मंगलवार, 24 नवंबर 2009

पर चूंकि प्रेम को मैं...(का अन्तिम अंश)

बाईं ओर मलयज की तस्वीर

वह बहुत दिनों तक नहीं आई। और चूँकि संभावना के अर्थ में मैं तब भी प्रेम कर सकता था अतः मैं उदास रहने लगा। मेरी उदासी एक धूल थी जो उस दरवाज़े की मूठ पर जमती जाती थी। उस मूठ पर मेरी उँगलियों की छाप बनी हुई थी और धूल उस छाप के चारों ओर जमती जाती थी जिससे उँगलियो के निशान दिन-दिन और भी उभरते आते थे उँगलियो की वह छाप मुझमे यह याद ताज़ा करती कि कभी मैंने प्रेम को संभावना समझा था और वह बीच का दरवाज़ा हमेशा के लिये खोल देना चाहा था। जैसे-जैसे दिन बीतते जाते उस संभावना का अंधेरा छाता जाता........

मेरी किताबों पर और क़लम पर और बढ़िया सादे क़ागज़ के कटे हुए दस्तों पर और नोटबुकों पर भी वह अंधेरा जमने लगा। जिस संभावना के आरंभ और पुष्टि के लिये ये सब चीज़े थी वही झूठी पड़ती जाती थी। वह वातावरण ही झूठा पड़ता जा रहा था जिसमें फिसलती हुई चीज़े रुक जाती हैं। पास सरक आती हैं और मोती की तरह एक क्षण में हथेली पर चमचमा उठती हैं।
इसी आलम में एक दिन मैंने पाया कि मेरी स्टडी में वह टेबल लैम्प रखा था। मेरी स्टडी ऊपर छत पर है,....छत के ही एक भाग को ईंट की दीवार खड़ी करके स्टडी के कमरे का रूप दे दिया गया है। उसमें एक खिड़की है...........

मैंने खिड़की खोल दी। उससे आकाश का सिर्फ़ एक छोटा सा टुकड़ा दिखाई पड़ता था। मैंने टुकड़े के मुँह में तारे भरे थे। मैंने हाथ बढ़ाकर स्विच ऑन कर दिया --टेबल लैम्प के हरे टोपे के नीचे रखी हुई किताबें और सादे क़ाग़ज़ प्रकाश की एक गोल परिधी में घिर गए। कमरे की दीवारों पर टोपे से छनता प्रकाश बिखर गया।.........
(समाप्त)

मलयज की डायरी, भाग-२ से साभार