शनिवार, 1 अप्रैल 2017

OUTCAST- आउटकास्ट की प्रस्तुति और बेहतर हो सकती थी

जाति का प्रश्न जितना जरूरी और मौजूँ है उतना ही विवादित भी। और फिर इस प्रश्न को एक नाटक की शक्ल देते हुए मंच पर प्रदर्शित करना किसी चुनौती से कम नहीं है। यह खूब जोखिमभरा काम है। यह बात खुशी देती है कि युवा निर्देशक इस जोखिम को उठाने को तैयार है। ऐसा ही एक जोखिम रणधीर ने अपने नाटक आउटकास्ट में उठाया है। यह नाटक शरणकुमार लिम्बाले की आत्मकथा अक्कारमाशी पर आधारित है। उन्नीसवें भारंगम की बहुत सारी प्रस्तुतियों से इतर इस प्रस्तुति के लिए दर्शकों का उत्साह एलटीजी सभागार के ठसाठस भरने से लगाया जा सकता था। लेकिन यह बात जानते हुए कि इस नाटक को मेटा अवार् के लिए चुना गया है बेहद खेद के साथ यह बात कह रहा हूँ।
एक बेहतरीन स्क्रिप्ट  और दर्शकों के उत्साहवर्धन के बावजूद रणधीर एक जानदार प्रस्तुति नहीं दे पाते हालाँकि 19वें भारंगम में जब अधिकतर प्रस्तुतियों की हालत बदतर हो तो यह प्रस्तुति खुशी का सबब बन सकती है। पर सच यही है कि प्रस्तुति कई स्तरों पर प्रभाव नहीं छोड़ पाती जहाँ वह प्रभाव छोड़ सकती थी वहाँ भी नहीं।
1.       एकाधिक मौके ऐसे आते हैं जब अभिनेता का उच्चारण और एक्सेंट गड़बड़ा जाता है। कई जगह अभिनेता र और ड़ में गड़बड़ कर गए हैं ऐसा संभवतः बिहार की पृष्ठभूमि के अभिनेता होने की वजह से रहा होगा। लेकिन यही तो चुनौती है कि अभिनेता स्किप्ट के स्थान एवं बोली व भाषा के साथ ही उसके लहज़े का खयाल रखे, और यहीं अभिनेता ऐसा नहीं कर पा रहा है तो निर्देशक का दायित्व है कि वह इसे दुरुस्त करवाए। अन्यथा प्रदर्शन में साधारणीकरण होने की जो बात की जाती रही है वह अवरोध में बदलेगी और एक दर्शक का अभिनीत चरित्र के साथ तारतम्य नहीं बैठ सकेगा।

2.       अक्कारमाशी यानि मेरा जन्मदाता कौन, मेरा पिता कौन के सवाल पर लिखी गई शरणकुमार लिंबाले की एक बेहतरीन आत्मकथा है। जो बाकि जातिगत भेदभाव, दलितों की स्थिति आदि सवालों को उठाते हुए लेखक के बुनियादी सवाल को केंद्र में रखकर लिखी गई है। लेकिन आउटकास्ट की प्रस्तुति में यह सवाल काफी बाद में उभरता है, हालांकि कई बार निर्देशक को यह छूट देनी चाहिए कि वह टैक्स्ट से थोड़ा हटकर अपनी तरह से प्रस्तुति दे, लेकिन यह दारोमदार फिर निर्देशक का ही है कि जो बदलाव वो टैक्स्ट से अपनी प्रस्तुति में कर रहा है उसे वह बुनियादी सवाल से न हटने दे।


3.       एक दर्शक होने के नाते मैं महसूस करता हूँ कि नाट्य प्रस्तुति में बुनियादी तौर पर प्रभाव उत्पन्न करने की क्षमता होनी चाहिए साथ ही यह प्रस्तुति नाटक की कथावस्तु सवालों को समकालीन संदर्भों में देखते हुए हो तो और बेहतर। रणधीर इस बात के लिए निश्चित ही प्रशंसा के हकदार हैं कि वे समकालीन संदर्भों का सहारा लेते हैं। और जिस तरह से वे अपने नाटक का शुभारंभ करते हैं वह उनके एक भावी बेहतर निर्देशक बनने की ओर संकेत करता हैं लेकिन नाटक अपने मध्य में भटकाव महसूस कराता है ऐसा मालूम होता है जैसे निर्देशक समझ न पा रहा हो कि वह कैसे इस नाटक को बांधे और खत्म करे, यह जानते हुए भी नाटक का अंत उसे कब और कैसे करना है।

4.       और हाँ, मैं अभी तक यह नहीं समझ पाया कि नाटक के प्रदर्शन में पानी और झाग का इतना बिखराव क्यों था क्या उसके बिना नाटक अधूरा जान पड़ता। या उसके बिना काम नहीं चल सकता था। या वह नाटक एवं स्क्रिप्ट की डिमांड था। इतना पानी वो भी मंच पर मैंने पहली बार बिखेरते हुए देखा, तालाब और पोखर के दृश्य को दर्शाने के लिए निर्देशक को कुछ और तकनीक का सहारा लेना चाहिए था या फिर सीन के प्रदर्शन के और विकल्पों पर विचार करना चाहिए था।


जब हम किसी कृति खासकर आत्मकथा और उसमें भी दलित आत्मकथा के मंचन के लिए स्क्रिप्ट तैयार करते हैं तो कितना कुछ सोचना पड़ता होगा, एक रचना को स्क्रिप्ट में तब्दील कर मंचित करने में जितना परिश्रम और जोखिम उठाना पड़ता है,  एक अस्मितामूलक रचना को स्क्रिप्ट में तब्दील कर मंचित करने में उससे चौगुना परिश्रम और जोखिम उठाना पड़ता होगा। मैं ऐसी सिर्फ संभावना जता सकता हूँ क्योंकि में सिर्फ मंच के इस तरफ एक दर्शक की भूमिका में हूँ। एक निर्देशक की भूमिका में नहीं। वो मंच के इस ओर भी है, और उस ओर भी, मंच के बीचोबीच भी मौजूद है और अभिनेता की डायलॉग डिलीवरी में भी। वह मंच पर केंद्रित प्रकाश में भी है और उसके सारे साउंड इफैक्ट में भी। कुल मिलाकर वह नरसिम्हा की भूमिका में है। ऐसी भूमिका निभाने वाला निर्देशक जब एक दलित आत्मकथा के मंचन करने का फैसला लेता होगा, तो बहुत कुछ पहले ही सोच लेता होगा, मसलन कई लोग विरोध करेंगे, या फिर कई लोग सिर्फ तालियाँ पीटेंगे। दरअसल कोई भी निर्देशक खालिस तालियों या खालिस प्रशंसा को नहीं ही सुनना  चाहता होगा। रणधीर भी ऐसा नहीं चाहते होंगे। एक दर्शक होने के नाते मैं महसूस कर रहा हूँ कि आउटकास्ट की प्रस्तुति और बेहतर हो सकती थी, निर्देशक में वो दमखम है, बस उसे थोड़ा निखारने की जरूरत है।


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