गुरुवार, 28 जनवरी 2010

बतूता का जूता - सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

इब्नबतूता पहन के जूता
निकल पड़े तूफान में
थोड़ी हवा नाक में घुस गई
घुस गई थोड़ी कान में


कभी नाक को, कभी कान को
मलते इब्नबतूता
इसी बीच में निकल पड़ा
उनके पैरों का जूता


उड़ते उड़ते जूता उनका
जा पहुँचा जापान में
इब्नबतूता खड़े रह गये
मोची की दुकान में।
सन्दर्भ:- कविता-कोश (www.kavitakosh.org)
गुलज़ार का लिखा 'इश्किया' का गीत 'इब्न-बतूता...जूता...' सर्वेश्वर की कविता का समकालीन संस्करण जान पड़ता है...

1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

आज ही किसी और ब्लॉग पर भी सक्सेना जी की यही कविता देखी. आभार प्रस्तुत करने का!