मंगलवार, 24 जुलाई 2012

क्या मैं आदमी हूँ

तुमने कहा कभी तो हँसा करो,
मेरे लिए ही सही

मैंने अपने आँसुओ को सुखा दिया।
और दाँत दिखाकर हँसने लगा।

तुमने कहा तुम गुस्सा बहुत करते हो।
चिल्लाते क्यों रहते हो हर वक्त।

मैंने पाया
मेरी दुम निकल आयी है।
और मेरी जीभ से लार टपक रही है।

तुमने कहा
इर्रिटेट होना अच्छी बात नहीं।

मैंने अपने दिल के सारे घावों को ढँक लिया
और सेल्समैन की तरह हर बात पर मुस्कराने लगा।


फिर एक दिन तुमने कहा।
तुम 'वो आदमी' नहीं जिससे मैंने प्यार किया था।

मैं सोचने लगा
क्या मैं 'आदमी' हूँ।

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

एड हॉक इंटरव्यू

कमरे में घुसते ही एक अजीब सा सन्नाटा था। सामने बैठी मैडमें जिनके हाथ में एक एक पर्चा था आपस में खुसुरफुसुर में मगन थी। वह सकुचाती हुई भीतर घुसी। उसने सिर और आँखें नमस्ते के अंदाज़ में झुका दीं। 
एड हॉक पैनल में नाम है तुम्हारा ? (उनमें से एक ने पूछा)
जी मैम। (उसने सहम कर जवाब दिया) 

हाँ तो तुम्हारा पीएच.डी का काम किस विधा पर है।
मैम नैमिचंद्र जैन की रंग समीक्षा पर।

अच्छा तो बताओ भक्तिकाल के केंद्र में क्या है? (अब की बार कोने में बैठी उम्रदराज़ मैडम ने पर्चे पर नज़रे गड़ाते हुए पूछा)।
मैम भक्ति।
ओह।(मुँह बिचकाते हुए बराबर वाली मैडम ने यह भाव व्यक्त किया)

विपर्य किसे कहते है कहानी और उपन्यास में क्या अंतर है? (दूसरे कोने में बैठी मैडम ने तुरंत अगला सवाल दागा)
वह अपने बी.ए और एम.ए. के दिनों की स्मृतियों मे खो गई।

अगला सवाल पूछने के लिए दोनों किनारों की मैडमों ने बिल्कुल मध्य में बैठी मैडम की ओर देखा जो अपने मोबाइल पर नंबरों को रगड़ने में मगन थी।
ओह अच्छा ये बताओ भक्ति के ...( ये पूछ चुके है उनके बराबर में बैठी एक अन्य मैडम ने बीच में टोकते हुए कहा।)
ओह सॉरी हाँ तो आख्यानात्मक कविता और प्रगी...परगीता ...ये क्या लिखा है फोटोकॉपी वाले ने सही से प्रिंट नहीं किया।( प्रगीतात्मक। , एक अन्य मैडम ने कानों मे कहा) हाँ प्रगीतात्मक कविता किसे कहते है? (मैडम ने पर्चे को अजीब तरह से आँखों के करीब लाकर पूछा)
सॉरी मैम मुझे तो ये अवधारणा ही समझ नही आई। कविता तो कविता होती है उसे आख्यानात्मक और प्रगीतात्मक जैसे बोझिल शब्दों से जोड़ने की जरूरत ही क्या है?

ओह तो तुम क्लास में क्रांति करना चाहती हो। स्लैबस के खिलाफ बच्चों को खड़ा करना चाहती हो।
नहीं मैम मै तो। बस

नहीं नहीं बोलो
बाकि मैडमों ने ध्वनि मत में उस मैडम का साथ दिया।

अच्छा बताओं विरुद्धो का सामंजस्य किसकी रचना है?
उसे लगा कि उसका गला कोई दबा रहा है उसे उस कमरे में अजीब सी घुटन महसूस हुई। कमरे के सन्नाटे उसके कानों में चीखने लगे। उसने कानों पर दोनो हथेलियाँ कस लीं और उठने का प्रयास किया पर उसने पाया कि उसके नीचे पैर ही नहीं हैं।

रविवार, 1 जुलाई 2012

फिर उसकी कहानी कौन कहेगा?

उस दिन कुछ भी ऐसा नहीं था जो उसे लगा हो कि दिवाली आने वाली है वो बस अपने गुरु कुशवाहा जी द्वारा क्लास में कहे गये वाक्यों को याद रखे था। कि इस देश का संविधान हर एक को अपनी बात रखने की, पसंद-नापसंद की इजाज़त देता है। वह बहुत प्रेरित हुआ था उस दिन, उसने अपनी किताब का चैप्टर मौलिक अधिकार पूरा पढ़ डाला था उस दिन।
उन बाज़ारों में जहाँ लोग लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियाँ और हीरो-हिरोइन के पोस्टरों को खोजते फिर रहे थे वह हर पोस्टर और तस्वीरों की दुकान पर जाता पर उसे उसका हीरो नहीं मिलता। फिर थोड़ी दूर किनारे पर उसे वो पोस्टर दिखाई दिया जिसकी उसे तलाश थी।
उसके पड़ोसी जिन्हें वो चाचा कहता था उसका इंतज़ार कर रहे थे कि कब वो लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियाँ लाए। वो लौटा एक हाथ में लक्ष्मी-गणेश और दूसरे हाथ में अपने हीरो का पोस्टर लिए। उसने चाचा के हाथ में मूर्तियाँ पकड़ाईं और घर की तरफ मुड़ा ही था कि चाचा ने टोका अरे, रुक. ये क्या लाया है हमें भी तो दिखा।
चाचा वो कुशवाहा जी बहुत तारीफ करते हैं इनकी, कहते हैं कि इन जैसे लोग शताब्दियों में पैदा होते हैं पर दिखा तो चाचा ने कहते हुए उसके हाथ से पोस्टर झपट लिया। रबड़ उतारी और देखा। देखा क्या देखते ही आग बबूला हो गये। ये क्या , तेरी बुद्धि क्या घास चरने गयी है। भाईसाहब देखेंगे तो चिल्लाएंगे। बनियों-बामनों के घर में इसकी तस्वीर नहीं लगाते।
पर कुशवाहा जी तो...(उसने सहमी आवाज में कहा) गोली मार अपने कुशवाहा जी को..ये मास्टर तुम्हें कैसी शिक्षा दे रहा है। जानता नहीं कि ये शैडूलो का भगवान है। घर में इसे लगाया तो क्या सोचेंगे बिरादरी वाले। चाचा पर मोहन भी तो शाहरुख खान और सलमान खान की तस्वीरें लाया है लगाने को। तो क्या आप मुसलमान हो गये।.. पर वो उसके पसंदीदा हीरों हैं।.. ला दे इधर चर्ररर् फर्रररर. ..
चाचा पर ..पर फाड़ा क्यों? कुशवाहा जी कहते हैं कि इनकी वजह से ही देश के बहुत बड़े तबके को उसके अधिकार मिलें हैं हमारे देश का संविधान इन्होंने ही लिखा है। तेरे कुशवाहा कि खबर मैं लूँगा ये क्या सब सिखाये जा रहा हमारे बालको को.. चाचा मैं बच्चा नहीं हूँ अब. पर आपने फाड़ा क्यो।,,फाड़ा क्यों..? उसने खूद को अकेला पाया। और उस दिन के बाद ये अकेलापन दिन-ब-दिन बढ़ता गया।
तब वो ग्याहरवीं क्लास में था उसका दिल भर आया था उस दिन। तब वह सोच रहा था कि ये कैसी बिरादरी है जो एक मनुष्य को उसके कर्मों के कारण नहीं बल्कि जाति से पहचानती है। उसी क्लास में आर.के.शर्मा (इतिहास के अध्यापक) ने उसे बताया था कि रामायण महाभारत काल में जाति विभाजन कर्म आधारित था उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा था कि जैसे परशुराम ब्राह्मण होते हुए धनुष उठाने के कारण क्षत्रिय बने और वाल्मीकि दलित होने के बावजूद अपने कर्म के आधार पर ही ब्राह्मण।
वो तब भी कन्फ्यूज़ था ये सब क्या है? ये बातें पुरानी थी पर आज इतने सालों बाद अपने दलित दोस्तों के बीच उसे फिर वहीं अकेलापन झेलना पड़ा जो उसे पहले बिरादरी के नाम पर झेलना पड़ा था। एक अंतर्ऱाष्ट्रीय दलित सम्मेलन में घोषणा की गई कि दलितों पर लिखने का हक़ दलितों को ही है। उस उद्घोषणा में उसे उसके चाचा की बानगी दिखी उसे लगा फिर उसकी कहानी कौन कहेगा।

मुर्गी की टाँग


मुर्गी की टांग

नौसिखीए गुलशन ने आव देखा न ताव बस बाइक भगा दी और घर की तरफ दौड़ाई। उसके दिमाग से लाली की छवि एकदम से बदलकर मुर्गी की टाँग में समा गयी। घर आके उसने जल्दी से बाइक घर में घुसेड़ी और छत पर चला गया। मैं उसका जिग्री दोस्त हूँ ऐसा वो अक्सर कहता रहता। लेकिन ऐसे मौकों पर वो छत पर भाग जाता। लाली रामदीन टांक की एक लौती लड़की थी। जिसे इम्पैस करने के लिए वो भाई को दहेज में मिली नई नवेली बाइक जबरन दिखाने ले गया था। उसने मुझे ये बताया था पर उसके चेहरे का पसीना कुछ और बयाँ कर रहा था। क्या हुआ मैंने पूछा, कुछ नहीं उसने कहा और गली के छोर पर देखने लगा। ऐसा बदहवास मैंने उसे इससे पहले कभी नहीं देखा था। हमारा मोहल्ला उस वक्त बामन बनियों का मोहल्ला हुआ करता था और गुलशन को सामने के मोहल्ले की लाली पसंद आई थी वो मोहल्ला जहाँ न जाने के लिए हमारे घरवालों सख्त हिदायत दे रखी थी। पर ये लड़कपन का पहला प्यार था सुबह वह अपने मुर्गे-मु्र्गियों को दाना डालने के लिए बाहर निकलती थी यही वक्त चुना था उसने। मुझे पता था ये बवाल तो होना ही एक ना एक दिन। बामन का लड़का और चमारों की लड़की को ..। मोहल्ले की नाक नहीं कट जाएगी। गली के छोर से आवाजे आनी शुरु हुई।
यही गली है चाचा..यही भागा था वो लोंडा। ढ़ँढो यहीं होगा। वो रा चाचा. वो रा. छत पे छुपे गुलशन पर उनमें से एक की नज़र पड़ी। गुलशन भागा। मुझे पता था लाली के चक्कर में ये तगड़ा फँसेगा एक दिन। पर नहीं पता था कि वो दिन इतनी जल्दी आ जाएगा। ये तो शर्मा का घर है। उस समय जीने का दरवाजा बाहर की ओर था खींच कर लाने में कोई तकलीफ नहीं हुई थी उन्हें। तबियत से धुलाई की गई थी। मैं अच्छी दोस्ती का फर्ज निभा दूर से देख भर रहा था ये सब। मैं भागा आंटी गुलशन को वो लोग पीट रहे हैं इतने में मोहल्ला इकट्टा हो गया। साले उसकी टाँग तोड़ के भाग आया। रुकता तब बताते। बात कुछ नहीं थी पर बहुत बड़ी थी। लाली का सुंदर चेहरा उसके चाचा के चाँटों ने धुमिल कर दिया था और उसकी जगह मुर्गी की टूटी टाँग घूम रही थी। उस दिन के बाद गुलशन कभी उस सड़क से नहीं गुजरा। उसने छत से देखा लाली का भाई दाँत में फँसा लैग पीस का कतरा निकालने में व्यस्त था। लाली नीचे माचिस की तीली खोजने गयी हुई थी। मैं दोस्त की पिटाई पर पहले खौफ़ में था पर अब अंदर ही अंदर हँस रहा था कि साले मुर्गी की टाँग टूटने पर तेरा मुँह सुजा दिया उन लोगों ने। अगर मैं बता दूँ कि तून लाली का मुँह चुमा हुआ है तो। मजा आ जाएगा। गुलशन ने उस दिन के बाद लाली के बारे में मुझसे कोई बात नहीं की। कॉलेज में आकर एक दोस्त ने कहा कि लड़कपन का प्यार भी कोई प्यार होता है।