मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

शीला सरकार के लिए .................

यूं तो डी.टी.सी के किराये में वृद्धि के मामले में मै कुछ लिखना नहीं चाह रहा था क्योंकि कल रात से यही सब तो पङतासुनता आ रहा हूँ सुबह जब अखबार खोला तो उसमे भी............वही सब

खैर जब फैकल्टी पहुंचा तो देखा कुछ स्टुडेंट शीला दीक्षित का पुतला बना रहे थे और शायद कैम्पस में जलाने की रिहर्सल कर रहे थे मन में कई सवाल उठे ये मुक्तिबोधी क्रांति आज कहाँ तक सही है या ये भी बिना किसी पूछताछ के आधी जिंदगी गफलत में और आधी शैया पर खांसते दम तोड़ते बिताएगी. ये सब क्या है?

कैम्पस में पहुँचने से पहले बस में भी इसी तरह की क्रांतिधर्मिता की बातें चल रही थी ये वही लोग थे जिन्हें अक्सर मैंने बिना टिकट के यात्रा करते देखा है खैर मै वही सब बातें दोहरा रहा हूँ जो आप भी कल से पढ़ते-देखते बोर हो गए होंगे( हलाँकि क्रांतिधर्मिता वाली बात पर आपका ऑब्जेक्ट करना स्वाभाविक है)

दरअसल मुद्दा-ए-बहस ये है कि दिल्ली सरकार ने परिवहन में सालों से होते आ रहे आपने घाटों की एवेज में दिल्ली के यात्रीगणों पर कुछ किराया ठोका है इतना ही नहीं हम स्टूडेंट्स के बस पास को भी साढ़े बारह रूपए से बढा कर १०० रूपए कर दिया गया है पहले ५ महीने के हम ७५ रूपए देते थे अब हमें ५०० रूपए देने होंगे हालांकि अगर मै सरकार की नज़र से और दिन ब दिन बढती महगाई की नज़र से देखू और अन्य राज्यों के किराये से तुलना करू तो मुझे शायद कोई दिक्कत न हो लेकिन जब मै ७५ से सीधा ५०० और ७ का १० और १० का १५ होते देखता हूँ या फिर उन लोगो के बारे में सोचता हूँ जो हमेशा किराया लेकर ही सफ़र करते है तो थोडा दुखी हो जाता हूँ लेकिन तब भी कहूँगा कि बाकी काम करने की जगह अगर हम ये सोचे की ऐसी नोबत आई क्यों?..................जब हम ये सोचते है तो हमें ९५ फीसदी गलतीसरकार की दिखती है..........

क्यों?............... का जवाब तो यही है कि हम सब जानते है कि स्टुडेंट के पास का ये चार्ज जो हम अब तक अदा करते आ रहे थे ४० से भी ज्यादा साल पुराना है क्या सरकार कि यह नीति नहीं होनी चाहिए थी कि वो थोडा थोडा करके साल दर साल इसे बढाती ताकि हम भी खुश होते और सरकार तो ज़ाहिर है खुश...........खैर सरकार ने ऐसा नहीं किया और किराया बढाने का ये फैसला भी ३-४ राज्यों में चुनाव हो जाने के बाद लिया गया ज़ाहिर है पॉलिटिक्स की भूमिका और अगले साल होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों की हड़बड़ी में ये सब फैसले लिए गए है इससे हमें कोई एतराज़ नहीं होना चाहिए ये तो होना ही था खैर ये तो रही स्टुडेंट के पास की बात अब हम किराये पर आते है मैंने पहले भी कहा जो लोग बिना टिकट के सफ़र करते है उनके लिए आप चाहे किराया १० ले १५ ले या फिर ५० कर दें उन्हें कोई दिक्कत नहीं होगी दिक्कत उन्हें ही होगी जो ईमानदारी से सफ़र करने में विश्वास रखते है और वही लोग किराया वृद्धि का विरोध भी कर रहे है इसमें हमारी आइसा के कुछ भाई लोग भी है ज़ाहिर है इनमे निम्न-मध्य वर्ग के लोग सबसे ज्यादा है तो क्या ये समझा जाये की दिल्ली सरकार नहीं चाहती की वे ईमानदार बने रहे सरकार को ये पता होना चाहिए कि यही वे लोग है जो पर्सनल की जगह पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सफ़र करते है अगर सरकार ने अपने इस फैसले पर पुनर्विचार नहीं किया तो बड़े दुःख की बात है की उन्हें अपने अपने पर्सनल वेहिकल सडको पर उतारने पड़ेंगे जिसकी एवेज में सरकार को न जाने कितने बी.आर.टी. और फ्लाई ओवर बनवाने पड़ सकते है जिसमे वो पहले ही करोडो रूपए लगा चुकी है उसे इस बारे में दोबारा सोचना चाहिए अगर वो अपने फैसले पर अटल रही तो मुझे लगता है की वो उन लोगो के साथ ही खिलवाड़ करेगी जो इस सरकार के साथ ईमानदार है टैक्स देते है और शीला दीक्षित सरकार में अपना विश्वास दिखाते है उसे हैट्रिक बनाने में मदद करते है उसे अपने इन नागरिको के बारे में ज़रूर सोचना होगा और हाँ कम से कम अपने घाटों का ठीकरा तो उनके सर पे फोड़ना सरकार को बिलकुल भी शोभा नहीं देता अगर उसे तब भी लगता है की घाटों को पूरा करने के लिए किराया बढ़ाना ही पड़ेगा तो एकदम न बढाकर साल-दर-साल कुछ-कुछ बढा देना चाहिए जैसे पहले २ रूपए वाली टिकट को बढा कर ३ रूपए कर दिया गया था जिसे लोगों ने कोई खा तवज्जो नहीं दी थी बहरहाल ............बात सिर्फ इतनी है कि सरकार को अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए और एकदम से किराया बढाने की अपनी नीति को छोड़ देना चाहिए नहीं तो अभी ज्यादा दिन नहीं बीते प्याज ने एक सरकार को इस हद तक बर्बाद कर दिया कि आज तक भी दिल्ली में वो अपनी जड़े दोबारा ज़माने में संघर्ष करती दीखती है उम्मीद है शीला सरकार इस मामले में सचेत होगी .वर्ना हम स्टूडेंट्स का क्या है वैसे भी यूनिवर्सिटी में डूसू- दूसा की हड़ताल से पढाई ठप्प ही रहती है हम समझ लेंगे की कुछ दिन दिल्ली सरकार के लिए सही ............ पर सच कहें हम स्टूडेंट्स अपना ध्यान पोस्टर-बाज़ी और पुतले बनाने या फूँकने में नहीं लगाना चाहते हम पढना चाहते है इसलिए मेरी दुबारा गुजारिश है कि सरकार इस बारे में सोचे .......... आशा है वो ज़रूर सोचेगी और सोचना ये नहीं कि ५ बढा कर एक कम कर दिया ..........हम सरकार से इस ओर सकारात्मक रुख कि उम्मीद लगाये हुए है

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

'दिवाली मुबारक हो'



कल दीपावली है
कुछ लोग
पटाखे जलाएंगे
कुछ लोग
दिल ।

एक तबका वो होगा
जिसके बंग्लो और कोठियो पर
लड़ियों की जगमगाहट होगी
कीमती मोमबत्तियाँ और दिये जलेंगे
और एक वो
जहाँ शायद चूल्हा भी ना जले।

शराब की
सप्लाई के साथ डिमांड भी बढ़ जाएगी
जुआरियों के लिए
जश्न का दिन होगा कल
ना जाने कितनो की दिवाली होगी
और कितनो का दिवाला निकलेगा ।

घरों में
लक्ष्मी की पूजा होगी
लेकिन बाहर लक्ष्मी,
लक्ष्मी की आस में
लक्ष्मणरेखा पार कर रही होगी ।

ऐसे ही दिवाली मनेगी
हर साल मनती है
मैं पिछले कई सालों से
यही देखता आया हूँ

'दिवाली मुबारक हो' के पोस्टर
चौराहों पर चिपके मिलेंगे
जिसमें बेगै़रत नेता
बदसूरत छवि लिए
हाथ जो़ड़े दिखेंगे ।
जो इन्हीं पोस्टरों के पीछे से कहेंगे
कि
चाहे किसी के पास कुछ हो
या ना हो
भले ही किसी के घर में
आग लगे-चोरी हो
चाहे दिल्ली में कोई
सुरक्षित हो या ना हो
चाहे कहीं पर भी लोग मरें, ब्लास्ट हो
पर सभी को
हमारी तरफ़ से
'दिवाली मुबारक हो ।'


(पुन: प्रकाशित )

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

करण जौहर के लिए.......बधाई संदेश

अब तो बहुत खुश होगे तुम

बहुत अच्छा लग रहा होगा न तुम्हे

राज ठाकरे के आगे नतमस्तक होके ,

हंसल मेहता की तरह अपमानित नहीं होना पड़ा न तुम्हे?

कालिख नहीं पुतवानी पड़ी न अपने मुँह पर?

बधाई हो।


तुम्हे डर सता रहा होगा न?

डर होगा

कहीं जो हंसल मेहता के साथ हुआ

वही तुम्हारे साथ भी न हो जाए।


'दिल पे मत ले यार' की सीख देने वाले

हंसल मेहता तो पागल थे या कहें बेवकूफ थे

माफ़ी मांगने में आनाकानी जो कर रहे थे

भूल गए थे की................'मुंबई किसकी है?'

पर बधाई हो तुमने याद रखा।


सचमुच कितने बेवकूफ थे हंसल मेहता

मुँह पर कालिख पुतवा कर

सार्वजनिक रूप से अपमानित होकर

पिट-कर

अस्तित्व(जीवन) संकट होने पर

उन्होंने माफ़ी मांगी।

सचमुच आज के समय में कितने बेवकूफ लगते है वो।


लेकिन तुम कितने समझदार,

कितने प्रोफेशनल हो न ?

सीधे माफ़ी ही मांग ली ..........और

'सिड' को जगाने के

लिए खुद आँखे 'मूंद' ली

बधाई हो।

बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

बी.आर.टी से बेहतर तो यही होगा की आप लोगों को सहूलियत दें ताकि लोग ख़ुद अपना निजी वाहन छोड़कर पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सफर करें ...जैसी मेट्रो ने दी है.

खबर आई है कि शास्त्री पार्क से करावल नगर के बीच बी।आर।टी कोरिडोर का निर्माण किया जायेगा। बी.आर.टी कोरिडोर के सिलसिले में पहले ही अपनी फजीहत करवा चुकी शीला सरकार और बी.आर।टी के पहले और दूसरे चरण से भी सीख न लेते हुए सरकार का यह फैसला हमारी समझ से बाहर है. समझ नहीं आता कि कॉमन वेल्थ गेम्स कि हड़बड़ी में ये फैसले लिए जा रहे है या किसी खास तबके को इसका लाभ देने के लिए या फिर सिर्फ अपनी झोली भरने के लिए चूँकि हमें अभी तक भी इसका कोई फायदा नज़र आता नहीं दिख रहा है ये अच्छी बात है कि सरकार वाहनों को लेन में चलाना चाहती है पर ये बात समझ में नहीं आती कि ६०-७० फीट कि सड़क में वो कितनी लेन बना पायेगी क्या ये बात किसी भी लिहाज़ से ठीक मानी जा सकती है कि एक लेन पर तो जाम लगा हो और दूसरी लेने खाली हों? हम अभी भी ये नहीं कह रहे है कि सरकार कि सोच गलत है या बेमानी है लेकिन हाँ इतना कहने में भी संकोच नहीं किया जा सकता कि सरकार ये सभी फैसले हड़बड़ी में ले रही है वरना यदि वो वाकई इस 'ट्रेफिक जेम' कि समस्या से निजात पाना चाहती है तो इसके और भी कई सस्ते और टिकाऊ उपाय है कम से कम जितना पैसा कोरिडोर बनाने में सरकार खर्च करेगी उससे कम में इस समस्या से निजात पाई जा सकती है पिछले सालो में अपने काफी गलत फैसलों के बावजूद भी अगर ये सरकार दोबारा जनता का विश्वास जीतने में सफल रही तो इसमें उसके गलत फैसलों के साथ साथ कई सही फैसले भी शामिल थे इनमे से एक तो यही कि इस सरकार ने दिल्ली को सस्ते में ए।सी बसों कि सेवा मुहैया करवाई मुझे लगता है कि दिल्ली सरकार का जोर कोरिडोर बनाने कि जगह यदि ट्रेफिक को कम करने पर, दिल्ली में आये दिन बढ़ रहे निजी वाहनों कि संख्या में कमी करने पर यदि ज़्यादा हो तो इस तरह के विवादित कोरिडोर कि ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी संभवत इसी के लिए सरकार ने पहले कारपूल काम्पेग्न चलाया था जो पूरी तरह असफल रहा ज़ाहिरन तौर पर हर आदमी निजी वाहन चाहता है हालांकि उसे इस बात से कोई मतलब नहीं कि इससे क्या समस्या पैदा होती है या उसे क्या नुक्सान होता है।
जबसे मेट्रो शुरू हुई है तबसे एक बात और साफ़ हुई है कि यहाँ ऐसे लोगो कि कमी भी नहीं है जिनका मानना है कि यदि उन्हें पब्लिक ट्रासपोर्ट में सहूलियत मिले तो वो अपनी कारें पार्किंग में खड़ी करने में बिलकुल भी नहीं सकुचाएंगे। इससे तो इस समस्या का एक ही हल हमारी नज़रों में दीखता है कि जितना पैसा सरकार बी.आर.टी पर लगाने को तैयार है उसमे से कुछ हिस्सा सिर्फ मेट्रो जैसे प्रोजेक्ट या फ़िर ए.सी बसिज़ पर अगर लगाये और दिल्ली वासियों को सुविधा दे तो वो खुद ही अपनी-अपनी कारें अपने घर पर छोड़ कर आये लेकिन शर्त यही कि सहूलियत पूरी तरह मिले जिस तरह से मेट्रो ने अमीर और गरीब को कार और बसों से निकाल एक लाइन में खडा कर दिया है. लड़कियों को बाहर निकलने कि आज़ादी या सुविधा दी है ट्रेफिक पर बोझ कम किया है उसके बरक्स बी.आर.टी तो इसका हल किसी भी हिसाब से हमें नहीं लगता और शास्त्री पार्क और करावल नगर के बीच तो बिलकुल नहीं जिन्हें २ या ३ पुस्ते जोड़ते है वहाँ आप किस हिसाब से कोरिडोर बनवायेंगे। समझ से परे है ......

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

वर्तिका नंदा की कविता

आंखों के छोर से

पता भी नहीं चलता

कब आंसू टपक आता है और तुम कहते हो

मैं सपने देखूं।

तुम देख आए तारे ज़मी पे

तो तुम्हें लगा कि सपने

यूं ही संगीत की थिरकनों के साथ उग आते हैं।

नहीं, ऐसे नहीं उगते सपने।

मैं औरत हूँ।

अकेली हूं।

पत्रकार हूं।

मैं दुनिया भर के सामने फौलादी हो सकती हूं

पर अपने कमरे के शीशे के सामने

मेरा जो सच है,वह सिर्फ मुझे ही दिखता है

और उसी सच में, सच कहूं,सपने कहीं नहीं होते।

तुमसे बरसों मैनें यही मांगा था

मुझे औरत बनाना, आंसू नहीं

तब मैं कहां जानती थी दोनों एक ही हैं।

बस, अब मुझे मत कहो कि मैं देखूं सपने

मैं अकेली ही ठीक हूं

अधूरी, हवा सी भटकती।

पर तुम यह सब नहीं समझोगे

समझ भी नहीं सकते

क्योंकि तुम औरत नहीं हो

तुमने औरत के गर्म

आंसू की छलक

अपनी हथेली पर रखी ही कहां?


अब रहने दो

रहने दो कुछ भी कहना

बस मुझे खुद में छलकने दो और अधूरा ही रहने दो।

(वर्तिका नंदा की अनुमति से प्रकाशित....)