रविवार, 23 नवंबर 2008

ड़ी.यू (सार्थक अभिव्यक्ति की तलाश)


कुछ दिन पूर्व आर्ट फैकल्टी में गिलानी के भाषण के अवसर पर ए.बी.वी.पी के कार्यकर्ताओं ने अपना विरोध उनके मुँह पर थूक कर जताया । ऐसा करने पर वे बेहद खुश थे उन्हें लगा होगा कि उन्होंने विरोध का क्या नायाब तरीक़ा इख्तियार किया है । जिस पर थूका वो बेचारा तो शर्म से ही मर जाएगा ये बिल्कुल ऐसा ही है जैसा किसी लड़की के द्वारा प्रप्रोज़ल ठुकराने पर उसके मुँह पर अपनी भड़ास के रूप में तेजाब डालना जिसका प्रचलन आजकल बहुतायत है । वास्तव में उन्होंने (ए.बी.वी.पी ) गिलानी के मुँह पर नहीं थूका । उन्होंने थूका है विश्वविद्यालय प्रशासन के ऊपर , जो अपने आपको धृतराष्ट्र की तरह लाचार दिखाने की कोशिश करता है । चाहे अपने आपको विद्यार्थी हितों के समर्थक कहने वाले विचार शून्य ए.बी.वी.पी कार्यकर्ता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में तोड़फोड़ करें या इतिहास विभाग के फर्नीचर पर अपना गुस्सा उतारें लेकिन प्रशासन तो जैसे मूक दर्शक की भाँति सारी डॉक्यूमैंट्री को देखने के लिए बाध्य है । उन्होंने थूका है भारतीय लोकतंञ के ऊपर जहाँ हर किसी को (दिखावे के लिए ही सही )अभिव्यक्ति की स्वतंञता प्राप्त है । दरअसल दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रचलित पार्टियों की मुख्य दिक्कत यही है कि इनमें ग्लैमर और पैसे या पॉवर की तो भरमार है लेकिन जहाँ बहस करने का मसला आता है ये लोग ना-नुकुर करने लगते है । चूँकि इनके पास कोई विचार नहीं होता इसलिये ये थूकने या हाथापाई जैसे निकृष्ट काम करने से भी नहीं हिचकिचाते २ वर्ष पूर्व इसी ए.बी.वी.पी ने विश्वविद्यालय के प्रो. सभरवाल से भी हाथापाई की थी । ये लोग क्यों भूल जाते हैं कि ये स्कूलों से निकल चुकें हैं जहाँ कंडेक्टर के स्टाफ न चलाने पर ये उनकी बसों के शीशे तोड़ दिया करते थे । ये दिल्ली विश्वविद्यालय है जिसकी अपनी साख है उनकी ऐसी हरक़तें सारे विश्व में दिल्ली यूनिवर्सिटी की छवि को धुँधला कर देती हैं ।ये क्यों भूल जाते है कि अगर ये किसी व्यक्ति या विचार से सहमत नहीं तो विरोध करना कोई बुरी बात नहीं लेकिन विरोध जताने का एक सलीका होता है क्या इन्होंने ये नहीं सीखा या गुंडागर्दी से ही विद्यार्थियों में अपनी पैठ बनाने की उन्होंने ठान रक्खी है । इन लोगों को कम से कम इतना तो पता ही होना चाहिये कि थूकने या हाथापाई करने से सामने वाला आपके डर से बोलना नही छोड़ देगा बल्कि वो आपकी ज्यादती के ख़िलाफ और मुखर होगा । आपको विरोध करने का इतना ही शौक है तो खुली बहस कीजिए । हम भी देखें हमारे ये तथाकथित नेता सिर्फ हाथों से ही नही बल्कि बातों से भी अपने विरोधियों को चित करने मे सक्षम हैं । लेकिन उसके लिये चेहरा चमकाने या डोले-शोले बनाने से ज़्यादा पढ़ना ज़रूरी है जिसका इन लोगों मे माद्दा नहीं है इनको तो नेरूलाज़ में मुफ्त की रोटी तोड़ने से ही फुरसत नहीं मिलती । इसलिये इन्हें मुद्दों के नाम पर बांग्लादेशी घुसपैठ दिखाई देती है या फिर राष्ट्रगान व वंदेमातरम को ये अपना मुद्दा बनाते हैं जिनका छाञों के हितो से कोई वास्ता नहीं । इस तरह के मुद्दों के लिए हमारे राष्ट्रीय दल हैं ना । पर गलती इन लोगों की नहीं , गलती है हम विद्यार्थियों की , कि ये सब जानने के बावजूद इन लोगों को जिता देते हैं लानत है हम लोगों पर जो सिर्फ चेहरे पर फिदा होकर या ढोल-नगाड़ों और दारू के लालच मे अपना कीमती वोट ऐसे लोगों को दे देते हैं । यही लोग आगे चलकर राष्ट्रीय दलों के टिकट पर चुनाव लड़ते हैं और विधानसभा या संसद में कुर्सियाँ , चप्पल , लात , घूँसे चलातें हैं । हमें इन्हें जवाब देना होगा लेकिन इनके तरीकों से नहीं अपने तरीकों से । हमें यूनिवर्सिटी में शोर-शराबे से अलग एक बहसनुमा माहौल तैयार करना होगा । जे.एन.यू इसका एक अच्छा उदाहरण कहा जा सकता है।

4 टिप्‍पणियां:

संगीता पुरी ने कहा…

हमें यूनिवर्सिटी में शोर-शराबे से अलग एक बहसनुमा माहौल तैयार करना होगा ....सही कहा। इस कैम्‍पस में पढे लिखे लोग रहते हैं , गुंडे नहीं , कि जोर जबर्दस्‍ती की जाए।

Neelima ने कहा…

आपके ब्लॉग में दम है ! लिखते रहें !

जितेन्द़ भगत ने कहा…

विचारोत्‍तेजक।

आर. अनुराधा ने कहा…

तरुण जी,
आपके ब्लॉग पर पहली बार आई, गलती से, किसी और लिंक को खोजते हुए। पूरा तो नहीं पढ़ा पर आपकी कैच लाइन सचमुच कैची है। - जिनके होने का कोई असर ना था मुझ पर, बिछड़ गए तो वही याद उम्र भर आए ।----
इजाजत दें तो कही और अपने लिए चेप लूं इसे?