

तुम्हारे बारे में क्या कहूं मै, मेरी तमन्नाओं का सिला है. नहीं मिला जो तो मुझको क्या है, मिलेगा तुमको ये आसरा है.
कल दीपावली है
कुछ लोग
पटाखे जलाएंगे
कुछ लोग
दिल ।
एक तबका वो होगा
जिसके बंग्लो और कोठियो पर
लड़ियों की जगमगाहट होगी
कीमती मोमबत्तियाँ और दिये जलेंगे
और एक वो
जहाँ शायद चूल्हा भी ना जले।
शराब की
सप्लाई के साथ डिमांड भी बढ़ जाएगी
जुआरियों के लिए
जश्न का दिन होगा कल
ना जाने कितनो की दिवाली होगी
और कितनो का दिवाला निकलेगा ।
घरों में
लक्ष्मी की पूजा होगी
लेकिन बाहर लक्ष्मी,
लक्ष्मी की आस में
लक्ष्मणरेखा पार कर रही होगी ।
ऐसे ही दिवाली मनेगी
हर साल मनती है
मैं पिछले कई सालों से
यही देखता आया हूँ
'दिवाली मुबारक हो' के पोस्टर
चौराहों पर चिपके मिलेंगे
जिसमें बेगै़रत नेता
बदसूरत छवि लिए
हाथ जो़ड़े दिखेंगे ।
जो इन्हीं पोस्टरों के पीछे से कहेंगे
कि
चाहे किसी के पास कुछ हो
या ना हो
भले ही किसी के घर में
आग लगे-चोरी हो
चाहे दिल्ली में कोई
सुरक्षित हो या ना हो
चाहे कहीं पर भी लोग मरें, ब्लास्ट हो
पर सभी को
हमारी तरफ़ से
'दिवाली मुबारक हो ।'
(पुन: प्रकाशित )
अब तो बहुत खुश होगे तुम
बहुत अच्छा लग रहा होगा न तुम्हे
राज ठाकरे के आगे नतमस्तक होके ,
हंसल मेहता की तरह अपमानित नहीं होना पड़ा न तुम्हे?
कालिख नहीं पुतवानी पड़ी न अपने मुँह पर?
बधाई हो।
तुम्हे डर सता रहा होगा न?
डर होगा
कहीं जो हंसल मेहता के साथ हुआ
वही तुम्हारे साथ भी न हो जाए।
'दिल पे मत ले यार' की सीख देने वाले
हंसल मेहता तो पागल थे या कहें बेवकूफ थे
माफ़ी मांगने में आनाकानी जो कर रहे थे
भूल गए थे की................'मुंबई किसकी है?'
पर बधाई हो तुमने याद रखा।
सचमुच कितने बेवकूफ थे हंसल मेहता
मुँह पर कालिख पुतवा कर
सार्वजनिक रूप से अपमानित होकर
पिट-कर
अस्तित्व(जीवन) संकट होने पर
उन्होंने माफ़ी मांगी।
सचमुच आज के समय में कितने बेवकूफ लगते है वो।
लेकिन तुम कितने समझदार,
कितने प्रोफेशनल हो न ?
सीधे माफ़ी ही मांग ली ..........और
'सिड' को जगाने के
लिए खुद आँखे 'मूंद' ली
बधाई हो।
आंखों के छोर से
पता भी नहीं चलता
कब आंसू टपक आता है और तुम कहते हो
मैं सपने देखूं।
तुम देख आए तारे ज़मी पे
तो तुम्हें लगा कि सपने
यूं ही संगीत की थिरकनों के साथ उग आते हैं।
नहीं, ऐसे नहीं उगते सपने।
मैं औरत हूँ।
अकेली हूं।
पत्रकार हूं।
मैं दुनिया भर के सामने फौलादी हो सकती हूं
पर अपने कमरे के शीशे के सामने
मेरा जो सच है,वह सिर्फ मुझे ही दिखता है
और उसी सच में, सच कहूं,सपने कहीं नहीं होते।
तुमसे बरसों मैनें यही मांगा था
मुझे औरत बनाना, आंसू नहीं
तब मैं कहां जानती थी दोनों एक ही हैं।
बस, अब मुझे मत कहो कि मैं देखूं सपने
मैं अकेली ही ठीक हूं
अधूरी, हवा सी भटकती।
पर तुम यह सब नहीं समझोगे
समझ भी नहीं सकते
क्योंकि तुम औरत नहीं हो
तुमने औरत के गर्म
आंसू की छलक
अपनी हथेली पर रखी ही कहां?
अब रहने दो
रहने दो कुछ भी कहना
बस मुझे खुद में छलकने दो और अधूरा ही रहने दो।
(वर्तिका नंदा की अनुमति से प्रकाशित....)