रविवार, 6 दिसंबर 2009

मेरे घोचूँ मेरे भैया

मेरे घोचूँ मेरे भैया
क्या क्या लाऊँ
ता-था थैया
पोलीथीन पे बैन लगा है
जूट का बैग भी नहीं मिला है
मेरे घोचूँ मेरे भैया ।
कैसे लाऊँ ता-था थैया।।

बाज़ारों में भीड़ बड़ी है
सब्ज़ी लेकिन सड़ी पड़ी है
मेरे घोचूँ मेरे भैया।
कैसे खाऊँ ता-था थैया।।

त्योहारों में महँगाई है
या महँगाई में त्योहार
सीलींग के भी क्या कहने है
ठप्प पड़ गया अब व्यापार
भावनाओं की कद्र नहीं अब
अब प्रोफेशन है व्यवहार
मेरे घोचूँ मेरे भैया।
किसे सुनाऊँ ता-था थैया।।

लेकिन अब भी कुछ तो बचा है
जो अब तक बेचा नहीं गया है
ऐसा सब कहते है भैया
लेकिन मुझको नहीं पता है
कैसे इसका पता लगाऊँ
मेरे घोचूँ मेरे भैया
सब हैं मस्त
तो काहे का ता-था।
औ काहे की थैया।।


(यह बाल-कविता कुछ समय पहले लिखी गई थी आज जब काफी दिनों बाद अपनी डायरी खोली तो दिख गई सोचा आपके सामने रख दूँ , सो रख दी। ......... )
आपकी टिप्पणियों के इंतज़ार में..........

मंगलवार, 24 नवंबर 2009

पर चूंकि प्रेम को मैं...(का अन्तिम अंश)

बाईं ओर मलयज की तस्वीर

वह बहुत दिनों तक नहीं आई। और चूँकि संभावना के अर्थ में मैं तब भी प्रेम कर सकता था अतः मैं उदास रहने लगा। मेरी उदासी एक धूल थी जो उस दरवाज़े की मूठ पर जमती जाती थी। उस मूठ पर मेरी उँगलियों की छाप बनी हुई थी और धूल उस छाप के चारों ओर जमती जाती थी जिससे उँगलियो के निशान दिन-दिन और भी उभरते आते थे उँगलियो की वह छाप मुझमे यह याद ताज़ा करती कि कभी मैंने प्रेम को संभावना समझा था और वह बीच का दरवाज़ा हमेशा के लिये खोल देना चाहा था। जैसे-जैसे दिन बीतते जाते उस संभावना का अंधेरा छाता जाता........

मेरी किताबों पर और क़लम पर और बढ़िया सादे क़ागज़ के कटे हुए दस्तों पर और नोटबुकों पर भी वह अंधेरा जमने लगा। जिस संभावना के आरंभ और पुष्टि के लिये ये सब चीज़े थी वही झूठी पड़ती जाती थी। वह वातावरण ही झूठा पड़ता जा रहा था जिसमें फिसलती हुई चीज़े रुक जाती हैं। पास सरक आती हैं और मोती की तरह एक क्षण में हथेली पर चमचमा उठती हैं।
इसी आलम में एक दिन मैंने पाया कि मेरी स्टडी में वह टेबल लैम्प रखा था। मेरी स्टडी ऊपर छत पर है,....छत के ही एक भाग को ईंट की दीवार खड़ी करके स्टडी के कमरे का रूप दे दिया गया है। उसमें एक खिड़की है...........

मैंने खिड़की खोल दी। उससे आकाश का सिर्फ़ एक छोटा सा टुकड़ा दिखाई पड़ता था। मैंने टुकड़े के मुँह में तारे भरे थे। मैंने हाथ बढ़ाकर स्विच ऑन कर दिया --टेबल लैम्प के हरे टोपे के नीचे रखी हुई किताबें और सादे क़ाग़ज़ प्रकाश की एक गोल परिधी में घिर गए। कमरे की दीवारों पर टोपे से छनता प्रकाश बिखर गया।.........
(समाप्त)

मलयज की डायरी, भाग-२ से साभार

रविवार, 22 नवंबर 2009

पर चूँकि प्रेम को मै एक सम्भावना मानता हूँ,....

मैंने प्रेम के बारे में बहुत कुछ सुना है। कि वह दो आत्माओं को मिलाता है। कि वह व्यक्ति को ऊँचा उठाता है। उसके जीवन के अँधेरे को दूर कर उसे जीने का सम्बल देता है। मैंने प्रेम से केवल इतना ही चाहा था कि वह मुझे निठल्ला न रहने दे। कि वह मेरे इस दूसरे ीवन वाले मैदान में आए और मैं निठल्ला न रहूँ। अपने नाखून न चबाता रहूँ, उससे झगडूँ, उसे ललकारूं कि वह अपनी ज्वाला प्रगट करे और मुझे जलाए। मैं उससे सिर फुट्टोवल करूं और मेरे शरीर से रक्त की बूँद गिरे। मैं कुछ भी करूँ, अपने सामने, अपनी इन जिग्यासाओं और प्रश्नों के सामने निठल्ला न रहूँ, अकेला न रहूँ.....कोई तो दूजा हो।
किन्तु जब मैंने उस दरवाज़े की मूठ पर हाथ रखा जो इस दूसरे जीवन और पहले जीवन के बीच स्थित है और उस दूसरे जीवन की एक झलक अपनी प्रेमिका को देनी चाही तो वह इस पहले वाले जीवन से भी दूर भागने लगी।

शायद मैंने इस काम के लिए गलत क्षण का चुनाव किया था।........

नहीं, मैं ये मानने को तैयार नहीं कि मेरे जैसा आदमी प्रेम के योग्य नहीं। मैंने प्रेम को एक संभावना के रूप में लिया था बल्कि एक संभावना को मन में पालकर ही मैं प्रेम की ओर बढ़ा था- क्या यह बात यह नहीं सिद्ध करती कि मेरे जैसा व्यक्ति भी प्रेम कर सकता है।

कम से कम उस वक़्त मैंने ऐसा ही समझा था उस वक़्त जब मेरी प्रेमिका मुझसे रूठ कर चली गयी थी। खफा मैं इसलिये कह रहा हूँ कि हालाँकि मैं नहीं जानता था कि अब उसके मन में मेरे लिये क्या है पर चूँकि प्रेम को मैं एक संभावना के रूप में ही लेता रहा था अतः ‍मैं जानता था कि वह मेरे पास फिर आएगी।

वह बहुत दिनों तक नहीं आई ..........
(to be continue)

मलयज की डायरी-२ से उद्धृत

यहाँ मकानों की बुलंदी आदमी की.....

सर्दी शुरू हो रही है
लोगों की बाहें बंधने लगीं है

बाहें घर जाकर खुल जाती है
वहां गर्मी है या कहूं
उसका एहसास है

लेकिन वहां घर नहीं है
बल्कि उसकी आस है

बाहों के खुलने से रिश्ते टूट जाते है
घरवाले घर के बाहर खुश है
घर आकर रूठ जाते है

अब वो घर नहीं
जहां सर्दी जगह बना ले
यहाँ मकानों की बुलंदी
आदमी की तरह
गर्मी को भी पैदा करती है

इसलिए लोगों की बंधी बाहें
घर जाके खुल जाती है

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

भाषा थोपी नही जाती, अपनाई जाती है क्या ये बताना पड़ेगा?

महाराष्ट्र में जो कुछ हुआ उसे सबसे ज्यादा शर्मनाक कहना तो बेवकूफी ही होगी क्योंकि हम इससे पहले भी देश की संसद में इस तरह की रिहर्सल देख चुके हैं। और फिर मनसे तो इन कामों के लिये कुख्यात रहा है
जिस भाषा के सवाल की आड़ लेकर ये सब झमेला किया गया है क्या मनसे को इतना भी नहीं पता की भाषा थोपने की नहीं अपनाने की तहज़ीब है। हमारा मानना है उसे ये नहीं पता क्योंकि राजनीति के झीने पर्दे में भाषा थोपने की चीज़ ही मालूम होती है। आज के जनसत्ता में कार्टूनिस्ट इरफान ने बड़ा ही सार्थक कार्टून इन मनसे कार्यकर्ताओ की गतिविधियों और भारतमाता(हिन्दी को मदरटंग कहे जाने को लेकर) की स्थिति पर बनाया है। जिसमें उन्होंने लिखा है कि 'माँ को तो छोड़ देते'।

वर्तमान परिस्थितियों ने जहाँ इतनी सारी चीज़ों में फेरबदल किया है वहीं कहावतो के संदर्भ और अर्थो में भी बदलाव कर दिया है। पहले कहा जाता था प्यार और जंग में सब जायज़ है। पर अब क्योंकि प्यार और जंग राजनीति के पहलू हो गए है सो दर्शाया ये जाता है कि राजनीति में सब जायज़ है फिर क्या भाषा और क्या माता, सबके चिथड़े उधेड़ने से इन्हें कोई गुरेज नहीं हैं। जिन साहब ने आज़मी साहब के मुँह पर भरी विधानसभा में तमाचा जड़ा उनकी शख्सियत उनका व्यक्तित्व कहीं से भी विधायक का नहीं लगता साहब साउथ इंडियन फिल्म के विलेन से कम नहीं लगते। मनसे विधायक राम कदम ने तो सिर्फ आज़मी साहब के मुँह पर तमाचा मारा, मनसे के ही विधायक शिशिर शिंदे तो अपनी विधानसभा से बर्खास्तगी पर यहाँ तक कह गए कि.. 'मेर सामने इंदिरा गाँधी का उदाहरण है। उन्हें भी बहुमत ने संसद से निलंबित कर दिया था लेकिन उन्होंने भारतीयों के दिलों पर राज किया।'

समझ नहीं आता ये लोग चाहत भारतीयों पर राज की रखते है लेकिन बात 'मराठी मानुष' की करते हैं ये सब क्या है कुछ समझ नहीं आता। ये राजनीति के ढ़कोसले अब बर्दाश्त नहीं होते लेकिन इनका किया भी क्या जाए ये आतंकवादी नहीं है लेकिन आतंक से भी बड़े वाद के जन्मदाता है महाराष्ट्र की जनता ने इन्हें जिताया है जब देश की जनता ऐसा फैसला लेगी तो हम किसका मुँह ताकेंगे .....क्योंकि कम से कम आज की स्थिति तो यही है.।


सुना है विधायको के निलंबन के खिलाफ राज ठाकरे विरोध प्रदर्शन की योजना बना रहे है ...... देखिये-देखिये अभी और ड्रामा देखिये.

शनिवार, 7 नवंबर 2009

दुनिया है एक बुढ़िया का यहाँ से वहाँ जाना.....

१७सितंबर,१९६३

दुनिया है एक बुढ़िया का यहाँ से वहाँ जाना.....

नाखून काटना और ठिठककर खड़े रहना कि पॉकेट से रूमाल पर रूमाल निकलने लगेंगे, मुँह से चूज़े निकल-निकलकर फुर्र उड़ने लगेंगे।....

समय जब चुपके से तुम्हारे पास आकर कहे, 'लो, मैं तुम्हारा हूँ', तब समझ लो कि तुम अकेले हो गए।

उम्र का आना महीन बर्फ का गिरना। हरियाली कब छुप गई पता ही न चला।

मलयज की डायरी-२, (संपा-नामवर सिंह) से उद्धृत

समाजवादी बिरादरी की चिंता और बढ़ गई है..

सचिन के पौने दो सौ रन बनाने के बाद भी जीतती हुई इंडिया हार जाएगी, सोचा न था। और इस दुखद खबर के बाद रविवार को जनसत्ता के कॉलम से सुकून मिलने की जो उम्मीद थी वो भी यूँ चली जाएगी ये तो बिल्कुल ना सोचा था। यूँ तो सचिन अपना मिथ खुद गढ़ते है और खुद ही कुछ समय बाद उसे तोड़ देते है लेकिन इस मिथ को गढ़ने में जिन लोगों ने भूमिका निभाई उसमें सबसे अहम रोल प्रभाष जोशी ने अदा किया संभवत् इसलिये हमें हार की चोट पर जोशी जी के रविवार को जनसत्ता में आने वाले लेख की उम्मीद थी वो हमारे लिये इस चोट से उबरने का मरहम था क्योंकि वो अक्सर सचिन की ऐसी पारियों पर लेख लिखा करते थे खुद सचिन को भी उनके आकस्मिक देहांत से गहरा दुख हुआ है चूंकि उनकी टिप्पणियाँ सचिन की हौसला अफज़ाई करतीं थीं। जोशी जी के जाने से न केवल सचिन की अपितु उस पूरी समाजवादी बिरादरी की चिंता और बढ़ गई है जिसकी कप्तानी में उसने अपने आप को अब तक जिलाये रखा था।


समाजवादी राजनीति का जो हश्र हुआ वो हमसे छिपा नहीं है और चिंतन तो लोहिया के बाद लगभग समाप्तप्रा हैं। पञकारिता में प्रभाष जोशी, राजकिशोर, कुलदीप नैयर सरीखे लोगों ने इसे अब तक क़ायम रखा है, इस तिगड़ी में से एक हमें छोड़ चली हैं समाजवादियों में ये स्तब्धता हमें लोहिया के जाने के बाद अब देखने को मिली है उन्हें चिंता हो चली हैं अपनी...........अपने चिंतन की, अपनी विचारधारा की। जो होनी भी चाहिये। लेकिन हमें लगता है कि चिंता से ज़्यादा हमें इस बात की फिक्र करने की ज़रूरत है कि जो लीक हंमें गणेशशंकर विद्यार्थी, राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी ने दी है, हमें उस पर सिर्फ़ चलना हैं या उनकी लीक पर एक नींव बना उस पर पञकारिता की एक ऐसी मिसाल क़ायम करनी हैं जो उन चैनलों की तथाकथित घोषणाओं से अलग हो जो सबसे तेज, सबसे पहले, सच की तह तक, जैसी बातें करते हैं और जिनकी सोच न्यूज़ चैनलों की टी.आर.पी के खेल तक टिकी होती है।


खैर ये इन बातों का वक़्त नहीं है। वक़्त हैं कि हमारी पञकार बिरादरी (प्रिंट और इलैक्ट्रोनिक) प्रभाष जोशी की सांप्रदायिकता विरोधी पञकारिता के सपने को आगे ले जाए ताकि सांप्रदायिक ताक़तें- सांप्रदायिक राजनीति और उसके ठेकेदार इस पेशे में अपनी पैठ न बना पाए हमारी सारी कोशिश इसीके लिए होनी चाहिये यही उन्हें हमारी ओर से दी गई सच्ची श्रद्धांजली होगी।

सोमवार, 2 नवंबर 2009

तुम दुनिया हो, जिसके कोई चेहरा नहीं होता...

01-01-196१

तुम दुनिया हो। जिसके कोई चेहरा नहीं होता, धुँधली, चटख और मद्धिम पृष्टभूमि के बीच से झाँकता हुआ, अपने 'होने' के अहसास से चमकता हुआ चेहरा....

तुम में वह व्यक्तित्व बोध नहीं है, जो तुम्हें इस घर की आत्मा से जोड़े.......तुम इस घर को कभी महसूस नहीं कर सकतीं, तुम दुनिया हो जिसके कोई चेहरा नहीं होता.......

तुम इसे कभी महसूस नहीं कर पाओगी। क्योंकि तुम दुनिया हो और दुनिया चेहरे नहीं देखती, केवल शोर सुनती है, जितना ही चटख शोर होगा उतना ही वह आकर्षक होगी.......और वह शोर में ही डूब जाती है।

तुम मेरे लिए डूब गयी हो.....


यह कैसा नया वर्ष है जो आज पहले ही दिन अवसाद बनकर मन पर छाता जा रहा है, भीतर तक गड़ता जा रहा है और एक निरर्थकता की भावना मुझे दबोचती जा रही है।......

एक नाम है जो रह-रहकर हवा में उछाल दिया जाता है और नेज़े की तरह मन में चुभ जाता है।जब मैं बहुत-बहुत दुखी होता हूँ तब कितने अपने लगते हो, मेरे शहर। इस छोटे से दिल में बहुत पीड़ा होती है और बहुत से थमे हुए ठिठुरे हुए आँसू, अब तुम कितने अच्छे लगते हो, मेरे शहर।


मैंने अपने और तुम्हारे बीच एक लकीर सी खींच दी है। एक गहरी लकीर। कभी-कभी लगता है संसार की जितनी सुंदर वस्तुएँ हैं सबके बीच वह लकीर उभर आई है-- सो दृश्य और सारे चिञों को वह लकीर काट रही है..... मन कैसा-कैसा होने लगता है। वह लकीर पसीजने लगती है, पर मिटती नही, कभी नहीं मिटती.....

सन्दर्भ:- मलयज की डायरी-२(संपा, नामवर सिंह )संस्करण २०००;वाणी प्रकाशन;दिल्ली-०२

रविवार, 1 नवंबर 2009

वाकई वो बहुत दुखद समय था...

मेरे घर के बराबर में एक छोटी सी पार्कनुमा जगह है जहाँ अक्सर अंकल जी टाइप कुछ लोग बैठे मिलते है वो अक्सर समसामयिक मुद्दों पर बात करने के लिए लालायित रहते हैं और अगर उन्हें कोई ऐसा बन्दा मिल जाए जो थोड़ा बहुत पढ़-लिख रहा हो और उनके पास कम बैठता हो तो वो ऐसे मौके को गँवाये बिना उसे अपने पास बुला लेते है और सुबह पढ़े गए अखबारो की भड़ास उस पर निकालते हैं मैं ये बात जानता था लेकिन तब भी उनके पास बैठना मुझे अच्छा लगता था क्योंकि वो बहुत भावुक थे और उनकी भावुकता में एक ईमानदारी थी जिसका मैं हमेशा से क़ायल रहा हूँ (आप- कुछ घायल भी कह सकते हैं) खैर तो कल भी यही हुआ मैं किसी काम से निकल रहा था और उन्होंने आवाज़ दी मैंने अनसुना किया उन्होंने फिर दोहराया और फिर वही........ मैं अपने आप को नहीं रोक सका। बाते चलीं-- डी.टी.सी. की किराया वृद्धि, जयपुर में लगी आग, खजूरी वाला केस......................, और क्या चल रहा है जैसे बातों से होकर।
यक-ब-यक मुद्दा पच्चीस साल पहले चला गया। तुम्हें पता है पच्चीस साल पहले क्या हुआ था? मुझे वल्ड कप का ख्याल आया और मेरी आँखों में कपिल देव की वल्ड कप उठाए तस्वीर घूम गयी लेकिन मैं चुप रहा क्योंकि उनके इस प्रश्न में खुशी नहीं एक दुख-सा कुछ दिख रहा था। कुछ सैकेंड एक अजब सी खामोशी पसर गयी थी जैसे वो मेरे जवाब का इंतज़ार कर रहे हों और मैं उनके। आज ही के दिन इंदिरा की हत्या हुई थी उन्होंने इंदिरा ऐसे कहा जैसे वो उनके घर की कोई सदस्या हो जिससे उन्हें गहरा लगाव रहा हो। कोई माननीय जैसा संबोधन नहीं।------ क्यों? मेरे मन में ये सवाल उठ रहा था। मैं चुप रहा आज में उनसे बहस नहीं करना चाहता था। फिर एकाएक एक दूसरे अंकल जी ने कहा बेटा हमारे लिये तो भगवान थी वो। अब में चुप नहीं रह पाया मैंने कहा अंकल जी उन्होंने इमरजेंसी लगवाई, अपने बेटे को नसबंदी का निरंकुश अधिकार दे दिया ......वो सब ठीक है पर तुझे पता है जहाँ आज तू बैठा है जहाँ तू रहता हैं वो सब उसी की बदौलत हैं। मैंने ऐसा कुछ अपने पापा से पहले भी सुन रखा था। पता है हम लोग पदम नगर, जहां तेरी वो हिंदी वाली...क्या कहते हैं उसे, वो जो अंधा मुगल के पास है(हिंदी अकादमी-मैंने कहा) हां वही, तुझे पता है अशोक(मेरे पापा) अंधा मुगल में ही पढ़ता था वहीं हम सबकी झुग्गियाँ थीं सब गरीबी हटाओ के नाम पर गरीबों को हटा रहे थे लेकिन उसने हमें पच्चीस-पच्चीस ग़ज़ के मकान दिये जहाँ आज हम रहते हैं और ये जो मंगोल पुरी. जहाँगीर पुरी, सुल्तान पुरी नंद नगरी जैसी कॉलोनियाँ आज हैं ये सब उसी की देन हैं तभी तो यहाँ से कॉग्रेस ही ज्यादातर जीतती हैं। मैंने कहा- हत्या के बाद इतने लोगों को मार देना और दंगे की आड़ में अपनी हवस पूरी करना। क्या ये बहुत शाबाशी का काम था? क्या आप जैसे कई लोग उनमें शरीक़ नहीं थे .... ? नहीं नहीं, इसका मतलब तुम हक़ीक़त से वाकिफ नहीं हो तुम्हें पता है हम लोगों ने कई सिक्खों को अपने घरों में जगह दी थी उनसे हमारी आज भी मुलाक़ात होती है उन लोगों ने अपने बाल तक कटवा लिये थे उस दौरान.। बड़ा खतरनाक संमय था वो।

दरअसल यहाँ से सटे बोर्डर के इलाकों में ये कांड ज़्यादा हुआ था और ये जो बोर्डर के लोग रईस बने बैठें हैं ना आज इनमें बहुत से ऐसे हैं जिन्होंने सिक्खों को मारकर उनकी ज़मीनें हथिया ली थीं। जिनके वे आज मालिक हैं। वाकई बहुत डरावना समय था वो। तेरे पापा तो मरते-मरते बचे थे उस दिन। हुआ यो कि अशोक सुबह छ बजे घर से निकलता और देर रात घर लौटता था उस वक्त। जिस दिन इंदिरा मरी उस दिन इस खबर को राजीव गाँधी के बंगाल से दिल्ली लौटने तक दबाये रखा गया। देर शाम इंदिरा के मरने की खबर रेडिया पर आई तब अशोक पैरिस ब्यूटी(करोल बाग़) में था उसे ये खबर नही मिली थी उन दिनो वजीराबाद का इलाका ऐसा नहीं था जैसा आज हैं वहाँ सुनसान रहता था आबादी के नाम पर परिंदा भी नहीं। खजूरी, भजनपुरा, यमुना विहार सिंगल रोड़। रोड़ के दोनो ओर बड़े-बड़े खाईनुमा गड्ढे़। रात ग्यारह-बारह का समय। वो लौट रहा था शोर्ट कट के लिये उसने खेतों का रास्ता चुना तभी एक आदमी से खबर लगी इंदिरा को मार दिया और साथ ही दंगो की भी खबर लगी वो किस तरह से घर लौटा ये तुम उससे ही पूछना........बड़ा दुखद समय था वो।ये सब उसी ने हमें बताया था। सबके चेहरे पर वही खामोशी फिर से....।

मुझे समझ नहीं आ रहा था कि ये लोग समसामयिक मुद्दों पर सरकार की बखिया उधेड़ने वाले, अभी कल ही तो डी.टी.सी के रेट बढ़ने पर कॉग्रेस को गालियाँ दे रहे थे। ये पच्चीस साल पहले कहाँ चले गए। लेकिन सच उनकी भावुकता में एक ईमानदारी थी जिसमें ये सवाल भी था कि आज कॉग्रेस के चुनावी पोस्टरों में सोनिया,राजीव तो दिख जाएंगे इंदिरा गाँधी कहाँ ग़ुम हो जाती है। चलो बेटा तुम काम करो हमने खामखाँ तुम्हारा टाइम ले लिया जाओ पढ़ाई करो ..............बड़ा ही लायक बच्चा है.............मेरे चल देने पर किसी ने धीरे से कहा। खैर उनकी बातों ने मुझमें भी उस दौर को समझने के लिये इच्छा जगा दी थी। सो, नेट पर बी. बी.सी खोला और वहाँ सतीश जैकब और आनंद सहाय का ऑडियो सुना(सतीश जैकब वही रिपोर्टर है जिन्होंने बी.बी.सी को सबसे पहले ये खबर दी थी) , मार्क टली, शेषाद्री चारी, सुमित चक्रवर्ती के बीबीसी में और रामचन्द्र गुहा का दैनिक भास्कर में छपा लेख पढा; लगा उस दौर की सच्ची रिपोर्टिंग तो यही लोग कर रहें है जो गली-मोहल्लों में उस अनुभव की बदहवासी को अपने सीने में अब तक दफन किये हुए हैं वो बताना चाहते हैं लेकिन हमारे पास सुनने का समय ही नही हैं। सच.............

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

शीला सरकार के लिए .................

यूं तो डी.टी.सी के किराये में वृद्धि के मामले में मै कुछ लिखना नहीं चाह रहा था क्योंकि कल रात से यही सब तो पङतासुनता आ रहा हूँ सुबह जब अखबार खोला तो उसमे भी............वही सब

खैर जब फैकल्टी पहुंचा तो देखा कुछ स्टुडेंट शीला दीक्षित का पुतला बना रहे थे और शायद कैम्पस में जलाने की रिहर्सल कर रहे थे मन में कई सवाल उठे ये मुक्तिबोधी क्रांति आज कहाँ तक सही है या ये भी बिना किसी पूछताछ के आधी जिंदगी गफलत में और आधी शैया पर खांसते दम तोड़ते बिताएगी. ये सब क्या है?

कैम्पस में पहुँचने से पहले बस में भी इसी तरह की क्रांतिधर्मिता की बातें चल रही थी ये वही लोग थे जिन्हें अक्सर मैंने बिना टिकट के यात्रा करते देखा है खैर मै वही सब बातें दोहरा रहा हूँ जो आप भी कल से पढ़ते-देखते बोर हो गए होंगे( हलाँकि क्रांतिधर्मिता वाली बात पर आपका ऑब्जेक्ट करना स्वाभाविक है)

दरअसल मुद्दा-ए-बहस ये है कि दिल्ली सरकार ने परिवहन में सालों से होते आ रहे आपने घाटों की एवेज में दिल्ली के यात्रीगणों पर कुछ किराया ठोका है इतना ही नहीं हम स्टूडेंट्स के बस पास को भी साढ़े बारह रूपए से बढा कर १०० रूपए कर दिया गया है पहले ५ महीने के हम ७५ रूपए देते थे अब हमें ५०० रूपए देने होंगे हालांकि अगर मै सरकार की नज़र से और दिन ब दिन बढती महगाई की नज़र से देखू और अन्य राज्यों के किराये से तुलना करू तो मुझे शायद कोई दिक्कत न हो लेकिन जब मै ७५ से सीधा ५०० और ७ का १० और १० का १५ होते देखता हूँ या फिर उन लोगो के बारे में सोचता हूँ जो हमेशा किराया लेकर ही सफ़र करते है तो थोडा दुखी हो जाता हूँ लेकिन तब भी कहूँगा कि बाकी काम करने की जगह अगर हम ये सोचे की ऐसी नोबत आई क्यों?..................जब हम ये सोचते है तो हमें ९५ फीसदी गलतीसरकार की दिखती है..........

क्यों?............... का जवाब तो यही है कि हम सब जानते है कि स्टुडेंट के पास का ये चार्ज जो हम अब तक अदा करते आ रहे थे ४० से भी ज्यादा साल पुराना है क्या सरकार कि यह नीति नहीं होनी चाहिए थी कि वो थोडा थोडा करके साल दर साल इसे बढाती ताकि हम भी खुश होते और सरकार तो ज़ाहिर है खुश...........खैर सरकार ने ऐसा नहीं किया और किराया बढाने का ये फैसला भी ३-४ राज्यों में चुनाव हो जाने के बाद लिया गया ज़ाहिर है पॉलिटिक्स की भूमिका और अगले साल होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों की हड़बड़ी में ये सब फैसले लिए गए है इससे हमें कोई एतराज़ नहीं होना चाहिए ये तो होना ही था खैर ये तो रही स्टुडेंट के पास की बात अब हम किराये पर आते है मैंने पहले भी कहा जो लोग बिना टिकट के सफ़र करते है उनके लिए आप चाहे किराया १० ले १५ ले या फिर ५० कर दें उन्हें कोई दिक्कत नहीं होगी दिक्कत उन्हें ही होगी जो ईमानदारी से सफ़र करने में विश्वास रखते है और वही लोग किराया वृद्धि का विरोध भी कर रहे है इसमें हमारी आइसा के कुछ भाई लोग भी है ज़ाहिर है इनमे निम्न-मध्य वर्ग के लोग सबसे ज्यादा है तो क्या ये समझा जाये की दिल्ली सरकार नहीं चाहती की वे ईमानदार बने रहे सरकार को ये पता होना चाहिए कि यही वे लोग है जो पर्सनल की जगह पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सफ़र करते है अगर सरकार ने अपने इस फैसले पर पुनर्विचार नहीं किया तो बड़े दुःख की बात है की उन्हें अपने अपने पर्सनल वेहिकल सडको पर उतारने पड़ेंगे जिसकी एवेज में सरकार को न जाने कितने बी.आर.टी. और फ्लाई ओवर बनवाने पड़ सकते है जिसमे वो पहले ही करोडो रूपए लगा चुकी है उसे इस बारे में दोबारा सोचना चाहिए अगर वो अपने फैसले पर अटल रही तो मुझे लगता है की वो उन लोगो के साथ ही खिलवाड़ करेगी जो इस सरकार के साथ ईमानदार है टैक्स देते है और शीला दीक्षित सरकार में अपना विश्वास दिखाते है उसे हैट्रिक बनाने में मदद करते है उसे अपने इन नागरिको के बारे में ज़रूर सोचना होगा और हाँ कम से कम अपने घाटों का ठीकरा तो उनके सर पे फोड़ना सरकार को बिलकुल भी शोभा नहीं देता अगर उसे तब भी लगता है की घाटों को पूरा करने के लिए किराया बढ़ाना ही पड़ेगा तो एकदम न बढाकर साल-दर-साल कुछ-कुछ बढा देना चाहिए जैसे पहले २ रूपए वाली टिकट को बढा कर ३ रूपए कर दिया गया था जिसे लोगों ने कोई खा तवज्जो नहीं दी थी बहरहाल ............बात सिर्फ इतनी है कि सरकार को अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए और एकदम से किराया बढाने की अपनी नीति को छोड़ देना चाहिए नहीं तो अभी ज्यादा दिन नहीं बीते प्याज ने एक सरकार को इस हद तक बर्बाद कर दिया कि आज तक भी दिल्ली में वो अपनी जड़े दोबारा ज़माने में संघर्ष करती दीखती है उम्मीद है शीला सरकार इस मामले में सचेत होगी .वर्ना हम स्टूडेंट्स का क्या है वैसे भी यूनिवर्सिटी में डूसू- दूसा की हड़ताल से पढाई ठप्प ही रहती है हम समझ लेंगे की कुछ दिन दिल्ली सरकार के लिए सही ............ पर सच कहें हम स्टूडेंट्स अपना ध्यान पोस्टर-बाज़ी और पुतले बनाने या फूँकने में नहीं लगाना चाहते हम पढना चाहते है इसलिए मेरी दुबारा गुजारिश है कि सरकार इस बारे में सोचे .......... आशा है वो ज़रूर सोचेगी और सोचना ये नहीं कि ५ बढा कर एक कम कर दिया ..........हम सरकार से इस ओर सकारात्मक रुख कि उम्मीद लगाये हुए है

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

'दिवाली मुबारक हो'



कल दीपावली है
कुछ लोग
पटाखे जलाएंगे
कुछ लोग
दिल ।

एक तबका वो होगा
जिसके बंग्लो और कोठियो पर
लड़ियों की जगमगाहट होगी
कीमती मोमबत्तियाँ और दिये जलेंगे
और एक वो
जहाँ शायद चूल्हा भी ना जले।

शराब की
सप्लाई के साथ डिमांड भी बढ़ जाएगी
जुआरियों के लिए
जश्न का दिन होगा कल
ना जाने कितनो की दिवाली होगी
और कितनो का दिवाला निकलेगा ।

घरों में
लक्ष्मी की पूजा होगी
लेकिन बाहर लक्ष्मी,
लक्ष्मी की आस में
लक्ष्मणरेखा पार कर रही होगी ।

ऐसे ही दिवाली मनेगी
हर साल मनती है
मैं पिछले कई सालों से
यही देखता आया हूँ

'दिवाली मुबारक हो' के पोस्टर
चौराहों पर चिपके मिलेंगे
जिसमें बेगै़रत नेता
बदसूरत छवि लिए
हाथ जो़ड़े दिखेंगे ।
जो इन्हीं पोस्टरों के पीछे से कहेंगे
कि
चाहे किसी के पास कुछ हो
या ना हो
भले ही किसी के घर में
आग लगे-चोरी हो
चाहे दिल्ली में कोई
सुरक्षित हो या ना हो
चाहे कहीं पर भी लोग मरें, ब्लास्ट हो
पर सभी को
हमारी तरफ़ से
'दिवाली मुबारक हो ।'


(पुन: प्रकाशित )

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

करण जौहर के लिए.......बधाई संदेश

अब तो बहुत खुश होगे तुम

बहुत अच्छा लग रहा होगा न तुम्हे

राज ठाकरे के आगे नतमस्तक होके ,

हंसल मेहता की तरह अपमानित नहीं होना पड़ा न तुम्हे?

कालिख नहीं पुतवानी पड़ी न अपने मुँह पर?

बधाई हो।


तुम्हे डर सता रहा होगा न?

डर होगा

कहीं जो हंसल मेहता के साथ हुआ

वही तुम्हारे साथ भी न हो जाए।


'दिल पे मत ले यार' की सीख देने वाले

हंसल मेहता तो पागल थे या कहें बेवकूफ थे

माफ़ी मांगने में आनाकानी जो कर रहे थे

भूल गए थे की................'मुंबई किसकी है?'

पर बधाई हो तुमने याद रखा।


सचमुच कितने बेवकूफ थे हंसल मेहता

मुँह पर कालिख पुतवा कर

सार्वजनिक रूप से अपमानित होकर

पिट-कर

अस्तित्व(जीवन) संकट होने पर

उन्होंने माफ़ी मांगी।

सचमुच आज के समय में कितने बेवकूफ लगते है वो।


लेकिन तुम कितने समझदार,

कितने प्रोफेशनल हो न ?

सीधे माफ़ी ही मांग ली ..........और

'सिड' को जगाने के

लिए खुद आँखे 'मूंद' ली

बधाई हो।

बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

बी.आर.टी से बेहतर तो यही होगा की आप लोगों को सहूलियत दें ताकि लोग ख़ुद अपना निजी वाहन छोड़कर पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सफर करें ...जैसी मेट्रो ने दी है.

खबर आई है कि शास्त्री पार्क से करावल नगर के बीच बी।आर।टी कोरिडोर का निर्माण किया जायेगा। बी.आर.टी कोरिडोर के सिलसिले में पहले ही अपनी फजीहत करवा चुकी शीला सरकार और बी.आर।टी के पहले और दूसरे चरण से भी सीख न लेते हुए सरकार का यह फैसला हमारी समझ से बाहर है. समझ नहीं आता कि कॉमन वेल्थ गेम्स कि हड़बड़ी में ये फैसले लिए जा रहे है या किसी खास तबके को इसका लाभ देने के लिए या फिर सिर्फ अपनी झोली भरने के लिए चूँकि हमें अभी तक भी इसका कोई फायदा नज़र आता नहीं दिख रहा है ये अच्छी बात है कि सरकार वाहनों को लेन में चलाना चाहती है पर ये बात समझ में नहीं आती कि ६०-७० फीट कि सड़क में वो कितनी लेन बना पायेगी क्या ये बात किसी भी लिहाज़ से ठीक मानी जा सकती है कि एक लेन पर तो जाम लगा हो और दूसरी लेने खाली हों? हम अभी भी ये नहीं कह रहे है कि सरकार कि सोच गलत है या बेमानी है लेकिन हाँ इतना कहने में भी संकोच नहीं किया जा सकता कि सरकार ये सभी फैसले हड़बड़ी में ले रही है वरना यदि वो वाकई इस 'ट्रेफिक जेम' कि समस्या से निजात पाना चाहती है तो इसके और भी कई सस्ते और टिकाऊ उपाय है कम से कम जितना पैसा कोरिडोर बनाने में सरकार खर्च करेगी उससे कम में इस समस्या से निजात पाई जा सकती है पिछले सालो में अपने काफी गलत फैसलों के बावजूद भी अगर ये सरकार दोबारा जनता का विश्वास जीतने में सफल रही तो इसमें उसके गलत फैसलों के साथ साथ कई सही फैसले भी शामिल थे इनमे से एक तो यही कि इस सरकार ने दिल्ली को सस्ते में ए।सी बसों कि सेवा मुहैया करवाई मुझे लगता है कि दिल्ली सरकार का जोर कोरिडोर बनाने कि जगह यदि ट्रेफिक को कम करने पर, दिल्ली में आये दिन बढ़ रहे निजी वाहनों कि संख्या में कमी करने पर यदि ज़्यादा हो तो इस तरह के विवादित कोरिडोर कि ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी संभवत इसी के लिए सरकार ने पहले कारपूल काम्पेग्न चलाया था जो पूरी तरह असफल रहा ज़ाहिरन तौर पर हर आदमी निजी वाहन चाहता है हालांकि उसे इस बात से कोई मतलब नहीं कि इससे क्या समस्या पैदा होती है या उसे क्या नुक्सान होता है।
जबसे मेट्रो शुरू हुई है तबसे एक बात और साफ़ हुई है कि यहाँ ऐसे लोगो कि कमी भी नहीं है जिनका मानना है कि यदि उन्हें पब्लिक ट्रासपोर्ट में सहूलियत मिले तो वो अपनी कारें पार्किंग में खड़ी करने में बिलकुल भी नहीं सकुचाएंगे। इससे तो इस समस्या का एक ही हल हमारी नज़रों में दीखता है कि जितना पैसा सरकार बी.आर.टी पर लगाने को तैयार है उसमे से कुछ हिस्सा सिर्फ मेट्रो जैसे प्रोजेक्ट या फ़िर ए.सी बसिज़ पर अगर लगाये और दिल्ली वासियों को सुविधा दे तो वो खुद ही अपनी-अपनी कारें अपने घर पर छोड़ कर आये लेकिन शर्त यही कि सहूलियत पूरी तरह मिले जिस तरह से मेट्रो ने अमीर और गरीब को कार और बसों से निकाल एक लाइन में खडा कर दिया है. लड़कियों को बाहर निकलने कि आज़ादी या सुविधा दी है ट्रेफिक पर बोझ कम किया है उसके बरक्स बी.आर.टी तो इसका हल किसी भी हिसाब से हमें नहीं लगता और शास्त्री पार्क और करावल नगर के बीच तो बिलकुल नहीं जिन्हें २ या ३ पुस्ते जोड़ते है वहाँ आप किस हिसाब से कोरिडोर बनवायेंगे। समझ से परे है ......

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

वर्तिका नंदा की कविता

आंखों के छोर से

पता भी नहीं चलता

कब आंसू टपक आता है और तुम कहते हो

मैं सपने देखूं।

तुम देख आए तारे ज़मी पे

तो तुम्हें लगा कि सपने

यूं ही संगीत की थिरकनों के साथ उग आते हैं।

नहीं, ऐसे नहीं उगते सपने।

मैं औरत हूँ।

अकेली हूं।

पत्रकार हूं।

मैं दुनिया भर के सामने फौलादी हो सकती हूं

पर अपने कमरे के शीशे के सामने

मेरा जो सच है,वह सिर्फ मुझे ही दिखता है

और उसी सच में, सच कहूं,सपने कहीं नहीं होते।

तुमसे बरसों मैनें यही मांगा था

मुझे औरत बनाना, आंसू नहीं

तब मैं कहां जानती थी दोनों एक ही हैं।

बस, अब मुझे मत कहो कि मैं देखूं सपने

मैं अकेली ही ठीक हूं

अधूरी, हवा सी भटकती।

पर तुम यह सब नहीं समझोगे

समझ भी नहीं सकते

क्योंकि तुम औरत नहीं हो

तुमने औरत के गर्म

आंसू की छलक

अपनी हथेली पर रखी ही कहां?


अब रहने दो

रहने दो कुछ भी कहना

बस मुझे खुद में छलकने दो और अधूरा ही रहने दो।

(वर्तिका नंदा की अनुमति से प्रकाशित....)

मंगलवार, 29 सितंबर 2009

अहमद फ़राज़ की बेहतरीन ग़ज़ल

ज़िन्दगी तेरी अता है तो ये जानेवाला
तेरी बख़्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जायेगा

आँख से दूर न हो दिल से उतर जायेगा

वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जायेगा


इतना मानूस न हो ख़िल्वत-ए-ग़म से अपनी

तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जायेगा


तुम सर-ए-राह-ए-वफ़ा देखते रह जाओगे

और वो बाम-ए-रफ़ाक़त से उतर जायेगा


ज़िन्दगी तेरी अता है तो ये जानेवाला

तेरी बख़्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जायेगा


डूबते डूबते कश्ती तो ओछाला दे दूँ

मैं नहीं कोई तो साहिल पे उतर जायेगा


ज़ब्त लाज़िम है मगर दुख है क़यामत का "फ़राज़"

ज़ालिम अब के भी न रोयेगा तो मर जायेगा

मंगलवार, 22 सितंबर 2009

'जब कुछ नही है तो सत्य केवल मानवीय सम्बन्ध है' - विश्वनाथ त्रिपाठी

विश्वनाथ ञिपाठी को सुनना मुझे इसलिए भी अच्छा लगता है क्योंकि वो अभी भी हिन्दी के उन आलोचकों में शामिल हैं जो बात-बात पर फतवा देते नहीं चलते और जो उस गुरु-शिष्य परंपरा का हिस्सा है जो मानती है कि गंगाजल से अधिक पविञ अगर कुछ है तो वो है श्रमजल।


आख़िर मैं ये बातें क्यों कर रहा हूँ दरअसल हिंदी अकादमी (जो पिछले दिनों .........क्यों चर्चा में थी क्या ये बताने की ज़रूरत है) ने कबीर पर विश्वनाथ ञिपाठी का एक व्याख्यान आयोजित किया था जहाँ ञिपाठी जी ने कबीर और उनकी कविता के बारे में बहुत कुछ कहा हालाँकि मुझे बार-बार लगा कि वे उतना कुछ नहीं कह सके जितना हम लोग सुनने और वो बोलने आए थे इसकी क्या वजह रही मुझे नहीं मालूम।

बहरहाल जितना भी कहा वो काफी कुछ हटके था जैसाकि मैंने पहले भी कहा कि मुझे उन्हें सुनना इसलिये पसंद है कि वो बात-बात पर फतवे नहीं दिया करते जो इन दिनों का चलन बन गया है जिस तरह राजनीति ने साहित्य में अपनी पैठ बनायी है(व्यक्तिगत रूप से मैं इसे बुरा नहीं मानता) उसी तरह राजनीति के ही एक बहुत अहम फार्मूले(संभवत फतवों की प्रथा वहीं से चली मालूम होती है) ने साहित्य में अपनी जगह पा ली है। व्याख्याता इससे जल्दी पॉपुलर हो जाता है ना?
खैर मै उनके व्याख्यान पर आता हूँ ञिपाठी जी ने कबीर पर बात करते हुए कहा कि हर बड़े रचनाकार का द्वन्द्व होता है जिस प्रकार तुलसीदास के यहाँ रामराज्य और कलयुग के मध्य द्वन्द्व दिखता है उसी तरह कबीर के यहाँ भी काल और अकाल के बीच यह द्वन्द्व दिखता है। क्या कारण है कि कबीर की अधिकांश कविताएँ मृत्यु याकि काल पर लिखी गई है? उन्होंने तो यहाँ तक कहा कि मुझे जितना कबीर में मृत्युबोध(शायद यही शब्द इस्तेमाल किया था) दिखाई देता है हिन्दी के किसी और कवि में उतना नहीं।

अब तक के अधिकतर विचारक भक्ति-आंदोलन को नवजागरण या लोकजागरण से जोड़ते आए थे लेकिन ञिपाठी जी उसे स्वतंञता आंदोलन से जोड़ते है वे गाँधी-जुलाहा-कबीर का सहसंबंध बनाते है जो काफी हद तक मुझे एक नई बात लगी उनका कहना है याकि मानना है कि गाँधी यूँ तो तुलसी का अनुसरण करते है और उनके रामराज्य को भारत मे स्थापित करना चाहते है लेकिन स्वतंञता की लड़ाई लड़ते है कबीर के चरखे से , जो उस दौरान सम्पूर्ण स्वदेशी और असहयोग का ताक़तवर हथियार था। इसी संदर्भ में वे आगे कहते है कि लोकजागरण निसंतान नहीं होते उनकी संताने होतीं हैं ज़ाहिर है लोकजागरण अपनी मशाल आने वाली पीढ़ी को सौंपते चलते है अब ये काम उस पीढ़ी का है कि वह उसे कहाँ तक ले जाती है।
कबीर में हमें प्रश्नवाचकता ज़्यादा दिखती है उनके यहाँ उत्तर बहुत कम हैं। ज़ाहिर है प्रश्न वहीं होंगे जहाँ कौतूहल होगा, जानने की इच्छा होगी, अपने सवालों के जवाब ना मिलने की बैचेनी होगी । कबीर के यहाँ ये सब है इसलिये वो सवाल अधिक करते है और जवाब जानने के लिए लोक की तरफ देखते हैं। कबीर अपने दोहो, सबद,रमैनी में सत्य पर बल देते है मानवीय संबंधों पर बल देते हैं इसलिये उनका कहना है कि 'जब कुछ नही है तो सत्य केवल मानवीय सम्बन्ध है'

हालाँकि उनकी एक बात से मैं अब तक सहमत नहीं हो पाया हूँ एक जगह उन्होंने कहा कि जहाँ प्रेम होगा वहाँ डर नहीं होगा । जबकि मुझे लगता है कि डर तो वही होता है जहां प्यार होता है लगाव होता है। हमारे घरवालों को हमारी चिंता लगी रहती है। समय से घर ना पहुँचो तो फोन पर फोन मिलाने लग जाते है इसिलिये ना कि वो हमसे प्रेम करते है नहीं तो उन्हें क्या? खैर हो सकता है उनका संदर्भ कुछ और रहा हो पर प्रेम हममे चिंता, शक़-शुबहा, और डर सभी कुछ अपने आप ले आता है ये किसी प्लानिंग के तहत नहीं होता। यह अपने आप होता है जैसे प्रेम अपने आप होता है।

रविवार, 20 सितंबर 2009

बद्रीनारायण की कविता

प्रेमपत्र

प्रेत आएगा
किताब से निकाल ले जायेगा प्रेमपत्र
गिद्ध उसे पहाड़ पर नोच-नोच खायेगा

चोर आयेगा तो प्रेमपत्र ही चुराएगा
जुआरी प्रेमपत्र ही दांव लगाएगा
ऋषि आयेंगे तो दान में मांगेंगे प्रेमपत्र

बारिश आयेगी तो प्रेमपत्र ही गलाएगी
आग आयेगी तो जलाएगी प्रेमपत्र
बंदिशें प्रेमपत्र ही लगाई जाएँगी

सांप आएगा तो डसेगा प्रेमपत्र
झींगुर आयेंगे तो चाटेंगे प्रेमपत्र
कीड़े प्रेमपत्र ही काटेंगे

प्रलय के दिनों में सप्तर्षि मछली और मनु
सब वेद बचायेंगे
कोई नहीं बचायेगा प्रेमपत्र

कोई रोम बचायेगा कोई मदीना
कोई चांदी बचायेगा कोई सोना

मै निपट अकेला कैसे बचाऊंगा तुम्हारा प्रेमपत्र

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

यह उसकी आवाज़ थी

घर में घुसते ही
मैंने अपने कपड़े उतारे
जिसे वह बुद्धिजीवी का
चोगा कहती है।

खाने की मेज़ पर
केवल कुछ किताबें खुली हुई पड़ी थीं
जिन्हें मै पढ़ने से डरता था।

वह चारो तरफ
कहीं नहीं थी
उसके कमरे का दरवाज़ा
भीतर से बंद था।

रसोईघर में जाने की
मेरी हिम्मत नहीं हुई।

मै सोफे पर
टांगें फैला पसर गया
और छत पर
रुका हुआ पंखा देखने लगा।

अचानक मेरी दृष्टि
सोफे के पास मेज़ पर रखे
केसैट टेप रेकार्डर पर पड़ी
जिस पर एक चिट लगी थी
'इसे सुनो।'

मैंने 'की' दबा दी
तरह-तरह की चीखें आने लगीं।
कुछ देर उन्हें सुनते-सुनते
जब मै घबरा गया
तब एक साफ आवाज़
सुनाई दी--
यह उसकी आवाज़ थी :

'यदि तुम कायरो की
ज़िन्दगी जियोगे
तो मै यह घर छोड़कर
चली जाऊँगी।

बुधवार, 9 सितंबर 2009

साही की कविता

प्रार्थना : गुरु कबीरदास के लिए

परम गुरु
दो तो ऐसी विनम्रता दो
कि अंतहीन सहानुभूति की वाणी बोल सकूँ
और यह अंतहीन सहानुभूति
पाखंड न लगे ।

दो तो ऐसा कलेजा दो
कि अपमान, महत्वाकांक्षा और
भूख की गांठों में मरोड़े हुए
उन लोगों का माथा सहला सकूं
और इसका डर न लगे
कि कोई हाथ ही काट खायेगा ।

दो तो
ऐसी निरीहता दो
कि इस दहाड़ते आतंक के बीच
फटकार कर सच बोल सकूँ
और इसकी चिन्ता न हो
कि इस बहुमुखी युद्ध में
मेरे सच का इस्तेमाल
कौन अपने पक्ष में करेगा ।

यह भी न दो
तो इतना ही दो
कि बिना मरे चुप रह सकूँ ।

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

जो अब तक लिखा नही गया था

आज भी मै वहीं बैठा हूँ

जहाँ उस दिन बैठा हुआ था ।

तुम्हारे पास लेकिन तुमसे दूर

वहीं

जहाँ आज भी तुम्हारी देह या उसी जैसा कुछ

रखा हुआ है इसी खाली कुर्सी पर

जिसकी आत्मा पर लोगो ने नोवेल लिख डाले

और मै कुछ न लिख सका ।

क्योंकि तुम मेरे दिल में थी दिमाग में नही,

जबकि लेखन तो दिमाग की उपज बन चुका है न आज ।

उसी कुर्सी पर

आज मै एक अजीब सी बदहवासी

एक अजीब सी खामशी देख रहा हूँ

मेरे दोस्त कहते है मेरा दिमाग चल गया है

क्या अजीब अजीब चीजे (न दिखने वाली) देखता है?

हाँ, उनके लिए ये फीलिंग चीजे ही तो है ,

लेकिन मेरे लिए ये न ख़त्म होने वाला इंतज़ार है ।

बुधवार, 2 सितंबर 2009

कुछ उद्धरण और, मलयज की डायरी(भाग-१)से

०४जनवरी,५८
किसी पुस्तक की समीक्षा के क्या मानी होते हैं? क्या पुस्तक-समीक्षक शुरु से ही यह मानकर चलता है कि वह एक ऐसे स्तर पर है जहाँ से वह अपनी मान्यताओं द्वारा संचालित पुस्तक पर निर्णय दे या उस पर विचार करे ?.....मुझे लगता है कि आजकल पुस्तक-समीक्षा के नाम पर प्राय यही होता है यानी समीक्षक अपने को एक उच्च दर्जे पर समझता है। लेकिन मेरे विचार से यह गलत दृष्टिकोण है। पुस्तक-समीक्षा के यह मानी होने चाहिए कि समीक्षक कृतिकार के साथ मिलकर कृति के आंतरिक मूल्य और उन मूल्यों की ओर इंगित करने वाली दिशा का अध्ययन करे। इस तरह से रचना के विकास की संभावनाओं पे ठोस रूप से विचार किया जा सकता है।.......


०२मार्च,५७
काव्य व्यक्तित्व तीन प्रकार के होते हैं।
पहला वह जो बदलते युग के मानव-मूल्यों से अपने विकास की संगति बिठा लेता है। उसमे सतत जागरूकता की एक सहज शक्ति होती है जो उसे रूढ़ होने नहीं देती, उसमे आगे और आगे विकसित होने के लिए विस्फोट होते हैं। दूसरे वह जो सम्पूर्ण रूप में अपने को आगे ले चलने में अशक्य होते हैं। वो उन विकसित मूल्यों, संदर्भो के प्रति जागरूक होते हुए भी,उसे अस्वीकार न करते हुए भी, उसे अपना निजीपन-अपना अतीत-दान नहीं कर पाते। तीसरे वे होते हैं जो अपने समय के आगे कभी नहीं बढ़ते, रुद्ध होते हैं और आजीवन उसे ही गौरवांवित करते रहते हैं।(किसी भी काल में एकाध ही में तीनों प्रकार के व्यक्तित्व मिलते हैं।)


१८मई,५७
मुझे लगता है कि आज के ईमानदार लेखक का लेखन-कार्य बहुत कुछ एक परवशता , एक कम्पलसन की स्थिति में हो रहा है। प्राचीन काल के लेखकों कि तरह लेखन के प्रति पूर्ण रूप से आत्यांतिक वह नहीं बन सकता। उसकी रचना प्रक्रिया में ही जैसे अन्तर्विरोध, प्रेशर और लाचारी के तत्व सम्मिलित हैं जो सिर्फ उसे बीती पीढ़ी के लेखकों से अलग करते हैं। वरन् उसके सामने कला की अभिव्यक्ति का एक विराट प्रदेश भी खोलते हैं।.........


१८अक्टूबर,५९
कविता पढ़ो तो कवि की हैसियत से नहीं, एक साधारण पाठक की तरह, यानी न आलोचक की तरह न कवि की तरह।कविता लिखो, लेकिन कवि की तरह नहीं। कविता बस आदमी की भाषा हो और कुछ नहीं। इससे ज्यादा की कोशिश कविता में आदमी को कवि बना देती है और कविता को जीवनहीन।......

१९अगस्त,६०
कल नामवर जी से बात करते-करते हफ्तों पहले कही उनकी एक बात याद आती है(शमशेर जी से) मैं कवि को केवल अपना हृदय दे सकता हूँ, अपनी सहानुभूति नहीं। नोट, बाद में विचार करने पर --यह दृष्टिकोण एक इन्टेग्रेटेड पर्सनेलेटी वाला व्यक्ति ही रख सकता है।

शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

एक डायरी जो सही मायनो में आलोचना या समीक्षा है ।

मलयज को शायद उन गिने-चुने लोगों में शुमार होने का गौरव प्राप्त होना चाहिए , जिन्होंने अपनी डायरी को अपनी निजी समस्याएँ ना बताकर उसे सामाजिक और सांस्कृतिक सरोकारो से जोड़ा ।
जिसे आज एक उपलब्धि माना जाना चाहिए । मलयज ने अपने डायरी लेखन की शुरुआत सोलह वर्ष(१९५७ ई.) की उम्र में की और इस सिलसिले को सन् १९८२ की अप्रैल तक(जब तक उनकी साँस चलती रही) जारी रखा। यह डायरी भी अधिकतर डायरियों की तरह नियमित नहीं है क्योंकि हम पहले ही कह चुके हैं कि यह निजी ना होकर सामाजिक और सांस्कृतिक अधिक है । जो काम मुक्तिबोध की , 'एक साहित्यिक की डायरी करती है'( यानि अपना पक्ष और विपक्ष रखने का और अपने समय के लेखकों से ये कहने का कि 'तय करो किस ओर हो तुम') बिलकुल वही काम तो मलयज की डायरी नहीं करती लेकिन हाँ कुछ-कुछ वैसा ही काम यह करती दिखती है यदि हम १९५७-१९८२ तक की डायरी को पढ़ जाए तो हम देखेंगे कि जिस आवाज़ को मुक्तिबोध एक छोटी किन्तु महत्वपूर्ण पुस्तक में बुलंद करते हैं लगभग उसी के समानांतर मलयज उसी आवाज़ को अपने समय की गोष्टियों( खासकर परिमल की) मे ज़ाहिर करते, उन पर अपना पक्ष-विपक्ष और अपने समकालीन अग्रजों से सहमति-असहमति को व्यक्त करतें दिखते हैं । मुक्तिबोध को अपने काम का पूरा हक़ मिला है(मरणोपरांत ही सही) , मिलना भी चाहिये । किन्तु क्या मलयज को ...............।खैर ,
साठ-सत्तर का दौर, ऐसा दौर था जब अधिकतर लेखक डायरियाँ लिखा करते थे। आज कितने लेखक लिखते है नही पता संभवत् उनके सामने ऑनलाइन मैगज़ीन और ब्ल़ॉग जैसे विकल्प है शायद इसलिये । खैर हमारा मक़सद किसी लेखक की उपेक्षितता पर स्यापा करना नहीं । हमारा सिर्फ ये कहना है कि कम से कम एक बार, सरसरी नजर से ही सही इस डायरी को पढ़ा जाए । आपको इसमें परिमल के ज़माने की बहस के मूल बिन्दुओं जैसे लघुमानव , लेखक और राज्य आदि पर एक अलग सोच मिलेगी जो हमारे समकालीनों में हमें कम दिखाई देती है । प्रस्तुत हैं मलयज की डायरी, भाग-१ से कुछ उद्धरण----- (१६ दिसंबर,१९५७) 'रचना की प्रक्रिया में यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि हम उस अनुभूति को उसकी तीख़ी सच्चाई के साथ उसे जीते हुए , उससे जूझते हुए , उससे आँखें मिलाते हुए उसे अभिव्यक्ति देते हैं या नहीं या उसकी स्वीकृति देते है या नहीं क्योंकि तब इसमे मन के और जीवन के तथा प्रकारांतर से समाज में अनेक गुह्य अग्यात स्तरों का उद्घाटन होता चलता है और निश्चय ही उसमें हमारा भी एक अंश होता है । उस अंश की श्रेष्टता और व्यापकता रचनाकार की भी श्रेष्टता और व्यापकता है ।'
(धर्मवीर) भारती ने कहा- 'कविता करते समय टी .एस.इलियट ,भामह ,आई.ए.रिचर्ड आदि हमारे काम नहीं आते -हम जो उन्हें पढ़ें , उनसे प्रभावित भी हों किन्तु कविता मुझे करनी है और इसमे यानि काव्य सृजन के स्तर पर-ये सब हमारे काम नही आते ।' मैं इससे सहमत नहीं हूँ - 'भारती का आशय मोटे तौर पर यह था कि काव्य सृजन के क्षण में बाह्य प्रभावों का कोई उपयोग नहीं ।' लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता । बाह्य या इलियट, भामह ,आई.ए.रिचर्डस आदि काव्य सृजन के क्षण में न सिर्फ सहायक होते है वरन् काव्यसृजन की धारा को मो़ड़ते भी हैं । (मलयज की डायरी भाग-१ पृष्ठ-३४८, संपा.नामवर सिंह )
(जारी)

भ्रूण की आवाज़

मैंने कब कहा
मुझे तुम प्यार करो ।

मैंने कब कहा
मेरा ध्यान रखो ।

बस

मुझे पेट में न मारा करो ।
(पुन:प्रकाशित )

बहुत देर कर दी सनम कहते-कहते

जब मैंने कहा
मुझे तुमसे प्यार है
तुमने कुछ नही कहा
बस
तुम हँस दीं ।

जब मैंने कहा
मैं तुम्हें चाहता हूँ बेपनाह
तुमने कुछ नही कहा
बस,अपनी उँगलियाँ मेरे होंठो पे रख दीं ।

जब मैंने कहा
चलो आज फिल्म देखने चलते हैं
तुमने कुछ नही कहा
तुम मुस्कुराईं और क्लास लेने चलीं गईं ।

जब मैंने कहा
शाम मस्तानी है पार्क में चलें क्या ?
तुमने तब भी कुछ नही कहा
मेरा हाथ थामा और चल दीं ।

जब मैंने कहा
शादी करोगी मुझसे
तुमने कहा- पागल हो गए हो क्या ?
आज के बाद हम कभी नही मिलेंगे ।
(पुन:प्रकाशित )

बुधवार, 26 अगस्त 2009

बरसात की एक शाम

इस मौसम की सबसे जोरदार बरसात
अबके नहीं आई मुझे तुम्हारी याद ......क्यों?
क्या इसलिए
कि मै
अब तक
अपने घर के निचले तल से
पानी निकालने में व्यस्त था
या फिर अब तक
घर न लौटे भाई की
चिंता सता रही थी मुझे
या फिर इन सबसे अलग
मैंने पहली बार सोचा
कि मै तुम्हे क्यों याद करता हूँ
जबकि
प्यार की ग़लतफहमी भर है मुझे

गुरुवार, 20 अगस्त 2009

उसके मरते ही,,,,,

उसके मरते ही
अचानक ही
सब कुछ पीला हो गया
चेहरे का रंग.......
फैक्ट्री में रखा माल
घर में बनी दाल
घरवालों का हाल
और जो कुछ पीला ना हो सका
वह था
उसकी आँखों का रंग
जिनमें अब तक भी
इस दकियानूसी समाज के लिए क्रोध था
जिसका विरोध करने के कारण ही उसकी जान ली गई ।

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

हमें पेड़ों की पोशाकों से इतनी सी ख़बर तो मिल ही जाती है

'ग़ुलज़ार' की कविता
हमें पेड़ों की पोशाकों से इतनी सी ख़बर तो मिल ही जाती है
बदलने वाला है मौसम ...................
नय आवाज़े कानों में लटकते देखकर कोयल ख़बर देती है
बारी आम की आई......... ।
कि बस अब मौसम-ऐ-गर्मा शुरु होगा
सभी पत्ते गिरा के ग़ुल मोहर जब नंगा हो जाता है गर्मी में
तो ज़र्द-ओ-सुर्ख़, सबज़े पर छपी , पोशाक की तैयारी करता है
पता चलता है कि बादल की आमद है।
पहाड़ों से पिघलती बर्फ बहती है धुलाने पैर 'पाईन' के
हवाएँ छाड़ के पत्ते उन्हें चमकाने लगती है
मगर जब रेंगने लगती है इंसानों की बस्ती
हरी पगडंडियों के पाँव जब बाहर निकलते हैं
समझ जाते हैं सारे पेड़ , अब कटने की बारी आ रही है
यही बस आख़िरी मौसम है जीने का इसे जी लो ।
( वागर्थ , अगस्त०९ , अंक १६९ से उद्धृत )

मुझे ये कविता बहुत अच्छी लगी । (क्यों लगी इसका ज़िक्र आगे की पोस्ट में करुँगा ) आप भी इसे पढ़ें और कैसी लगी अपनी प्रतिक्रिया दें ।

बुधवार, 12 अगस्त 2009

'प्यार' का मतलब

'प्यार' जैसे शब्द
'प्यार' जैसा शब्द
'प्यार' याकि शब्द
क्या प्यार सिर्फ़ शब्द भर है ?
शायद
आप कहें
नही
यकीनन____आप कहेंगे नही ।
लेकिन
प्यार एक शब्द ही तो है
क्योंकि शब्द ब्रह्म है ।
शब्द 'नाद' है
'नाद' बिन्दु वाला नहीं
आवाज़ वाला

हाँ !
प्यार शब्द है ---आवाज़ है ।

अब्राहम लिंकन की टोन में कहूं तो ---
दिल की , दिल द्वारा , दिल के लिए
विश्वास की ,विश्वास के लिए ,विश्वास के साथ

पुकार है ये

इसलिए ---
'प्यार' शब्द है मेरे लिए ।
(पुन: प्रकाशित )

शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

कुछ छूट गया ..........

आज फिर तुम कैंटीन में दिखीं
मगर आज तुम्हारे चेहरे पर
वो लब्बोलुबाब न था
जो कभी रहा करता था
मैं भी वहीं था
उस वक़्त
किसी कोने से तुम्हें तक़ता
मेरी आँखें
तुम्हारी हथेली पर रखे
तुम्हारे चेहरे को देख रही थी
और तुम
अपने सामने की खाली कुर्सी को
मानो
तुम्हें किसी का इंतज़ार हो ..........
कोई आने वाला हो
तुम्हारा बेहद क़रीबी
पर
तुम इतनी ख़ामोश क्यों हो ?
तुम तो ऐसी ना थी
मैं तुम्हारे साथ बैठना चाहता हूँ
मुझसे कुछ बात करो ना .........प्लीज़
ना जाने कितने प्रश्न
कितनी इच्छाएँ
यक-ब-यक
कर डाली मैंने
मगर तुम
चुप बिल्कुल चुप
ख़ामोश
सामने की खाली कुर्सी को देखती
मन में ख़याल आया
याकि इच्छा हुई
या इस एक पल के लिए
मेरे जीवन का लक्ष्य
काश मैं वो कुर्सी होता ........................
.......................
.......................अरे
क्या हुआ
तुम जाने क्यों लगीं
और तुम्हारी आँखों में ये गीलापन
मैं खिड़की के काँच से
तुम्हारे बालों और दुपट्टे को लहरते देखता रहा देर तक
मानो वो भी
.........अनमने से
लहरने को मजबूर हों
मैं अभी भी वहीं बैठा हूँ
अकेला
तुम बिन
उस खाली कुर्सी को निहारता
जहाँ अभी भी तुम्हारी खामोशी
तुम्हारा इंतज़ार
ऊँघ रहा है
टेबल पर
अपनी कोहनी टिकाए
हथेली को ठोड़ी से लगाए ।

गुरुवार, 30 जुलाई 2009

तुम्हें क्या लगा...

तुम्हे क्चा लगा
मैं तुम्हे भूल जाउँगा
नहीं
ये मेरे बस में नहीं
होता
तो कोशिश ज़रूर करता
लेकिन
तुम मुझे याद हो
मेरी सबसे फेवरेट किताब के
उस पन्ने की तरह
जिसे मैंने ही
याद रखने के लिये
किनारे से
थोड़ा सा
मोड़ा था
और मोड़ा भी ऐसा पुख्ता
कि
मैं
खुद भी
इसे दोबारा खोल नहीं पाया हूँ
अब तक
सच कहूँ
तो मैं ...............
तो मैं ...............
चलो छोड़ो
फिर कभी............ । ।

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

रंग दे बसंती से आगे ....

प्रसून जोशी के लिखे गीत खून चला.....खून चला ( रंग दे बसंती ) ने हमारे दिल में उस जज़्बे को दोबारा जगाया था जो शायद 'जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कुर्बानी' के बाद कहीं खो सा गया था 'रंग दे बसंती' देखने के बाद हम ( मै ओर मेरे दोस्त ) काफी देर तक कुछ नही बोल पाए थे नौशाद तो जैसे ख़ामोश ही हो गया था उस दिन मुझे यक़ीन हुआ कि हम वाकई बहुत इमोशनल है । जिसे आज एक घटिया टर्म के रूप में यूज़ किया जा रहा है । रात को सोते वक़्त सपने में भी फ्लाइट लेफ्टिनेंट अजय राठौर की माँ और उसके दोस्त इंडिया गेट के सामने सत्ता के ठेकेदारो के हाथों दबाये जा रहे थे खून से लथपत लोगो का जुलूस दिखाई दिया था उस दिन सपने में । और कानो में 'बदन से लिपटकर ....खून चला खून चला ...' उनका यह गीत तब भी गूँज रहा था यह क्या था । क्या यह मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में की कसक थी जिसे वास्तविकता के बहुत करीब होने पर भी फैंटेसी कहा गया ? क्या हम इस गीत को किसी खेमे में बांधने की जुर्रत कर सकते हैं । उस वक़्त लगा कि प्रसून ही इस तरह के गीत लिख सकते है जिनमे उन्मुक्तता की उड़ान हो .। कुछ कर गुज़रने की चाहत हो । लेकिन जिस टोन में मस्सकली...मटककली लिखा गया है वह वाकई काबिलेगौर है । बेशक यह गाना किसी कबूतर पर बेस्ड हो पर इसमे उसी आज़ादी का संकेत हमें मिलता है । जो खून चला.... में हमें मिला था । दोनों गानों के गीतकार-संगीतकार सेम है । अंतर है तो सिर्फ इस बात का कि 'रंग दे बसंती' वाले गाने में जहाँ सुनने वाला अपने दिल में एक हूक का अनुभव करता है और तसल्ली से फिल्म के कंटेंट को समझते हुए गाने के बोलो पर और उसके पिक्चराइज़ेशन पर ध्यान देता है । वही मसकली...मटकली में झूमने का दिल करता है । उड़ियो ना डरियो ..कर मनमानी मनमा..नी म......नी । जी करता है डीजे पर यही गाना बजे और हम इस गाने के स्टैप्स को अपने पर आज़माये । इसी फिल्म में रेखा भारद्वाज का गाया एक विवादस्पद गीत भी है । जो बेसीकली एक फॉकसोंग है जिसे रहमान ने वैसा ही संगीत भी दिया है । चर्चा है कि यह रायपुर की जोशी बहनो ने लोकगीत के रूप में पहले-पहल गाया था । प्रसून जी ने इस गाने को इतनी महत्ता दिलाई और इसे पूरे देश में पॉपुलर बनाया इसके लिए उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए। पर क्या इस लोकगीत के रियल राइटर का नाम देने में कोई दिक्कत थी? क्या आपको या मेहरा जी को कोई डर सता रहा था । मै तो रंग दे बसंती देखने के बाद से ही आप दोनो का फैन हो गया हूँ इसलिये यह बर्दाश्त नहीं कर पाता कि आप लोगो पर कोई दूसरो का हक़ मारने का आरोप मढे़। या फ़िर आप पर अन्नू मलिक टाइप ठप्पा लगाए । और फिर जोशी बहनो ने कोई रॉयल्टी थोड़े ही मांगी है वे तो सिर्फ इतना चाहती हैं कि इस गीत के वास्तविक लेखकों का नाम भी आप लोग दे । क्या यह कोई नाजायज़ मांग है ।