मैंने प्रेम के बारे में बहुत कुछ सुना है। कि वह दो आत्माओं को मिलाता है। कि वह व्यक्ति को ऊँचा उठाता है। उसके जीवन के अँधेरे को दूर कर उसे जीने का सम्बल देता है। मैंने प्रेम से केवल इतना ही चाहा था कि वह मुझे निठल्ला न रहने दे। कि वह मेरे इस दूसरे ीवन वाले मैदान में आए और मैं निठल्ला न रहूँ। अपने नाखून न चबाता रहूँ, उससे झगडूँ, उसे ललकारूं कि वह अपनी ज्वाला प्रगट करे और मुझे जलाए। मैं उससे सिर फुट्टोवल करूं और मेरे शरीर से रक्त की बूँद गिरे। मैं कुछ भी करूँ, अपने सामने, अपनी इन जिग्यासाओं और प्रश्नों के सामने निठल्ला न रहूँ, अकेला न रहूँ.....कोई तो दूजा हो।
किन्तु जब मैंने उस दरवाज़े की मूठ पर हाथ रखा जो इस दूसरे जीवन और पहले जीवन के बीच स्थित है और उस दूसरे जीवन की एक झलक अपनी प्रेमिका को देनी चाही तो वह इस पहले वाले जीवन से भी दूर भागने लगी।
शायद मैंने इस काम के लिए गलत क्षण का चुनाव किया था।........
नहीं, मैं ये मानने को तैयार नहीं कि मेरे जैसा आदमी प्रेम के योग्य नहीं। मैंने प्रेम को एक संभावना के रूप में लिया था बल्कि एक संभावना को मन में पालकर ही मैं प्रेम की ओर बढ़ा था- क्या यह बात यह नहीं सिद्ध करती कि मेरे जैसा व्यक्ति भी प्रेम कर सकता है।
कम से कम उस वक़्त मैंने ऐसा ही समझा था उस वक़्त जब मेरी प्रेमिका मुझसे रूठ कर चली गयी थी। खफा मैं इसलिये कह रहा हूँ कि हालाँकि मैं नहीं जानता था कि अब उसके मन में मेरे लिये क्या है पर चूँकि प्रेम को मैं एक संभावना के रूप में ही लेता रहा था अतः मैं जानता था कि वह मेरे पास फिर आएगी।
वह बहुत दिनों तक नहीं आई ..........
(to be continue)
मलयज की डायरी-२ से उद्धृत
तुम्हारे बारे में क्या कहूं मै, मेरी तमन्नाओं का सिला है. नहीं मिला जो तो मुझको क्या है, मिलेगा तुमको ये आसरा है.
रविवार, 22 नवंबर 2009
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