मंगलवार, 30 सितंबर 2008

कभी-कभी

एक भी बात नही बनती अब तो ।
क्या रही कमी अब तो ।।

कुछ भी दिल से निकल नही पाता ।
धड़कन भी है थमी अब तो ।।

राहबर जान कर जिन्हें चाहा ।(दोस्त )
राहजन बन गए वो लोग अब तो।।(लुटेरे)

बात जिनसे नहीं छिपाई कोई ।
वो पूछते है कुछ कहो अब तो ।।

शनिवार, 27 सितंबर 2008

वो दिन

देखते हैं हम जहाँ तक वहाँ तक तुम हो ।
मंज़िलें हों या न हों पर रास्ता तुम हो ।।

जब भी कुछ ग़लत-सा हम काम करते हैं।
डर ये लगता है हमें ना साथ में तुम हो ।।

बस खुशी इस बात की है दोस्ती तो है ।
प्यार का इक़रार नही साथ तो तुम हो ।।

उसको कह सकता नही तुमसे ही कह दूँ मैं ।
तुम ही हो मेरे राज़ और हमराज़ भी तुम हो ।।

कुछ नही था झूठ जो मैंने कहा तुमसे ।
क्यो कहूँगा मैं मेरी हर साँस में तुम हो ।।

इसका ग़िला नही हमारे साथ नही तुम ।
बस ग़िला ये है किसी के साथ में तुम हो ।।



(ये ग़ज़लनुमा पंक्तियाँ उस दौरान लिखीं गयीं जब मैंने पहली बार ज़िन्दगी के सबसे खूबसूरत अहसास से अपना परिचय करावाया )

गुरुवार, 18 सितंबर 2008

नया स्लेबस नयी राह

दिल्ली के स्कूलों में स्लेबस रिवाइस्ड हुए अभी लगभग दो-तीन साल ही बीते होंगे , संभवत् सुनामी के बाद । जब दिल्ली के स्कूलों को लगभग बीस बरस के उस स्लेबस को छोड़ना पड़ा था जिसने ना जाने कितने आई.ए.एस , पी.सी.एस,डायरेक्टर,आदि पैदा किये थे । यहाँ तक की आज भी एन.सी .ई.आर.टी की किताबों की धूम हैं किसी भी सब्जेक्ट से सिविल की तैयारी शुरू करने वाला कोई भी परिक्षार्थी आज भी इन किताबों को अपना प्रारंभिक चरणबिंदु मानता है । ऐसा नही कि आज जो किताबें सिलेबस में लगाईं गयीं है वो नाकाफी हों या समकालीन न हो । उन्हें रिवाइस्ड करने का अहम् फैसला लेने के मुख्य कारण संभवत् काफी लंबे समय से नये संस्करण का न आना , भाषिक अशुध्दियाँ , और पिछले बीस सालों में ग्लोबल वार्मिंग या कहें प्राकृतिक आपदा के बढ़ते खतरों ,एवं राजनीति ,अर्थव्यवस्था में बदलाव , व कहीं ना कहीं दिल्ली में आगामी वर्षो में होने वाले खेल रहे होंगे । आज का भारत ८०-९० के दशक का भारत नही था उसकी परिस्थितियाँ ,ज़रुरतें , मुश्किलें सब बदल रहीं थी । इसे बदलना था अपने आज के लिये , और चलना था अपने कल के लिये । इसलिये इसे बदलने की कोशिश की शुरुआत देश की राजधानी से हुई और इसे बदलने का पहला उपक्रम बना शिक्षा । जिसमें बदलाव लाये बिना बाकी चीज़ो को बदलना नामुमकिन था इसलिये इसे बदला गया । कम से कम दिल्ली की शिक्षा-पद्दति में सुधार लाने की अच्छी कोशिश की गई हालाँकि उचित तादात में किताबों के ना छपने और समय से उपलब्ध ना हो पाने के कारण शुरुआत में काफी मुश्किलात आई । लेकिन तब भी इन किताबो को पढ़ने के बाद ये आसानी से कहा जा सकता है कि यह समकालीनता को विभिन्न संदर्भों में समझने का बेहतर साधन साबित हुईं हैं जिसकी जरुरत हम अपनी पढाई के दौरान हमेशा महसूस करते रहे । मसलन हमारी किताबों में चाणक्य था उसकी नीति थी , अकबर था उसकी शासन व्यवस्था थी , मुहम्मद तुगलक की बुद्दिमान मूर्खता थी यहाँ तक की भारत का राष्ट्रीय आंदोलन था लेकिन इसके बाद था इतिहास का अंत । यानि इतिहास ५० के दशक तक आते-आते खत्म हो जाता था यही हालत राजनीति विग्यान और अर्थशास्ञ की भी थी । हम लोगों में उस समय इमरजेंसी , नई आर्थिक नीति , ५० के बाद के चुनाव और उन्हें संपन्न कराने में आने वाली दिक्कतें ,व समकालीन साहित्य आदि के बारे में पढ़ने के लिये ग़ज़ब का कौतुहल था । मैं ११वीं में फेल होकर ग्यारहवीं में आया था उस वक़्त तक लाईब्रेरी जैसी जगह से मेरा परिचय तक भी नही था । और स्कूल में जो लाईब्रेरी थी वह टीचर्स के अखबार पढने या गप्पे लड़ाने की जगह के रूप में प्रसिध्द हो चुकी थी हमारा भी एक दिन में एक बार लाईब्रेरी का पीरियड ज़रूर होता , जो हमारी क्लास के बच्चों के लिये दिन का सबसे मस्त पीरियड हुआ करता था क्योंकि ऐसे में उन्हें गप्प लड़ाने को मिलतीं । मेरे जैसे कुछ बच्चे जो रैक्स में बरसो से रखीं किताबो को पढने की इच्छा रखते थे उन्हें हमारे लाईब्रेरियन मि० जटाशंकर या तो धुत्कार देते या ज़्यादा ज़िद करने पर चंपक या फैशन की फटी पुरानी मैग्ज़ीन देकर परे हटने के लिये कहते । लेकिन रिवाइज़्ड किताबें बच्चों को जानकारी मनोरंजन के साथ दे रही है जबकी हमारी तत्कालीन किताबो में माञ जानकारी थी मनोरंजन से वे कोसों दूर थीं ।खैर आज की किताबों मे एक चीज़ जो मुझे सबसे बेहतर लगी वो थी आपदा प्रबंधन । बच्चो का उससे परिचय । इसकी जानकारी । हालाँकि इसका संदर्भ माञ सुनामी ही है । मेरे विचार में हमें इसके संदर्भो को बढाना चाहिये था १४ सितंबर को दिल्ली में हुए धमाके उससे पहले गुजरात और जयपुर । क्या हम इन्हें आपदा नही मानते । दिल्ली के धमाको का चश्मदीद एक बच्चा , एक कांस्टेबल के बम को डिफ्यूज़ करने की खबर(हिंदुस्तान दैनिक) और उसकी बहादुरी के फतवे ।इन सब खबरों को पढकर मुझे लगता है कि आतंकवाद से लड़ाई , बम डिफ्यूज़ करना (११-१२वीं कक्षा में) , संदिग्धता की खबर (१०वी क्लास तक) को भी आपदा प्रबंधन वाली किताबों में शामिल किया जाना चाहिये था।और अगर हम ऐसा नही कर सकते तो कम से कम दिल्ली पुलिस को अपने हर कैडर के अधिकारी,कर्मचारी के लिये इनसे बचने के लिए ट्रेनिंग को अनिवार्य कर देना चाहिये । ऐसा मैं कांस्टेबल वाली खबर के सिलसिले में कह रहा हूँ ।

शनिवार, 13 सितंबर 2008

जब मैंने कहा

जब मैंने कहा /मुझे तुमसे प्यार है /तुमने कुछ नही कहा/
बस / तुम हँस दीं ।

जब मैंने कहा / मैं तुम्हें चाहता हूँ बेपनाह/
तुमने कुछ नही कहा बस अपनी उँगलियाँ मेरे होंठो पे रख दीं ।

जब मैंने कहा /चलो आज फिल्म देखने चलते हैं / तुमने कुछ नही कहा /
तुम मुस्कुराईं और क्लास लेने चलीं गईं ।

जब मैंने कहा / शाम मस्तानी है पार्क में चलें क्या ?तुमने कुछ नही कहा /
मेरा हाथ थामा और चल दीं ।

जब मैंने कहा / शादी करोगी मुझसे /
तुमने कहा- पागल हो गए हो क्या ?
आज के बाद हम कभी नही मिलेंगे ।

गुरुवार, 4 सितंबर 2008

कोसी का कहर और ........................

पिछले दिनों यमुना उफान पर थी अभी भी है पर उतनी नही , जितनी कोसी । कोसी ने तो उफान की भी हदें तोड़ दी हैं , न सिर्फ उफान की बल्कि किसान की , मज़दूर की , आवाम के विश्वास की हदों के साथ-साथ जडे़ तक उखाड़ दी हैं जिसकी खबर न सिर्फ प्रिंट मीडिया बल्कि और तरह के तथाकथित मीडिया भी दे रहे हैं जिनमें से एक तरह के मीडिया हैं हमारे ब्लॉगर्स । पिछले दिनों मनोज वाजपेयी ने शक्तिहीन अभिनेता और बाढ़ का दर्द शीर्षक से अपने ब्लॉग पर एक अभिनेता होने पर भी अपनी कोसी के बाढ़ पीड़ितो के लिए अब तक कुछ ना कर पाने के कारण अपनी शक्तिहीनता दिखाई थी । इस पोस्ट में उन्होंने कहा - बिहार में बाढ़ है लेकिन वो एक अभिनेता होने के बावजूद कुछ कर नही पा रहे । लेकिन साथ ही अपनी पोस्ट की एन्डिंग में उन्होंने करने का संकेत देते हुए लिखा कि वे इस सिलसिले में शेखर सुमन और प्रकाश झा से मिलने जा रहें हैं। इस वाक्य के साथ उनकी पोस्ट समाप्त हुई और शुरु हुई टिप्पणियाँ आनी ........ इन टिप्पणियों ने मेरा ध्यान खींचा कुछ को छोड़कर लगभग सब में बाढ़ का दर्द ग़ायब था जो चीज़ उपस्थित थी वो थी मनोज जी के अभिनेता होने के बावजूद अपनी जड़ो को याद रखने के लिए की गई उनकी प्रशंसा ।उन अधिकतर टिप्पणीकारों में शायद यह पूर्वाग्रह था कि अभिनय हमें अपनी जड़ो से काट देता है । क्या सचमुच जड़ो से कटकर हम अभिनय कर पाएंगे ? यह एक सवाल था जो मनोज जी की पोस्ट को पढ़कर नही , उसपर आई टिप्पणियों को पढ़कर मेरे दिमाग़ में आया ।आज सुबह जब विनीत जी का गाहे-बगाहे खोला तो वहाँ भी कोसी का क़हर बरपा हुआ था , सोच तो मैं भी रहा था कि यूनिवर्सीटी हॉस्टल और आपस की छोटी-छोटी बातों को अपने ब्लॉग का रॉ-मैटेरियल बनाने वाले विनीत जी ने अभी तक अपने ब्लॉग पर देश की इतनी बड़ी आपदा पर क्यों नही लिखा ? समझ नहीं आ रहा था कि वह अब तक जनसत्ता की छोटी-छोटी खामियाँ निकालने में ही क्यों व्यस्त हैं जबकि कोसी के क़हर के संदर्भ में वह ज़ी-न्यूज़ , आई.बी.एन.७ ,स्टार न्यूज़ की लंबी-चौड़ी खाइयाँ खोज सकते हैं । खैर जो भी है आज उनका ब्लॉग देखकर सुकून मिला , लगा उनकी पारखी नज़र देर से ही सही दुरुस्ती के साथ मीडिया के खिलाफ हल्ला बोल रही है ।