रविवार, 23 नवंबर 2008

ड़ी.यू (सार्थक अभिव्यक्ति की तलाश)


कुछ दिन पूर्व आर्ट फैकल्टी में गिलानी के भाषण के अवसर पर ए.बी.वी.पी के कार्यकर्ताओं ने अपना विरोध उनके मुँह पर थूक कर जताया । ऐसा करने पर वे बेहद खुश थे उन्हें लगा होगा कि उन्होंने विरोध का क्या नायाब तरीक़ा इख्तियार किया है । जिस पर थूका वो बेचारा तो शर्म से ही मर जाएगा ये बिल्कुल ऐसा ही है जैसा किसी लड़की के द्वारा प्रप्रोज़ल ठुकराने पर उसके मुँह पर अपनी भड़ास के रूप में तेजाब डालना जिसका प्रचलन आजकल बहुतायत है । वास्तव में उन्होंने (ए.बी.वी.पी ) गिलानी के मुँह पर नहीं थूका । उन्होंने थूका है विश्वविद्यालय प्रशासन के ऊपर , जो अपने आपको धृतराष्ट्र की तरह लाचार दिखाने की कोशिश करता है । चाहे अपने आपको विद्यार्थी हितों के समर्थक कहने वाले विचार शून्य ए.बी.वी.पी कार्यकर्ता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में तोड़फोड़ करें या इतिहास विभाग के फर्नीचर पर अपना गुस्सा उतारें लेकिन प्रशासन तो जैसे मूक दर्शक की भाँति सारी डॉक्यूमैंट्री को देखने के लिए बाध्य है । उन्होंने थूका है भारतीय लोकतंञ के ऊपर जहाँ हर किसी को (दिखावे के लिए ही सही )अभिव्यक्ति की स्वतंञता प्राप्त है । दरअसल दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रचलित पार्टियों की मुख्य दिक्कत यही है कि इनमें ग्लैमर और पैसे या पॉवर की तो भरमार है लेकिन जहाँ बहस करने का मसला आता है ये लोग ना-नुकुर करने लगते है । चूँकि इनके पास कोई विचार नहीं होता इसलिये ये थूकने या हाथापाई जैसे निकृष्ट काम करने से भी नहीं हिचकिचाते २ वर्ष पूर्व इसी ए.बी.वी.पी ने विश्वविद्यालय के प्रो. सभरवाल से भी हाथापाई की थी । ये लोग क्यों भूल जाते हैं कि ये स्कूलों से निकल चुकें हैं जहाँ कंडेक्टर के स्टाफ न चलाने पर ये उनकी बसों के शीशे तोड़ दिया करते थे । ये दिल्ली विश्वविद्यालय है जिसकी अपनी साख है उनकी ऐसी हरक़तें सारे विश्व में दिल्ली यूनिवर्सिटी की छवि को धुँधला कर देती हैं ।ये क्यों भूल जाते है कि अगर ये किसी व्यक्ति या विचार से सहमत नहीं तो विरोध करना कोई बुरी बात नहीं लेकिन विरोध जताने का एक सलीका होता है क्या इन्होंने ये नहीं सीखा या गुंडागर्दी से ही विद्यार्थियों में अपनी पैठ बनाने की उन्होंने ठान रक्खी है । इन लोगों को कम से कम इतना तो पता ही होना चाहिये कि थूकने या हाथापाई करने से सामने वाला आपके डर से बोलना नही छोड़ देगा बल्कि वो आपकी ज्यादती के ख़िलाफ और मुखर होगा । आपको विरोध करने का इतना ही शौक है तो खुली बहस कीजिए । हम भी देखें हमारे ये तथाकथित नेता सिर्फ हाथों से ही नही बल्कि बातों से भी अपने विरोधियों को चित करने मे सक्षम हैं । लेकिन उसके लिये चेहरा चमकाने या डोले-शोले बनाने से ज़्यादा पढ़ना ज़रूरी है जिसका इन लोगों मे माद्दा नहीं है इनको तो नेरूलाज़ में मुफ्त की रोटी तोड़ने से ही फुरसत नहीं मिलती । इसलिये इन्हें मुद्दों के नाम पर बांग्लादेशी घुसपैठ दिखाई देती है या फिर राष्ट्रगान व वंदेमातरम को ये अपना मुद्दा बनाते हैं जिनका छाञों के हितो से कोई वास्ता नहीं । इस तरह के मुद्दों के लिए हमारे राष्ट्रीय दल हैं ना । पर गलती इन लोगों की नहीं , गलती है हम विद्यार्थियों की , कि ये सब जानने के बावजूद इन लोगों को जिता देते हैं लानत है हम लोगों पर जो सिर्फ चेहरे पर फिदा होकर या ढोल-नगाड़ों और दारू के लालच मे अपना कीमती वोट ऐसे लोगों को दे देते हैं । यही लोग आगे चलकर राष्ट्रीय दलों के टिकट पर चुनाव लड़ते हैं और विधानसभा या संसद में कुर्सियाँ , चप्पल , लात , घूँसे चलातें हैं । हमें इन्हें जवाब देना होगा लेकिन इनके तरीकों से नहीं अपने तरीकों से । हमें यूनिवर्सिटी में शोर-शराबे से अलग एक बहसनुमा माहौल तैयार करना होगा । जे.एन.यू इसका एक अच्छा उदाहरण कहा जा सकता है।

शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

नई दुनिया की दुनिया

अखबार की दुनिया में नई दुनिया ने २ अक्टूबर को क़दम रखा शुरुआत जितनी शिद्दत से हुई ख़बरों में भी वही शिद्दत अब तक बरकरार है , इसकी खुशी है । पिछले दिनों बाल दिवस के मौके पर नेहरू पर जो रिपोर्ट पेश की गई वो इतनी ज़बरदस्त थी कि इसने कांग्रेस शासन के कार्यकाल में ही नेहरू की उपेक्षा होने के बारे में ना केवल बताया बल्कि इस बात का भी मलाल किया कि जिस अध्ययनशील प्रवृत्ति के नेहरू थे और जिसके लिये सैंक़ड़ों संस्थानों की स्थापना की गई थी वो आज अधर में फँसें हुए हैं । दिल्ली स्थित तीन-मूर्ती भवन की हालत ये है कि यहाँ पिछले ६ महीने से नई किताबें नहीं खरीदी गईं हैं । ये हाल तब है जब सरकार नेहरू विरोधी या कि विपक्ष की नहीं बल्कि कांग्रेस की है । १४ नवंबर नेहरु का जन्मदिन भी है और बाल-दिवस भी । उसी दिन नेहरु की समकालीनता का सवाल उठाया गया जो बिल्कुल वाजिब था । नेहरु ने एक आधुनिक भारत का सपना देखा था और उसे साकार करने की भरसक कोशिश की थी इस बात को मानने में , मुझे नहीं लगता कि किसी को किसी तरह की कोई दिक्कत होगी । हाँ , बाँधों के मामले में और उन्हें आधुनिक भारत के मंदिर कहने के बारे में ज़रुर विवाद उठा लेकिन उस पर भी एक सकारात्मक और सामूहिक बहस की आवश्कता है जोकि अब तक नहीं हो सकी हैं । जिसका एक बड़ा कारण नेहरू पर बहस करने वालों का नेहरू को ना पढ़ना मालूम होता है जिन लोगों ने ( चाहे वो किसी भी विचारधारा में विश्वास रखतें हों ) नेहरू को पढ़ा है वो निश्चित ही उनके और उनके लेखन के क़ायल हए होंगे ऐसा मेरा विश्वास है । एक आदमी जिस पर देश की , परिवार की , भारत की विश्व में साख बनाने की , अपने आप को अमेरीकी पूँजीवाद और रूसी मार्क्सवाद से बचाते हुए एक तीसरी दुनिया बनाने की ज़िम्मेदारी हो । ताज्जुब होता है ये जानकर की वह इतना अधिक पढ़ने-लिखने के लिए समय कैसे निकालता होगा । लेकिन वर्तमान सरकार जिस पर माञ अपने आप को संभालने भर की जिम्मेदारी भी पूरी तरह नहीं है क्या वो नेहरू द्वारा लिखित पुस्तकों का संकलन तक तैयार नहीं करा सकती । क्या वह इतनी बिज़ी है ? क्या उसका इतना लंबा-चौड़ा बिज़निस चल रहा है कि उसे अपने ही विचारों को संभालने का वक़्त नहीं मिल पा रहा ? नई दुनिया ने नेहरू के नाम पर चल रहे इन संस्थानों की (जिनकी वेल्यू आज भी अध्येयताओँ के लिए बनी हुई है जो आज भी अनुसंधान के लिए इसे ख़ासी तवज्जो देते हैं ) अच्छी ख़बर ली है। १९ नवंबर को इंदिरा गाँधी के जन्मदिन वाले दिन भी अखबार ने एकबार फिर अपना दायित्व संभाला।इंदिरा गाँधी के बारे भारत में बहुत अच्छी सोच नहीं है मसलन उन्होंने १८ महीने की इमरजेंसी लगाई , लोकतंञ का गला घोंट दिया । उनका शासनकाल अंधेरे का समय (टाइम ऑफ़ डार्कनेस )था । ऐसी सोच अधिकतर बुद्धिजीवियों की रही है । लेकिन भारत का आम आदमी जो उस समय शायद बुद्दिजीवियों के दायरे से बाहर था इस सोच से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखता था । मेरी कॉलोनी के अधिकतर लोग इंदिरा का समर्थन करतें हैं । वे कहते हैं ....उस औरत में गजब की सक्रियता थी , फैसले लेने की ग़जब की शक्ति ,जो आज बहुत कम लोगों में (शायद नहीं) बची है । मैंने एक बार इसकी पड़ताल करने की कोशिश की थी जिसके लिए मैं अपने पापा के पास पहुँचा था । जब मैंने जानने की कोशिश की थी कि १८ महीने इमरजेंसी और लोकतंञ का गला घोटने वाली इस महिला को कॉलोनी वाले इतना क्यों पसंद करते हैं । इस बारे में बताने के क्रम में ........पापा जैसे ८० के दौर में ही चले गए थे जब वे दंगे मे मरते-मरते बचे थे । तुमने बर्फखाना देखा है ना ,वहाँ कभी सब्जीमंडी हुआ करती थी । यतायात में बहुत दिक्कत आती थी । जब भी उस मंडी को हटाने का फरमान आता , वहाँ के आढ़ती पैसों का बंडल पहुँचा आते सरकारी कर्मचारियों के यहाँ और फर्मान क़ाग़ज़ के टुकड़े में तबदील हो जाता । लेकिन इंदिरा ने ( वो ऐसे बात कर रहे थे जैसे इंदिरा उनके घर की ही किसी महिला का नाम हो ) एक ही रात में वहाँ से सब साफ कर दिया । आज वह जगह आज़ाद मार्किट के पास पुरानी सब्ज़ीमंडी के नाम से जानी जाती है .। लेकिन इससे अपनी कॉलोनी वालों का क्या लेना देना ..मैंने पूछा । सन् ७६ की बात है हम लोग अम्बा बाग़ मे एक झुग्गी में रहते थे । जहाँ आज हिन्दी अकादमी है (पदम नगर )उसके पास ही हमारी झुग्गी हुआ करती थी । उसे तोड़ने का भी फरमान जारी हुआ था लेकिन इंदिरा की आवास योजना ने हमें बेघर नही होने दिया । उन्होंने पुनर्वास कॉलोनी के नाम से नंद-नगरी , मंगोलपुरी , सीमापुरी, जहाँगीर पुरी जैसी न जाने कितनी ही रिसेटेलमेंट कॉलोनियों के ऱूप में लोगों को बसाया । आज हम जिस घर में है ये सब उसी की बदौलत है । मैं अख़बार पढ़ता जा रहा था और मेरे सामने वो सब फ्लैश-बैक की तरह खुलता जा रहा था । नई दुनिया ने यादे ताज़ा की इसके लिए उसका शुक्रिया।

रविवार, 16 नवंबर 2008

राज तुम सभ्य तो हुए नही ............


राज बाबू पिछले दिनों जो हंगामा तुमने बरपाया वो किसी से छिपा नहीं है । इस पर तुम कितना ही राष्ट्रवाद का झंडा ऊँचा करने की कोशिश करो , पर यह कैसी राष्ट्रीयता है जो अन्य. क्षेञ की भावनाओं को नकार कर पनपी है । क्या तुम जिनकी दुहाई देते हो उन महापुऱुषों ( शिवाजी , तिलक , संत नामदेव , ग्यानेश्वर आदि ) की भी इज़्ज़त करना भूल गए हो । भूल गए उनका संदेश । भूल गए किस तरह शिवाजी ने ओरंगजेब( जो कि अन्य लोगो कि सिर्फ मराठियो की नहीं भावनाओं को आहत कर रहा था ) के खिलाफ मोर्चो खोला था जिसमें एक उत्तरभारतीय (हाँ ये नाम तुम्हींने गढ़ा है वरना अब तक तो सभी के लिए भारतीय ही प्रचलित है ) छञसाल बुंदेला ने उनका साथ दिया था । जिससे शिवाजी और छञसाल की वीरता को पूरे भारतवर्ष ने सराहा था । क्या तुम्हे कवि भूषण याद हैं जिन्होने इनकी वीरता के किस्सों को जन-जन तक पहुँचाया था क्या उन पर भी तुम मराठी होने का ठप्पा लगा सकते हो। क्या तुम इतिहास को लात मार देना चाहते हो । तुम तो शक़्ल से पढ़े-लिखे जान पड़ते हो क्या तुम्हे इतिहास की वो घटना याद है जब तिलक ने सभी भारतीयो से अंग्रेजो के खिलाफ एकजुट होने का आह्वान किया था तब सभी भारतीयो ने उनके सुर मे सुर मिलाते हुए एकजुटता दिखाई थी । किसी ने बंगाली , बिहारी या किसी अन्य प्रदेश का स्वयं को नहीं समझा था सभी जानते थे कि सबकी पीड़ा एक है इसलिए समाधान भी एक ही होगा । उन्हे लोकमान्य का की पदवी सिर्फ मराठियो ने ही नही दी । क्या तुम यह भी भूल गए कि मराठी संतो की वाणी सब के साथ रहने का संदेश देती है । अगर तुम सब कुछ भूल गए तो तुम्हे ये याद रखने की भी कोई ज़रूरत नही कि तुमने एक इंसान के रूप में जन्म लिया है क्योंकि तुम इस फेहरिस्त में अकेले नही हो तु्म्हारा साथ देने के लिए हिटलर और मुसोलिनी खड़े हैं । उनका जन्म भी मनुष्य के ऱूप मे हुआ था लेकिन अपने कामो से और अंधी राष्ट्रीयता की भावना ने उन्हें भी मनुष्येतर बना दिया । क्या तुम ये चाहते हो कि इतिहास तुम्हें इसी तरह याद करे क्योंकि तुम तो हिटलर और मुसोलिनी भी नहीं हो उन्होंने तो फिर भी एक पूरे राष्ट्र के बारे में सोचा था और वर्साय की तरह की न जाने कितनी अपमानजनक संधियों का बदला लिया था अपने राष्ट्र के लिए उन्होंने स्वयं की भी बली दे दी थी। वे मारना जानते थे तो मरना भी जानते थे लेकिन तुम्हें तो एक क्षेञ के अलावा कुछ और दिखाई ही नही देता , क्या तुम मरना जानते हो ? तुम ये शायद स्वीकार नही करोगे कि तुम्हारी पार्टी (मनसे) शिवसेना की तर्ज पर अपने अस्तित्व को गढ़ने की आकांशा रखती है । मत करो लेकिन क्या तुम उत्तरभारतीयों के गुस्से का दंश झेल सकते हो जोकि अपना गुस्सा तुम्हारी तरह कुछ करके नहीं बल्कि कुछ ना करके ज़ाहिर करते हैं । तुमने कभी सोचा है कि अगर इन्होंने कुछ करना बंद कर दिया तो तुम्हारी (जिसे तुम सिर्फ अपना मानते हो ) औद्योगिक नगरी-मायानगरी का क्या होगा । जानता हूँ तुम्हें इससे कोई मतलब नहीं क्योंकि तुम भी अपने पिता के ही नक्शे-क़दम पर चल कर महाराष्ट्र में अपना राजनीतिक मुक़ाम हासिल करना चाहते हो । ऐसे मुकाम को हासिल करने की इच्छा रखना कोई ग़लत बात नहीं है लेकिन जो तरीका तुम इस्तेमाल मे ला रहे हो वो बेहद शर्मनाक है । बाहर के मुल्क इन्हीं चीज़ो का फायदा उठाकर मुम्बई मे बम ब्लास्ट करवाते हैं । क्या तुम भूल गए मुम्बई की लोकल ट्रेन में हुए ब्लास्ट को जिसमे उत्तर भारतीयो के मरने की तादात किसी से कम नही थी , कम से कम ऐसी आशा तो मुझे तुमसे नही है । लेकिन तव भी अगर तुम ये सब भूल गए तो सिर्फ इतना याद रखो कि जब कोई अपना घर-परिवार ( बी.वी बच्चे , माँ-बाप ) सब कुछ छोड़कर अपनी जान हथेली पे लिए मुम्बई में चला आता है तो वो तुम्हें कुछ ना कुछ देकर ही जाएगा । ग्लोबल वार्मिंग के बारे में तो सुना होगा या सुनामी का क़हर तो तुम्हारी आँखों देखा है , कभी सोचा है मुम्बई जिसके समंदर पर तुम्हें इतना गर्व है अगर डूब गया तो शरण के लिए कहाँ भटकोगे ? मेरे स्कूल में एक मास्टरजी थे जब भी मेरी क्लास में दंगल होता या आपस मे लड़ाई हो जाती जोकि रोज़-ब-रोज़ होता ही रहता था तो वे कहा करते थे कि लड़ाई इस तरह करो कि दुआ-सलाम में कोई फर्क ना आने पाए , कल जब तुम मिलो एक दूजे से आँख मिला सको । खैर मै जानता हूँ करोगे तो तुम वही जो तुम्हारी मनसे के लिये फायदेमंद होगा लेकिन तबभी मेरी सलाह पर गौर करना ।भगवान तुम्हे सद् बुद्धि दे ।

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

ये लाल रंग कब मुझे छोड़ेगा ..........

रोज़ की तरह आज भी डी.टी.सी देर से मिली , वो भी नई वाली । जी हाँ , वही बस जिस पर विपक्ष ने दिल्ली सरकार को बार-बार घेरा है । हरी वाली बस । इसमे तकनीकी ख़ामियों की चर्चा पहले भी होती रही है लेकिन हर बार कुसूर मशीनरी का ही नही होता , आदमी नाम की मशीन में वास्तविक मशीन से ज़्यादा गड़बड़झाला है । वह क़दम-क़दम पर प्रयोग करता चलता है जैसे चलते-चलते सड़क पर पड़ी खाली बोतल , डब्बो पर लात मारना । सोते हुए कुत्तों पर पत्थर फैंकना या फिर पत्थर की असुविधा होने पर , लात से ही काम लेना । वह यह देखता चलता है कि ऐसा करने से क्या होगा । वैसा करने पर क्या होगा ।
प्रयोग करना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन इसे करते वक़्त दूसरों की सुविधा-असुविधा का ख़याल न रखता ज़रूर ग़लत है । आज बस में भी ऐसा ही कुछ हुआ । बस काफी स्मूथ चल रही थी लेकिन एक सज्जन को अगले गेट पर लगा लाल बटन परेशान कर रहा था । उसने तुरंत ही इस परेशानी को प्रयोग में बदलने के लिए बटन को पुश कर दिया , स्मूथ चल रही बस में ख़ामी आनी लाज़मी थी । ड्राइवर ने जब उससे पूछा कि तूने ये बटन क्यों दबाया तो उसका वही आन्सर था जो अधिकतर लोगो का ग़लती करने पर होता है । उसने कहा मैंने तो ऐसे ही दबा दिया .। देख रहा था क्या होगा । बस रुक गयी थी वो सज्जन उतर गए लेकिन उन साहब की वजह से हमें २० मिनट तक रुकना पड़ा । ड्राइवर ने सब सवारियों को एक ही सुर में कोसना शुरू , खैर इंजन की ख़ामी दूर हुई हम चल पड़े । तभी मेरे बराबर में बैठे लड़के के मोबाइल पर एक गाना बजा । बोल थे ये लाल रंग कब मुझे छोड़ेगा । मेरा ग़म कब तलक मेरा दिल तोड़ेगा ...............। ये गाना हमारी सिचुएशन पर कितना फिट बैठ रहा था । रंग की जगह बटन लगा दो तो भी कोई दिक्कत नही होगी ।

बुधवार, 5 नवंबर 2008

लत

एक युग था राम का
एक युग था कृष्ण का
एक रावण-कंस का
और
एक युग है हमारा
यहाँ सब है सबके पास
पर
नहीं है कोई
किसी के साथ
इसलिए
ये युग तो सबका है
पर
इस युग का कोई नहीं
यहाँ
ये कहना , कि वो मेरे साथ है
स्वयं को धोखा देना है
और
हम अब भी सबको अपने साथ मानते हैं
हमें शराब की,
सिगरेट की,
लड़की की लत नहीं
क्योंकि
हमें धोखा खाने की लत लग गई है ।

सोमवार, 3 नवंबर 2008

जज़्बात

नहीं नहीं , नहीं-नहीं यहाँ कोई नहीं है
खुशबू फूलों में नहीं , रंगे-मेहफ़िल भी नहीं है ।

क्या हुआ वक़्त जो ठहरा हुआ-सा लगता है
पास में सब हैं मगर, साथ में कोई नहीं है ।

क्या करे इश्क़-ए-मजमूँ जो समझ में ना आया (प्यार का मतलब)
क्यों ना कह दूँ कि मुझे इसका तो इरफ़ा नहीं है । (जानकारी)

और बच जाऊँ अब ये कहके मैं उनकी नज़र से
कि किसी और से है प्यार, पर तुमसे...........

सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

दिवाली मुबारक हो





कल दीपावली है

कुछ लोग

पटाखे जलाएंगे

कुछ लोग

दिल ।

एक तबका वो होगा

जिसके बंग्लो और कोठियो पर

लड़ियों की जगमगाहट होगी

कीमती मोमबत्तियाँ और दिये जलेंगे

और एक वो

जहाँ शायद चूल्हा भी ना जले ।


शराब की

सप्लाई के साथ डिमांड भी बढ़ जाएगी

जुआरियों के लिए

जश्न का दिन होगा कल

ना जाने कितनो की दिवाली होगी

और कितनो का दिवाला निकलेगा ।


राजधानी में पुलिस

अपनी जेब गरम करेगी ।


घरों में

लक्ष्मी की पूजा होगी

लेकिन बाहर लक्ष्मी,

लक्ष्मी की आस में

लक्ष्मणरेखा पार कर रही होगी ।


ऐसे ही दिवाली मनेगी

हर साल मनती है

मैं पिछले कई सालों से

यही देखता आया हूँ

'दिवाली मुबारक हो ' के पोस्टर

चौराहों पर चिपके मिलेंगे

जिसमें बेगै़रत नेता

बदसूरत छवि लिए

हाथ जो़ड़े दिखेंगे ।

जो इन्हीं पोस्टरों के पीछे से कहेंगे

कि

चाहे किसी के पास कुछ हो

या ना हो

भले ही किसी के घर में

आग लगे-चोरी हो

चाहे दिल्ली में कोई

सुरक्षित हो या ना हो

चाहे कहीं पर भी लोग मरें-ब्लास्ट हो

पर सभी को

हमारी तरफ़ से

"दिवाली मुबारक हो ।"

(पुन: प्रकाशित )

सोमवार, 20 अक्तूबर 2008

जातीय स्मृति पर संकट

कुछ दिन बाद दिवाली की धूम होगी , ये बात और है कि ये धूम दिवाली पर ही नज़र आएगी । अब त्यौहारों के प्रति कोई क्रेज़ नही रह गया , लगता है । मुझे याद है १५ अगस्त की पतंगबाज़ी मार्च में ही शुरु हो जाया करती थी । होली की शरुआत फाल्गुन में नहीं , बसंत में ही बच्चों के हाथों हो जाया करती थी । हम आठ आने का ढेर सारा रंग लाते थे क्योंकि मम्मी ढ़ाई रुपये की बैंगन वाली पिचकारी नहीं दिलवातीं थीं । दिवाली एक महीने पहले ही परचून की दुकानों पर मामा-चॉकलेट और फूँकवाले बम मिलने शुरु हो जाते थे । हम बच्चे एक रुपये के दस बम लेते और क्लास में धमाचौकड़ी मचाते , पढ़ने का तो जैसे मन ही नही करता था उन दिनों । एक त्यौहार जाता और अगले त्यौहार की तैयारियाँ शुरु हो जातीं । मेरी कॉलोनी के वो बच्चे अब छिछोरों की फेहरिस्त में शामिल हैं खूब धमाल मचाते थे । मुझे याद है जब कॉलोनी की बत्ती चली जाती तो सब बच्चे दुलारी (७० साल की एक बुढिया ) के घर के सामने पहुँच जाते और खूब ज़ोर से हल्ला करते , जानबूझ कर बम उसी के दरवाजे के आगे फोड़ते , क्योंकि वो हमें खेलने नहीं देती थी । ये सीजन हमारे बदला लेने का सीजन हुआ करता था । वो हमारे पीछे छड़ी लेकर दौड़ती और हम उसके पोपले मुँह का मज़ाक़ उड़ाते । लेकिन अब ये सब सोचकर अजीब लगता है । अब ये आलम है कि दिवाली कब है ये भी मुझे पूछना पड़ता है । वो हर त्यौहार का बेसब्री से इंतज़ार करना , वो क़ाग़ज़ का रावण बनाना , कुत्ते की पूँछ में बिजली बम लगाना , अब बड़ा याद आता है । वो सब शरारते , बहुत याद आती हैं । बचपन में जाने को जी चाहता है ।ये मेरी मजबूरी है लेकिन मैं जा नहीं पाता लेकिन जब आज के बच्चों को देखता हूँ तो और दुखी होता हूँ उनमें भी अब वो क्रेज़ नही रह गया है जो पहले हुआ करता था ।दिवाली आएगी और चली जाएगी । जैसे संडे आता है और चला जाता है । त्यौहार हमारी जातीय स्मृति होते हैं और जातीय स्मृति का मरना किसी भी समाज के लिए किसी भी सूरत में सही नही माना जा सकता । ऐसा मेरा मानना है ।

शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

आवाज़

मैंने कब कहा
मुझे तुम प्यार करो ।


मैंने कब कहा
मेरा ध्यान रखो ।


मैंने कब कहा
मुझे दुलारा करो ।



बस


मुझे पेट में न मारा करो ।

कोई होता जिसको अपना.......


जिन लोगों के घर नही होते
वो बाहर जाकर
फुटपाथ पर चलते
निठल्ले घूमते
दिखते.....
उन्हें घर की बदहवासी का
लोगों की नज़रंदाज़ी का
सड़कों की बदइंतज़ामी का
पूरा ख़याल होता है ।

जिन लोगों के घर होते हैं
वो घर के भीतर
डरे-सहमे खिड़कियों से झांकते
दिखते....
उन्हें घर की दीवारों के सूनेपन का
बाहर की
भागती
ज़िन्दगी की घुटन का
पूरा ख़याल होता है ।

पर

जिन लोगों के घर
होकर भी नहीं होते
वो घर में रहकर भी
बाहरी
बाहर जाकर भी
बाहरी
बनकर
दोस्तों के साथ बातें करते
अपनी रातों को दिन बनाते
ब्लॉग लिखते
सोती आँखों को जगाते
बिना खाए सोते
दिखते....
चूँकि वो
ना तो घर पर
और ना ही बाहर,
किसी को मिलते,
उनका ना तो घर को ,
ना बाहर को
ख़याल होता है

बस

उनके आगे तो
एक यही सवाल होता है
क्या आज भी घर जाकर ,
भूखे
सोना होगा
क्योंकि
अब तक तो
रसोई का दरवाज़ा बंद हो चुका होगा
घरवाले सो चुके होंगे।
हाँ।
जीने का दरवाज़ा खुला होगा
क्योंकि उनको लगा होगा
कि एक शख़्स
इस सराय में
सोने के लिये
आने वाला है .....................शायद ।

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

अभियान ( शेष भाग )

भारत में धर्म एक खतरनाक चीज़ है । इसलिए अधिकतर वो लोग जो इसके खिलाफ बोलना चाहते है कुछ नही बोल पाते । भारत में त्यौहार आस्था का विषय है और आस्था व धर्म दोनों ही मुझे खतरनाक मालूम होते हैं क्योंकि कम से कम भारत में तो इनके नाम पर कुछ भी कराया जा सकता है । गुजरात के दंगे , कंधमाल , ८४ की दिल्ली कुछ भी भूलने लायक नही है ये सव भूलने के विरुद्ध है । आस्था , जिसे बचपन में मैंने विश्वास के अर्थों में ग्रहण किया था आज मुझे देश के पर्यावरण के लिए खतरा मालूम होती है । चाहे गणेश उत्सव हो , दुर्गा पूजा या आंध्रा में होने वाली मूर्ती पूजा , सभी का संबंध विसर्जन से है । यह विसर्जन नदियों को विसर्जित करता है इस बात से हम लोग वाकिफ हैं । कल विजयदशमी थी उससे पहले नवराञों मे माँ दुर्गा की पूजा हुई , घरों में धार्मिक सामग्री ( सूखे फूल , मूर्तियां , सिंथेटिक रंग की कीचड़ ) इकट्ठी हुई । आज से नदियों में इन्हें प्रवाहित करने का सिलसिला शुरू होगा । कल का दिन बुराई पर भलाई (अच्छाई ) की जीत के रूप में याद किया जाता है । यह रावण की हार और राम की जीत का दिन है । लेकिन प्रदूषण के रावण से इस संग्राम में पर्यावरण के राम हर बार क्यों हार जाते हैं ? दो टूक में कल के हिन्दुस्तान ने यह सवाल उठाया था । अपनी पिछली पोस्ट में मैंने आपसे कुछ सुझाव मांगे थे और अपनी अगली पोस्ट में अपने सुझाव देने का वादा किया था सुझावों की यह मांग इसलिए की गई थी क्योंकि मैं ब्लॉग के सामाजिक सरोकारो में विश्वास रखता हूँ मुझे उम्मीद थी कि हमारे ब्लॉगर्स इस अभियान में शरीक़ होंगे मगर...............खैर छोड़िये , बात यमुना की चल रही थी यमुना को हमारी परंपरा में माँ का दर्जा दिया गया है और यह परंपरा वही है जो नवदुर्गा में हमारा विश्वास बनाए हुए है । तो फिर एक पूजनीय सामग्री को हम दूसरी माँ को प्रदूषित करने का कारण कैसे बना सकते हैं । पर सवाल उठता है कि अगर प्रवाहित(विसर्जित) ना करें तो क्या करें , क्योंकि कहीं और हम इन्हें फेंक या डाल नही सकते । यह करोड़ो आस्थाओ और उनके विश्वास का सवाल है । हम उनकी भावनाओं से नही खेल सकते।
इसके लिए पहला सुझाव कृञिम जलाशयों के रूप में हमारे सामने उभरता है । हमने वज़ीराबाद पर यमुना नदी के किनारे स्नान घर के ऱूप मे सूर यमुना घाट का निर्माण करवाया है । क्या हम इसी की तर्ज़ पर यमुना के ही जल का अलग से एक कुंड नही बना सकते , जहाँ यह सब सामग्री विसर्जित की जा सके । जिसका बाद में पुनर्चक्रण कर लिया जाए इससे लोगों की आस्था भी बनी रहेगी और यमुना प्रदूषित भी नहीं होगी । ३ साल पहले मुम्बई की मेयर ने गणेश उत्सव के दौरान यही तरक़ीब इस्तेमाल की जो काफी सफल रही।
दूसरा सुझाव यह है कि सरकार हर निगम ,ब्लॉक , क्षेञ , में उत्सवों के दौरान पंडाल या सामग्री गृह बनायें । जहाँ यह सभी सामग्री रखी जा सके जिसका बाद में सरकार खाद , भराव आदि के रूप में या जैसा भी पर्यावरण के अनुकूल हो इसका प्रयोग करे ।
सुझाव और भी हैं जैसे कि मूर्तियों के निर्माण में प्लास्टर ऑफ पैरिस की जगह चिकनी मिट्टी का उपयोग , सिंथेटिक रंगों के स्थान पर प्राकृतिक रंगों का प्रयोग आदि । उपरोक्त सुझावों को अपनाकर हम न केवल नदियों को प्रदूषित होने से बचा पाएंगे बल्कि अपनी आस्था के सवाल को भी सार्थक जवाब दे पाएंगे । यह सुझाव सिर्फ यमुना की रक्षा के लिए ही नही बल्कि हर उस जल-कुंड , जलाशय , आदि जलस्रोतो के हित में होंगे जो हमारी आस्था का शिकार बन प्रदूषित होते हैं ।

शनिवार, 4 अक्तूबर 2008

अभियान

पिछले दिनों यमुना में जो उफान आया उसे अधिकतर लोगो ने नकारात्मक नज़रिए से ही देखा होगा देखना भी चाहिए इसने अपने आस-पास बसने वाली आबादी को अपनी चपेट में ले लिया था जिसके कारन लोगो को कैम्पों में शरण लेनी पड़ी थी । मेरा घर यमुना के उस पार है और हमारी फेकल्टी इस पार । इसलिए मेरा लगभग रोज़ यमुना के इस पार आना होता है । आज भी आना हुआ ,४ दिन पहले पानी खतरे के निशान तक था आस-पास की बस्तिया डूबी हुई थी फसल ख़राब हो चुकी थी जिसका परिणाम दिल्ली में सब्जियों के आसमान छूटे दाम है । यह सीज़न त्योहारों का है इससे पहले श्राद थे । यह सब कुछ था लेकिन एक बात जो अजीब थी वो ये की यमुना साफ़ थी । जब मैंने यमुना के उफान को पहली दफा देखा तो मुझे एक ओर उसमे आने वाली बाढ़ के चिन्ह दिखाई दिए और दूसरी ओर इन त्योहारों के मौसम में भी यमुना के साफ़ रहने पर विश्वास नही हो सका । मन में एक सवाल उठा की जिस यमुना को साफ़ करने के लिए दिल्ली और केन्द्र सरकार हजारों करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है जिसके बाद भी कोई पोजिटिव रेसपोंस नही मिल रहा था उसे इस उफान ने कर दिखाया । आज यमुना साफ़ है पानी घट चुका है लेकिन यह ज़्यादा दिनों तक साफ़ नही रह सकेगी दिल्ली में त्योहारों का मौसम इसके नाले के रूप में परिणत होने का मौसम होता है । नवरात्रे चल रहे है घरो में माँ दुर्गा की पूजा अर्चना हो रही है । और साथ ही हो रही है इकट्ठी ,धार्मिक सामग्री (फूल , धुप , अगरबती ) । जो आगामी दशहरे के बाद यमुना में विसर्जित होगी । और यमुना दोबारा नाले के रूप में परिणत होगी । हम दिल्ली वासी ये सब जानते है लेकिन तब भी अपनी धार्मिक भावनाओं को ऊंचा रखने के क्रम में एक नदी की भावना को मार देते है संभवत यह बाढ़ उसी का अभिशाप हो । ऐसा नही की दिल्ली सरकार ने इस सम्बन्ध में कोशिश नही की । उन्होंने कोशिश की लेकिन वो कोशिश कम और खानापूर्ति ज़्यादा लगी । उसने बस-अड्डे और आई टी ओ के पुल के किनारे लोहे की जालियां लगवा दी लेकिन वह कोई पुख्ता इन्तेजाम नही था इस समस्या का । कुछ ही दिनों में ये जालियां वहाँ रहने वाले नशेडियों , स्मेकियों के लिए आमदनी का जरिया बन गई । और उन्होंने साबित कर दिया की दिल्ली सरकार का यह अभियान भी मात्र तुगलकी फरमान है । तब से अब तक यमुना साल में कम से कम दो बार तो ज़रूर धार्मिक कारणों से गन्दी की जाती है । मेरे पास इसका एक समाधान है जिसे मै अपनी अगली पोस्ट में बताऊंगा तब तक आप सोचिये की इसके लिए क्या किया जा सकता है । इस बारे में लिखने का मकसद यही है की आप लोगो के सुझाव अभियान बनकर सामने आयें ।

मंगलवार, 30 सितंबर 2008

कभी-कभी

एक भी बात नही बनती अब तो ।
क्या रही कमी अब तो ।।

कुछ भी दिल से निकल नही पाता ।
धड़कन भी है थमी अब तो ।।

राहबर जान कर जिन्हें चाहा ।(दोस्त )
राहजन बन गए वो लोग अब तो।।(लुटेरे)

बात जिनसे नहीं छिपाई कोई ।
वो पूछते है कुछ कहो अब तो ।।

शनिवार, 27 सितंबर 2008

वो दिन

देखते हैं हम जहाँ तक वहाँ तक तुम हो ।
मंज़िलें हों या न हों पर रास्ता तुम हो ।।

जब भी कुछ ग़लत-सा हम काम करते हैं।
डर ये लगता है हमें ना साथ में तुम हो ।।

बस खुशी इस बात की है दोस्ती तो है ।
प्यार का इक़रार नही साथ तो तुम हो ।।

उसको कह सकता नही तुमसे ही कह दूँ मैं ।
तुम ही हो मेरे राज़ और हमराज़ भी तुम हो ।।

कुछ नही था झूठ जो मैंने कहा तुमसे ।
क्यो कहूँगा मैं मेरी हर साँस में तुम हो ।।

इसका ग़िला नही हमारे साथ नही तुम ।
बस ग़िला ये है किसी के साथ में तुम हो ।।



(ये ग़ज़लनुमा पंक्तियाँ उस दौरान लिखीं गयीं जब मैंने पहली बार ज़िन्दगी के सबसे खूबसूरत अहसास से अपना परिचय करावाया )

गुरुवार, 18 सितंबर 2008

नया स्लेबस नयी राह

दिल्ली के स्कूलों में स्लेबस रिवाइस्ड हुए अभी लगभग दो-तीन साल ही बीते होंगे , संभवत् सुनामी के बाद । जब दिल्ली के स्कूलों को लगभग बीस बरस के उस स्लेबस को छोड़ना पड़ा था जिसने ना जाने कितने आई.ए.एस , पी.सी.एस,डायरेक्टर,आदि पैदा किये थे । यहाँ तक की आज भी एन.सी .ई.आर.टी की किताबों की धूम हैं किसी भी सब्जेक्ट से सिविल की तैयारी शुरू करने वाला कोई भी परिक्षार्थी आज भी इन किताबों को अपना प्रारंभिक चरणबिंदु मानता है । ऐसा नही कि आज जो किताबें सिलेबस में लगाईं गयीं है वो नाकाफी हों या समकालीन न हो । उन्हें रिवाइस्ड करने का अहम् फैसला लेने के मुख्य कारण संभवत् काफी लंबे समय से नये संस्करण का न आना , भाषिक अशुध्दियाँ , और पिछले बीस सालों में ग्लोबल वार्मिंग या कहें प्राकृतिक आपदा के बढ़ते खतरों ,एवं राजनीति ,अर्थव्यवस्था में बदलाव , व कहीं ना कहीं दिल्ली में आगामी वर्षो में होने वाले खेल रहे होंगे । आज का भारत ८०-९० के दशक का भारत नही था उसकी परिस्थितियाँ ,ज़रुरतें , मुश्किलें सब बदल रहीं थी । इसे बदलना था अपने आज के लिये , और चलना था अपने कल के लिये । इसलिये इसे बदलने की कोशिश की शुरुआत देश की राजधानी से हुई और इसे बदलने का पहला उपक्रम बना शिक्षा । जिसमें बदलाव लाये बिना बाकी चीज़ो को बदलना नामुमकिन था इसलिये इसे बदला गया । कम से कम दिल्ली की शिक्षा-पद्दति में सुधार लाने की अच्छी कोशिश की गई हालाँकि उचित तादात में किताबों के ना छपने और समय से उपलब्ध ना हो पाने के कारण शुरुआत में काफी मुश्किलात आई । लेकिन तब भी इन किताबो को पढ़ने के बाद ये आसानी से कहा जा सकता है कि यह समकालीनता को विभिन्न संदर्भों में समझने का बेहतर साधन साबित हुईं हैं जिसकी जरुरत हम अपनी पढाई के दौरान हमेशा महसूस करते रहे । मसलन हमारी किताबों में चाणक्य था उसकी नीति थी , अकबर था उसकी शासन व्यवस्था थी , मुहम्मद तुगलक की बुद्दिमान मूर्खता थी यहाँ तक की भारत का राष्ट्रीय आंदोलन था लेकिन इसके बाद था इतिहास का अंत । यानि इतिहास ५० के दशक तक आते-आते खत्म हो जाता था यही हालत राजनीति विग्यान और अर्थशास्ञ की भी थी । हम लोगों में उस समय इमरजेंसी , नई आर्थिक नीति , ५० के बाद के चुनाव और उन्हें संपन्न कराने में आने वाली दिक्कतें ,व समकालीन साहित्य आदि के बारे में पढ़ने के लिये ग़ज़ब का कौतुहल था । मैं ११वीं में फेल होकर ग्यारहवीं में आया था उस वक़्त तक लाईब्रेरी जैसी जगह से मेरा परिचय तक भी नही था । और स्कूल में जो लाईब्रेरी थी वह टीचर्स के अखबार पढने या गप्पे लड़ाने की जगह के रूप में प्रसिध्द हो चुकी थी हमारा भी एक दिन में एक बार लाईब्रेरी का पीरियड ज़रूर होता , जो हमारी क्लास के बच्चों के लिये दिन का सबसे मस्त पीरियड हुआ करता था क्योंकि ऐसे में उन्हें गप्प लड़ाने को मिलतीं । मेरे जैसे कुछ बच्चे जो रैक्स में बरसो से रखीं किताबो को पढने की इच्छा रखते थे उन्हें हमारे लाईब्रेरियन मि० जटाशंकर या तो धुत्कार देते या ज़्यादा ज़िद करने पर चंपक या फैशन की फटी पुरानी मैग्ज़ीन देकर परे हटने के लिये कहते । लेकिन रिवाइज़्ड किताबें बच्चों को जानकारी मनोरंजन के साथ दे रही है जबकी हमारी तत्कालीन किताबो में माञ जानकारी थी मनोरंजन से वे कोसों दूर थीं ।खैर आज की किताबों मे एक चीज़ जो मुझे सबसे बेहतर लगी वो थी आपदा प्रबंधन । बच्चो का उससे परिचय । इसकी जानकारी । हालाँकि इसका संदर्भ माञ सुनामी ही है । मेरे विचार में हमें इसके संदर्भो को बढाना चाहिये था १४ सितंबर को दिल्ली में हुए धमाके उससे पहले गुजरात और जयपुर । क्या हम इन्हें आपदा नही मानते । दिल्ली के धमाको का चश्मदीद एक बच्चा , एक कांस्टेबल के बम को डिफ्यूज़ करने की खबर(हिंदुस्तान दैनिक) और उसकी बहादुरी के फतवे ।इन सब खबरों को पढकर मुझे लगता है कि आतंकवाद से लड़ाई , बम डिफ्यूज़ करना (११-१२वीं कक्षा में) , संदिग्धता की खबर (१०वी क्लास तक) को भी आपदा प्रबंधन वाली किताबों में शामिल किया जाना चाहिये था।और अगर हम ऐसा नही कर सकते तो कम से कम दिल्ली पुलिस को अपने हर कैडर के अधिकारी,कर्मचारी के लिये इनसे बचने के लिए ट्रेनिंग को अनिवार्य कर देना चाहिये । ऐसा मैं कांस्टेबल वाली खबर के सिलसिले में कह रहा हूँ ।

शनिवार, 13 सितंबर 2008

जब मैंने कहा

जब मैंने कहा /मुझे तुमसे प्यार है /तुमने कुछ नही कहा/
बस / तुम हँस दीं ।

जब मैंने कहा / मैं तुम्हें चाहता हूँ बेपनाह/
तुमने कुछ नही कहा बस अपनी उँगलियाँ मेरे होंठो पे रख दीं ।

जब मैंने कहा /चलो आज फिल्म देखने चलते हैं / तुमने कुछ नही कहा /
तुम मुस्कुराईं और क्लास लेने चलीं गईं ।

जब मैंने कहा / शाम मस्तानी है पार्क में चलें क्या ?तुमने कुछ नही कहा /
मेरा हाथ थामा और चल दीं ।

जब मैंने कहा / शादी करोगी मुझसे /
तुमने कहा- पागल हो गए हो क्या ?
आज के बाद हम कभी नही मिलेंगे ।

गुरुवार, 4 सितंबर 2008

कोसी का कहर और ........................

पिछले दिनों यमुना उफान पर थी अभी भी है पर उतनी नही , जितनी कोसी । कोसी ने तो उफान की भी हदें तोड़ दी हैं , न सिर्फ उफान की बल्कि किसान की , मज़दूर की , आवाम के विश्वास की हदों के साथ-साथ जडे़ तक उखाड़ दी हैं जिसकी खबर न सिर्फ प्रिंट मीडिया बल्कि और तरह के तथाकथित मीडिया भी दे रहे हैं जिनमें से एक तरह के मीडिया हैं हमारे ब्लॉगर्स । पिछले दिनों मनोज वाजपेयी ने शक्तिहीन अभिनेता और बाढ़ का दर्द शीर्षक से अपने ब्लॉग पर एक अभिनेता होने पर भी अपनी कोसी के बाढ़ पीड़ितो के लिए अब तक कुछ ना कर पाने के कारण अपनी शक्तिहीनता दिखाई थी । इस पोस्ट में उन्होंने कहा - बिहार में बाढ़ है लेकिन वो एक अभिनेता होने के बावजूद कुछ कर नही पा रहे । लेकिन साथ ही अपनी पोस्ट की एन्डिंग में उन्होंने करने का संकेत देते हुए लिखा कि वे इस सिलसिले में शेखर सुमन और प्रकाश झा से मिलने जा रहें हैं। इस वाक्य के साथ उनकी पोस्ट समाप्त हुई और शुरु हुई टिप्पणियाँ आनी ........ इन टिप्पणियों ने मेरा ध्यान खींचा कुछ को छोड़कर लगभग सब में बाढ़ का दर्द ग़ायब था जो चीज़ उपस्थित थी वो थी मनोज जी के अभिनेता होने के बावजूद अपनी जड़ो को याद रखने के लिए की गई उनकी प्रशंसा ।उन अधिकतर टिप्पणीकारों में शायद यह पूर्वाग्रह था कि अभिनय हमें अपनी जड़ो से काट देता है । क्या सचमुच जड़ो से कटकर हम अभिनय कर पाएंगे ? यह एक सवाल था जो मनोज जी की पोस्ट को पढ़कर नही , उसपर आई टिप्पणियों को पढ़कर मेरे दिमाग़ में आया ।आज सुबह जब विनीत जी का गाहे-बगाहे खोला तो वहाँ भी कोसी का क़हर बरपा हुआ था , सोच तो मैं भी रहा था कि यूनिवर्सीटी हॉस्टल और आपस की छोटी-छोटी बातों को अपने ब्लॉग का रॉ-मैटेरियल बनाने वाले विनीत जी ने अभी तक अपने ब्लॉग पर देश की इतनी बड़ी आपदा पर क्यों नही लिखा ? समझ नहीं आ रहा था कि वह अब तक जनसत्ता की छोटी-छोटी खामियाँ निकालने में ही क्यों व्यस्त हैं जबकि कोसी के क़हर के संदर्भ में वह ज़ी-न्यूज़ , आई.बी.एन.७ ,स्टार न्यूज़ की लंबी-चौड़ी खाइयाँ खोज सकते हैं । खैर जो भी है आज उनका ब्लॉग देखकर सुकून मिला , लगा उनकी पारखी नज़र देर से ही सही दुरुस्ती के साथ मीडिया के खिलाफ हल्ला बोल रही है ।

गुरुवार, 28 अगस्त 2008

मेरी दिल्ली मै ही सवारूँ

अब तक हम सुनते आए थे कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों की हालत बहुत बदतर है लेकिन ये खबर शायद आपके चेहरे पर कुछ देर के लिए खुशी ला पाए कि इन स्कूलों को अब हाइटैक करने की तर्ज़ पर इनमें कैमरे लगने शुरू हो गए है सरकार को लगता है कि स्कूलो में कैमरे लगाने ,ए. सी. ,और कम्प्यूटर प्रोवाइड कराने मा़ञ से वह स्कूलों को हाइ़टैक बना सकती है । चाहे वहाँ बुनियादी सुविधाओ का अभाव हो। खेलने के लिए समतल मैदान न हो , टॉयलेट की सफाई का उचित प्रबंध न हो,यहाँ तक की पीने के पानी की भी समूचित व्यवस्था न हो लेकिन कैमरे ज़रूरी हैं उनके बिना स्कूल में अनुशासन क़ायम करने में काफी मशक्कत जो करनी होगी । क्या दिल्ली के सरकारी स्कूलो में जहाँ स्कूल की बिल्डिंग तक काफी जर्जर हालत में हो ,ऐसे में कैमरो की व्यवस्था की ज़रूरत क्यों आन पड़ी होगी इसका जवाब सरकारी तंञ अच्छे से जानता है । क्या वह इसका खुलासा लोगों के सामने कर सकता है ?क्या इन स्कूलो को हाइटैक बनाने से पहले हमें एक स्कूल की बुनियादी सुविधाओ का ख्याल नही रखना चाहिए ?क्या इस तरह की चीज़ों पर पैसा खर्च करने से बेहतर ये न होगा कि हम पहले इन स्कूलो की वास्तविक स्थिति को जाने - समझे और फिर कोई फैसला लें ताकि बाद में हमें अपने ही फैसले पर पछताना न पड़े ?जिन स्कूलो के प्ले ग्राउंड में पैसे की किल्लत का हवाला देते हुए घास तक नही लगाई जा सकी है ,जहाँ के टॉयलेट गंदगी की मार झेल रहे है वहाँ कैमरे लगवाना बेमानी क्या जान पड़ता है ?मैं जहाँ रहता हूँ(नन्द नगरी) वो एरिया दिल्ली में कोई खास इज़्ज़त से नही देखा जाता । अब ये बताने की ज़रूरत तो बिल्कुल नहीं, कि यह जमना पार में पड़ता है । हमारे यहाँ पढाई की हालत बेहद खस्ता है ।यहाँ पढने वाले बच्चों में से अधिकतर स्कूल के पास ही के सिनेमा हॉल (गगन सिनेमा)में तफरी करते हुए देखे जा सकते हैं । यहाँ तक कि इस स्कूल की पहचान भी गगन वाले स्कूल के नाम से की जाती है ।यहाँ पढने वाले किसी बच्चे से पूछकर देखिए कि वह कहाँ पढता है उसका जवाब सर्वोदय बाल विद्यालय,नन्द नगरी नही होगा बल्कि वह कहेगा गगन वाले स्कूल में । क्या यह आपका ध्यान आइडेंटिटि पोलिटिक्स की ओर नही खीचता जिसे बुद्घिजीवी आइडेंटिटि पॉलिटिक्स का नाम देते हैं । खैर क्लास रूम्स की हालत ये है कि दीवारों में गड्ढे हो चुके हैं,पंखो की मौजूदगी प्रिंसीपल के ऑफिस ,साइंस लैब,और लाइब्रेरी तक ही सीमित है क्लास रूम्स इनसे अब तक मेहरूम है ,बिजली का आलम ये है कि शाम ढलते-ढलते पूरी बिल्डिंग को अंधेरा अपने आगो़श में ले लेता है । लेकिन वहाँ कैमरे लग गए है जो बच्चों के लिए खेल की और आस-पास के पियक्कड़ो व स्मैकियों के लिए चुराने का और चोर बाज़ार में बिकने का ताज़ा माल साबित होंगे ऐसी मेरी आशंका है ।

रविवार, 10 अगस्त 2008

किस्सागोई के किंग

पिछले सन्डे को जे.एन .यू जाना हुआ । मैच जो था जे.एन.यू और डी.यू के बीच। मैच का रिजल्ट जो रहा हो लेकिन मज़ा खूब आया। ये और बात है कि फील्डिंग ने कुछ दिनों से पूरा शरीर तोड़ के रख दिया है। मांसपेशियों में अभी भी दर्द है । तब भी इन सबसे से अलग जो बात रही , वो थी किस्सागोई की ।
हम सब लोग मैच के तुंरत बाद एक ढाबे पर आए और उसके बाद जो सिलसिला शुरू हुआ उसने हमें शाम ७ बजे तक बांधे रखा । साऊथ कैम्पस के लड़के अरविन्द ने जिससे मेरी मुलाक़ात शायद पहली बार ही हुई थी ने ऐसा समां बाँधा कि कम से कम उस समय तो मैच की सारी थकान उतर गई ।
उस बन्दे के वो किस्से (जिसमे कुछ नॉन- वेज भी थे) जिसकी सबसे दिलचस्प बात थी उसकी दास्तानगोई यानि उसके बयां करने का स्टाइल । जो इतना उम्दा था कि उन किस्स्सो को सुनने के दौरान मुझे यक-ब-यक सूरज का सातवाँ घोड़ा के माणिक मुल्ला की याद हो आई । हालांकि माणिक मुल्ला के किस्से और इन जनाब की मजाकिया किस्सागोई में भारी विषयांतर था लेकिन दोनों में एक कॉमन बात थी । दोनों में ज़बरदस्त कौतुहल था ,रोचकता थी और थी अपने सुनने वालो को बांधे रखने की क्षमता । यह इतनी ज़बरदस्त थी कि सब लड़को का ग्रुप उस बन्दे की बाते सुनता जाता और हँस-हँस कर लोट-पोट होता जाता ।
रोमेंटिक कविता के बारे में ये बात कही जा सकती है कि ----
" कविता यों ही बन जाती है बिना बताये
क्योंकि ह्रदय में तड़प रही है याद तुम्हारी । "
लेकिन जब किस्सों की बात आती है तो किस्सा यों ही नही बनता वह तो गढा जाता है वह एक माहौल चाहता है और एक माहौल बनाता है। यह बात कहते वक़्त नई कहानी का ख्याल हो आता है उसकी सबसे बड़ी खासियत भी यही थी कि वह एक माहौल की डिमांड करती थी । अरविन्द बाबू की किस्सागोई (जिसका मै कोई उद्धरण नही दे रहा हूँ ) माहौल बनाने के इन्ही संदर्भो में याद आती है । जो अपने सुनने वालो का सिर्फ़ मनोरंजन ही नही कर रही थी बल्कि इस बात का भी एहसास करा रही थी कि किस्से किस तरह से कथाओ से निकल कर चुटकुलों में आ गए है । इन साहब में बन्दों को बाँधने की ही क्षमता मात्र नही थी बल्कि ये झूट भी इस ढंग से कहने की कला रखते थे कि वह भी सच जान पड़ता था गाइड के नाम पर मेरा जो मजाक बनाया गया था वह अब लगभग सच सा हो गया है । खैर जो भी है उस बन्दे की इस किस्सागोई ने समय की बर्बादी की चिंता से हमें कोसो दूर रखा । मै तो उसका मुरीद बन गया हूँ ऐसे बन्दे अपने आस पास रहे तो रिश्तो की चुभन का और जिंदगी की घुटन का एहसास कम से कम कुछ पल के लिए तो हमसे दूर रहता है ।

शुक्रवार, 18 जुलाई 2008

इस वर्ष सातवी कक्षा तक के वे छात्र जो फेल हो गए थे दिल्ली सरकार के फरमान अनुसार पास कर दिए गए ज़ाहिर है बच्चो के चेहरे खिल उठे ,उनकी खुशी का ठिकाना न रहा , वे बेहद खुश थे । क्योकि उन्हें अपने आज से मतलब है कल से नही। वे आज में जीना चाहते है । लेकिन उनके अभिभावक ,अध्यापक और दिल्ली सरकार को सिर्फ़ आज से ही नही बल्कि इन बच्चो के भविष्य यानी कल से भी मतलब होना चाहिए । बच्चो को पास करने का फ़ैसला किनके परामर्श से किया गया या क्यो किया गया इसका तो मुझे इल्म नही लेकिन इतना ज़रूर जानता हूँ कि इससे छात्रो के भविष्य को किसी तरह कि नई दिशा नही मिल सकेगी ।
बच्चो को प्रोमोट करना अलग बात है और उन्हें सीधे पास कर देना अलग । ऐसा फ़ैसला देते वक्त हमें इस बात का ख़याल रखना होगा कि पहले ही बच्चो को छठी और सातवी कक्षा में प्रमोट के तौर पर २० से ३० नंबर की छूट दी जाती है इसके बाद भी अगर बच्चा फेल हो जाता है तो इसकी ज़िम्मेदारी उसके माता-पिता , अध्यापक , और ख़ुद उसकी बनती है । लेकिन इसका हल बिना कोई नीति तय किए बच्चो पर दया-दृष्टि कर उन्हें पास कर देना नही है बल्कि इसकी जगह यदि दिल्ली सरकार अपने विद्यालयों की , शिक्षा प्रणाली की दशा पर ध्यान देती तो हमें ज़्यादा खुशी मिलती । सरकार के वर्तमान फैसले का परिणाम यह हुआ है कि वे छात्र जिन्हें अपना पढ़ना , लिखना,यहाँ तक कि जोड़ - घटा के सवाल तक नही आते उनका सामना अब अगली कक्षा में वर्गमूल,घनमूल, से कराया जा रहा है। ये वे छात्र है जो एक - दो विषयो में ४-६ अंको से फेल नही हुए थे कि इन्हे प्रोमोटेड पास कर दिया जाता बल्कि ये वे बच्चे है जो पाँच-पाँच विषयो में १५-२० अंक भी नही ला सके । हमारा सवाल ये है कि क्या इन्हे अगली कक्षा में भेजने से बेहतर ये न होता कि इन्हे उसी कक्षा में रख कर अच्छी सिक्षा दी जाए ताकि ये अपने साथियो कि तरह सफल होने के लिए मेहनत करे इन्हे सरकार कि दया का मोहताज न होना पड़े ।
फेल करना कोई सज़ा नही है बल्कि बच्चे में यह एहसास जगाना है कि उन्हें आगे बढ़ने के लिए मेहनत करनी होगी पास मेंहनत का ही फल है जो बच्चे को प्रोत्साहित करता है अधिक मेहनत करने के लिए ,एक्साम में मिलने वाले अंक उस उत्साह को बनाये रखते है जो बच्चो में सांस्कृतिक प्रतियोगिता को बनाये रखता है । सरकार का इस सम्बन्ध में कहना है कि इससे बच्चे प्रोत्साहित होंगे ----लेकिन क्या इनसे उन बच्चो का उत्साह नही गिरेगा जो परीक्षा में सफल होने के लिए जी तोड़ मेहनत करते है । क्या बच्चो में ये भावना नही जागेगी कि मेहनत करने कि क्या ज़रूरत है पास तो कर ही दिए जायेंगे ?इस तरह की भावना बच्चो में प्रोत्साहन नही बल्कि पतानोंमुखता पैदा करेगी और सरकार का बच्चो कि भलाई के लिए उठाया गया क़दम उनके लिए सबसे बड़ा रोड़ा साबित होगा ।
इन सब बातो का आधार मात्र मेरी सोच नही है बल्कि वो अनुभव है जो मैंने छोटे बच्चो को पढाते वक्त महसूस किया है । फेल होने की तीस क्या होती है और उसकी प्रतिक्रिया कैसी होती है इसे भी मैंने महसूस किया है ।
इस मुद्दे को उठाना बेहद ज़रूरी इसलिए लगा क्योकि दिल्ली में शिक्षा के लिए काफी फंड और आर्थिक सहायता आदि दी जा रही है और दिल्ली की सरकारी और सस्ती शिक्षा निरंतर विकासोन्मुख है ऐसे में सरकार का एक भी ग़लत क़दम हेमू कि आँख में तीर साबित हो सकता है इस तरह के फैसले लेने से पहले शिक्षाविदों ,बाल मनोचिकित्सकों ,अध्यापको,अभिभावकों आदि के साथ विचार विमर्श ज़रूर कर लेना चाहिए और हो सके तो इनमे छोटे बच्चो कि भी राये ली जानी चाहिए। अन्यथा ये सारी दया बेमानी होगी जबकि हम सभी चाहते है कि ये बच्चे आने वाले भारत की नई तस्वीर पेश करे ।

रविवार, 22 जून 2008

कुछ दोस्त ऐसे भी

अभी लगभग चार महीने पहले मैंने एक किताब अपने एक अज़ीज़ दोस्त से मांग कर केंद्रीय पुस्तकालय के भीतर स्थित जेरोक्स वाले को दी और उससे कहा की इसकी एक कॉपी कर दो ,उसने मुझसे कहा की भाईसाहब काम ज्यादा है टाइम लगेगा। आप कल ले लीजिएगा। मैंने कहा ठीक है मै कल आकर ले लूँगा और मै वहाँ से चला गयाअगले दिन मैंने पता करने की कोशिश की, कि मेरी किताब हुई कि नही?लेकिन वहाँ से जवाब मिला कि देखता हूँ वैसे आपकी किताब कौन सी थी?आप कहाँ रख गए थे -उसने पूछा
मशीन पर ही तो रख कर गया था लगभग आधे घंटे तक हमने उसे तलाशने कि कोशिश की लेकिन वह नही मिली ,मेरा अगले दिन सेमीनार था लेकिन दिमाग में ये टेंशन थी कि अगर किताब न मिली तो मै अपने मित्र से क्या कहूँगा? खैर सेमीनार मैंने जैसे तेसे दे दिया लेकिन दिमाग से वो बात निकल ही नही पा रही थी कि मुझसे वेह किताब खो गई। मै फिर से फोटो कॉपी वाले के पास पहुँचा वहाँ सामान फैला हुआ था मेरे पूछने पर उसने बताया कि तब से आप की ही किताब तलाश रहा हूँ लेकिन मिल नही रही उसने मुझे किताब के बदले पैसे की पेशकश भी की लेकिन मै उसे अपना फोन नम्बर देकर चला आया मैंने उससे इतना ही कहा कि यार कम से कम पर्सनल बुक का तो ध्यान रखा करो खैर अगर बुक मिल जाए तो मुझे इस नम्बर पर बता देना। इसके बाद मैंने अपने उस मित्र को जिसकी वो किताब थी सब बता दिया उसे बुरा तो लगा लेकिन उसने मुझसे सिर्फ़ इतना ही कहा ............ तरुण यार ये मेरी बुक नही थी मेरे सर की थी। चल कोई बात नही।
कुछ दिनों बाद मुझे पता चला कि इस किताब कि फोटो कॉपी मेरे क्लास मेट रामचरण पाण्डेय के पास है मैंने उससे इसकी फोटोकॉपी मांगी। उसका चेहरा मुरझा गया उसने मुझसे पुछा कि तरुण तुझे किसने बताया। राजू ने- मैंने कहा। ठीक है मै कल ले आऊंगा ।
अगले दिन जब वह किताब लेकर आया तो मैंने उसे देख कर पहचान लिया मैंने उससे पुछा कि ये किताब तुझे कहा से मिली । तो उसने हंसीहंसी में मुझे बताया कि तरुण ये किताब तो मेरे एक सीनिएर ने library se तपाई है।
इतना कहना था कि मैंने उसे बता दिया कि ये बुक मेरी है मैंने कहा कि यार अपने सेनिएर से कहना कि ऐसा काम ना किया करे ये ठीक नही है और ये किताब मैंने ही फोटोकॉपी वाले को दी थी जहाँ से आपके सेनिएर साहब ने इस हसीं घटना को अंजाम दिया। मैंने उसे ये भी बाते कि ये किताब अजीत की है।
और उसने भी अपने सर से मांग कर मुझे दी थी मैंने जब उससे उसका नाम जानना चाहा तो उसने कहा यार मै तो अजीब मुसीबत में फंस गया हूँ। मतलब । यार तू समझ नही रहा है। तुम तो दिल्ली वाले हो मगर मै तो बाहर से आया हूँ मै उनसे दुश्मनी कैसे ले सकता हूँ ?मैंने कहा इसमे दुश्मनी वाली बात कहाँ से आ गई । तू कम से कम सच का साथ तो दे और अगर कुछ न कर सके तो मुझे उनका नाम तो बता दे । लेकिन उसने manaa कर दिया मुझे इतना बुरा लगा कि क्या कहूं। ये वही लोग है जो हिन्दी ऍम फिल का सेमीनार देते वक्त सत्य ,सामाजिक प्रतिबद्धता ,नैतिकता की बात कर रहे थे। मैंने कहा की आज के बाद प्ल्ज़ तू मुझसे बात मत करियो मुझे शर्म आ रही है कि तुम जैसे लोगो से मै बात कैसे करता था जो लाइब्रेरी कि किताबो कि चोरी किया करते है या उसमे हाथ रखते है । मैंने जब ये बात अजीत को बताई तो उसने कहा साले डी.यूं वाले। और उसके बाद मेरी किसी से कुछ कहने की हिम्मत न हुई । क्यूंकि बदनामी तो मेरी युनिवेर्सिटी कि ही थी ना ?रामचरण पर मुझे बहुत गुस्सा आता है इस बात पर नही कि उसने मुझे उसका नाम नही बताया बल्कि इस बात पर कि उसने मुझे ३-४ महीनो से इसी ताल मटोल में रखा कि मै उनसे बात करूँगा । लेकिन बात के नाम पर वो क्या कर रहा था मुझे समझते देर ना लगी। और मैंने उससे इतना ही कहा ki - तय करो किस ओर हो तुम?

सोमवार, 16 जून 2008

नाक मे नकेल

हाल ही मे जो ख़बर आई है कि प्रसार bhaarti मे १६ करोड़ की लागत से इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर निगरानी रखने के लिए एक सेंटर का निर्माण किया गया है इस बात को लेकर मीडिया मे बेशक सरगर्मी हो लेकिन इससे उन लोगो के दिल को एक सुकून कि साँस मिली होगी जो मीडिया के जादू-टोने आदि से तंग आ चुके थे इस सम्बन्ध मे आकाशवाणी पर अभी २-३ दिन पहले एक समीक्षा प्रसारित की गई जिसपर इस बात को लेकर खासी खुशी ज़ाहिर की गई थी कि जिस देश मे संसद,प्रधानमंत्री,यहाँ तक की राष्ट्रपति भी किसी न किसी के प्रति उत्तरदाई है ऐसेदेश मे मीडिया क्यो किसी के प्रति जवाबदेह नही है !इन सबसे अलग ८० -९० के दशक कि वे यादें भी ताज़ा हो जाती है जब आकाशवाणी और दूरदर्शन से प्रसारित होने वाले समाचारों के लिए लोग लंबा इंतज़ार किया करते थे लोगो का इन समाचारों परविश्वास था किंतु अब सिवाए कोरे झूट और फरेब के इन न्यूज़ चेन्नेल्स के पास कुछ नही रह गया है फलत : इन पर से जनता का विश्वास उठ गया है ! लोगो को इन चेन्नेल्स कि टी .आर.पी और झूटी घोषणाओं का चक्कर समझ मे आ गया है और साथ ही इनकी प्रतिनिधि सरकार को भी ! तभी तो इस तरह का कदम उठाया गया मीडिया इससे ज़रूर परेशान होगा और क्यो ना हो उसकी मन मरजी पर एक चोट जो परी है !जो भी है प्राइवेट न्यूज़ चेन्नेल्स कि मनमानी और खबरों को मात्र विज्ञापन बना देने के विरुद्ध सरकार का ये फ़ैसला स्वागत योग्य है !
हमे इसकी सराहना करनी चाहिए ,जो लोग इस बारे मे कुछ अलग मत रखते है या जो ये कहते कि इससे मीडिया कि स्वायत्तता पर प्रश्नचिंह लगेगा तो वो तो मीडिया कि वर्तमान स्तिथि को देखते हुए बेहद ज़रूरी जान पड़ता है ,क्योंकि सवाल स्वायत्तता पर अंकुश का नही है सवाल है खबरों के नाम पर खबरों के अलावा बाकि सब कुछ परोसने का जोकि अब तक बदस्तूर जारी है !..........................................................................................!

शनिवार, 14 जून 2008

नया ज़माना

बस से आते वक्त रस्ते मे कुछ १३-१४ साल की लडकियां चद्ती है और बस मे बैठे हर एक सज्जन की तरफ़ एक काग़ज़ फैंक कर जाती है जिसमे लिखा होता है,कि हम बेसहारा है आप सब से गुजारिश है कि हमे पाँच ,दस .बीस जो भी आप सज्जन लोगो से बने हमारी मदद करें !
कल मेरी तरफ़ भी इसी तरह का एक काग़ज़ एक छोटी सी लड़की (उम्र लगभग १०-१२साल) ने फेंका मैंने उसे पढ़ा जिसमे वही सब लिखा गया था जिसके बारे मे मैं पहले ही बता चुका हूँ !खैर वह लड़की मेरी तरफ़ हाथ बढाकर खड़ी रही इस आशा मे कि बाबूजी कुछ देंगे लेकिन मैं चुपचाप उसकी मासूमियत की ओर देखता रहा इतने मे मेरे पास बेठे आदमी ने कहा कि "इनका तो रोज़ का काम है,धंधा बना लिया है अब तो !साहब बोलते जा रहे थे और मैं ये सोच रहा था कि इतने छोटे बच्चे पर्चे छपवायेंगे भला ?और ये सोचकर कि इनके पीछे कितना बड़ा गिरोह काम कर रहा होगा !न केवल यहाँ बल्कि न जाने कहाँ-कहाँ ऐसे बच्चे भीख मांग रहे होंगे और हम जैसे लोग उनके बारे मे इस तरह की ही बातें सोच रहे होंगे ! रात मे जब घर पहुँचा तो थका हुआ था टी .वी का स्वित्च दबाया उस पर न्यूज़ आ रही थी कि दिल्ली मे और शहरो के मुकाबले बच्चो का जीवन स्तर बेहतर बनता जा रहा है ! ये sunkar mujhe hansi आ गई और मेरे सामने उसी बच्ची का चेहरा आ गया जो सुबह बस मे मिली थी !

शुक्रवार, 13 जून 2008

जाने क्या होगा रामा रे

ख़बर आई है की माननीय प्रधानमंत्री जी ने मंत्रियो को यात्रा खर्च मे कमी लाने की हिदायत दी है जी हाँ आप सही समझे वही मंहगाई की दुलत्ती पर मरहम जो लगाना था , खैर जो भी है इसमे बेचारे मंत्रियो का क्या दोष वे तोअपनी गर्मियों को सर्दी मे बदलने के लिए चुनाव मे पैसा पानी की तरह बहाते है वो क्या इसलिए की जब उनके मौज मस्ती के दिन हो तो आलाकमान इस तरह से हिदायते दे, प्रधानमंत्री जी को इन मंत्रियो के कोमल शरीर का ख्याल तो रखना ही चाहिए