महाराष्ट्र में जो कुछ हुआ उसे सबसे ज्यादा शर्मनाक कहना तो बेवकूफी ही होगी क्योंकि हम इससे पहले भी देश की संसद में इस तरह की रिहर्सल देख चुके हैं। और फिर मनसे तो इन कामों के लिये कुख्यात रहा है
जिस भाषा के सवाल की आड़ लेकर ये सब झमेला किया गया है क्या मनसे को इतना भी नहीं पता की भाषा थोपने की नहीं अपनाने की तहज़ीब है। हमारा मानना है उसे ये नहीं पता क्योंकि राजनीति के झीने पर्दे में भाषा थोपने की चीज़ ही मालूम होती है। आज के जनसत्ता में कार्टूनिस्ट इरफान ने बड़ा ही सार्थक कार्टून इन मनसे कार्यकर्ताओ की गतिविधियों और भारतमाता(हिन्दी को मदरटंग कहे जाने को लेकर) की स्थिति पर बनाया है। जिसमें उन्होंने लिखा है कि 'माँ को तो छोड़ देते'।
वर्तमान परिस्थितियों ने जहाँ इतनी सारी चीज़ों में फेरबदल किया है वहीं कहावतो के संदर्भ और अर्थो में भी बदलाव कर दिया है। पहले कहा जाता था प्यार और जंग में सब जायज़ है। पर अब क्योंकि प्यार और जंग राजनीति के पहलू हो गए है सो दर्शाया ये जाता है कि राजनीति में सब जायज़ है फिर क्या भाषा और क्या माता, सबके चिथड़े उधेड़ने से इन्हें कोई गुरेज नहीं हैं। जिन साहब ने आज़मी साहब के मुँह पर भरी विधानसभा में तमाचा जड़ा उनकी शख्सियत उनका व्यक्तित्व कहीं से भी विधायक का नहीं लगता साहब साउथ इंडियन फिल्म के विलेन से कम नहीं लगते। मनसे विधायक राम कदम ने तो सिर्फ आज़मी साहब के मुँह पर तमाचा मारा, मनसे के ही विधायक शिशिर शिंदे तो अपनी विधानसभा से बर्खास्तगी पर यहाँ तक कह गए कि.. 'मेर सामने इंदिरा गाँधी का उदाहरण है। उन्हें भी बहुमत ने संसद से निलंबित कर दिया था लेकिन उन्होंने भारतीयों के दिलों पर राज किया।'
समझ नहीं आता ये लोग चाहत भारतीयों पर राज की रखते है लेकिन बात 'मराठी मानुष' की करते हैं ये सब क्या है कुछ समझ नहीं आता। ये राजनीति के ढ़कोसले अब बर्दाश्त नहीं होते लेकिन इनका किया भी क्या जाए ये आतंकवादी नहीं है लेकिन आतंक से भी बड़े वाद के जन्मदाता है महाराष्ट्र की जनता ने इन्हें जिताया है जब देश की जनता ऐसा फैसला लेगी तो हम किसका मुँह ताकेंगे .....क्योंकि कम से कम आज की स्थिति तो यही है.।
सुना है विधायको के निलंबन के खिलाफ राज ठाकरे विरोध प्रदर्शन की योजना बना रहे है ...... देखिये-देखिये अभी और ड्रामा देखिये.
तुम्हारे बारे में क्या कहूं मै, मेरी तमन्नाओं का सिला है. नहीं मिला जो तो मुझको क्या है, मिलेगा तुमको ये आसरा है.
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- पर चूंकि प्रेम को मैं...(का अन्तिम अंश)
- पर चूँकि प्रेम को मै एक सम्भावना मानता हूँ,....
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- भाषा थोपी नही जाती, अपनाई जाती है क्या ये बताना पड़...
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2 टिप्पणियां:
जिस देश में अपनी भाषा के साथ ऐसा व्यहवार हो ,उसका भविष्य कैसा होगा ये समझा जा सकता है!मुझे हैरानी "मनसे" की गुंडागर्दी पर नहीं बल्कि अन्य सभी की चुप्पी पर होती है !ये चुप्पी देश को ले डूबेगी एक दिन...
रजनीश आपने ठीक कहा की ये चुप्पी देश को ले डूबेगी, लेकिन तब भी मुझे लगता है लोग अपने स्तर पर विरोध कर रहे है और हाँ चुप्पी में एक ग़ज़ब का शोर होता है इसलिए वक़्त-बेवक्त दोनों के लिए धैर्य रखना चाहिए, आपकी टिप्पणी के लिए शुक्रिया..
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