रविवार, 22 जून 2008

कुछ दोस्त ऐसे भी

अभी लगभग चार महीने पहले मैंने एक किताब अपने एक अज़ीज़ दोस्त से मांग कर केंद्रीय पुस्तकालय के भीतर स्थित जेरोक्स वाले को दी और उससे कहा की इसकी एक कॉपी कर दो ,उसने मुझसे कहा की भाईसाहब काम ज्यादा है टाइम लगेगा। आप कल ले लीजिएगा। मैंने कहा ठीक है मै कल आकर ले लूँगा और मै वहाँ से चला गयाअगले दिन मैंने पता करने की कोशिश की, कि मेरी किताब हुई कि नही?लेकिन वहाँ से जवाब मिला कि देखता हूँ वैसे आपकी किताब कौन सी थी?आप कहाँ रख गए थे -उसने पूछा
मशीन पर ही तो रख कर गया था लगभग आधे घंटे तक हमने उसे तलाशने कि कोशिश की लेकिन वह नही मिली ,मेरा अगले दिन सेमीनार था लेकिन दिमाग में ये टेंशन थी कि अगर किताब न मिली तो मै अपने मित्र से क्या कहूँगा? खैर सेमीनार मैंने जैसे तेसे दे दिया लेकिन दिमाग से वो बात निकल ही नही पा रही थी कि मुझसे वेह किताब खो गई। मै फिर से फोटो कॉपी वाले के पास पहुँचा वहाँ सामान फैला हुआ था मेरे पूछने पर उसने बताया कि तब से आप की ही किताब तलाश रहा हूँ लेकिन मिल नही रही उसने मुझे किताब के बदले पैसे की पेशकश भी की लेकिन मै उसे अपना फोन नम्बर देकर चला आया मैंने उससे इतना ही कहा कि यार कम से कम पर्सनल बुक का तो ध्यान रखा करो खैर अगर बुक मिल जाए तो मुझे इस नम्बर पर बता देना। इसके बाद मैंने अपने उस मित्र को जिसकी वो किताब थी सब बता दिया उसे बुरा तो लगा लेकिन उसने मुझसे सिर्फ़ इतना ही कहा ............ तरुण यार ये मेरी बुक नही थी मेरे सर की थी। चल कोई बात नही।
कुछ दिनों बाद मुझे पता चला कि इस किताब कि फोटो कॉपी मेरे क्लास मेट रामचरण पाण्डेय के पास है मैंने उससे इसकी फोटोकॉपी मांगी। उसका चेहरा मुरझा गया उसने मुझसे पुछा कि तरुण तुझे किसने बताया। राजू ने- मैंने कहा। ठीक है मै कल ले आऊंगा ।
अगले दिन जब वह किताब लेकर आया तो मैंने उसे देख कर पहचान लिया मैंने उससे पुछा कि ये किताब तुझे कहा से मिली । तो उसने हंसीहंसी में मुझे बताया कि तरुण ये किताब तो मेरे एक सीनिएर ने library se तपाई है।
इतना कहना था कि मैंने उसे बता दिया कि ये बुक मेरी है मैंने कहा कि यार अपने सेनिएर से कहना कि ऐसा काम ना किया करे ये ठीक नही है और ये किताब मैंने ही फोटोकॉपी वाले को दी थी जहाँ से आपके सेनिएर साहब ने इस हसीं घटना को अंजाम दिया। मैंने उसे ये भी बाते कि ये किताब अजीत की है।
और उसने भी अपने सर से मांग कर मुझे दी थी मैंने जब उससे उसका नाम जानना चाहा तो उसने कहा यार मै तो अजीब मुसीबत में फंस गया हूँ। मतलब । यार तू समझ नही रहा है। तुम तो दिल्ली वाले हो मगर मै तो बाहर से आया हूँ मै उनसे दुश्मनी कैसे ले सकता हूँ ?मैंने कहा इसमे दुश्मनी वाली बात कहाँ से आ गई । तू कम से कम सच का साथ तो दे और अगर कुछ न कर सके तो मुझे उनका नाम तो बता दे । लेकिन उसने manaa कर दिया मुझे इतना बुरा लगा कि क्या कहूं। ये वही लोग है जो हिन्दी ऍम फिल का सेमीनार देते वक्त सत्य ,सामाजिक प्रतिबद्धता ,नैतिकता की बात कर रहे थे। मैंने कहा की आज के बाद प्ल्ज़ तू मुझसे बात मत करियो मुझे शर्म आ रही है कि तुम जैसे लोगो से मै बात कैसे करता था जो लाइब्रेरी कि किताबो कि चोरी किया करते है या उसमे हाथ रखते है । मैंने जब ये बात अजीत को बताई तो उसने कहा साले डी.यूं वाले। और उसके बाद मेरी किसी से कुछ कहने की हिम्मत न हुई । क्यूंकि बदनामी तो मेरी युनिवेर्सिटी कि ही थी ना ?रामचरण पर मुझे बहुत गुस्सा आता है इस बात पर नही कि उसने मुझे उसका नाम नही बताया बल्कि इस बात पर कि उसने मुझे ३-४ महीनो से इसी ताल मटोल में रखा कि मै उनसे बात करूँगा । लेकिन बात के नाम पर वो क्या कर रहा था मुझे समझते देर ना लगी। और मैंने उससे इतना ही कहा ki - तय करो किस ओर हो तुम?

1 टिप्पणी:

आशीष कुमार 'अंशु' ने कहा…

दोस्त यह शुरूआत है,
आगे और भी घाघ लोग मिलेंगे.