मंगलवार, 26 जून 2012

कार्टून विवादः लोकतंत्र पर सवालिया निशान

भारत जैसे देश में जहाँ राजनीति धर्म और जाति की आड़ में होती हो वहाँ पिछला कार्टून प्रकरण एक बहुत बड़ी बात हमारे सामने रखता है। कार्टून खराब है। इसे किसकी भावनाओं को धक्का लगता है। यह बाद का सवाल है पर सबसे पहला और मौजूँ सवाल तो यह है कि इससे देश की संसद के उन सदस्यों की समझ की पोल एक बार फिर खुल गयी है जो किसी भी तर्ज़ पर एक बहसनुमा माहौल के पक्ष में नहीं हैं।  कार्टून का स्कैच कुछ यों है - एक घोंघा जिस पर संविधान लिखा है और जिस पर डॉ. अंबेडकर बैठें हैं उनके हाथ में चाबुक हैं और वो उसे हाँक रहे हैं उन्हीं के बगल में थोड़ा पीछे को जवाहरलाल नेहरू खड़े हैं उनके हाथ में भी चाबुक है। जनता तमाशबीनों में शामिल हैं। इस प्रकरण पर कुछ एक को छोड़कर लगभग सभी पार्टियों का रुख़ साफ है कि ऐसे कार्टून(सिर्फ यही नहीं) जिनमें बाबा साहेब और दलितों को अपमानित किया गया है तुरंत हटा देना चाहिए संसद में ये चीखें बेहद तेज़ी और तल्ख़ी से उठायी जा रहीं हैं मैडम सोनिया डैस्क पीट पीटकर कर ये कहने पर आमादा हैं कि यहीं नहीं बल्कि सभी कार्टूनों को किताबों से हटाओ। मिस्टर सिब्बल हाथ-जोड़ कर माफी मांग रहे हैं। न्यूज़ चैनल इस करबद्धता को दिखाने में व्यस्त हैं। हालत ये है कि जिन किताबों में ये कार्टून है। जिस सलाहकार समिति ने इसे किताबों में रखा हैं। उन्हें देखना उन पर चर्चा करना, अब अपमान समझा जा रहा है। हम ऐसे समय में जी रहें है जब हमारे साथी, हमारे प्रतिनिधी, मंत्री सिर्फ इस डर से कि कहीं उन्हें दलित विरोधी न मान लिया जाए इस प्रकरण पर बात करने से कतरा रहें हैं।

इस कार्टून विवाद पर बात करते वक्त हमें यह जानना होगा कि असल मसला है क्या। और बनाया क्या जा रहा है। यह कार्टून शंकर ने सन् १९४९ में बनाया था जिसे योगेंद्र यादव और सुहास पलसीकर ने ग्यारहवीं की राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तक में संदर्भित मुद्दे के अनुरूप डाला जैसे और कार्टून डाले गये थे। सनद रहे कि ये कार्टून कोई पाँचवी-छठी की किताब में नहीं बल्कि ग्यारहवीं की पुस्तक में दिए गये। हमें ये भी समझना होगा कि क्या ग्यारहवीं कक्षा के छात्रों, अध्यापकों या फिर उस सलाहकार समिति ने इस पर कोई आपत्ति नहीं उठायी थी जिस पर कि राजनीतिक दलों ने हल्ला बोला। बाबा साहेब हमारे लिए आदरणीय हैं और हमेशा रहेंगे। इस मुद्दे को दलित-सवर्ण पॉलिटिक्स का हिस्सा बनाने की अपेक्षा हमें इसे एक अलग स्तर पर समझना होगा। निश्चित ही जिन राजनीतिक दलों ने इस कार्टून को वापस लेने का फतवा जारी किया या जो लोग इसके पक्ष में हैं वे सभी इसे दलित-सवर्ण एंगल से व्याख्यायित कर रहे हैं। लेकिन क्या दलित भाइयों में  कुछ भी ऐसे नहीं हैं जो ये मानते हों कि हमारे देश के भविष्य छात्रों को इस मुद्दे पर अपनी बात रखने हक़ है। और इसी तरह अधयापकों , शिक्षाशास्त्रियों को इस मुद्दें पर बहस में शामिल होने का हक हैं। उसके बाद इसे पाठ्यपुस्तकों में रखने या न रखने का निर्णय लिया जाना चाहिए था पर भारत के इस लोकतंत्र में एक निरंकुश शासन की भाँति फतवा सुनाया गया। क्या लोकतंत्र इसी को कहते है जो सिर्फ भावनाओं में बहकर एक पक्ष की ही सुनकर रह जाए। जैसाकि मैंने कहा कि हालत ये हो गयी है कि कार्टून के पक्षकारों को दलितविरोधी मान लिया गया हैं। मुझे भी समझा जा सकता हैं। लेकिन क्या हम इन्हीं आधारों पर अपने लोकतंत्र को बनाये रख पाएंगे।। आप जानते हैं कि दक्षिण एशिया में सिर्फ दो ही देश है जिनमें अब तक भी लोकतंत्र बरकरार हैं और हम उनमें से एक हैं क्या हमारा देश इतना कमजोर हो गया हैं कि किसी मुद्दे पर बहस की अपेक्षा उसे सिर्फ इसलिए खारिज किया जाए क्योंकि वह एक खास तबके की वोट राजनीति का हिस्सा है। क्या कार्टून को हटाने से दलित भाइयों के साथ न्याय हो सकेगा। हमारा मानना है कि इस देश के छात्रों पर इस तरह के निर्णयों को छोड़ना चाहिए था पर ये काम भी हमारे सांसदों ने अपने हाथ में ले लिया। क्या ग्यारहवीं कक्षा के विद्यार्थियों को आप बिल्कुल नासमझ मान कर चल रहे हैं या आपका विश्वास है कि हमारी शिक्षा पद्धति इतनी सक्षम नहीं कि वह हमारे देश के विद्यार्थियों को इस कार्टून का सही अर्थ समझा सके। दोनों ही सूरतों में सरकार दोषी होगी न कि पाठ्यक्रम बनाने वाले अथवा कोई जाति या वर्ग।
हमें ताज्जुब है कि जिनके बारे में ये फैसला लिया गया उन बच्चों से, उनके अध्यापकों से इस संदर्भ में पूछा ही नहीं गया और तो और योगेंद्र यादव और सुहास पलशिकर को भी खुद को डिफेंड करने का मौक़ा नहीं दिया गया हम कैसा लोकतंत्र बना रहे हैं ये कैसा देश हैं जहाँ एक अध्यापक किसी राज्य की मुख्यमंत्री पर व्यंग्य किए गये कार्टून को ईमेल के जरिए फॉरवर्ड  करता हैं और रात को ही उसे जेल में डाल दिया जाता है। क्या लोकतंत्र पर ही सवालिया निशान नहीं है। कम से कम बाबा साहब ने तो ऐसा लोकतंत्र अथवा संविधान नहीं बनाया था जो भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मुखालफत करता हो या अपनी बात कहने की स्वतंत्रता न देता हो।पर वर्तमान हालातों को देखकर तो लगता है यहाँ सुनना कोई नहीं चाहता सब कहना चाहते हैं। और कहना भी क्या आदेश देना चाहते हैं। योगेंद्र यादव और सुहास पलशिकर ने इस्तीफा दिया पर किसी को कोई आपत्ति नहीं हुई उन्हें अपनी सफाई देने का मौक़ा तक नहीं दिया गया पर किसी को कोई दिक्कत नहीं। दिक्कत हैं तो सिर्फ कार्टून से। क्या आप वाकई मानते हैं कि ऐसे कार्टूनों को इतिहास के गर्भ में दबा देना चाहिए। क्या इतिहास हमारी वर्तमान नस्लों से अपने पुनर्मूल्याँकन की उम्मीद नहीं रखता। हमारी कोशिश यहाँ कार्टून की व्याख्या करने की नहीं है और न ही मैं उसके हटाने या रखने के पक्ष या विपक्ष में रखने के फेर में पड़ना चाह रहा हूँ। हाँ हम ये जरूर चाहते हैं कि ऐसे मुद्दों पर या विषयों पर जो देश के छात्रों उनकी किताबों अथवा पढ़ाई लिखाई से संबंधित हों उन पर उनका रुख जरूर लिया जाए। जिस सलाहकार समिति ने इन कार्टूनों को रखा क्या उनकी राय लेना या वो इन्हें रखने के पक्ष में क्यों है जानना बिल्कुल ज़रूरी नहीं। हम किस तरह के लोकतंत्र को बनाना चाहते हैं क्या ऐसा लोकतंत्र जिसमें सवर्ण सवर्ण नेताओं के और दलित दलित नेताओं के कंठ से अपना कंठ में मिला दे कम से कम बाबा साहेब तो ऐसा बिल्कुल नहीं चाहते होंगे।


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