मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

"वो मेरी जवानी की पैदाइश के दिन .."

वो मेरी जवानी की पैदाइश के दिन थे जब मैंने पहली बार पीछे से उसे देखा था और मैं उसके प्यार में गिर गया था। लोग प्यार में आँखों से दिल में उतरते हैं मैं पीठ से आँखों की तरफ जा रहा था। दिल के बारे में मैंने सोचा ही नहीं।
बस सब दोस्तों की तरह अपनी भी एक बंदी हो, यही था ‘जीवन का एक माञ लक्ष्य।‘ रात में जवानी हिचकौले मारती थी सुबह प्रमाण मिलते थे। वो वाकई मेरी जवानी की पैदाइश के दिन थे जिस दिन हमारे प्री-बोर्ड थे उस दिन पूनम की आँख मुझसे मिल गयी थी और मेरी जबानी पैदा हुई थी उस वक़्त मैं इतना ईमानदार था कि पेपर में आया निबंध ‘मेरे जीवन का लक्ष्य’ मैंने पूरे तीन घंटों तक लिखा था ऐसा पहली बार हुआ था जब मैं पूरे तीन घंटे तक पेपर करता रहा था। दोस्त परेशान थे साला कहता था ‘कुछ नहीं पढ़ा अब कैसा लिखे जा रहा है’ – बाहर मिल बच्चू।


पर मुझे क्या. ‘मेरे जीवन का लक्ष्य’ उन आँखों में था जो आज मिल गयी थी मुझे। मेरी इस नयी नवेली जवानी ने अपनी आँखें अभी मूँद रखी थीं। सपनो में भी पूनम- यह क्या था. ओह पूनम , कम एंड हग मी, आई वान्ना किस यू- आई लब यू। प्यार के नाम पर यही शब्द आते थे मुझे। जो मैंने रात रात भर स्टार मूवीज़ और एच.बी.ओ को देख देखकर सीखे थे। उस दौरान मैं हिंदी फिल्मों को पसंद नहीं करता था और न ही दूरदर्शन को, ये मुझे प्यार के नाम पर दो फूलों को हिलते-मिलते दिखाते थे जबकि मैं कुछ और ज़्यादा की आस(प्यास) लगाये था जो कुछ हद तक अंग्रेज़ी चैनल पूरी करते थे। यह सब क्या था आज बड़ा अजीब सा लगता है। उन रातों में एक अजीब सी बदहवासी थी लेकिन जाने क्यों वो बहुत ईमानदार रातें थीं।


रात की सारी कामुक थकान हम दोस्त लोग बेतकल्लुफी से एक दूसरे से बयाँ करते थे। ‘मेरे सपने में कल पूनम आई थी’ मैंने बंटी को बता दिया था और बंटी ने खुश्क़ी ली थी वाह बेटा तेरी तो निकल पड़ी...। सब हँस पड़े थे और मैं ग्लानिबोध से पीड़ित था। मन ही मन ठान लिया था कि इन सालों को अब कुछ नहीं बताना। ये मेरी नवजात जवानी की किशोरावस्था के दिन थे और साथ ही मेरी ईमानदारी के बेईमान बनने के भी। उस दिन के बाद से मैंने दोस्तों से सपने(पूनम) की बातें शेयर करना बंद कर दिया था। शायद अब मैं जवान बन रहा था। हमारे मोहल्ले में चर्चा था कि सुशील राय का बेटा अब समझदार हो गया है। समझदार क्या, कुछ ज़्यादा ही अंतर्मुखी हो गया था सारा सारा दिन कमरे में लेटा रहता, अंधेरे बंद कमरे में अपने को मज़ा आने लगा। दोस्तों की रंगीनीयत से घिन सी हो गयी थी। रात रात भर नींद नहीं आती थी।
एक रात हमारी सामने वाली पड़ोसन रात तीन बजे पानी भरने उठी तो उसने मुझे जगा पाया। उसे लगा मैं तीन बजे तक पढ़ रहा हूँ। दरअसल वह पहली रात थी जब मैं तीन बजे तक जगा था क्योंकि सुबह बंटी को लोलिता वापिस करनी थी। खैर मेरे रात में पढ़ने की खबर पूरी गली में आग की तरह फैल चुकी थी। घरवाले खुश थे पर मैं दिन ब दिन अपने आप में सिमटता जा रहा था।


मुझे सब याद है उस दौरान हमारी कॉलोनी में लाइट चली जाया करती थी और मैं अंधेरे कमरों में बैठा पूनम को खोजा करता था। मेरा बचपन चार्ली चैप्लिन को देखते बीता था और मेरी जवानी ने डिस्कवरी पर हिटलर को देखा था दोनों प्रेमी थे दीवानगी की हद तक। मैं भी प्रेमी था दीवानगी की हद तक। पर ना तो चैप्लिन बन सकता था और ना ही हिटलर। दोनों की मूँछे(छोटी) थीं और मुझे मूँछें बिल्कुल पसंद ना थीं मैं बिना मूँछों का रहना चाहता था जबकि मूँछें हमारे खानदान की शान हुआ करतीं थीं। दरअसल पूनम को भी मूँछों वाले लड़कों से सख्त नफरत थी। उसका बाप उसे बहुत मारता था। उसका भाई उस पर बंदिशें लगाता था। दोनों की ही मूँछें थीं। उसे मूँछों से सख्त नफरत थी। मैं उसे अपने दिल की रानी मान बैठा था, सो उसकी नफरत से मुझे प्यार कैसे हो सकता था। खैर मैंने प्रतिज्ञा ली कि अब चाहे घर छूटे या माँ रूठे पर मैं ताउम्र मूँछें नहीं रखूँगा।


वो चौदह फरवरी का दिन था जब मैंने पूनम के गालों का स्वाद चखने के लिए उसे पार्क के पीछे मेदिर के पास बुलाया था। मुझे आज भी याद है वो लाल सूट पहनकर, दो चोटी करके और बालो में खूब सारा तेल डाल कर आई थी लेकिन तब भी वो मेरे सपनों की रानी थी मेरे लिए दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की। उसके गाल ऐसे चिकने थे कि हवा उसे छूने से पहले ही रपट जाती थी। आँखें ऐसी कोहिनूरी थीं कि जी करता काश ये दो कंचे मेरे पास होते और फिर मैं अपनी जान लड़ा देता लेकिन इन्हें किसी महारानी के ताज में नहीं सजने देता।


खैर मंदिर के पीछे जहाँ का माहौल बिल्कुल भी रोमेंटिक ना था। मैंने उसे बुलाया। अपने गमले से तोड़ा एक फूल भी मेरे हाथ में था जिसे मैंने छिपाने के लिए अपनी जेब में डाल लिया था। दस मिनट बाद वो आई। वो दस मिनट मुझे आर. के. शर्मा के एक घंटे के पीरियड के समान लगे थे। वो आई और ‘भाई पीछे है हम कल मिलेंगे’ कहकर चली गयी। ना जाने उस दिन मुझे क्या हो गया था मैंने उसका पीछा किया और ये देखकर के पीछे कोई नहीं है उसका हाथ पकड़ लिया। ऐसा लगा जैसे कोई रूई का बंडल हो, वह काँप रही थी। डर से उसके गाल लाल हो गये थे। तब जबरन मैंने उसके गालो को चूमा(चाटा) था और वह भाग गयी थी तब उसी तरह का था मैं। जेब में रखा फूल चपटा होकर बिखर गया था। आज तक वो स्वाद मेरी ज़बान पर रखा है। उस दिन मेरी जवानी वयस्क हो गयी थी और मैंने पहली बार ‘स्मूच कैसे करते है?’ ये सवाल बंटी से पूछा था। बंटी ने मुझे ‘मोरनिंग शो’ दिखाया था। फिल्म का नाम ‘भरी जवानी’ जैसा कुछ था इस ‘मोरनिंग शो’ की बदौलत रात की बदहवासी बेचैनी में बदल गयी थी उन बेचैन रातों में भावी संतानो की हत्या हुई इस ग्लानिबोध को लेकर मेरी सुबह हुई थी।

‘मेरे जीवन लक्ष्य’ की बदौलत मैं फेल हो गया था और दोस्त मेरी खिल्ली उड़ा रहे थे ‘देख लिया गद्दारी का नतीजा।‘ उस दिन मुझे पहली बार लगा था कि दुनिया में दोस्त जैसी कोई चीज़ नहीं होती।

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