01-01-196१
तुम दुनिया हो। जिसके कोई चेहरा नहीं होता, धुँधली, चटख और मद्धिम पृष्टभूमि के बीच से झाँकता हुआ, अपने 'होने' के अहसास से चमकता हुआ चेहरा....
तुम में वह व्यक्तित्व बोध नहीं है, जो तुम्हें इस घर की आत्मा से जोड़े.......तुम इस घर को कभी महसूस नहीं कर सकतीं, तुम दुनिया हो जिसके कोई चेहरा नहीं होता.......
तुम इसे कभी महसूस नहीं कर पाओगी। क्योंकि तुम दुनिया हो और दुनिया चेहरे नहीं देखती, केवल शोर सुनती है, जितना ही चटख शोर होगा उतना ही वह आकर्षक होगी.......और वह शोर में ही डूब जाती है।
तुम मेरे लिए डूब गयी हो.....
यह कैसा नया वर्ष है जो आज पहले ही दिन अवसाद बनकर मन पर छाता जा रहा है, भीतर तक गड़ता जा रहा है और एक निरर्थकता की भावना मुझे दबोचती जा रही है।......
एक नाम है जो रह-रहकर हवा में उछाल दिया जाता है और नेज़े की तरह मन में चुभ जाता है।जब मैं बहुत-बहुत दुखी होता हूँ तब कितने अपने लगते हो, मेरे शहर। इस छोटे से दिल में बहुत पीड़ा होती है और बहुत से थमे हुए ठिठुरे हुए आँसू, अब तुम कितने अच्छे लगते हो, मेरे शहर।
मैंने अपने और तुम्हारे बीच एक लकीर सी खींच दी है। एक गहरी लकीर। कभी-कभी लगता है संसार की जितनी सुंदर वस्तुएँ हैं सबके बीच वह लकीर उभर आई है-- सो दृश्य और सारे चिञों को वह लकीर काट रही है..... मन कैसा-कैसा होने लगता है। वह लकीर पसीजने लगती है, पर मिटती नही, कभी नहीं मिटती.....
सन्दर्भ:- मलयज की डायरी-२(संपा, नामवर सिंह )संस्करण २०००;वाणी प्रकाशन;दिल्ली-०२
1 टिप्पणी:
बहुत अच्छा लगा पढ़कर. आपका आभार इसे यहाँ प्रस्तुत करने का.
एक टिप्पणी भेजें