शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

16वाँ देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह : एक रिपोर्ट

१६वाँ देवीशंकर अवस्थी सम्मान समारोह अपनी परंपरानुसार अवस्थी जी के जन्मदिवस 05 अप्रैल को साहित्य अकादमी के सभागार में संपन्न हुआ। इस मौके पर आधुनिकता और भारतीयता विषय पर इतिहासकार सुधीर चंद्र और संस्कृत के विद्वान राधावल्लभ त्रिपाठी ने अपने अपने वक्तव्य दिये। कार्यक्रम की अध्यक्षता आलोचक नित्यानंद तिवारी ने की। संचालन का दारोमदार संभालते हुए अशोक वाजपेयी ने कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए कहा कि यह आयोजन दिल्ली के उन बहुत थोड़े से आयोजनों में है जिसमें इतनी बड़ी संख्या में श्रोताओ की उपस्थिति होती है। ये भी इसकी प्रमाणिकता का एक और साक्ष्य है। हर बार की तरह इस बार भी विचार विमर्श के लिए जो विषय चुना गया वह समकालीन आलोचना की चिंताओं को अपने में जज़्ब किये था। विषय था आलोचना और भारतीयता।

आलोचनाःसृजन की पाठशाला - जितेंद्र श्रीवास्तव

सबसे पहले जितेंद्र श्रीवास्तव को पुरस्कारस्वरूप प्रशस्ति पत्र और अवस्थी जी की प्रतिमा भेंट की गई। यह पुरस्कार जितेंद्र श्रीवास्तव को उनकी पुस्तक ‘आलोचना का मानुष-मर्म’ के लिये दिया गया। इस अवसर पर जितेंद्र ने अपना वक्तव्य पढ़ते हुए आलोचना को विद्वता प्रदर्शन की नहीं बल्कि सृजन की पाठशाला माना। साथ ही उन्होंने कहा कि जब तक हम लोग आलोचना को आश्रित विधा मानते रहेंगे तब तक उसे दार्शनिक हस्तक्षेप के योग्य नहीं बना पाएंगे, जो उसका मुख्य कार्य है। उनके लिए आलोचना का आशय रचना की परख के साथ ही इस पक्ष की परख भी है कि वह मानुष-मर्म के विधान का उद्यम करती है या नहीं? यदि आलोचना किसी रचना में निहित मानवीय जिजीविषा और गरिमा का विश्लेषण नहीं कर पाती या उससे बचने का मार्ग खोजती है तो मेरे लिए वह बुद्धि विलास के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। वे अपनी आलोचना की कसौटी आलोचना में अंतर्वस्तु के सौंदर्य को मानते हैं साथ ही यह भी कहते चलते हैं कि इसका आशय यह नहीं है कि मैं रूप को अस्वीकार कर रहा हूँ। जितेंद्र श्रीवास्तव की चिंताएँ पिछले बीस बाइस वर्षों के साहित्य, समाज और राजनीति में होने वाले परिवर्तनों को लेकर भी है और इस बदलाव को समझने के लिए वे चित्त के बदलाव को समझना आवश्यक मानते हैं वे साहित्य को सुविधा का क्षेत्र समझने वालो के विरुद्ध है उनका कहना है कि साहित्य अनिवार्य रूप से सुविधा का क्षेत्र नहीं है। इधर के कुछ वर्षों में कविता को खेल समझने का चलन बढ़ा है। यह सिर्फ कविता के लिेए ही नहीं संपूर्ण साहित्य के लिए भी चिंता का विषय है।


                                                  आधुनिकता और भारतीयता



आधुनिकता और भारतीयता विषय पर बोलते हुए सुधीर चंद्र ने कहा कि उनके मन में अवस्थी जी से न मिल पाने की कसक और टीस बाकी है। उन्होंने कहा कि उन्नीस सौ साठ के आस पास देवीशंकर अवस्थी ने साठ के दशक के मोहभंग (भयावह संदर्भ और कुछ कहानियाँ) पर लिखना महत्वपूर्ण समझा। मैं नहीं जानता कि इस संदर्भ को लेकर जब वह यह लेख सन साठ में लिख रहे थे तो उनके मन में कितना भय था । लेकिन अब जब हम पढ़ते है और ये याद करते हैं कि पंद्रह साल बाद जो इमरजेंसी लागू होने जा रहीं थी उससे पहले ही भयावह संदर्भों की बात देवीशंकर जी ने सोची थी। उनकी आलोचनादृष्टि अपने समय को तो देख ही रही थी पर साथ ही आने वाले समय को भी देख रही थी। अवस्थी जी के रचना की समग्रता और रचना की आंतरिक सत्ता पर कहे गये कथन उन्हें आज के संदर्भों को लेकर काफी मौजूँ लगे। वे अवस्थी जी के रामविलास जी के संबंध में कहे गये कथन को उद्धृत करते हैं- “वास्तव में रामविलास जी फौजदारी आलोचक पद्धति के आलोचक हैं। वकील जैसे मुकद्दमें की दरखास्त बनाते समय बहस करते समय अपने मतलब के नुक्ते ढूँढता है वैसे ही रामविलास जी शुक्ल जी के पीछे पड़ गये तो उन्हें रामविलास शर्मा बनाकर छोड़ा, यशपाल जी के पीछ पड़ गये तो उन्हें अ-मार्क्सवादी ही सिद्ध किया।“ वे अवस्थी जी की इस बात से अभिभूत हैं कि रामविलास जी का पूरा सम्मान करते हुए भी देवीशंकर जी उनके संदर्भ में इतनी मार्के की बात कहते है, जो अंत तक उनके लेखन पर लागू होती है। सुधीर चंद्र ने अशोक वाजपेयी के संचालन के दौरान आधुनिकता और भारतीयता के संदर्भ में जोड़े़ गये उस सूत्र को पकड़ा जिसमे अशोक वाजपेयी ने भारतीयता को एकवचन में नहीं सोचने की बात कही थी। आधुनिकता और भारतीयता के संदर्भ में सुधीर चंद्र ने इस सूत्र का हवाला देते हुए कहा कि क्या कारण है कि भारतीयता शब्द का उच्चार जैसे ही होता है एक छवि हमारे मन में बन जाती है और वह छवि उस एकवचन की ओर झुकी हुई है जिसकी ओर अशोक ने इशारा किया।

भारतीयता कोई ऐसा विचार नहीं है कि जो ऑलरेडी स्थापित हो ये विकसित हो रहा है - सुधीर चंद्र


अशोक वाजपेयी की ही बात को दूसरे ढंग से कहते हुए उन्होंने कहा कि यह बहुवचन की ही बात नहीं यह एक परंपरा की बात है। परंपरा इस अर्थ में कि भारतीयता कोई ऐसी वस्तु या कोई ऐसा विचार नहीं है कि जो ऑलरेडी स्थापित हो ये विकसित हो रहा है और इसके विकास में खासी एक लड़ाई और संघर्ष चल रहा है। इसके विकास में कौन सी भारतीयता अथवा भारतीयताएँ आगे जाके बनेगी। जब से भारत में राष्ट्रवाद का विकास हुआ है अवचेतन में हिंदू और भारतीय एक दूसरे के पर्याय बन गये है। चेतन के स्तर पर ये हुआ हो या न हुआ हो ये ज़रूरी नहीं है लेकिन अवचेतन के स्तर पर जब ये होता है तो वो बहुत खतरनाक होता है और राष्ट्रवाद से ही भारतीयता की बात शुरु होती है। जब हमने भारतीय राष्ट्रवाद को ही हिंदू राष्ट्रवाद का पर्याय मान लिया तो बड़ी खतरनाक शुरुआत हमारे मानसिक विकास की और भारतीय इतिहास के विकास की होती है जिससे हमें सतर्क रहना होगा। एक उदाहरण के माध्यम से उन्होंने समझाने की कोशिश की कि भारत में धर्म और संस्कृति को अलग अलग रखना कितना जरूरी है? क्योंकि बहुधा इसे एक-दूसरे में अंतर्गुंफित करके विचार किया जाता है। अपने वक्तव्य की अंतिम कड़ी में उन्होंने देवीशंकर अवस्थी की आलोचना की शब्दावलियों रचना की समग्रता और रचना की आंतरिक सत्ता के उद्घाटन को समकालीन आलोचना के लिए महत्वपूर्ण बताया।


भारतीय मानकों से पश्चिम को आँकने का प्रयास - राधावल्लभ त्रिपाठी

अगले वक्ता के रूप में राधावल्लभ जी ने अपने विचार रखते हुए कहा कि सामान्यतः जो कुछ भारत में दिखाई पड़ता है वह भारतीयता है और जो कुछ भारत में लिखा जा रहा है वो भारतीय है। किसी भी प्रतिभाशाली रचनाकार के द्वारा और उस लिखे हुए पर जो कहा जा रहा है वो भारतीय आलोचना है उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर और अरविंद के माध्यम से भारतीयता को स्पष्ट करने की कोशिश की और कहा कि मैं रवीन्द्रनाथ और अरविंद को आलोचना मे बहुत महत्वपूर्ण मानता हूँ क्योंकि दोनों ने ये अद्भुत कोशिश की, कि वे पश्चिम को बताएँ कि हमारे मानकों से वे क्या हैं? और पश्चिम के सामने अपने मानक रखकर भारतीयता का मूल्याँकन करें कि उनके बरक्स फिर हम क्या हैं? वे रवींद्रनाथ टैगोर की किताब प्राचीन साहित्य के हवाले से कहते हैं कि जिस तरह पॉलिटिक्स और नेशन इन दोनों शब्दों का समवर्ती शब्द हमारी भारतीय भाषाओं में कहीं नहीं है उसी तरह धर्म तो हमारा अपना शब्द है उसका समवर्ती शब्द उनकी भाषाओं में कहीं नहीं है। रवींद्रनाथ और अरविंद द्वारा सुझाये गये दो भारतीय महाकाव्यों(रामायण और महाभारत) के माध्यम से राधावल्लभ त्रिपाठी भारतीयता और भारतीय आलोचना की पहचान करने का मापदंड मानते है उनका कहना हैं कि अगर महाकाव्य की पहचान की जाए तो हमारे सामने उसके दो ही मानक हैं - रामायण और महाभारत । इनके माध्यम से हम भारतीय आलोचना की और भारतीयता की पहचान भी कर सकते हैं। राधावल्लभ जी का कहना है कि ये दोनों ही समीक्षक भारतीय मानकों से पश्चिम को आँकते हैं। और सवाल उठाते हैं कि पश्चिम इनके आगे क्या है? जहाँ पश्चिम एकदम से कटाक्षेप करके कहता है कि इसके लिए तो हमारे आगे कुछ नहीं है वहीं भारतीय आलोचना और भारतीय दृष्टि उसके पास जाकर के कुछ और सोचने की, बताने की कोशिश करती है।


संस्कृति धर्म का अतिक्रमण करके भी हो सकती है। - नित्यानंद तिवारी


इसके बाद अध्यक्षीय वक्तव्य के लिए नित्यानंद तिवारी ने अपने भाषण की शुरुआत अशोक वाजपेयी और राधावल्लभ जी के कथनों पर टिप्पणी करते हुए की उन्होंने कहा कि अशोक जी ने कहा था कि ‘आलोचना और भारतीयता का संबंध या इस संबंध में कोई सवाल नहीं उठाया गया है।‘ पर ऐसा नहीं है सवाल उठाया गया है। उन्होंने अपनी बात के प्रमाण स्वरूप हजारी प्रसाद द्विवेदी की दो किताबों साहित्य का मर्म और लालित्य तत्व का हवाला दिया। और साथ ही कहा कि यह सवाल सिर्फ द्विवेदी जी ही नहीं बल्कि शुक्ल जी ने भी उठाया है इसलिए ऐसा नहीं है कि यह विषय (आलोचना और भारतीयता) कोई अजूबा हों, या इससे पहले जेहन में न आया हो। इसके बाद उन्होंने राधावल्लभ जी के द्विवेदी जी के संदर्भ मे कहे गये कथनों पर अपनी टिप्पणी देते हुए कहा कि विनिवेशण, अन्यथाकरण, अन्वयन, भावानुप्रवेश, यथालिखितानुभाव, करणविगम आदि एस्थेटिक्स की शब्दावली हैं जिसे द्विवेदी जी ने निकाला, काव्यशास्त्र नहीं। साथ ही अचरज व्यक्त किया कि इस शब्दावली का उपयोग या इसको समझने का उपक्रम हिंदी आलोचना में अब तक क्यों नहीं किया गया? उन्होंने सुधीर चंद्र द्वारा उठाए गये धर्म और संस्कृति के सवाल को एक अच्छा सवाल क़रार देते हुए कहा कि संस्कृति धर्म का अतिक्रमण करके भी हो सकती है। भारतीय संस्कृति क्या हमें कहीं से यह सिखाती है कि धर्म की या जाति की या क्षेत्र की जो सीमाएँ हैं उन सीमाओं का अतिक्रमण करके हम भारतीय हो सकते हैं? भारतीय दर्शन और संस्कृति के संदर्भ में नित्यानंद जी ने अपने प्रिय ग्रंथ पद्मावत के हवाले से कहा कि अगर हिंदू मुसलमान न होते। ये दो समाज न होते दोनों ऐसे समाज थे कि कोई एक-दूसरे को पराभूत नहीं कर सकता था। साथ साथ रहते हुए अगर वे अपनी कुछ संपर्क विधियाँ विकसित कर सकते हैं तो उससे कुछ नया साहित्य लिखा जा सकता है और पद्मावत ऐसा ही साहित्य ग्रंथ है। उन्होंने अशोक जी के बहुलता शब्द का बहुधा इस्तेमाल किये जाने पर चुटकी भी ली और कहा कि उनका यह प्रिय शब्द है, बहुत दिन से वे इसका प्रयोग कर रहे हैं। लेकिन मेरे दिमाग में ये बात कभी नहीं आई कि मैं उनसे पूछूँ कि बहुलता की जगह विविधता का प्रयोग वे क्यों नहीं करते और बहुलता मे क्या कुछ ऐसी विशिष्टता है जो विविधता में नहीं है। मुझे ऐसा लगता है कि ये विविधताए परस्पर संवादमय होती है और बहुलता भी परस्पर संवादमय हो सकती है। लेकिन उसमें इस बात की संभावना भी लगती है कि वो परम स्वतंत्र हो जाए। बहरहाल इन टिप्पणियों से इतर उन्होंने आधुनिकता और भारतीयता पर तीन बिंदुओं को उठाते हुए अपनी बात रखी पहला बिंदू था कुँवर नारायण जी का कथन जिसमें उन्होंने कहा था कि वस्तुओं के क्षेत्र में ही नहीं विचारों के क्षेत्र में भी बाज़ार मूल्य प्रवेश कर चुका है। दूसरा बिंदू था कि आज के आलोचनात्मक 'विमर्श' पश्चिम तर्कों से अनुकूलित होते जा रहे हैं या नहीं? तीसरा बिंदू रहा कुछ समय पहले दिल्ली के रिक्शे वालों के संदर्भ मे आया सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय। जिसमें न्यायाधीश रिक्शवालों के पक्ष में फैसला सुनाते हुए कहते हैं कि गरीब आदमियों के वाहन का सवाल है। आप उन लोगों को क्यों नहीं रोकते जो सड़क पर चलते हुए तमाम एक्सीडेंट करते हैं और खून-खराबा करते हैं। उनके लिए आप क्यों नहीं नियम बनाते, बड़े आवेग के साथ न्यायाधीश ने यह बात कही है और ये तीनों बिंदू मिलकर एक ब़ड़ा संक्रांत बिंदू बनाते हैं। अपनी बात वे दूसरे बिंदू से शुरु करते है जो बाद में पहले वाले बिंदू से जुड़ जाती है। दूसरे बिंदू के संदर्भ में उन्होंने कहा कि रामविलास शर्मा, शुक्ल जी और द्विवेदी जी की आलोचना पश्चिम से प्रभावित जरूर है पर वह वहाँ से अनुकूलित नहीं हैं। पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी को वे अपना प्रेरणा पुरुष बताते है और कहते है कि उन्होंने ही सबसे अधिक पश्चिम की आलोचना से लड़ाई लड़ी है। शुक्ल जी ने भी उतनी लड़ाई पश्चिम की आलोचना से नहीं लड़ी है और इसलिए आलोचना और भारतीयता का प्रसंग वहाँ पूरी गंभीरता से उपस्थित है। नित्यानंद जी द्विवेदी जी के ही माध्यम से आलोचक को सहृदय पाठक मानने के पक्ष में हैं। तर्क करने की क्षमता और ग्रहण व त्याग का विवेक देशकाल से आता है उनका मानना है कि यही आकर द्विवेदी जी और कुँवर नारायण एक बिंदू पर मिल जाते हैं। और वे सवाल उठाते है कि जिस प्रकार कुँवर नारायण का कथन बाज़ारवाद के खिलाफ है वैसे ही क्या द्विवेदी जी पश्चिम से प्रभावित होते हुए भी पश्चिम की आलोचना को चुनौती नहीं देते? अब अगर कुँवर जी ये बात कहते हैं तो क्या गलत है कि विचारों में भी बाजारवाद प्रवेश कर गया है। वे समकालीन साहित्य पर विचार करते हुए उन धारणाओं को खारिज करते है जो इसे बेहद दुर्वल मानकर चलती है। उनके लिए आलोचक सिर्फ वही नहीं है जो समकालीन साहित्य को पढ़ता है। वे आलोचक का ये अनिवार्य कर्तव्य और गुण मानते हैं कि उसे अपनी परंपरा का भी पूरा ज्ञान हो सिर्फ समकालीनता की जद में रहकर आलोचना नहीं हो सकती। उनका खयाल है कि हमारा साहित्य दुर्बल नहीं है और आज का भी जो रचनात्मक साहित्य है वो मुझे दुर्बल नहीं दिखता। हमारी आलोचना देखे या न देखे लेकिन हमारा आज का बहुत ढ़ेर सारा साहित्य है जो दुर्बल नहीं है। सवाल आलोचना और आलोचकों का है?

इस तरह के बहसनुमा वक्तव्यों के साये में यह आयोजन सफल रहा। सबसे खास रहा अवस्थी जी की नातिन शाश्वती द्वारा देवीशंकर अवस्थी के लेख आधुनिकता और भारतीयता के आरंभिक अंश का पाठ। जिसने वक्तव्यों को मूल मुद्दे पर केंद्रित रहने में मदद की। इस अवसर पर अवस्थी जी के परिवार के सदस्यों और वक्ताओं के अलावा मैनेजर पांडेय, विश्वनाथ त्रिपाठी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, संजीव कुमार, अनामिका, अर्चना वर्मा सरीखे विद्वान लेखको, प्राध्यापकों और शोधार्थियों की उपस्थिति देखने लायक थी। अंत में धन्यवाद ज्ञापन अशोक वाजपेयी ने किया।

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