय संस्कृति क्या हमें कहीं से यह सिखाती है कि धर्म की या जाति की या क्षेत्र की जो सीमाएँ हैं उन सीमाओं का अतिक्रमण करके हम भारतीय हो सकते हैं? भारतीय दर्शन और संस्कृति के संदर्भ में नित्यानंद जी ने अपने प्रिय ग्रंथ पद्मावत के हवाले से कहा कि अगर हिंदू मुसलमान न होते। ये दो समाज न होते दोनों ऐसे समाज थे कि कोई एक-दूसरे को पराभूत नहीं कर सकता था। साथ साथ रहते हुए अगर वे अपनी कुछ संपर्क विधियाँ विकसित कर सकते हैं तो उससे कुछ नया साहित्य लिखा जा सकता है और पद्मावत ऐसा ही साहित्य ग्रंथ है। उन्होंने अशोक जी के बहुलता शब्द का बहुधा इस्तेमाल किये जाने पर चुटकी भी ली और कहा कि उनका यह प्रिय शब्द है, बहुत दिन से वे इसका प्रयोग कर रहे हैं। लेकिन मेरे दिमाग में ये बात कभी नहीं आई कि मैं उनसे पूछूँ कि बहुलता की जगह विविधता का प्रयोग वे क्यों नहीं करते और बहुलता मे क्या कुछ ऐसी विशिष्टता है जो विविधता में नहीं है। मुझे ऐसा लगता है कि ये विविधताए परस्पर संवादमय होती है और बहुलता भी परस्पर संवादमय हो सकती है। लेकिन उसमें इस बात की संभावना भी लगती है कि वो परम स्वतंत्र हो जाए। बहरहाल इन टिप्पणियों से इतर उन्होंने आधुनिकता और भारतीयता पर तीन बिंदुओं को उठाते हुए अपनी बात रखी पहला बिंदू था कुँवर नारायण जी का कथन जिसमें उन्होंने कहा था कि वस्तुओं के क्षेत्र में ही नहीं विचारों के क्षेत्र में भी बाज़ार मूल्य प्रवेश कर चुका है। दूसरा बिंदू था कि आज के आलोचनात्मक 'विमर्श' पश्चिम तर्कों से अनुकूलित होते जा रहे हैं या नहीं? तीसरा बिंदू रहा कुछ समय पहले दिल्ली के रिक्शे वालों के संदर्भ मे आया सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय। जिसमें न्यायाधीश रिक्शवालों के पक्ष में फैसला सुनाते हुए कहते हैं कि गरीब आदमियों के वाहन का सवाल है। आप उन लोगों को क्यों नहीं रोकते जो सड़क पर चलते हुए तमाम एक्सीडेंट करते हैं और खून-खराबा करते हैं। उनके लिए आप क्यों नहीं नियम बनाते, बड़े आवेग के साथ न्यायाधीश ने यह बात कही है और ये तीनों बिंदू मिलकर एक ब़ड़ा संक्रांत बिंदू बनाते हैं। अपनी बात वे दूसरे बिंदू से शुरु करते है जो बाद में पहले वाले बिंदू से जुड़ जाती है। दूसरे बिंदू के संदर्भ में उन्होंने कहा कि रामविलास शर्मा, शुक्ल जी और द्विवेदी जी की आलोचना पश्चिम से प्रभावित जरूर है पर वह वहाँ से अनुकूलित नहीं हैं। पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी को वे अपना प्रेरणा पुरुष बताते है और कहते है कि उन्होंने ही सबसे अधिक पश्चिम की आलोचना से लड़ाई लड़ी है। शुक्ल जी ने भी उतनी लड़ाई पश्चिम की आलोचना से नहीं लड़ी है और इसलिए आलोचना और भारतीयता का प्रसंग वहाँ पूरी गंभीरता से उपस्थित है। नित्यानंद जी द्विवेदी जी के ही माध्यम से आलोचक को सहृदय पाठक मानने के पक्ष में हैं। तर्क करने की क्षमता और ग्रहण व त्याग का विवेक देशकाल से आता है उनका मानना है कि यही आकर द्विवेदी जी और कुँवर नारायण एक बिंदू पर मिल जाते हैं। और वे सवाल उठाते है कि जिस प्रकार कुँवर नारायण का कथन बाज़ारवाद के खिलाफ है वैसे ही क्या द्विवेदी जी पश्चिम से प्रभावित होते हुए भी पश्चिम की आलोचना को चुनौती नहीं देते? अब अगर कुँवर जी ये बात कहते हैं तो क्या गलत है कि विचारों में भी बाजारवाद प्रवेश कर गया है। वे समकालीन साहित्य पर विचार करते हुए उन धारणाओं को खारिज करते है जो इसे बेहद दुर्वल मानकर चलती है। उनके लिए आलोचक सिर्फ वही नहीं है जो समकालीन साहित्य को पढ़ता है। वे आलोचक का ये अनिवार्य कर्तव्य और गुण मानते हैं कि उसे अपनी परंपरा का भी पूरा ज्ञान हो सिर्फ समकालीनता की जद में रहकर आलोचना नहीं हो सकती। उनका खयाल है कि हमारा साहित्य दुर्बल नहीं है और आज का भी जो रचनात्मक साहित्य है वो मुझे दुर्बल नहीं दिखता। हमारी आलोचना देखे या न देखे लेकिन हमारा आज का बहुत ढ़ेर सारा साहित्य है जो दुर्बल नहीं है। सवाल आलोचना और आलोचकों का है?

इस तरह के बहसनुमा वक्तव्यों के साये में यह आयोजन सफल रहा। सबसे खास रहा अवस्थी जी की नातिन शाश्वती द्वारा देवीशंकर अवस्थी के लेख आधुनिकता और भारतीयता के आरंभिक अंश का पाठ। जिसने वक्तव्यों को मूल मुद्दे पर केंद्रित रहने में मदद की। इस अवसर पर अवस्थी जी के परिवार के सदस्यों और वक्ताओं के अलावा मैनेजर पांडेय, विश्वनाथ त्रिपाठी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, संजीव कुमार, अनामिका, अर्चना वर्मा सरीखे विद्वान लेखको, प्राध्यापकों और शोधार्थियों की उपस्थिति देखने लायक थी। अंत में धन्यवाद ज्ञापन अशोक वाजपेयी ने किया।

मंगलवार, 6 मार्च 2012

स्मृति में प्रेम

चिक्की के गाल पर हाथ फेरते हुए उसे ऐसा एहसास हुआ मानो यह स्पर्श महसूस किये उसे ज्यादा समय नहीं बीता। चिक्की जब मुस्कराता, हँसता,खेलता.रोता, उसके चेहरे और छातियों पर अपने हाथों से थपकी मारता, यह एहसास उसे फिर फिर होता और वह उन स्मृतियों में खो जाती जब उसने और चिक्की के पापा ने जीने मरने की क़समें साथ-साथ खाई थी। तब उसे हम बने तुम बने एक दूजे के लिए फिल्मी गीत बेहद पसंद था। लेकिन समय हमारी सोच और धारणाओं के साथ साथ हमारे ख्वाबों को भी कितना बदल देता है। आज उसे अक्सर क्या हुआ तेरा वादा..याद है तुझको तून कहा था.. अपने दिल के अधिक करीब लगता है। आज चिक्की का जन्मदिन है। यहाँ आने से पहले उसने खुद को कितना समझाया था कि वह न जाए लेकिन जैसे उसका अपने पैरों पर बस ही न था जैसा पहले दिल पर नहीं था। पूरे रास्ते कॉलेज के दिनों की यादें उसे सालती रहीं। चिक्की की मम्मी और उसकी दोस्ती हुए ज्यादा समय नहीं बीता है। जब उसे पता चला कि चिक्की की मम्मी अजय की ही पत्नी तब उसने खुद को इससे काटने की कोशिश भी की लेकिन फिर रह गयी..आज इस समय जब घर में पार्टी का माहौल है चिक्की अपनी इस नई आंटी को छोड़ने को तैयार नहीं। और वह भी नहीं चाहती कि चिक्की उसे छोड़े, कितना अरसा हो गुज़र गया है किसी को प्यार किये। आशा ने फिर धीरे से आँखे चुराते हुए चिक्की के गाल पर अपने होंठो का एक हल्का स्पर्श रख दिया।

शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

स्मृतियों में प्रेम

१.वो वेलेंटाइन डे


दूर वो दिखाई दी।.. उसने सोचा अब तो दे ही दूँ , पर फिर रुक गया। उसे आज ही उसके दोस्त ने कहा था कि ऐसे मामलो में जल्दबाजी ठीक नहीं। उसने फिर कंधे तक लटके बैग को पीछे किया और चेहरे पर आई बेचैनी को हटाने की कोशिश करने लगा। "कैसे दूँ वो बुरा तो नहीं मानेगी ना? कहीं दोस्ती भी ...नहीं-नहीं" उसने अपने अंदर एक और लड़के के होने का आभास महसूस किया। "दे ही देता हूँ अब नहीं दूँगा तो कब दूँगा।" वह उसके पास गया..फरवरी की धूप में वह ऐसी दिखती मानो कच्छ के रण मे पानी की चमक। उसने पास जाके थोड़ा हिचकिचाकर कहा.."एक्सक्यूज़ मी" .."हाँ क्या है" कुछ नहीं वह फिर रह गया।उसे लगा यह वो लड़की नहीं जिसे वह चाहता है। बैग की चेन जो उसने खोल ली थी। बंद करके बैग कंधे पर टांग लिया। ऐसा लगता है मानो कल की ही बात हो।
पिछले नौ सालों से आज के दिन हर बार डायरी के भीतरे छुपाये गये फूल को देख कर वह अपने कॉलेज के दिनों में खो जाता है।


२. कार्ड

दोपहर जिसमें सर्दियों के समापन का संकेत था। धूप पेड़ों से छनकर उस हरे लोहे के बैंच पर बैठी निशा के गालों और बालों को उम्रदराज़ बना रही थी। निशा के होंठो पर जमी पपड़ी कुछ कहना चाह रहीं थी। आंखें नीचे की ज़मीन में कुछ ढ़ंढ रही गिलहरी को घूर रहीं थी। चेहरा एक ही जगह जमा हुआ था लेकिन दिमाग में कुछ चल रहा था। मालियों की खुरपी माहौल को अशांत किये हुए थी। लंच होने ही वाला था शायद इसलिए वे अपना हाथ का काम समेट लेना चाहते थे। कौओ और गिलहरियों ने पेड़ों से उतरना शुरु कर दिया था। मिट्टी पर अभी पानी छिड़का गया था जिससे उठी खुशबू अब भी वसंत को क़ायम रखे थी।
निशा के बराबर में काफी देर से चुप बैठे विनोद ने पूछा - "क्या हुआ, कुछ तो कहो, चुप क्यों बैठी हो?" पलकें उठी, कोरों से पानी की कुछ बूँदें नीचे ही लुढ़कने ही वाली थी कि निशा ने चेहरे पर एकाएक मुस्कराहट लाते हुए कहा - "कुछ नहीं।" "... कुछ तो, प्लीज़ कुछ तो कहो? बताओ तो।" "... कुछ नहीं - कहा ना। क्या तुम भी मुझे चैन से जीने नहीं दोगे। मैं कुछ देर चुप रहना चाहती हूँ। इतने सालों की रिलेशनशिप में भी तुम ये नहीं समझ सके।" विनोद को जैसे ऐसे किसी जवाब की उम्मीद निशा से नहीं थी, वह अवाक् निशा के चेहरे को देखने लगा। उसने देखा उसके गाल होंठों की तरह सूखे हुए थे जैसे रात भर नमकीन द्रव्य में डूबे हों।..." प्लीज़ कुछ तो कहो..आज फैरेवल पार्टी है, कॉलेज का आखिरी दिन..कुछ तो बोलो..कुछ तो कहो.". उसने एक बार फिर कोशिश की।
निशा का शरीर जो अब तक अचेत था। एकदम हरकत में आया उसने अपने लाल पर्स से एक कार्ड निकाला और विनोद को थमाकर मालियों की मेहनत और लहराती घासों को कुचलती हुई चली गयी।
आज इतने सालों बाद भी निशा के पैरों के निशान उस जगह मौजूद है। उस बैंच पर उसका अहसास मौजूद है। उसके जेहन में हर साल सर्दियों की समाप्ति निशा के खयाल को पैदा कर देती है।

शुक्रवार, 20 जनवरी 2012

मलयज और देवीशंकर अवस्थी : जवाबों की तलाश में कुछ सवाल

मलयज और देवीशंकर अवस्थी की समीक्षा को समझने की कोशिश, उनकी समीक्षा के समीक्षकों की शंकाओ और सवालों का जवाब देते हुए ही सफल हो सकती है , उन्हे सिर्फ उपेक्षित कह देने मात्र से नहीं l इस उपेक्षा की चर्चा उन पर लिखे कई श्रद्धांजलि लेखों मे हमें मिल जाएगी, लेकिन वे उपेक्षित कैसे रह गए? यह सवाल हमें अपने आप से पूछ्ना चाहिए और केवल यही सवाल नही ऐसे कितने ही सवाल आज भी अलोचकों से जवाब की आस लगायें हैं l हमारे भद्र साहित्यिक समाज से ये सवाल पूछे जाने चाहिए--
कि... अब तक उनकी प्रतिभा का सही मूल्यांकन क्यों नहीं हो सका ? क्यों उन पर आज भी वैचारिक लेखों का अभाव है ?
इन आलोचकों पर कोई मुक़म्मल पुस्तक तो दूर अच्छे शोध-पत्रों और वैचारिक लेखों (जिनमे इनकी आलोचना-दृष्टि, सिद्धान्तों एवं मूल्यों का मूल्यांकन किया गया हो) तक का अभाव है, ऐसा क्यों ?
क्यों इन पर लिखे लेख हमें श्रद्धांजलि या संस्मरणमात्र प्रतीत होते है?
दोनों ही आलोचकों की आलोचना समकालीन आलोचकों की गलतबयानी का शिकार हुई, जिसका विरोध साहित्यिक समाज मे कहीं क्यों नहीं दिखाई दिया ?
मलयज और देवीशंकर अवस्थी दोनों ही लेखकों को किसी न किसी आलोचक के बरक्स रखकर ही विचार क्यों किया गया? यदि दोनों का परस्पर तुलनात्मक अध्ययन किया जाता तो भी बात समझ में आती लेकिन मलयज को मुक्तिबोध के और देवीशंकर अवस्थी को नामवर सिंह के बरक्स खडा कर दिया गया l क्या समकालीन आलोचना के लिए किसी भी एंगल से यह शुभ माना जा सकता है?
दोनों ही आलोचकों को एक तरह के सीमित पूर्वग्रह से ग्रस्त होकर देखा गया l क्या साहित्य में सिर्फ दो दृष्टियों से ही मूल्यांकन हो सकता है?
मलयज ओर देवीशंकर अवस्थी के मरणोपरांत जिसका जो मन आया उसने वो ठप्पा इन पर लगा दिया l रमेश उपाध्याय ने देवीशंकर अवस्थी को कलावादी घोषित किया(१) तो अरविन्द त्रिपाठी देवीशंकर अवस्थी पर लिखे अपने मोनोग्राफ में उन्हें वाया प्रगतिशील होते हुए 'देसी आधुनिक' की संज्ञा देते हैं l(२) हद तो तब हो जाती है जब मैनेजर पाण्डेय देवीशंकर अवस्थी के बारे में कहते हैं कि 'परंपरा का अस्वीकार उनके यहाँ मूल्य है l'(३). श्याम कश्यप मलयज पर लिखे अपने लेख 'कलावाद के अधूरे साक्षात्कार' में यह घोषणा करते हैं कि मलयज न केवल कलावादी-रूपवादी हैं बल्कि विचार-विरोधी भी हैं l
क्या मात्र परिमल से जुड़ना कलावादी होना या विचार विरोधी होना है? क्या कला ओर विचार को मिलाकर या उससे अलग कोई नयी एवं निजी दृष्टि नहीं बनायीं जा सकती?
जब आप मलयज व देवीशंकर अवस्थी की रचनाओं-आलोचनाओं को पढ़ते हैं तो देखते हैं कि दोनों ही आलोचक साहित्य में प्रचलित दृष्टियों से अलग अपनी एक निजी दृष्टि बनाने की कोशिश कर रहे थे l यदि नियति उन्हें थोडा और समय देती तो संभवत: वे इस बात को साबित भी कर देते l
ये सब ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब अब तक मिल जाना चाहिए था लेकिन अफ़सोस```यह सवाल जस के तस हमारे सामने है l यह हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि अब तक साहित्य-समाज में इन सवालों के जवाब देने की या खोजने की किसी भी तरह की कोशिश नहीं दिखाई देती l जो छुट-पुट समीक्षाएं मलयज और देवीशंकर अवस्थी पर लिखीं भी गयीं उसमे भी इन सवालों के जवाब खोजने की जद्दोजहद नहीं दिखाई देती बल्कि इन
समीक्षाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि या तो ये बहुत भावुक होकर लिखी गयी हैं या फिर खुन्नस निकालने के लिए l इसलिए इन आलोचकों या इनकी आलोचना पर लिखी कोई भी समीक्षा तब तक अधूरी ही समझी जानी चाहिए जब तक वह इन सब सवालों का जवाब नहीं दे देती l
मलयज पर 'पूर्वग्रह' ने विशेषांक निकाला जिसमे शमशेर बहादुर सिंह , रघुवीर सहाय , कुंवर नारायण , शिवकुटी लाल वर्मा , श्रीराम वर्मा आदि लेखकों ने मलयज पर आलोचनात्मक
संस्मरण लिखे; जिसमे उन्होंने संक्षेप में मलयज की परिस्थितियों, समकालीन आलोचना में उनकी स्थिति और उनकी भाषा पर विचार किया l 'पूर्वग्रह' ने इस अंक के बाद के अंको में भी उनकी पुस्तकों पर लिखी समीक्षाओं का प्रकाशन किया l लेकिन इन पुस्तक समीक्षाओं में कई दिक्कतें थीं l इन पुस्तक समीक्षाओं के लेखक अपनी-अपनी मान्यताओं के आधार पर मलयज की पुस्तकों को देख रहे थे l उन्होंने कहीं भी कृति के आन्तरिक मूल्यों और उन मूल्यों को इंगित करने वाली दिशाओं को तलाशने की कोशिश नहीं की, लेकिन यदि तब भी इन समीक्षाओं से संतोष किया जा सकता है तो केवल इतना ही कि अपनी मान्यताओं को आधार बनाकर ही सही,कम से कम उनकी पुस्तकों का मूल्यांकन करने की पहल तो की गयी l इस सन्दर्भ में मलयज द्वारा बताये गए पुस्तक समीक्षा के मानी महत्वपूर्ण लगते हैं.- "समीक्षा के क्या मानी होते है? क्या तत्कथित पुस्तक समीक्षा करने वाला शुरू से ही यह मानकर चलता है कि वह एक ऊँचे आसन पर विराजमान है और प्रस्तुत पुस्तक पर verdict (निर्णय) देने, भला बुरा कहने या अधिक हुआ तो critical appreciation करने की उसे स्वतंत्रता है? और आजकल पत्र-पत्रिकाओं में यही तो होता है l कितना गलत मतलब है समीक्षा का l
"....मै समीक्षा को बहुत ऊँचे दर्जे की चीज़ समझता हूँ l एक समीक्षक सही मायने में कृतिकार के साथ मिलकर कृति के आंतरिक मूल्य और मूल्यों को इंगित करने वाली दिशा का अध्ययन करता है l इस तरह रचना के विकास की संभावनाओ पर बहुत ही ठोस रूप से विचार किया जा सकता है."(४)
इस उद्धरण से पुस्तक समीक्षा के मानी के साथ-साथ यह भी समझ में आ जाता है कि उस समय की समीक्षाओं की क्या स्थिति थी? मलयज यदि कृति के आंतरिक मूल्यों और उन मूल्यों को इंगित करने वाली दिशा पर जोर देते हैं तो देवीशंकर अवस्थी पुस्तक-समीक्षा के सन्दर्भ में समकालीनता पर l समकालीनता उनके यहाँ किसी पुस्तक को देखने की कसौटी है वे इसी कसौटी पर किसी पुस्तक का आकलन करते हैं l इस सम्बन्ध में 'विवेक के रंग' की भूमिका में उन्होंने विस्तार से विचार किया है l वे तो 'समकालीनता-बोध से रहित आलोचना को आलोचना मानने से ही इंकार करते हैं l'(५)
'विवेक के रंग' जैसा एक महत्वपूर्ण समीक्षा संकलन उनकी सोच और समझ का ही नतीजा है l जिसके संकलन में उन्होंने न केवल रचना की महत्ता का बल्कि महत्वपूर्ण समीक्षा का भी ख्याल रखा l इसके पीछे क्या कसौटी रही इसका जवाब देते हुए वे कहते है- ''सामान्यत: कसौटी यही रही है कि समीक्षा समीक्ष्य कृति की आन्तरिक सत्ता का उदघाटन करती हो, समीक्ष्य सिद्धांत की दृष्टि से कुछ महत्वपूर्ण बात कहती हो, अथवा इसमें पद्धति का नयापन मिलता हो l इस संकलन को जितना तटस्थ होकर मैंने बनाया चाहा है उससे मेरा विश्वास है कि यदि कोई अन्य व्यक्ति भी इस तरह का संकलन सम्पादित करता तो चुनाव में बहुत अंतर न पड़ता- संख्या भले ही घट या बढ़ जाती l''(६)
गौर कीजिये देवीशंकर अवस्थी ने कहा-'समीक्षा समीक्ष्य कृति की आन्तरिक सत्ता का उदघाटन करती हो' और इससे पहले दिया गया मलयज का उद्धरण देखिये -'एक समीक्षक सही मायने में कृति के आंतरिक मूल्य और मूल्यों को इंगित करने वाली दिशा का अध्ययन करता है l'
क्या इन दोनों उद्धरणों में लगभग एक ही बात नहीं कही गयी है? क्या किसी पुस्तक की समीक्षा से पहले हमें अपनी निजी मान्यताओं को गौण रखकर कृति के आन्तरिक मूल्य और उन मूल्यों को इंगित करने वाली दिशाओं के अध्ययन को प्राथमिकता नहीं देनी चाहिए? यदि हम यह मानते हैं(जोकि लगभग सभी पाठक स्वीकारते हैं) कि 'विवेक के रंग' एक महत्वपूर्ण समीक्षा-संकलन है लेकिन देवीशंकर अवस्थी और मलयज ने जो पुस्तक समीक्षा के मानी बताये है उन समीक्षाओं के लिए जो कसौटी निर्धारित की है l उस कसौटी को मानने में संकोच करते हैं, तब हमें अपने निजी अंतर्विरोधों की पुन: जाँच कर लेनी चाहिए l
मलयज और देवीशंकर अवस्थी की मंजिल एक ही थी ये बात और है कि इस मंजिल को तय करने के सफ़र के दौरान उनके रास्ते कभी मिले तो कभी बदल भी गए, किन्तु दोनों का ही उद्देश्य किसी कृति की समीक्षा करते समय अपने मानदंडो के साथ- साथ उस रचना की आन्तरिक सत्ता का निष्पक्ष मूल्यांकन करना था l मलयज जहां समीक्षकों को, अपनी समीक्षा द्वारा भाई-बिरादरी से बचने की सलाह देते हैं वहीं देवीशंकर अवस्थी विश्वविद्यालयी समीक्षा के पांडित्यधर्मी खतरों से पाठकों को आगाह करते हैं l आलोचना की समकालीनता और आलोचना में समकालीनता उनके लिए किसी भी अन्य दृष्टिकोण से ज्यादा ऊँचा दर्जा रखती थी l वे सही को सही और ग़लत को ग़लत कहने वाले लोग थे जिसे मैनेजर पाण्डेय भी 'ईमानदारी का तकाज़ा' मानते हैं और कहते हैं कि "आलोचना में ईमानदारी का तकाज़ा तो यही है कि गलत को गलत और सही को सही साबित किया जाये l आलोचना में मास्टराना अंदाज़ में रचनाओं और रचनाकारों को नंबर देने या पास-फेल करने की आदत को आचार्य शुक्ल ने 'असभ्यता' कहा था." (७) यह असभ्यता शुक्ल जी के समय में ही व्याप्त नहीं थी बल्कि इससे साठ-सत्तर के दशक का और उसके बाद का समय भी त्रस्त था ये असभ्य लोग या तो किसी भी लेखक या उसकी रचना को ख़ारिज कर देते या प्रशंसनीय बना देते थे l हिंदी आलोचना में एक बड़ा प्रतिशत ऐसी समीक्षाओं का है l यह समस्या मलयज के समक्ष भी थी और देवीशंकर अवस्थी के समक्ष भी l खैर, अभी हम इन बातों के विस्तार में न जाते हुए उन सवालों की ओर अपना रुख करते हैं जो हमने इस लेख के शुरू में उठाये थे l
मुक्तिबोध की शोकसभा जो दिल्ली में हुई थी कई मायनो में अब तक होने वाली शोकसभाओं से अलग थी l इस सभा में वक्ता की हैसियत से शामिल हुए थे देवीशंकर अवस्थी और श्रोताओं की भीड़ में शामिल थे मलयज l संभवत: यहीं मलयज और देवीशंकर की पहली मुलाक़ात हुई हो l देवीशंकर पहले ही दिल्ली आ चुके थे जबकि मलयज सन १९६४ में दिल्ली आयेl दोनों एक ही इलाके(उस समय के साहित्यिक गढ़) मॉडल टाउन में रहे l मलयज ने इस शोकसभा के बारे में १३सितम्बर १९६४ की डायरी में लिखा है -"उस दिन जब मुक्तिबोध की शोकसभा में डॉ.देवीशंकर अवस्थी ने मुक्तिबोध के आलोचक रूप की निष्ठा की बानगी प्रस्तुत की तो अधिकांश लोगों ने उसे अनुपयुक्त, समय प्रतिकूल समझा क्योंकि ऐसे अवसरों पर लोग भावुकतामय उदगारों को सुनने की आस लगाये रहते हैं पर मुझे देवीशंकर जी का रवैया बहुत पसंद आया....बिना अपने को भावों की दलदल में फँसाए तटस्थ दृष्टि से देवीशंकर जी ने मुक्तिबोध की प्रतिभा को सबसे बढ़िया श्रद्धांजलि दी l दरअसल ऐसी ही श्रद्धांजलियों की आवश्यकता है l प्रयाग में निराला के मरने पर जो शोकसभा हुई थी उसमे इस बात की कमी से ही तो वितृष्णा का भाव मुझमे जगा था लोग भावों की गिचपिच कर रहे थे, दिल्ली वाली यह शोकसभा अधिक बैलेंस्ड थी l"(८)
संभवत: इस शोकसभा में दिए गए देवीशंकर अवस्थी के भाषण से ही प्रभावित हो, मलयज के मन में मुक्तिबोध की रचनाओ का अध्ययन और मूल्यांकन करने का ख्याल जगा था- "यह भी सही है कि मुझे अभी भी व्यक्ति मुक्तिबोध ही आकृष्ट करते रहे हैं और इतने से ही मै संतुष्ट भी था l कवि मुक्तिबोध को मैं उतनी एहमियत नहीं देता था इसे लिखते हुए अब भी कोई ग्लानि का भाव मन में नहीं है l पर अब उनके काव्य का विधिवत गंभीर अध्ययन करने की इच्छा अवश्य जाग पड़ी है! उनके भीतर पैठने की तीव्र प्रेरणा हो रही है l हो सकता है मेरा श्रम अकारथ न जाये, और मैं उनके सही रूप को आँक सकूँl"(९)
देवीशंकर अवस्थी ने अंग्रेजी में एक लेख 'Muktibodh:Not an outsider' शीर्षक से लिखा था जो एक पत्रिका(लिंक)में अक्टूबर१९६४ में छपा और जिसका हिंदी अनुवाद 'मुक्तिबोध: अजनबी नहीं' शीर्षक से उनकी पुस्तक 'आलोचना का द्वंद्व' में संकलित है l संभवत: यह शोकसभा में दिए गए भाषण का ही रूपांतरण(transcription) हो l इस लेख में देवीशंकर अवस्थी मुक्तिबोध को अंग्रेजी साहित्य के डब्ल्यू.बी.यीट्स(w.b.yets) के सदृश स्थान देते हुए कहते हैं -"एक आत्मनिर्वासन व्यक्तित्व जो चुपचाप समकालीन विचारों को आत्मसात कर रहा था और जिसने एक ऐसी शैली निर्मित की, जो अनूठी और उनकी अपनी थी l इसमें हम सभी श्रेणियों की रंगमयता देखते हैं मानो किसी प्रतिबिम्ब में आधुनिक रंगमयता के चौरस्ते अंकित हो l" (१०)
इसी लेख में वे मुक्तिबोध की फैंटेसी को अपनी रचना-आलोचना में केंद्रीय स्थान देने की चर्चा करते हैं और उनकी कविताओं को 'जटिल कविता' की संज्ञा देते हुए कहते हैं कि- "उनकी कविता सामान्य पाठकों के लिए है ही नहीं l उनकी कविता समझने के लिए ऐसे मस्तिष्क की ज़रुरत है जो विचारों से उलझ सकता हो और जटिल अनुभूति को आत्मसात कर सकता हो l"(११)
देवीशंकर अवस्थी ने मुक्तिबोध की शोकसभा में जो कुछ भी कहा, वह मुक्तिबोध पर इसके बाद लिखी जाने वाली पुस्तकों,लेखों के लिए आधार स्रोत बन गया l मुक्तिबोध को दी गयी उनकी श्रद्धांजली, मुक्तिबोध पर की गयी प्रारंभिक सार्थक समीक्षा साबित हुई l उनकी इस शोकसभा में कहे गए शब्द आज भी मुक्तिबोध पर लिखी गयी(जा रही) समीक्षाओं में देखे जा सकते हैं l मसलन आत्मनिर्वासन को ही लीजिये, मुक्तिबोध की लम्बी कविता(अँधेरे में) को लेकर एक लम्बी बहस इसी एक शब्द को केंद्र में रखकर चली है l मुक्तिबोध पर देवीशंकर अवस्थी के ये उद्धरण, जो अवस्थी जी ने मुक्तिबोध को श्रद्धांजलि देने के लिए कहे थे वास्तव में हमारे शुरू में उठाये गए सवालों से ही ताल्लुक रखते हैं l
एक श्रद्धांजलि मुक्तिबोध को देवीशंकर अवस्थी ने दी थी जिसे मलयज ने मुक्तिबोध की प्रतिभा को दी गयी सबसे बढ़िया श्रद्धांजली कहा था, दूसरी ओर देवीशंकर अवस्थी की स्मृति में कराई गयी साहित्य अकादमी की संगोष्ठी(०७ अप्रैल,१९९०) को याद कीजिये l इसी संगोष्टी में रमेश उपाध्याय ने देवीशंकर अवस्थी को 'कलावादी' घोषित किया था l अगले वक्ता के रूप में अजय तिवारी ने स्थापित किया था कि- 'समाजशास्त्रीय आलोचना का पहला परिचय हमें अवस्थी जी में मिलता है न कि नामवर सिंह जैसे मार्क्सवादी आलोचक मेंl'(१२) इस संगोष्टी में सबसे पहले मैनेजर पाण्डेय ने माना कि- "देवीशंकर अवस्थी दो तरह की दृष्टियों से अपना एक निजी रास्ता बनाने की कोशिश कर रहे थे l परिमलियों से बहस करते हुए वे इस दल के मुखर प्रवक्ता रामस्वरूप चतुर्वेदी के इस आरोप का खंडन करने में लगे थे कि कहानी दूसरे दर्जे की विधा है और दूसरी ओर प्रगतिशीलों से बहस करते हुए उनकी इस प्रवृत्ति का खंडन कर रहे थे की कहानी गंभीर कलात्मक विधा नहीं है."(१३) अपनी बात आगे बढ़ाते हुए पाण्डेय जी कहते हैं-....अवस्थी जी बीच का रास्ता तय नहीं कर पा रहे थे और फिर लगभग आरोप की मुद्रा में स्थापित करते हैं कि ''परंपरा का अस्वीकार उनके यहाँ मूल्य हैl"(१४) संगोष्टी के अंत में अध्यक्ष पद से बोलते हुए नामवर सिंह ने कहा भी कि "पूरी बहस में सेंटिमेंटलिज़्म ज्यादा महत्वपूर्ण साबित हुई है l इस तरह की कोरी भावुकता हमेशा खतरनाक होती है l"(१५) नामवर सिंह के इस वक्तव्य से मलयज की डायरी से पूर्व उद्धृत वह अंश याद हो आता है जहां वे कहते हैं कि 'लोग भावों की गिच-पिच कर रहे थे l'(१६) मलयज की डायरी-२, पृष्ट ३१७
बहरहाल, एक सच्ची श्रद्धांजलि क्या होती है? देवीशंकर अवस्थी हमें सिखा गए थे हम ही उनके सिद्धांतों को आत्मसात न कर सके l मुक्तिबोध का सौभाग्य है कि उन्हें देवीशंकर अवस्थी मिले लेकिन मलयज और देवीशंकर अवस्थी का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि उन्हें कोई देवीशंकर नहीं मिल सका l
हम लोगों ने श्रद्धांजलि को मजाक बना दिया 'बड़ा भला आदमी था' कहकर हमने उसका मजाक ही तो उड़ाया l मरने के बाद तो कुछ भी कहो 'कौन पूछने वाला है'? कलावादी-रूपवादी, जनवादी, समाजवादी, या फिर मार्क्सवादी कुछ भी कहो या फिर उन्हें दो खेमों में से किसी एक खेमे में फिट कर दो l कोई विरोध नहीं करेगा? क्योंकि इस तथाकथित साहित्य-अनुशीलन की दो दृष्टियों(खेमों) से अलग या इनसे मिलकर तो कोई अन्य दृष्टि बन ही नहीं सकती न ? इस तरह की मोनोपोली ने राजनीति से सीधे साहित्य में छलांग लगाईं है पहली परंपरा, दूसरी परंपरा,तीसरी,..........आख़िर साहित्यानुशीलन और कितनी परम्पराओ में बांटा जाएगा?
आज आलोचना के नाम पर परंपरा के भी खेमे बन गए हैं स्त्री,दलित, उपेक्षित इन सभी परम्पराओं की खोज आवश्यक है; पर क्या यह आलोचना और आलोचक की खेमेबंदी के बाद ही संभव है? यह सवाल आज भी हमारे सामने ज्यों का त्यों खड़ा है जवाब की तलाश में......
चलिए आपका जो मन आता है मानिए ; ये आपके निजी पूर्वग्रह हैं लेकिन क्या यह भी हमारा दायित्व नहीं कि इन्हें कट्टरता की हद तक न जाने दें l जब पूर्वग्रह कट्टरता की हद तक पहुँच जातें हैं तो आलोचना की शक्ति(निर्णय देना) फतवे में तब्दील हो जाती है l फ़तवा आलोचना की बीमारी है जो आपको विवादित बना सकता है लेकिन पाठको से संवाद रचना के सम्बन्ध में दिए गए निर्णयों से स्थापित होता है फतवों से नहीं l
जब मैनेजर पाण्डेय कहते है कि उनके(देवीशंकर अवस्थी) यहाँ परंपरा का अस्वीकार मूल्य है तो उपरोक्त बातें विश्वसनीय प्रतीत होतीं हैं कि कुछ भी कहिये कौन कहने-सुनने वाला है l मैनेजर पाण्डेय हिंदी आलोचना का एक स्थापित नाम है इसलिए उनसे ये आशा नहीं की जा सकती कि उन्होंने देवीशंकर अवस्थी को पढ़े बिना ये बात कही होगी लेकिन शक होता है कि यदि पढ़ा है तो ये उल्टी बात क्यों? चूँकि देवीशंकर अवस्थी के अधिकतर लेखों में परम्परान्वेक्षण, अपनी परंपरा का स्वीकार, उसका महत्व एक सामान्य पाठक भी देख सकता है l एक आम पाठक भी बता सकता है कि देवीशंकर अवस्थी के लिए परंपरा और इतिहासबोध लगभग एक ही हैं समकालीनता को वे कोई खंडित कालखंड नहीं मानते बल्कि इसे परंपरा या इतिहासबोध के अंग के रूप में स्वीकारते हैं उनकी पुस्तकें इसका प्रमाण हैं l उनकी पुस्तकों से उद्धृत कुछ अंशों से यह बात अच्छी तरह से स्पष्ट हो जाएगी :-
(क) "बहुधा समसामयिक रचनाकार अतीत में एक प्रकार के परम्पराबोध के लिए जाते हैं l परंपरा का यह रूप पैतृकानुवृत्ति होता है लेकिन यह पलायन नहीं स्थिति की दृढ़ता है और आधुनिक हिंदी साहित्य भारतेंदु के समय से ही परंपरा के इसी रूप को स्वीकारता आया हैl" (१७)
(ख) "समकालीनता एक कटा हुआ टुकड़ा नहीं है वह परंपरा यानी इतिहासबोध का अंग होता है और जब हम अनुभव की प्रामाणिकता की बात उठाते हुए समकालीनता को उसकी कसौटी मानते हैं तब यह निहित होता है कि परंपरा की प्रत्यक्ष या परोक्ष परंपरा को भी कहीं स्वीकार करते हैं l"(१८)
(ग) "नई आलोचना में कही कोई कमी नहीं है याकि उसने अपनी अपेक्षाओ को ठीक तरह से पूरा किया है l वस्तुत: समसामयिक साहित्य के प्रति अपने दायित्व को उसने लगभग पूरा किया है l पर उसका एक दूसरा दायित्व भी था कि तमाम नए साहित्य के अनुकूल पुराने साहित्य को भी व्यवस्था दे, उसका पुनर्मूल्यांकन करे l"(१९)
इसी तरह के कई उद्धरण उनकी पुस्तकों, लेखों में बिखरे आपको मिल जायेंगे, लेकिन यह सवाल अब भी जस का तस है कि पाण्डेय जी यदि परंपरा का अस्वीकार उनके यहाँ मूल्य है तो फिर ये उद्धरण क्या है? जहां देवीशंकर अवस्थी अपनी परंपरा का मूल्यांकन करने की जद्दोजहद करते दिखाई देते हैं और समसामयिक सन्दर्भ सांचे पर उनका मूल्यांकन- पुनर्मूल्यांकन करने पर बल देतें हैं l पाण्डेय जी ने ऐसा कहा अगर इसे भुला भी दिया जाए तो क्या इस बात को आलोचना का वर्तमान विस्मृत कर सकेगा कि उनकी इस बेबुनियादी बात का जवाब पिछले दो दशकों में नहीं दिया गया l आज भी इसकी केवल आस ही साहित्य समाज से की जा सकती है l
क्यों उनकी चुप्पी को सहमति न समझा जाये? जिस संगोष्टी में यह बात कही गयी, उस संगोष्टी में साहित्य आलोचना के जाने माने नामो की पूरी खेप मौजूद थी लेकिन सब चुप...l
अब तक भी पाण्डेय जी का उपरोक्त कथन स्पष्टता की मांग नहीं मात्र आस लगाए है, क्यों?
बहरहाल, यह सवाल हिंदी आलोचना का ज़ख्म है जिसे आप जितना ही कुरेदेंगे टीस उतनी ही अधिक होगी l इस प्रसंग से अलग यदि हम देवीशंकर अवस्थी और मलयज की उन विशेषताओं पर नज़र डालें जो उनके एक ही मंजिल की ओर बढ़ने का संकेत देतीं हैं, तब हम अधिक स्पष्टता से दोनों आलोचकों की आलोचना के मानदंडों का मूल्यांकन कर सकेंगे l
मलयज और देवीशंकर अवस्थी दोनों के लिए ही रचना और आलोचना समानांतर क्रियाएं हैं एक ओर मलयज है जिनके लिए कविता रचने के पश्चात् समाप्त नहीं हों जातीं बल्कि वह आलोचना के लिए प्रेरित भी करती हैं l(२०), तो दूसरी ओर देवीशंकर अवस्थी, जो कहते हैं- 'एक बात बहुधा कह दी जाती है कि ऐतिहासिक विकास क्रम में समीक्षा बाद को आई, समीक्ष्य(कलाकृति) पहले l परन्तु यह समस्या ठीक वैसे ही है जैसे यह पूछा जाये कि मुर्गी पहले आई या अंडा l वास्तव में ये दोनों ही सामानांतर क्रियाएं हैं l'(२१) मलयज भी आलोचना कर्म को कविता का विरोधी या प्रतिद्वंद्वी नहीं मानते बल्कि आलोचना को कविता का सामानांतर संसार मानते हैं उनका कहना हैं कि ''कविता में जिसे टटोलता हूँ आलोचना में उसी को पाता हूँ l''(२२) मलयज के लिए कविता(रचना) भीतरीऔर बाहरी 'तनाव-बिन्दुओं' पर ही संभव होती है l जबकि देवीशंकर अवस्थी मलयज के तनाव-बिन्दुओं की जगह 'प्रभाव-ग्रहण' शब्द का इस्तेमाल करतें हैं , और कहते हैं- "समीक्षक बाहर की ओर से प्रभाव-ग्रहण करता है एवं भीतर की ओर से महत्व का आकलन करता है पर यह होता एक ही समय और साथ-साथ है l"(२३) यहाँ फर्क सिर्फ इतना ही है कि मलयज इसे रचना के स्तर पर संभव मानतें हैं और देवीशंकर अवस्थी आलोचना के स्तर पर l पर चूँकि आलोचना भी रचना है और दोनों ही सामानांतर क्रियाएं हैं तो यह फर्क भी अधिक देर नहीं टिकता l
दरअसल 'भीतर' और 'बाहर' मलयज की आलोचना के केंद्रीय शब्द हैं उनके लिए रचना इन दोनों के तनाव से ही उत्पन्न होती है l उनकी पुस्तक 'कविता से साक्षात्कार' के लगभग सभी लेख इस 'भीतर' और 'बाहर' की शब्द-सत्ता के अर्थों तक पहुँचने की राह हैं जिसका संकेत वे इस पुस्तक की भूमिका में ही दे देतें हैं- "मैंने जितना इस आधुनिक रचना के भीतर देखना चाहा है उतना ही उसके बाहर भी, क्योंकि मैंने देखना चाहा है कि कविता कैसे न सिर्फ अपने भीतर से बल्कि अपने बाहर भी निर्मित होती है कि कैसे भीतर का बहुत कुछ सिर्फ बाहर के आलोक में ही छुआ जा सकता है, कि कैसे बाहर भी बिना भीतर की आग के महज एक संदिग्ध सत्य बनकर रह जाता है? मैंने देखना चाहा है कि कैसे कविता आधुनिक कविता भीतर और बाहर के एक तनाव बिंदु पर संभव होती है?"(२४) 'मलयज की डायरी' से पता चलता है कि मलयज जवाहरलाल नेहरु से बहुत अधिक प्रभावित थे और उनकी तमाम सीमाओं के बावजूद उन्हें एक बौद्धिक नेता के रूप में देखते थे l देवीशंकर अवस्थी भी आधुनिक भारत के निर्माता के रूप में उन्हें देख रहे थे l उस समय विश्व राजनीति और उसकी महत्वाकांशाएं दो गुटों में बँटी हुई थीं l नेहरु ने नासिर,टीटो के साथ मिलकर इन गुटों से निरपेक्ष तीसरी दुनिया के देशों को एक अलग राह दिखाई थी, जो काम नेहरु राजनीति के स्तर पर कर रहे थे वही मलयज और देवीशंकर अवस्थी ने साहित्यिक स्तर पर करने की कोशिश की l वे भीतर(कलावाद) और बाहर(मार्क्सवाद) के तनाव से एक निजी सोच निर्मित करने की कोशिश में लगे थे l वे इस अनुभूति(भीतर) और विचार(बाहर) के द्वंद्व से अपनी रचना और आलोचना का विकास करना चाहते थे l थोड़े बहुत अंतर के बावजूद दोनों के ही दृष्टिकोण में इस बाहर और भीतर का मेल है l मलयज में भीतरी हिस्सा(अनुभूति) अधिक है तो देवीशंकर अवस्थी में बाहरी हिस्सा(विचार) अधिक l संभवत: इसलिए कोई इन्हें कलावादी कहना चाहता है तो कोई प्रगतिशील बनाने की जुगत में लगा रहता है लेकिन उन्हें किसी गुट या खेमे में बाँटना ठीक नहीं है l
जो लोग सिर्फ विचारधारा के बल पर आलोचना को खड़ा करना चाहते हैं या जो सिर्फ कला को कला के लिए ही मानने के पक्षधर हैं उनके लिए दोनों आलोचकों की आलोचना एक नई कलात्मक विचारधारा का, एक नया पक्ष रखती है l इस सन्दर्भ में शिवकुमार मिश्र ने बड़ी मार्के की बात कही है- "विचारधारा ही बड़ी कला को सामने नहीं लाती उसके लिए रचनाकार को रचना की सभी शर्तें पूरी करनी पड़ती हैं कलात्मक महारत के बिना सही से सही विचारधारा भी बेअसर होती है l उसी प्रकार जिस प्रकार सही विचारधारा के अभाव में कलात्मक महारत भी एक सीमा के बाद बेअसर होती है l"(लेख- समकालीन आलोचना की समस्याएं: हिंदी आलोचना के सन्दर्भ में) वे तो मार्क्सवादी आलोचना का बुनियादी सवाल भी यही मानते हैं कि- ''विचारधारा को सही कला का रूप कैसे दिया जाये?'' (२५) लगभग इसी तरह की बात नामवर सिंह ने 'कविता के नए प्रतिमान' की द्वितीय संस्करण की भूमिका में जेरेमी होथोर्न का हवाला देते हुए कही है जहां उन्हें लगता है कि "हिंदी के नए मार्क्सवादी आलोचक अंग्रेजी की 'नयी समीक्षा' के प्रति ज़रूरत से ज्यादा ही शंकालु हैं l"(२६) अंतर सिर्फ इतना है कि यहाँ नामवर जी अपनी इस पुस्तक पर लगाये गए आरोप(रूपवादी झुकाव) पर अपनी सफाई देते हुए यह बात कह रहे हैं l बहरहाल 'कविता से साक्षात्कार' की समीक्षा करने के दौरान श्याम कश्यप ने मलयज को कोरा कलावादी-रूपवादी घोषित कर दिया l अपनी निजी मान्यताओं ओर आग्रहों के कारण उन्होंने कहा कि "मलयज तो न केवल विचार या विचारधारा को ही कविता के क्षेत्र से बाहर मानते हैं बल्कि अनुभव, भाव, अनुभूति की भी वे नितांत आत्मनिष्ठ व्याख्या करते हैं l"(२७) यह बात उन्होंने मलयज को मुक्तिबोध के बरक्स रखकर कही है जबकि ऐसा कोई लेख मेरे देखने में नहीं आया जहां मलयज ने विचार या विचारधारा के बारे में इस तरह की बात कही हो l अपनी निजी मान्यताओं के आधार पर किसी कृति की आतंरिक सत्ता को नजरअंदाज करने से इसी तरह की एकतरफा(एकांगी) समीक्षा देखने को मिल सकती है l वे इस बात से भी खफा हैं कि मलयज ने अज्ञेय को तो तवज्जो दी, पर त्रिलोचन को नहीं l वे मलयज के शमशेर के बारे में कहे गए इस वाक्य को कि 'शमशेर की कविता अपने अपरिभाषित रूप में ही सार्थक है l' एक गुनाह मानते हैं कुल मिलाकर यह पूरी समीक्षा कट्टर मार्क्सवादी नजरिये से, मलयज को कलावादी -रूपवादी मानते हुए अपनी खुन्नस निकालती प्रतीत होती है l वे लेखों के शीर्षकों को पकड़ कर बैठ जाते हैं उन्हें ध्यान से पढ़ने की ज़हमत नहीं उठाते l त्रिलोचन पर लिखे लेख का शीर्षक(औसत भारतीयता का कवि) देखकर वे भभक उठते हैं पर उसी लेख के उस वाक्य को उद्धृत नहीं करते जिसमे मलयज कहते हैं कि 'हिंदी में शायद त्रिलोचन ही एकमात्र कवि हैं जिन्होंने अपने को लोकजीवन से पूरी तरह जोड़ लिया है सौंदर्य की एक अंत:गरिमा के साथ'(२८)
जहाँ तक शमशेर पर कही गयी मलयज की बात को वो गुनाह की श्रेणी में रखते हैं तो इस संबंध में 'मलयज स्मृति अंक'(पूर्वग्रह) में प्रकाशित शमशेर बहादुर सिंह का लेख एक नज़र कर लेना चाहिए जिसमे शमशेर स्वयं मलयज को अपनी कविताओं का मर्मी पाठक ही नहीं बल्कि निर्मम और विश्वसनीय आलोचक भी स्वीकारते हैं और कहते है कि - 'मेरी अनेक सीमाओं और दोषों को उन्होंने सही -सही लक्षित किया है सचमुच मैं आज उनका कृतज्ञ हूँ l'(२९)
मलयज और शमशेर कितने आत्मीय थे ये उनकी डायरियों से पता चल जाता है किन्तु आलोचना में उन्होंने सदैव निष्पक्षता बरती l मलयज का शमशेर से कोई पार्टीबद्ध रिश्ता नहीं था बल्कि यह आत्मीयता, सद्भाव, अनुभूति और भावना का रिश्ता था l
दरअसल श्याम कश्यप की इस पुस्तक समीक्षा को पढ़ने के बाद उनकी निजी समस्याएँ साफ़ तौर पर दिख जाती हैं एक , वह मलयज को कट्टर वादग्रस्त नज़रिए से देख रहे हैं दूसरी, उन्हें कलावादी -रूपवादी मानकर चल रहे हैं साथ ही मुक्तिबोध के बरक्स रखकर उनका मूल्यांकन कर रहे हैं l संभवत: इसी कारण इस समीक्षा की परिणति एक तरह की खुन्नस में होती है l
अब तक मलयज की भीतरी और बाहरी तनाव बिन्दुओं की संभाव्यता भी स्पष्ट हो गयी होगी; यदि अब भी कोई गुंजाइश बाकि हो और बाहर व भीतर के इस फेर को एक बार फिर समझना हो तो मलयज की अंतिम अधूरी, किन्तु सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक ' रामचन्द्र शुक्ल' तथा रामचंद्र शुक्ल पर लिखे लेख 'मिथ में बदलता आदमी' पर नज़र डाल लेनी चाहिए; जहाँ वे शुक्ल जी पर अब तक कही गयी बातों से अलग हटते हुए एक नए अंदाज़ से ,एक नई दृष्टि से शुक्ल जी को देखते हैं l रचना को समझने के लिए रचनाकार के युग को देखना उसकी मन:स्थिति को समझना -आकलन करना ; मलयज की आलोचना का एक जरुरी और बुनियादी पहलू है l हजारीप्रसाद द्विवेदी तो कहते भी हैं कि ' कवि का जीवन उसकी कृतियों को समझने का प्रधान सहायक है l'(३०) [साहित्य सहचर ,पृ. १४]
शुक्ल जी पर बात करते वक़्त मलयज का ध्यान उस समूचे परिवेश (प्रकृति) पर था जहाँ से शुक्ल जी अपनी आलोचना का उपजीव्य ग्रहण कर रहे थे ' मिथ में बदलता आदमी' की आरंभिक पंक्तियाँ देखिये - "धूल में लस्त पस्त उस मैदान में खड़े खड़े - जिसके पीछे थी प्रकृति और आगे था पिछड़ापन मुझे रामचंद्र शुक्ल की याद आई l'' (३१)
वे शुक्ल जी को किसी एक धारा या परम्परा का लेखक मानने की जगह कहते हैं कि शुक्ल जी के कई रूप हैं - "एक वह जिसने हिंदी की विचार शक्ति को देसी साँचे में ढ़ालकर समालोचना के नए औज़ार गढ़े l एक ओर जिसने पूर्व ओर पश्चिम के द्वंद्व में अपनी ज़मीन का विवेक नहीं खोया और उससे बड़ी बात यह है कि अपनी भाव संवेदना के कपाट सदा खुले रखे, पर एक जिसमे शुक्ल जी के सभी रूप समाहित हैं याकि सभी रूप इस रूप से निकले हैं वह है उनका विशिष्ट और विलक्षण के विरुद्ध सामान्य और सर्वानुभूत का पक्षधर रूप l''(३२) शुक्ल जी बार-बार इस सामान्य मनुष्य को गुहारते हैं कि सदा अपने भीतर ही न धँसे रहो, बाहर आओ और देखो; देखो और महसूस करो l(३३)
शुक्ल जी के बारे में कहे गए मलयज के ये शब्द 'कविता से साक्षात्कार' की भूमिका में दिए गए उसी सिद्धांत की व्यावहारिक परिणति है जिसमे वे 'अनुभव को रचने' और 'महसूस करने' की बात कहते हैंl उपरोक्त उद्धरण को हमें भावुकता और कलावादी नजरिये से न देखते हुए उनमे एक गहन विचार छिपा है यह देखना चाहिए l इसी सन्दर्भ में देवीशंकर अवस्थी की पुस्तक 'आलोचना और आलोचना' की याद हो आती है जिसके लेखों के द्वारा वे व्यावहारिक आलोचना की सैद्धांतिकी का निर्माण करने की कोशिश कर रहे थे l मलयज अपनी पुस्तक 'कविता से साक्षात्कार' की भूमिका में बताये गए सिद्धांतों का व्यवहार अपनी पुस्तकों के समीक्षा लेखों में आधारिक स्रोत के रूप में करते दिखते हैं l अपनी एक पुस्तक 'संवाद और एकालाप' में निर्मल वर्मा पर लिखे लेख में वे निर्मल वर्मा के गद्य को 'धुप-छाही गद्य' की संज्ञा देते हैं और उनकी रचना को स्मृति में बंद बताते हुए कहते हैं- ''रचना निर्मल वर्मा के लिए स्मृति में ही है स्मृति में हर बार कुछ न कुछ छूट जाता है - समयबोध के जाल से छूटकर गिरे क्षणों जैसा - और वह कुछ छूटा हुआ ही हर बार उन्हें रचने को प्रेरित करता है l''(३४)
मलयज की समीक्षा का बुनियादी सरोकार इसी तरह की भावनात्मक अभिव्यक्ति में छिपा है पर यह कोरी भावुकता नहीं है और न ही कोरा अभिव्यक्तिवाद l यह भीतरी और बाहरी बिन्दुओं का तनाव है जो उनके लगभग सभी समीक्षा लेखों का आधार है l हम कह सकते हैं कि इन्ही बिन्दुओ से मलयज की आलोचना की शुरुआत होती है और वे कलावाद और जनवाद के विवादित ढाँचे से खुद को बचाते हुए, एक नए तरह के कलात्मक वैचारिक मानदंडों पर शुक्ल जी की आलोचना का मूल्यांकन करते हैं l मलयज शुक्ल जी की पुस्तक 'रस मीमांसा' के अध्ययन के दौरान पाते हैं कि यह पुस्तक शास्त्रीयता की परत को हटाकर उसे सामान्य धरातल पर समझने-समझाने का प्रयास करती है जिसका सरोकार सामान्य मनुष्य से है l यह सामान्य मनुष्य सामान्य के लिए आदर्श है जो सच होते हुए भी मिथ है l सगा होते हुए भी सौतेला है और पास होते हुए भी दूर का है और मलयज निष्कर्ष निकालते हैं कि- "राम में शुक्ल जी ने तुलसीदास के सच को नहीं, सामान्य आदमी के उसी मिथ को स्वीकार किया है l"(३५) यह रामचंद्र शुक्ल पर अब तक कही गयी बातों से हटकर कही गयी बात थी l शुक्ल जी सामान्य आदमी की ओर थे किसी विशिष्ट व्यक्तित्व या रचनाकार की ओर नहीं, जिस किसी ने भी इस सामान्य आदमी को पकड़ा;शुक्ल जी के लिए वह विशिष्ट हो गया l
प्रभात त्रिपाठी ने मलयज की पुस्तक 'रामचंद्र शुक्ल' की समीक्षा करते हुए कहा-''मलयज शुक्ल जी के रस्ते पर चलकर हिंदी समीक्षा का जो परिदृश्य देख रहे थे, वहां एक ऐसी चिंतन भाषा विकसित हो रही थी जिसने सदियों से चले आते काव्य-चिंतन में अपने वक़्त की तरफ से बहुत कुछ नया जोड़ा था l''(३६) इस लघु प्रशंसा के तुरंत बाद उन्हें रामचंद्र शुक्ल में और उन्ही के पदचिन्हों पर चल रही मलयज की आलोचना में अंतर्विरोधों की ग्रस्तता नज़र आती है और वे पूछ्तें हैं कि-'क्या शुक्ल जी की तरह मलयज भी द्वंद्वात्मकता के उसी ज़रूरी अंतर्विरोध से ग्रस्त थे जिसके कारण शुक्ल जी ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम को सामान्य मनुष्य के मिथ में बदला था l''(३७) इस सवाल पर सवाल पूछने की ही तबियत होती है संभवत:वही इसका जवाब भी हो l क्या किसी धार्मिक या पौराणिक चरित्र को सामान्य मनुष्य के मिथ में बदलना अंतर्विरोध का सूचक है? यदि ऐसा है तो क्या निराला से लेकर धर्मवीर भारती तक इसी फेहरिस्त में शामिल नहीं होंगे? क्या मिथकों की प्रासंगिकता ख़त्म हो चुकी है?
प्रभात त्रिपाठी के सवाल के जवाब में इसी तरह के कई सवाल पूछे जा सकते है लेकिन कुल मिलाकर प्रभात त्रिपाठी द्वारा की गयी मलयज की पुस्तक 'रामचंद्र शुक्ल' की समीक्षा, मलयज की अन्य पुस्तकों की समीक्षाओं की तुलना में अधिक विश्वसनीय एवं निष्पक्ष समीक्षा लगती है ;जो मलयज को किसी अन्य रचनाकार के बरक्स न देखते हुए उनकी पुस्तक का ठीक-ठीक मूल्यांकन करती है l
यहाँ मलयज की पुस्तकों की समीक्षा को देखने के सन्दर्भ में एक बात कहनी बड़ी ज़रूरी लगती है l जैसाकि हमने पहले भी कहा कि 'बाहर' और 'भीतर' मलयज की आलोचना के केंद्रीय शब्द हैं जिनका मानी जाने बिना, या जिन्हें परिभाषित किये बिना मलयज की आलोचना को समझना; उन्हें बिना जाने-बूझे कलावादी-रूपवादी घोषित करने जैसा ही है l
यूँ तो आलोचना पूर्वग्रह रहित नहीं होती, हर आलोचक के कुछ अपने आग्रह होतें हैं जिन्हें आप आलोचक के औज़ार(tools) कहते हैं लेकिन कट्टरता तो साहित्य, धर्म, राजनीति सभी के लिए घातक है l जब आप मलयज को कट्टर वादग्रस्त नज़रिए से देखेंगे तो आपको कदम- कदम पर लगेगा कि वे कलावादी हैं,मार्क्सवादी रचनाकारों की बुराई करते हैं, अज्ञेय जैसे आधुनिकतावादियों की जुगाली करतें हैं l जैसाकि श्याम कश्यप ने कहा है लेकिन जब आप किसी भी विचारधारा से सम्बन्ध रखने पर भी एक स्वस्थ मानसिकता से मलयज की समीक्षा को देखेंगे तो मलयज की रस मीमांसा आपको 'मलयज की संघर्ष मीमांसा'(३८) लगेगी l आपको उनकी भाषा में भावी आलोचना-भाषा के लक्षण दिखाई देंगे जिनकी ज़रुरत समकालीन आलोचना में नामवर सिंह महसूस करतें हैं l(३९)
एक स्वस्थ मानसिकता से इन दोनों समीक्षकों की समीक्षा महरूम रही है l अब तक वे उपेक्षित रहे हैं इसमें तो कोई शक नहीं, लेकिन जो थोडा बहुत इन पर लिखा भी गया यदि वो भी स्वस्थ नज़रिए से लिखा गया होता तो संभवत:इस उपेक्षा की इतनी कचोट हममे न होती l दोनों ही लेखकों पर ग़लतबयानी की गयी इसका विस्तृत विवरण हम पहले ही दे चुके हैं अब इस लेख के निष्कर्ष स्वरुप नयी कहानी, जिसे नामवर सिंह ने पहचान दिलाई और जिसकी सबसे बढ़िया समीक्षा हमें देवीशंकर अवस्थी के लेखों में देखने को मिलती है l नयी कहानी की समीक्षा में देवीशंकर अवस्थी के मरणोपरांत अगर वो दम नहीं रहा जो पहले रहा करता था तो इसके कारणों के रूप में वही 'बरक्स' आ खड़ा होता है जिसका उल्लेख हम बार- बार इस लेख में करतें आयें हैं l बरक्स आलोचना के लिए कितना घातक है इस बात से समझ में आ जाता है कि यदि नए कहानीकारों ने देवीशंकर अवस्थी को(अपने पक्ष में करने की चाहत लिए) एंटी-नामवर सिंह होकर न देखा होता तो नयी कहानी समीक्षा की अकाल मृत्यु न हुई होती l
नामवर सिंह के बरक्स जब मोहन राकेश ने देवीशंकर अवस्थी को नयी कहानी का सर्टिफिकेट दे दिया(४०) तब भावुकतावश कहें या किसी और वजह से नामवर सिंह ने नयी कहानी की झंडाबरदारी देवीशंकर अवस्थी को सौंप दी, नयी कहानी समीक्षा के साथ यह किस तरह का मज़ाक हो रहा था, समझ से परे है l
सन १९६६ में अवस्थी जी की अकाल मृत्यु हो गयी उसके बाद भी नामवर सिंह ने नयी कहानी की समीक्षा नहीं की l संभवत: अवस्थी जी को दिया गया(दिल पे लिया गया) वचन उनके लिए नयी कहानी समीक्षा के विकास से ज्यादा अहमियत रखता था l कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि इस 'बरक्स' के कारण नयी कहानी समीक्षा की जिस तरह से शुरुआत हुई थी आगे चलकर वह उसी राह पर विकसित नहीं हो सकी l हमने कहा कि देवीशंकर अवस्थी नयी कहानी समीक्षा के बेहतरीन समीक्षक हैं लेकिन हम भूल गए कि नयी कहानी के विकास में नामवर सिंह का भी कुछ योगदान है जिस तरह से नवलेखन को देवीशंकर अवस्थी ने पहचान दिलाई थी उसी तरह से नयी कहानी को पहचान दिलाने में नामवर सिंह का अहम् योगदान है शायद हमारी स्मृति से यह विस्मृत हो गया l कम से कम राजेंद्र यादव, कमलेश्वर और मोहन राकेश के लेखों से तो यही लगता है l क्या नयी कहानी के इन दोनों ही समीक्षकों को एक दूसरे के बरक्स खड़ा करने से ज्यादा अच्छा यह न होता कि हम नयी कहानी कि 'टोन' को गंभीरता से पकड़ने का प्रयास करते जो इन दोनों के समीक्षा लेखों का मूलाधार थी? हमें तो यह चाहिए था कि हम इन दोनों के द्वारा अपनाई गयी वस्तुनिष्ट और वैज्ञानिक पद्धति (जिसके आधार पर इन्होने नयी कहानी को पहचान दिलाई और इसके विकास की संभावनाएं तलाशीं) को पकड़ने की कोशिश करते ; पर हमने 'बरक्स' को पकड़ा और बाकी सब आधारों, सिद्धांतों और दृष्टियों को बिसरा दिया l आशा यही की जाती है की समकालीन आलोचना इस बरक्स से स्वयं को बचाते हुए रचना और आलोचना का मूल्यांकन-पुनर्मूल्यांकन करने का प्रयास करेगी l
(Published in vaaq -Editor Sudheesh pachouri)








सन्दर्भ ग्रन्थ सूची :-
१. आलोचना का विवेक (सं)राजेंद्र कुमार लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद प्रथम संस्करण २००४ पृ ३७९
२. देवीशंकर अवस्थी-अरविन्द त्रिपाठी साहित्य अकादमी प्र.सं.२००४ पृ ५७
3. आलोचना का विवेक (सं)राजेंद्र कुमार लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद प्रथम संस्करण २००४ पृ. ३७९-३८०
४. मलयज की डायरी-१ (सं)नामवर सिंह वाणी प्रकाशन दिल्ली सं.२००० पृ.३६८
५.विवेक के रंग (सं)देवीशंकर अवस्थी वाणी प्रकाशन दिल्ली सं.१९९५ (भूमिका से)
६. वही पृ.२०
७.शब्द और कर्म -मैनेजर पाण्डेय वाणी प्रकाशन दिल्ली सं.१९९७ पृ.७०-७१
८. मलयज की डायरी-२ (सं)नामवर सिंह वाणी प्रकाशन दिल्ली सं.२००० पृ.३१७
९. वही
१०.आलोचना का द्वंद्व -देवीशंकर अवस्थी वाणी प्रकाशन दिल्ली सं.२००४ पृ. १७
११. वही पृ.१६
१२.आलोचना का विवेक (सं)राजेंद्र कुमार लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद प्र.सं.२००४ पृ,३७९-८०
१३. वही
१४. वही
१५. आलोचना का विवेक (सं)राजेंद्र कुमार लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद प्र.सं.२००४ पृ.३८०
१६. मलयज की डायरी-२ (सं)नामवर सिंह वाणी प्रकाशन दिल्ली सं.२००० पृ.३१७
१७.रचना और आलोचना -देवीशंकर अवस्थी वाणी प्रकाशन दिल्ली सं.१९९५ पृ.१७
१८. वही, पृ.३५
१९. वही, पृ.२४
२०. कविता से साक्षात्कार -मलयज, सम्भावना प्रकाशन हापुड़ संस्करण-१९७९ (भूमिका से)
२१. आलोचना और आलोचना -देवीशंकर अवस्थी वाणी प्रकाशन दिल्ली सं.१९९५ पृ.१०
२२. कविता से साक्षात्कार -मलयज, सम्भावना प्रकाशन हापुड़ संस्करण-१९७९ (भूमिका से)
२३. आलोचना और आलोचना -देवीशंकर अवस्थी वाणी प्रकाशन दिल्ली सं.१९९५ पृ.११
२४. कविता से साक्षात्कार -मलयज, सम्भावना प्रकाशन हापुड़ संस्करण-१९७९ (भूमिका से)
२५. समकालीन आलोचना की भूमिका (सं)मंजुल उपाध्याय, साहित्यागार जयपुर पृ.५४
२६. कविता के नए प्रतिमान -नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन दिल्ली आठवीं आवृत्ति२००९ पृ.१०
२७. आलोचना के सौ बरस-१ (सं)अरविन्द त्रिपाठी, शिल्पायन दिल्ली-३२ सं.२००३ पृ ३०२
२८. कविता से साक्षात्कार -मलयज, सम्भावना प्रकाशन हापुड़ संस्करण-१९७९ पृ.६५
२९. मलयज स्मृति अंक-पूर्वग्रह (सं)अशोक वाजपयी (जुलाई-अक्तूबर १९८२, संयुक्तांक५१-५२) मध्य प्रदेश कला परिषद् का प्रकाशन, भोपाल पृ.१०१
३०.साहित्य-सहचर हजारीप्रसाद द्विवेदी लोकभारती प्रकाशन इलाहबाद सं.२००२ पृ.११
३१. समकालीन हिंदी आलोचना (सं)परमानन्द श्रीवास्तव साहित्य अकादमी सं.१९९८ पृ.२६१
३२. वही,२६३
३३. वही, ३६२
३४. संवाद और एकालाप -मलयज , राजकमल प्रकाशन दिल्ली सं.१९८४ पृ.२६५
३५.समकालीन हिंदी आलोचना (सं)परमानन्द श्रीवास्तव साहित्य अकादमी सं.१९९८ पृ.२६५
३६. पूर्वग्रह (सं)अशोक वाजपयी, अंक ९५-९६ पृ.४३
३७. वही
३८. रामचंद्र शुक्ल-मलयज (सं)नामवर सिंह राजकमल प्रकाशन दिल्ली-पटना प्र.सं.१९८७ (भूमिका का शीर्षक)
३९. वर्तमान साहित्य[शताब्दी आलोचना पर एकाग्र-३] (सं)अरविन्द त्रिपाठी वर्ष १९, अंक-७ जुलाई-२००२ शिल्पायन शाहदरा दिल्ली ३२
४०. बकलम खुद -मोहन राकेश, राजपाल एंड संस , दिल्ली, संस्करण१९७४ पृ.८४-८५
४१. हमकों लिख्यौ है कहा है (सं)कमलेश अवस्थी, भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली,सं२००१ पृ.२९२
४२. वही