गुरुवार, 18 सितंबर 2008

नया स्लेबस नयी राह

दिल्ली के स्कूलों में स्लेबस रिवाइस्ड हुए अभी लगभग दो-तीन साल ही बीते होंगे , संभवत् सुनामी के बाद । जब दिल्ली के स्कूलों को लगभग बीस बरस के उस स्लेबस को छोड़ना पड़ा था जिसने ना जाने कितने आई.ए.एस , पी.सी.एस,डायरेक्टर,आदि पैदा किये थे । यहाँ तक की आज भी एन.सी .ई.आर.टी की किताबों की धूम हैं किसी भी सब्जेक्ट से सिविल की तैयारी शुरू करने वाला कोई भी परिक्षार्थी आज भी इन किताबों को अपना प्रारंभिक चरणबिंदु मानता है । ऐसा नही कि आज जो किताबें सिलेबस में लगाईं गयीं है वो नाकाफी हों या समकालीन न हो । उन्हें रिवाइस्ड करने का अहम् फैसला लेने के मुख्य कारण संभवत् काफी लंबे समय से नये संस्करण का न आना , भाषिक अशुध्दियाँ , और पिछले बीस सालों में ग्लोबल वार्मिंग या कहें प्राकृतिक आपदा के बढ़ते खतरों ,एवं राजनीति ,अर्थव्यवस्था में बदलाव , व कहीं ना कहीं दिल्ली में आगामी वर्षो में होने वाले खेल रहे होंगे । आज का भारत ८०-९० के दशक का भारत नही था उसकी परिस्थितियाँ ,ज़रुरतें , मुश्किलें सब बदल रहीं थी । इसे बदलना था अपने आज के लिये , और चलना था अपने कल के लिये । इसलिये इसे बदलने की कोशिश की शुरुआत देश की राजधानी से हुई और इसे बदलने का पहला उपक्रम बना शिक्षा । जिसमें बदलाव लाये बिना बाकी चीज़ो को बदलना नामुमकिन था इसलिये इसे बदला गया । कम से कम दिल्ली की शिक्षा-पद्दति में सुधार लाने की अच्छी कोशिश की गई हालाँकि उचित तादात में किताबों के ना छपने और समय से उपलब्ध ना हो पाने के कारण शुरुआत में काफी मुश्किलात आई । लेकिन तब भी इन किताबो को पढ़ने के बाद ये आसानी से कहा जा सकता है कि यह समकालीनता को विभिन्न संदर्भों में समझने का बेहतर साधन साबित हुईं हैं जिसकी जरुरत हम अपनी पढाई के दौरान हमेशा महसूस करते रहे । मसलन हमारी किताबों में चाणक्य था उसकी नीति थी , अकबर था उसकी शासन व्यवस्था थी , मुहम्मद तुगलक की बुद्दिमान मूर्खता थी यहाँ तक की भारत का राष्ट्रीय आंदोलन था लेकिन इसके बाद था इतिहास का अंत । यानि इतिहास ५० के दशक तक आते-आते खत्म हो जाता था यही हालत राजनीति विग्यान और अर्थशास्ञ की भी थी । हम लोगों में उस समय इमरजेंसी , नई आर्थिक नीति , ५० के बाद के चुनाव और उन्हें संपन्न कराने में आने वाली दिक्कतें ,व समकालीन साहित्य आदि के बारे में पढ़ने के लिये ग़ज़ब का कौतुहल था । मैं ११वीं में फेल होकर ग्यारहवीं में आया था उस वक़्त तक लाईब्रेरी जैसी जगह से मेरा परिचय तक भी नही था । और स्कूल में जो लाईब्रेरी थी वह टीचर्स के अखबार पढने या गप्पे लड़ाने की जगह के रूप में प्रसिध्द हो चुकी थी हमारा भी एक दिन में एक बार लाईब्रेरी का पीरियड ज़रूर होता , जो हमारी क्लास के बच्चों के लिये दिन का सबसे मस्त पीरियड हुआ करता था क्योंकि ऐसे में उन्हें गप्प लड़ाने को मिलतीं । मेरे जैसे कुछ बच्चे जो रैक्स में बरसो से रखीं किताबो को पढने की इच्छा रखते थे उन्हें हमारे लाईब्रेरियन मि० जटाशंकर या तो धुत्कार देते या ज़्यादा ज़िद करने पर चंपक या फैशन की फटी पुरानी मैग्ज़ीन देकर परे हटने के लिये कहते । लेकिन रिवाइज़्ड किताबें बच्चों को जानकारी मनोरंजन के साथ दे रही है जबकी हमारी तत्कालीन किताबो में माञ जानकारी थी मनोरंजन से वे कोसों दूर थीं ।खैर आज की किताबों मे एक चीज़ जो मुझे सबसे बेहतर लगी वो थी आपदा प्रबंधन । बच्चो का उससे परिचय । इसकी जानकारी । हालाँकि इसका संदर्भ माञ सुनामी ही है । मेरे विचार में हमें इसके संदर्भो को बढाना चाहिये था १४ सितंबर को दिल्ली में हुए धमाके उससे पहले गुजरात और जयपुर । क्या हम इन्हें आपदा नही मानते । दिल्ली के धमाको का चश्मदीद एक बच्चा , एक कांस्टेबल के बम को डिफ्यूज़ करने की खबर(हिंदुस्तान दैनिक) और उसकी बहादुरी के फतवे ।इन सब खबरों को पढकर मुझे लगता है कि आतंकवाद से लड़ाई , बम डिफ्यूज़ करना (११-१२वीं कक्षा में) , संदिग्धता की खबर (१०वी क्लास तक) को भी आपदा प्रबंधन वाली किताबों में शामिल किया जाना चाहिये था।और अगर हम ऐसा नही कर सकते तो कम से कम दिल्ली पुलिस को अपने हर कैडर के अधिकारी,कर्मचारी के लिये इनसे बचने के लिए ट्रेनिंग को अनिवार्य कर देना चाहिये । ऐसा मैं कांस्टेबल वाली खबर के सिलसिले में कह रहा हूँ ।

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