गुरुवार, 9 जून 2016

आज की दलित अस्मिता का प्रश्न वास्तव में दलित पुरुषों की अस्मिता का प्रश्न है


साहित्य न केवल मन के भावों को अभिव्यक्त करने का माध्यम है बल्कि दूसरे के भावों अनुभवों की अभिव्यकित का भी साधन है। साहित्य के माध्यम से ही हम एक स्थान पर बैठे बैठे दूसरे स्थान विशेष की संस्कृति, भाषा, रहन-सहन, खान-पान, संस्कार, आदि के विषय में जान सकते हैं। इस प्रकार साहित्य किसी भी प्रकार का दर्पण और धरोहर है। किसी व्यक्ति विशेष या जाति विशेष का उस पर कोई अधिकार नहीं। प्रायः तत्कालीन समय में उठने वाले ज्वलंत प्रश्न ही साहित्य में वाद-विवाद का प्रश्न बनते हैं। दलित साहित्य भी साहित्य में एक ज्वलंत प्रश्न बन कर  उभर रहा है। 
हिंदू समाज में चार वर्णों में विभाजित है। पहला सवर्ण पुरुष, दूसरा सवर्ण स्त्री, तीसरा दलित पुरुष, चौथा दलित स्त्री। इन चार स्तरों के आधार पर ही समाज में यहाँ तक कि साहित्य में भी इन चार स्तरों पर ही हमें इनका स्थान दिखलाई पड़ता है। समाज और साहित्य पर सबसे अधिक वर्चस्व सवर्ण पुरुषों का उसके पश्चात सवर्ण स्त्री का, तत्पश्यात दलित पुरुष और सबसे अंत में दलित स्त्री। हम देख सकते हैं कि दलित स्त्री का स्थान समाज और साहित्य में निम्न से निम्नतर है। और इस पुरुष प्रधान समाज में दलित पुरुष को सवर्ण स्त्री के पीछे रखा गया है। वास्तव में दलित स्त्रियों की स्थिति हमारे समाज में दलित पुरुषों से भी बेकार है। उन्हें समाज में दो-दो मार झेलनी होती है पहला स्त्री होने की और दूसरा दलित होने की। यहीं पर एक सवर्ण स्त्री एक दलित स्त्री से अलग हो जाती है इस जाति-भेद के कारण ही उनके बहुत से सरोकार अलग अलग दिखाई देते हैं। इन दोनों के अंतर  को एम. प्रभावती , प्रभा मुथल, सुशीला मूले, आशा थोरात, अरुणा लोखाड़े, कौशल्या           आदि
मतावलंबियाँ भी मानती हैं उनका कहना है कि "देश के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में दलित और सवर्ण स्त्रियों को अल-अलग प्रकार की बाधाओं से ग़ुज़रना पड़ता है। दलित स्त्री समाज के आख़िरी हाशिए पर है। परिवार के भीतर दोनों के दमन शोषण में समानता हो सकती है लेकिन दलित स्त्री को कमज़ोर सामाजिक और आर्थिक स्थिति की वजह से भी दमित होना पड़ता है। सवर्ण औरतें भी दलित और ग़रीब होने की वजह से उसको प्रताणित करने के साथ-साथ उसका शोषण करतीं हैं। दूसरा सवर्ण स्त्री शिक्षा तथा अन्य सामाजिक क्षेत्रों में दलित स्त्री से बहुत आगे हैं।" (भारत में स्त्री असमानताःएक विमर्श- डॉ गोपा जोशी, पृष्ठ ०७)
स्त्री विमर्श को लेकर बहुत सारी बातें की जाती हैं। समय-समय पर गोष्ठियाँ-संगोष्ठियाँ , वर्कशॉप और न जाने क्या-क्या होता रहता है परंतु इन सभी कार्यक्रमों में केवल सवर्ण स्त्री को ही केंद्र में रखा जाता है। एक दलित अथवा आदिवासी स्त्री के अधिकारों उनकी यातनाओं और पीड़ाओ आदि के विषय में यहाँ भी कोई विशेष चर्चा होती दिखलाई नहीं पड़ती। सभी सिर्फ अपने-अपने अधिकारों की बात करते हैं। हमारे समाज(दलित समाज) में भी हम देखते हैं कि अधिकांश दलित पुरुष ही विभिन्न कार्यक्रमों में अधिक दिखाई देते हैं। दलित स्त्रियों की संख्या कुछ ही दिखलाई पड़ती है। स्वतंत्रता सभी को प्यारी है यह बात हमसे(दलितों) अधिक और कौन जान सकता है। इतने सालों की यातना झेलने के बाद आज भी हम अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहें हैं। पर दलित स्त्रियाँ वे तो दलित पुरुषों से भी पीछे हैं। आज की दलित अस्मिता का प्रश्न वास्तव में दलित पुरुषों की अस्मिता का प्रश्न है। आज कितनी दलित स्त्रियाँ ऐसी हैं जो वक्ता के रूप में विभिन्न कार्यक्रमों में दिखाई देती हैं। उन्हें तो अपने दलित पुरुषों से भी अपने अधिकार माँगने पड़ते हैं। दलित स्त्रियों के विषय में तुलनात्मक रूप में दलित पुरुषों द्वारा ही अधिक लिखा जा रहा है। फिर चाहे वह साहित्य की कोई भी विधा क्यों न हो। जब दलितों के विषय में दलित ही बेहतर ढंग से लिख सकतें हैं तो दलित स्त्रियों के विषय में दलित स्त्रियाँ क्यों नहीं, जबकि उन्हें तो समाज में रहकर दो-दो मारें झेलनी पड़ती हैं। दलित स्त्रियाँ अपने अनुभवों की  जितनी सहज अनुभूति कर सकती हैं उतनी अन्य व्यक्ति नहीं। क्योंकि कल्पनाएँ भी सीमारहित नहीं होतीं। यहां यह सवाल उठना भी स्वाभाविक है कि दलित स्त्रियों को रोका किसने है? पर क्या दलित स्त्रियों को दलित पुरुषों की अपेक्षा वे सामाजिक-आर्थिक अधिकार दिए जाते हैं जो उनके आगे बढ़ने में सहायक हों। यहाँ तक कि उनके लिए एक ख़ाक़ा भी पहले से ही तैयार कर दिया जाता है।


वर्चुअल स्पेस : ज्ञान और खोज का नया प्लेटफॉर्म और मु्द्रित माध्यम


"बिल्कुल संभव है कि हमारे तर्क कमजोर हों क्योंकि इंटरनेट और वर्चुअल स्पेस की जमकर पैरवी करने के बावजूद भी हम कहीं न कहीं मुद्रित माध्यमों के साथ खुद को खड़ा पाते हैं।" -Tarun Gupta
मुद्रित माध्यम इंटरनेट से पहले भी कारगर रहे हैं और आज भी हैं। पुस्तकें पहले भी छपती और बिकती थीं और आज भी छपती और बिकती हैं बल्कि कहीं ज्यादा छपती और बिकती हैं। जिन पाठकों को पुस्तकें पढ़ने का शौक है वे इंटरनेट पर भी पढ़ते हैं और खरीदकर भी। फिर सवाल है कि आज के युग में खासकर इंटरनेट के युग में मुद्रित माध्यम के समक्ष चुनौती कौन सी है या हम कहें वे कौन से खतरें हैं जो मुद्रित माध्यमों के लिये इंटरनेट के आने के बाद पैदा हुए। मुझे लगता है यह थोड़ा समझ का फेर है लेकिन उसे समझने से पहले वर्तमान स्थिति पर थोड़ा ध्यान देना चाहिये। 
वर्तमान समय में (जिसे हम इंटरनेट का दौर कह रहे हैं) किताबों की बिक्री और प्रकाशन बढ़ा ही है। इसके लिये वे खबरें आधार स्वरूप ली जा सकती हैं जो पुस्तक मेला लगने के दौरान अखबारों में आती हैं। हालांकि प्रकाशकों का मर्ज कुछ और ही होता है।
बहरहाल एक समय था जब आपको अपने विचार अभिव्यक्त करने के लिये पुस्तक और उसके प्रकाशन का सहारा लेना पड़ता था। एक समय था जब आपके पास खबरों को हासिल करने का जोखिम उठाने का साहस होने के बावजूद किसी प्रैस का मुँह ताकना पड़ता था। एक समय था जब एक कवि या शायर को अपने अशआर लोगों तक पहुँचाने के लिये प्रकाशक की चिरौरी करनी पड़ती थी। एक समय था जब लेखक अपनी पुस्तक की भूमिका में प्रकाशक का धन्यवाद देने के लिये बाध्य था। उसे भय था कि अगर उसने ऐसा नहीं किया तो प्रकाशक रूठ जाएगा संभवत् अगली पुस्तक के प्रकाशन के वक्त परेशान करे। एक समय था जब लेखक कुछ लिखता और छपवा न सकने के ग़म में स्वांतसुखाय हो उस रचना को एक डायरी की शक्ल दे दिया करता। यानि लेखक को अपनी बात पाठक तक पहुँचाने के लिये प्रकाशक की सहमति-असहमति से होकर गुजरना पड़ता था। लेखक की क्या मजाल जो वह प्रकाशक की सहमति के बिना पुस्तक में कोई विरोधी बात कर सके। हम यहाँ प्रकाशकों का सामान्यीकरण नहीं कर रहे लेकिन उस समय अधिकतर लेखक एक तरह के प्रकाशक वर्चस्व की परिधि से स्वयं को आजाद नहीं कर पाते थे। यानि इंटरनेट से पहले लेखक के विचारों की आजादी प्रकाशक की गुलामी के बिना संभव नहीं थी। कम से कम हिंदी जगत में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो जीवनभर अपनी कृतियों को प्रकाशित करवाने के लिये प्रकाशकों के चक्कर काटते रहे, पर अपना लिखा न छपवा सके। यह एक तरह का विरोधाभासी जगत है जहाँ हमें एक तरफ किताबों की शक्ल में छपीं दोयम दर्जे की पुस्तकों की भरमार मिलेगी साथ ही दूसरी तरफ अच्छी और पठनीय पुस्तकों के ‘आउट ऑफ प्रिंट’ होने की कसक भी मिलेगी, जिनके पाठक सालों से उनके प्रकाशन के इंतज़ार में है। हम कहेंगे विरोधाभासी होने के बावजूद यह मुद्रित माध्यमों का समानांतर संसार है। दोनों साथ-साथ चलते हैं। लेकिन जैसा मैंने कहा, यह एक समय था।
आज प्रकाशक के व्यवहार में अगर परिवर्तन न भी आया हो तो लेखक के पास इंटरनेट के रूप में एक प्लेटफॉर्म है जहाँ वह अपनी बात बेझिझक रख सकता है। जहाँ उसके शब्दों और विचारों पर सेंसर की तलवार नहीं लटकी होती। जहाँ वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सार्थक प्रयोग कर सकता है। जहाँ वह पॉपुलर हो सकता है इतना कि प्रकाशक खुद उसे छापने के लिये लालायित दिखें। पत्रिकाएं उससे कॉलम लिखवाने के लिये संपर्क साधे। वह एक वक्ता के रूप में व्याख्यान दे। यानि ‘खुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रज़ा क्या है।‘ आप कवि हैं कविता लिखते हैं, आपकी डायरी आपकी कविताओं से भरी पड़ी है। आप कथाकार हैं कहानियाँ लिखना आपको पसंद है। आप दुनिया जहान की खबर रखते हैं। आप एक पत्रकार बनना चाहते हैं। इंटरनेट से पहले आपको अपनी इच्छाओं को दूसरे के हिसाब से ढालना पड़ सकता था। लेकिन इंटरनेट के आने के बाद आप स्वयं सक्षम है कि आप अपना मनचाहा लिखें और उन पर आई टिप्पणियों का जवाब दें। मुद्रित माध्यमों में लेखक और पाठक के मध्य एक तरह का गैप विद्यमान था। वर्चुअल स्पेस ने यह गैप बिल्कुल खत्म कर दिया है। यहाँ लेखक पाठक से सीधे मुखातिब है। वर्तमान समय की यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसे हम सिर्फ मुद्रित माध्यमों की स्थिति और चुनौतियों के स्तर पर ही नहीं बल्कि इंटरनेट के संदर्भ में अभिव्यक्ति के नये उभरते प्लेटफॉर्म और खोज के नए उपक्रम के रूप में भी देख और समझ सकते हैं।
इंटरनेट के दौर में, आज ऐसे लेखकों की कमी नहीं है जिन्होंने अपने लेखन की शुरुआत ब्लॉग लिखने से की और लोगों द्वारा सराहे गये। ऐसे पत्रकार, कवि, आलोचकों, अध्यापकों की कमी नहीं जो मुद्रित माध्यम की अपेक्षा वर्चुअल स्पेस पर अपनी बात रखने को ज्यादा तरजीह देते हैं।
मोहल्लालाइव, मीडियाखबर.कॉम, हुंकार.कॉम, नईसड़क.कॉम, दीवान, द हूट, चुरमुरी.कॉम, भड़ास.कॉम, जानकीपुल.कॉम आदि ऐसे अनगिनत ब्लॉंग हैं जो निरंतर सक्रिय हैं लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं समझना चाहिये कि इनका उभार मुद्रित माध्यम के पतन के रूप में हमारे सामने आया है। हमें लगता है कि किताबों की खरीद की अपनी दुनिया है। हमें मुद्रित माध्यम को इंटरनेट के बरक्स रखकर अपनी बात नहीं करनी चाहिए। इंटरनेट अपने उपयोगकर्ता को खरीद से पहले की प्रक्रिया की बानगी व्यवहारगत रूप में समझाता है और उसके सामने खोज का एक अपार संसार खोल देता है ताकि पाठक यह तय कर सके कि उसे क्या खरीदना है और क्या नहीं। इसमें कोई शक नहीं कि इंटरनेट इस तरह का विकल्प अपने उपयोगकर्ता को मुहैया कराता है।
मेरे कई मित्र हैं जिन्होंने ब्लॉगिंग को अपनी अभिव्यक्ति का औज़ार बनाया। उन्हीं में से एक हैं विनीत कुमार जो ‘मंडी में मीडिया’ जैसी पुस्तक के लेखक हैं। आज मैं सन् २०१३ में खड़ा होकर २००७ के विनीत को देखता हूँ जो रवि रतलामी के नुस्खों और तकनीकों से सीख ब्लॉग लिख रहे थे। तब महत्वपूर्ण यह नहीं था कि वे क्या लिख रहे थे। बल्कि महत्वपूर्ण यह था कि वे निरंतर लिख रहे थे। पहले गाहे-बगाहे और अब हुंकार.कॉम के द्वारा वो हमारे सामने एक मीडिया क्रिटिक के रूप में जाने जाते हैं। उनके जैसे उदाहरणों से वर्चुअल स्पेस की शक्ति का अहसास होता है ब्लॉग, फेसबुक, ट्विटर हमें ऐसा प्लेटफॉर्म देते हैं जहाँ हम खुलकर अपनी बात को अभिव्यक्त कर सकते हैं। अपने आपको स्थापित कर सकते हैं। वर्चुअल स्पेस आपसे वह शब्दावली छीन लेता है जिसमें आप कहें कि मैं लिखता तो बहुत हूँ पर मुझे कोई छापता नहीं इसलिए मुझे कोई पढ़ता नहीं। मुद्रण माध्यमों और इंटरनेट के मध्य की स्थिति ने अगर आज एक चुनौती का रूप धारण कर लिया है तो उसके कारणों के रूप में निम्नलिखित उदाहरण को लिया जा सकता है।
नीरा राडिया के केस पर लिखे सेवंती नैनन के एक लेख (बिग ब्रदर्स टू द रेस्क्यू) को जब ‘द हिंदू’ ने छापने से मना कर दिया। तब उन्होंने वह लेख ‘द हूट’ पर डाल दिया। अगर इंटरनेट न होता तो संभवत् इसकी प्रतिक्रिया एक खीझ, एक कसक के रूप में होती। ‘द हिंदू’ जैसा सम्मानित अखबार जब अपने ही कॉलम(मीडिया मैटर्स) लेखक को किसी लेख को छापने से मना कर सकता है। तब ऐसी स्थिति में आम लेखक और अन्य अखबारों के बारे में क्या कहा जाए।
इस तरह के कई उदाहरण सामने रखे जा सकते हैं जो मुद्रण माध्यम की तानाशाही और वर्चुअल स्पेस के जनतंत्र का समर्थन करते हैं।
वर्चुअल स्पेस की अन्य उपलब्धि यह भी है कि यह जहाँ एक ओर अभिव्यक्ति के लिये प्लेटफॉर्म प्रदान करता है वहीं ज्ञान का अपार संसार अपने उपयोगकर्ता के लिये खोल देता है। मुद्रित माध्यम इस तरह की सहूलियत अपने पाठकों को नहीं दे पाता। देता है तो कठिन परिश्रम और समय लेने के पश्चात। लेकिन वर्चुअल स्पेस पर यह सिर्फ कुछ शब्दों को टाइप करने और एक क्लिक पर आपके सामने उपलब्ध है। मान लीजिये आपको किसी लेखक या राजनेता के बारे में जिस किताब में भी लिखा गया हो, वह देखना है। ऐसे में मुद्रित माध्यम आपको कुछ दे पाये या न दे पाये वर्चुअल स्पेस पर आप गूगल बुक्स में जाकर उस लेखक या राजनेता का नाम टाइप कर दीजिये आपके सामने सैंकड़ों किताबें खुल जाएगी। और गूगल आपको सीधे किताब के उस पन्ने पर ले जाएगा। जहाँ उस लेखक या राजनेता का नाम आया है।
वर्चुअल स्पेस की इसी तरह की खूबी मुद्रित माध्यमों के लिये चुनौती बन गई है। लेकिन अब भी मुद्रित माध्यमों के पास अपार संभावनाएँ है। अभी भारत की अधिकतर आबादी इंटरनेट से महरूम है। आज इंटरनेट का उपयोगकर्ता पाँच सात पेज तो नेट पर पढ लेता है पर जहाँ पूरी किताब, ऩ़ॉवेल या कहानी पढने की बात आती है। वह प्रकाशित किताबों के पास जाता है। क्यों न वर्चुअल स्पेस को मुद्रित माध्यमों के विकास और प्रसार का माध्यम बनाया जाए। क्यों न हम उन उपायो को खोजें जिनसे किताबों को इंटरनेट के माध्यम से ज्यादा हाथों तक पहुँचाया जा सके। ऐसा क्यों होता कि जवाहरलाल नेहरू की किताब ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ फ्लिपकार्ट.कॉम पर चालीस फीसदी की छूट के साथ घर तक पहुँच जाती है जबकि उसका अपना प्रकाशक ‘पैंग्विन’ उस पर दस फीसदी से ज्यादा की छूट नहीं दे पाता। बिल्कुल संभव है कि हमारे तर्क कमजोर हों क्योंकि इंटरनेट और वर्चुअल स्पेस की जमकर पैरवी करने के बावजूद भी हम कहीं न कहीं मुद्रित माध्यमों के साथ खुद को खड़ा पाते हैं।
(यह लेख लघु लेख करीब दो ढाई साल पहले लिखा गया था आज फेसबुक पर आपसे साझा कर रहा हूँ।)