सोमवार, 26 सितंबर 2011

दिल, दोस्ती और रिसर्च फ्लोर की कैंटीन

"इस लेख पर कविताओं का हावी होना इस बात का सबूत हैं कि मैं इसे लेख की शक्ल में कम स्मृतियों या संस्मरण की शक्ल में लिखना चाह रहा था। लिख पाया या नहीं इसका फैसला आप करिये। आज सुबह अमितेश ने रिसर्च फ्लोर की कैंटीन के संबंध में कुछ लिखने के लिए कहा था। सॉरी अमितेश यहाँ रिसर्च फ्लोर की स्मृतियों में मेरे दोस्तों की स्मृतियों हावी हो गयी हैं। कैंटीन कही दूर जा खड़ी हुई है। कैंटीन को लेकर मेरे अनुभव बहुत अच्छे नहीं रहे खासकर उनके संचालको की वजह से। इतनी खूबसूरत जगह पर अगर उस कैंटीन का संचालक अच्छा होता तो हम सब किफायती और बढ़िया खाने का लुफ्त उठाते। कॉफी हाउस की शक्ल में ये कैंटीन हमें एक नया बहसनुमा माहौल प्रदान कर सकती थी। पर ऐसा न हो सका।"   - तरुण




दिल्ली यूनिवर्सिटी का केंद्रीय पुस्तकालय तब सैंट्रल रैफ्रैंस लाइब्रेरी के नाम से जाना जाता था। मेरे जैसे ज़ुबान के शौक़ीन लोगों के लिए जिनकी ज़ुबां को कोई ज़ायका लंबे समय तक याद रखने की लत है अब भी ये सैंट्रल कम रैफ्रेंस लाईब्रेरी ही ज़्यादा है। खैर
रिसर्च फ्लूर की कैंटीन पर लिखना मेरे लिए मेरे पहले प्यार पर लिखने जैसा ही है। शायद आप सोचें ये बहुत ज्यांदा हो गया पर मेरे लिए वो जगह मेरी छुट-पुट प्रेम कविता, सामान्य शेरों और ग़ज़लों को लिखने की जगह थी जहाँ मैं अपने स्कूल के दिनों की प्रेमिका की याद में निदा फ़ाज़ली और बशीर बद्र को पढ़ा करता था। मेरा विषय हिंदी साहित्य था पर इसमें से मुझे बोधा जैसा कवि सर्वाधिक पसंद था उन दिनों।-

कवि बोधा अनी घनी नेजहू ते,
चढ़ि तापे न चित्त डिगावनौ है।
येह प्रेम को पंथ कराल महा
तलवार की धार पै धावनौ है।। - बोधा

सच कहूँ तो यही वो जगह थी जहाँ मुझे एक शायर यह कहता मिला था कि

इश्क़ से दिल लगा नासिख़,
इल्म से शायरी नहीं आती। - नासिख़

और उसके बाद इसी तर्ज़ पर मैंने कितनी ही प्रेम कविताएँ रच डाली थी। वो जगह चाय की चुस्कियों में सिर्फ खुद को डुबाने की जगह नहीं थी। जेब खाली रहने पर भी वो समय मेरे दोस्तों से भरा समय था। हम कई दोस्त प्रवीण, नौशाद, मैं और भी कई वहाँ बैठकर जे.आर.एफ की तैयारी किया करते थे। जे.आर.एफ की परीक्षा संडे को होती है। हम लोग परीक्षा खत्म करके उसी जगह लौटते। ये सब प्रवीण के सौजन्य से होता। नौशाद और मैं उसे घंटों फोन पर लगे देखा करते उन दिनों। तब तक उसकी शादी नहीं हुई। यही वो जगह थी जहाँ मैंने और नौशाद ने सुबह से लेकर रात तक बात की, गप्पे हाँकी कहना उन बातों की अहमियत को कम करके आँकना होगा मेरे लिए। मेरे लिए उन लम्हों की कितनी अहमियत है यह मैं बयां नहीं कर सकता। मुफ्लिसी में भी वो समय बहुत रईस समय था मेरे लिए। बिना कहे चाय, ऑमलेट का ऑर्डर हो जाया करता था। आज उस जैसी चाय नसीब नहीं हो पाती। दोस्तों की संगत लगभग खत्म हो चुकी है। मुझे उन दिनों की याद सबसे ज्यादा आने की दो वजह हैं। जिनका मैंने हल्का सा उल्लेख ऊपर किया है। अब थोड़ी तफ्सील से इन पर बात करना चाहूँगा।
जैसाकि मैंने कहा कि यही वो जगह है। जिसने मुझे मेरी प्रेम कविताएँ लौटायीं। यही पर बैठ कर मैंने लिखा थाः-

अगर कोई ना मिला करे ।
तो फिर हम क्या ग़िला करें।।
मिलना न मिलना उसकी मर्ज़ी है।
मगर ये भी तो सच है
अभी हमारी हालत फर्ज़ी है।।

उन दिनों मेरे कुछ ख़ास दोस्तों के अलावा मेरी ज़्यादा किसी से बात नहीं हो पाती थी। उस दौरान मैं इसका कारण कुछ अपनी हालात को माना करता। कुछ हालत, कुछ हालात और कुछ मेरा एटीट्यूड , कई लोग मुझे इगोइस्ट, एरोगैंट उपाधियों से नवाज़ा करते। अपनी फैसबुक और औरकुट की प्रोफाइल पर वो जो लाइनें मैंने लिखी हैं न, वो दरअसल इन आरोपों की सफाई के एवज में ही बाहर आई थीं। जिसमें मैंनें कहा थाः-

पहली नज़र मे कुछ अजीब सा इम्प्रेशन होगा मुझे देखकर, शायद आपको लगे मै बहुत गुस्से वाला हूँ या घमण्डी या फिर आप मुझे किसी और उपाधि से नवाज़े....सब सहर्ष स्वीकार है लेकिन जब ये पहली नज़र, दूसरी तीसरी चौथी...........बनती जाएगी एक अच्छी दोस्ती, एक प्यार भरा एहसास पनप्ता जाएगा. इसी प्यार भरे एहसास के पहले, बीच मे - या आखिर मे कहीं किसी जगह आप एक रिश्ता बना महसूस करेंगे ये रिश्ता होगा प्यार का, दोस्ती का, एहसास का, जज्बात का; शायद इन्ही सब के बीच मै हूँ. खुद की तलाश मे .........

यही बैठकर मैंने कई लघु-कविताएँ लिखीं थीं ः-

(१)
एक भी शख़्स ऐसा नहीं दिखता
जो कहे साथ में हैं हम तुम्हारे बोलते हैं बस यही सोच
कोई कुछ तो बोले बस यही उम्मीद लिए चलते हैं कोई तो पुकारे।
(२)
मैंने जबसे तुम्हें देखा है सनम
तुम्हारा हूँ किसी का मैं नहीं हूँ।

मेरे दिलदार तुम्हें कैसे कहूँ
तुम्हारा हूँ किसी का मैं नहीं हूँ।


जब एम. ए में पास हो गया तब जल्दी नौकरी करने की ठान रक्खी थी। सो प्रोफेशनल कोर्सों जैसे बी.एड और लाइब्रेरी साइंस मुझे अपनी और खींच रहे थे। यही बैठकर मैंने लाइब्रेरी साइंस में एडमिशन लेने की योजना बनाई थी। एम.फिल् के एंटरैंस टेस्ट और इंटरव्यू की तैयारी की थी।
उन दिनों मैं बहुत पढ़ता था। लाइब्ररी में उस दौर की शामें या तो ऊपर कैंटीन में बीतती या फिर नीचे कंसल्टैशन डैस्क पर। उसी दौरान मैंने शिवमूर्ति की तिरिया चरितर पढ़ी थी। सचमुच हिल गया था उसे पढ़कर। शाम को लाईब्ररी में ऊपर जितना हुड़दंग होता उसकी अपेक्षा नीचे बड़ा शांत माहौल होता पर इसे शांत कहना शांति की बेइज्जती करने जैसा है इसलिए मैं कहूँगा बड़ा दहशतज़दा माहौल होता था। उसी बाहरी दहशत में मैनें भीतर को हिला देने वाली कहानी तिरिया चरितर पढ़ी थी। बिसराम की हरक़त ने झिंझोड़ दिया था मुझे। पढ़ने के पहले पहल बिमली(शायद यही नाम था) और ट्रक ड्राइवर के संवादों ने पेट में गुदगुदी की थी
ट्रक ड्राइवर उसके लिए कुछ लाया था बिमली कहती है माँ देखेगी तो डाँटेगी। नहीं देखेगी ड्राइवर ने कहा। अंदर पहनने की है।
और मेरे पेट में ऐसी गुदगुदी उठी जैसी तीसरी कसम के हीरामन के मन में उठती है कहानी की शुरुआत में। हीरामन से कई मामले में समानता रखने पर भी मैं जुदा था। समान इसलिए क्योंकि दोनों की ही गुदगुदी बाद में कसक में बदल गयी। बिमली के उसके ससुर द्वारा बलात्कार करने से मेरे मन में, और हीराबाई के चले जाने पर मीता(हीरामन) के मन में। जुदा इस हद में की हीरामन के अंदर की मोरेलिटी को हीराबाई चोट नहीं पहुँचाती जबकि बिसराम की हरक़त मुझे परेशान कर देती है। भोगलिप्सा में पागल बिसराम का किया मैं उस समय समाज पर थोप रहा था, कैसा समय था वो।

बहरहाल लाइब्रेरी साइंस में एडमिशन लेने और वहाँ २०-२५ दिन क्लास लेने के बावजूद मन नहीं रम रहा था। मैं प्रोफेशन कोर्स में भी इमोशनल चीज़ो को पढ़ा करता। जावेद अख्तर की तरक़श उन्हीं दिनों पढ़ी थी। क्लास में अपने एक मित्र पवन त्रिपाठी के साथ शेरो-शायरी किया करता। कितने दिन टिकता। लेकिन तभी एम.फिल में मेरा चयन हो गया और इस इमोशनैलिटी को टूटने से बचा लिया गया। उसके बाद एक साल कैसे बीता क्या कहूँ। वो मेरे लिए सिवाय एक घनी स्याह रात के कुछ नहीं। छोटी बहन के ससुराल वालों की प्रताड़ना, जेब खाली, हमारे एक गुरुजी का प्रेशर, एक बोर्डर(सीमापुरी) से दूसरे बॉर्डर साउथ कैंपस तक का सफर मेरी हालत खराब कर देता था। पढ़ना एक दम छूट चुका
था। उस दौरान बड़ी अजीब सी लाइने लिखीं थी मैंने -
ये उदासी की रातें
बदहवासी की बातें
जज़्बात समझने से पहले और उसके बाद के बीच कुछ अजीब मुलाक़ातें
उभरती हैं
ज़ेहन में।

यही वो जगह है जहाँ मैं निदा फाज़ली की गज़लों को दोस्तों के सामने दोहराया करता। मेरी रातें मैहंदी हसन की ग़ज़ले सुनते जागा करतीः-

जो कसमे खाते थे चाहतो की।
उन्हीं की नीयत बहक रही है।।

वो जिनकी खातिर ग़ज़ल कही थी।
वो जिनकी खातिर लिखे थे नग़्में।।-(गायक- मैहंदी हसन)

मेरे साथ ये अच्छा रहा कि उस दौरान मैं आशावादी रहा। इस आशावाद को कुछ यूँ लिखा था उन दिनों-

अभी मैं दुखी हूँ तो क्या
कुछ पल तो मिलेंगे खुशी के
और फिर वही दुख...लंबा दुख
फिर सुख
बस इसी में बीतेंगे दर-साल ज़िन्दगी के।

शायद इस आशावाद का परिणाम ही रहा कि एम.फिल के दौरान ही जे.आर.एफ हो गया। जे.आर.एफ होने पर भी कुछ लिखा था। ये सब कविताएँ मेरी डायरी के सौजन्य से मिल पा रहीं हैं। जो काफी लंबे अरसे से नहीं लिखी गयी है। खैर जे.आर.एफ पर लिखी एक कविता की बानगी देखिये-

दिन भी अक्सर ग़ुज़र ही जाता था
न कोई पास है न आता था।
जब भी आता था दिल को
बस यही ख्याल आता था
जो कुछ ही देर में एक सवाल बन जाता था।
क्या मुझे बिना जे.आर.एफ के जीना होगा ?

मेहनत, मशक़्क़ात, दुआएँ, उम्मीदें
क्या क्या न लगाया गया था
पर अब तक ये कमज़र्द न पाया गया था
फिर कल अचानक ही जे.आर.एफ हुआ
दिल में छिपी भड़ास और अंदर का कॉंफिडेंस जगा
साथियों को पता नहीं क्या लगा।
पर मुझे जो लगा या लग रहा है
वो मुझसे बयां नहीं हो रहा है।

एक रिसर्च स्कॉलर के लिए जे.आर.एफ की महत्ता इन पंक्तियों से समझी जा सकती है। ये सब यादें रिसर्च फ्लोर की कैंटीन से जुड़ी यादें हैं।जे.आर.एफ होने से जस्ट पहले मुझे ग़ज़ल टाइप लाइने लिखने का शौक़ लगा था और मैं अपने भाव इस तरह के अल्फाज़ो में पिरोकर लिखा करता-

(१)
एक भी बात नहीं बनती अब तो।
क्या रही कमी अब तो।।

कुछ भी दिल से निकल नहीं पाता।
धड़कन भी है थमी अब तो।।

राहबर जान कर जिन्हें चाहा।
राहजन बन गये वो लोग अब तो।।

बात जिनसे नहीं छिपाई कोई।
वो पूछते हैं कुछ कहो अब तो।।

(२)
नहीं नहीं, नहीं नहीं, कहीं कोई नहीं है।
खुशबू फूलों में नहीं, रंगे-ए-महफ़िल भी नहीं है।।

क्या हुआ वक़्त जो ठहरा हुआ सा लगता है।
पास में सब है मगर, साथ में कोई नहीं है।।

क्या करूँ इश्क़-ए-मजमूँ जो समझ में न आया।
क्यों न कह दूँ कि मुझे इसका तो इरफाँ नहीं है।।

और बच जाऊँ अब ये कहके, मैं उनकी नज़र से।
कि किसी और से है प्यार पर तुमसे नहीं है।।

उन्हीं दिनों लता मंगेशकर की आवाज़ में एक खूबसूरत गज़ल एलबम आया था। उसमें एक ग़ज़ल थी 'मुझे ख़बर थी वो मेरा नहीं पराया था' मैंने इस ग़ज़ल की भी एक पैरोडी बनाई थी वो कुछ यों थी-

मुझे ख़बर थी वो मेरी नहीं परायी थी।
न जाने फिर क्यों उसी से नज़र मिलायी थी।।

मेरे अल्फ़ाज़ न समझे बेश़क़।
क्यों मेरे दिल को कभी, वो समझ न पायी थी।।

मुझे खबर थी वो मेरी नहीं परायी थी...

एक अरसा ग़ुज़र गया है मगर।
ज़ेहन से वो निकल न पायी थी।।

आज जब हूँ बहुत ही आसां मैं ।
आज भी वो मुझे क्यों समझ ना पाई थी।।

आज बेशक़ मेरे साथी इन पंक्तियों को देखकर हँसें लेकिन सच कहूँ उन दिनों यही मेरा सहारा हुआ करतीं थीं। इस तरह लिखना मुझे बेहद अच्छा लगता उन दिनों। उन्हीं दिनों एक कविता मैंने अपनी एक दोस्त के लिए लिखी थी।

तुम खुश रहो सदा,
मैं और क्या चाहता हूँ।
हमेशा करती रहो वफ़ा,
मैं और क्या चाहता हूँ।

तेरी हर ख्वाहिश पूरी हो,
तेरे सोचने से पहले।
तुम्हारी मंज़िल मिले तुम्हें,
तुम्हारे खोजने से पहले।

तुम हमसे जुड़ी रहो सदा,
मैं और क्या चाहता हूँ।

इस कविता का इस्तेमाल मैं आज भी अपने दोस्तों के जन्मदिन आदि पर करता रहता हूँ यह भी रिसर्च फ्लूर की कैंटीन की ही देन है। न वो शामें होती, न चाय की चुस्कियाँ, न किताबें, न दोस्त, और न ही ये कविताएँ।

उन दिनों इस तरह की बहुत सारी कविताएं मेरी डायरी में अब भी लिखी हुई है। मैं इन्हें कविताएं नहीं मानता। ये वो जज्बा है जिसने उन दिनों मुझे जिलाए रखा। उस दौरान मैं बहुत अंतर्मुखी हुआ करता था। बहुत सारे दोस्त बनाने का हुनर मुझे कभी नहीं आया लेकिन खुशकिस्मत हूँ कम ही सही लेकिन अच्छे मिले हैं। इनके रहने पर मुझे कभी दुश्मनों की कमी नहीं खलती।

इससे ज्यादा की तमन्ना मैंने की भी कभी नहीं। एक दिन राजकुमार जैन सर से बात हो रही थी उनके जीवन की उपलब्धियों पर उनका जो कहना था वो आज के समय में बहुत कम लोगों के मुँह से सुनने को मिलता है। वे अपनी उपलब्धि अपने दोस्तों को मानते हैं। मैं अभी उम्र और कैरियर के उस पड़ाव पर नहीं पहुँचा की उन्हें अपनी उपलब्धि मान सकूँ पर हाँ ये जरूर कहना चाहूंगा चीज़े और लोग अपनी संगतता में जितने असंगत हो सकते हैं उतने ही असंगतता में संगत भी।